|
3.10.10
समस्याएँ विकास का साधन हैं
विश्वगुरु भारत
सांस्कृतिक गौरव
पाश्चात्य विद्वान मैक्सम्यूलर
मैं आप सबको विश्वास दिलाता हूँ कि भारत जैसा कुरुक्षेत्र न तो यूनान है और न इटली ही, न तो मिश्र के पिरामिड ही इतने ज्ञानदायक हैं और न बेबीलोन के राजाप्रासाद ही। यदि हम सच्चे सत्यान्वेषी है, यदि हममे ज्ञानप्राप्ति की भावना है और यदि हम ज्ञान का सच्चा मूल्यांकन करना जानते हैं तो हमें इस तथ्य को मानना ही पड़ेगा कि सहस्राब्दियों से पीड़ित-प्रताड़ित एवं जंजीरों में जकड़े हुए भारत में ही हमारा गुरु बनने की पूर्ण क्षमता है, आवश्यकता है केवल सच्चे हृदय से उस क्षमता को पहचानने की।
यदि हमें इस समस्त धरा पर किसी ऐसे देश की खोज करनी हो, जहाँ प्रकृति ने धन, शक्ति और सौंदर्य का दान मुक्तहस्ता होकर किया हो या दूसरे शब्दों में जिसे प्रकृति ने बनाया ही इसलिए हो कि उसे देखकर स्वर्ग की कल्पना साकार की जा सके तो मैं बिना किसी प्रकार के संशय या हिचकिचाहट के भारत का नाम लूँगा। यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश के मानव-मस्तिष्क ने अपने कुछ सर्वोत्तम गुणों की सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है, जहाँ के विचारकों ने जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक सुंदर समाधान खोज निकाला है तथा इसी कारण वह इस योग्य हो गया है कि कान्ट और प्लाटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुए व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है तो मैं बिना किसी विशेष सोच-विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूँगा। यदि मैं अपने से ही यह पूछना आवश्यक समझूँ कि जिन लोगों का समूचा पालन-पोषण (शारीरिक व मानसिक) यूनानियों एवं रोमनों की विचारधारा के अनुसार हुआ और अब भी हो रहा है तथा जिन्होंने सेमैटिक जातीय यहूदियों से भी बहुत कुछ सीखा है, ऐसे यूरोपीय जनों को यदि आंतरिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने वाली सामग्री की खोज करनी हो, यदि उन्हें अपने जीवन को सच्चे रूप में मानव – जीवन बनाने वाली तथा ब्रह्मांडबंधुत्व (ध्यान रखिये कि मैं केवल विश्वबंधुत्व की बात नहीं कर रहा हूँ) की भावना को साकार बना सकने में समर्थ सामग्री की खोज करनी हो तो किस देश के साहित्य का सहारा लेना चाहिए? तो एक बार फिर मैं भारत की ही ओर इंगित करूँगा, जिसने न केवल इस जीवन को ही सच्चा मानवीय जीवन बनाने का सूत्र खोज निकाला है वरन् परवर्ती जीवन किंचहुना शाश्वत जीवन को भी सुखमय बनाने का सूत्र पा लेने में सफलता प्राप्त कर ली है।
जिन्होंने भारतीयों के प्रति छिः-छिः का भाव दर्शाकर तथा यह कहकर आत्संतोष प्राप्त कर लिया है कि 'भारत में अब कुछ देखने, सुनने, जानने योग्य बाकी नहीं रह गया है', वे मेरी यह बात सुनकर आश्चर्य से स्तब्ध हुए बिना न रह सकेंगे कि जिनको वे लोग 'नेटिव (आदिम) कहकर अपनी घृणा प्रदर्शित करते रहे हैं, उनमें इतनी अर्हता (विशिष्टता) है कि वे यूरोपियनों के गुरु हो सकते हैं। उनको आश्चर्यभिभूत हो जाना पड़ेगा जब वे यह सुनेंगे कि जिन देहाती भारतीयों को ये बाजारों तथा न्यायालयों में नित्यप्रति देखा करते थे, उनके भी जीवन से हमारे यूरोपीय बंधु बहुत कुछ सीख सकते हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
शरीर स्वास्थ्य
निद्रा-विचार
त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वपनो ब्रह्मचर्यमिति।
'आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य शरीर के तीन उपस्तम्भ हैं अर्थात् इनके आधार पर शरीर स्थित है।' (चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 11.35)
इनके युक्तिपूर्वक सेवन से शरीर स्थिर होकर बल-वर्ण से सम्पन्न व पुष्ट होता है।
(आहार विषयक वर्णन गत अंकों में दिया गया है।)
निद्रा की महत्ता का वर्णन करते हुए चरकाचार्य ही कहते हैं-
जब कार्य करते-करते मन थक जाता है एवं इन्द्रियाँ भी थकने के कारण अपने-अपने विषयों से हट जाती हैं, तब मन और इन्द्रियों के विश्रामार्थ मनुष्य सो जाता है। निद्रा से शरीर को सर्वाधिक विश्राम मिलता है। विश्राम से पुनः बल की प्राप्ति होती है। शरीर को टिकाये रखने के लिए जो स्थान आहार का है, वही निद्रा का भी है।
निद्रा के लाभः
सुखपूर्वक निद्रा से शरीर की पुष्टि व आरोग्य, बल एवं शुक्र धातु की वृद्धि होती है। साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ सुचारू रूप से कार्य करती हैं तथा व्यक्ति को पूर्ण आयु-लाभ प्राप्त होता है।
निद्रा उचित समय पर उचित मात्रा में लेनी चाहिए। असमय तथा अधिक मात्रा में शयन करने से अथवा निद्रा का बिल्कुल त्याग कर देने से आरोग्य व आयुष्य का ह्रास होता है। दिन में शयन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है परंतु जो व्यक्ति अधिक अध्ययन, अत्यधिक श्रम करते हैं, धातु-क्षय से क्षीण हो गये हैं, रात्रि जागरण अथवा मुसाफिरों से थके हुए हैं वे तथा बालक, वृद्ध, कृश, दुर्बल व्यक्ति दिन में शयन कर सकते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में रात छोटी होने के कारण व शरीर में वायु का संचय होने के कारण दिन में थोड़ी देर शयन करना हितावह है।
घी व दूध का भरपूर सेवन करनेवाले, स्थूल, कफ प्रकृतिवाले व कफजन्य व्याधियों से पीड़ित व्यक्तियों को सभी ऋतुओं में दिन की निद्रा अत्यंत हानिकारक है।
दिन में सोने से होनेवाली हानियाँ हैं-
दिन में सोने से जठराग्नि मंद हो जाती है। अन्न का ठीक से पाचन न होकर अपाचि रस (आम) बन जाता है, जिससे शरीर में भारीपन, शरीर टूटना, जी मिचलाना, सिरदर्द, हृदय में भारीपन, त्वचारोग आदि लक्ष्ण उत्पन्न होते हैं। तमोगुण बढ़ने से स्मरणशक्ति व बुद्धि का नाश होता है।
अतिनिद्रा दूर करने के उपायः
उपवास, प्राणायाम व व्यायाम करने तथा तामसी आहार (लहसुन, प्याज, मूली, उड़द, बासी व तले हुए पदार्थ आदि) का त्याग करने से आति निद्रा का नाश होता है।
अनिद्रा
कारणः वात व पित्त का प्रकोप, धातुक्षय, मानसिक क्षोभ, चिंता व शोक के कारण सम्यक् नींद नहीं आती।
लक्षणः शरीर मसल दिया हो ऐसी पीड़ा, शरीर व सिर में भारीपन, चक्कर, जँभाइयाँ, अनुत्साह व अजीर्ण ये वायुसंबंधी लक्षण अनिद्रा से उत्पन्न होते हैं।
अनिद्रा दूर करने के उपायः
सिर पर तेल की मालिश, पैर के तलुओं में घी की मालिश,कान में नियमित तेल डालना, संवाहन (अंग दबवाना), घी, दूध (विशेषतः भैंस का) दही व भात का सेवन, सुखकर शय्या व मनोकूल वातावरण से अनिद्रा दूर होकर शीघ्र निद्रा आ जाती है।
सहचर सिद्ध तेल (जो आयुर्वैदिक औषधियों की दुकान पर प्राप्त हो सकेगा। से सिर की मालिश करने से शांत व प्रगाढ़ नींद आती है।
कुछ खास बातें-
कफ व तमोगुण की वृद्धि से नींद अधिक आती है तथा वायु व सत्त्वगुण की वृद्धि से नींद कम होती है।
रात्रि जागरण से वात की वृद्धि होकर शरीर रूक्ष होता है। दिन में सोने से कफ की वृद्धि होकर शरीर में स्निग्धता बढ़ जाती है परंतु बैठे-बैठे थोड़ी सी झपकी लेना रूक्षता व स्निग्धता दोनों को नहीं बढ़ाता व शरीर को विश्राम भी देता है।
सोते समय पूर्व अथवा दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए।
हाथ पैरों को सिकोड़कर, पैरों के पंजों की आँटी (क्रास) करके, सिर के पीछे तथा ऊपर हाथ रखकर व पेट के बल नहीं सोना चाहिए।
सूर्यास्त के दो-ढाई-घंटे पूर्व उठना उत्तम है। सोने से पहले शास्त्राध्यन करके प्रणव (ॐ) का दीर्घ उच्चारण करते हुए सोने से नींद भी उपासना हो जाती है।
निद्रा लाने का मंत्रः
शुद्धे-शुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहा।
इस मंत्र का जप करते हुए सोने से प्रगाढ़ व शांत निद्रा आती है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
God Realization is Pretty Simple...
वीर्यरक्षण ही जीवन है
वीर्य इस शरीररूपी नगर का एक तरह से राजा ही है। यह राजा यदि पुष्ट है, बलवान है तो रोगरूपी शत्रु कभी शरीररूपी नगर पर आक्रमण नहीं करते। जिसका वीर्यरूपी राजा निर्बल है, उस शरीररूपी नगर को कई रोगरूपी शत्रु आकर घेर लेते हैं। इसीलिए कहा गया हैः मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्। 'बिन्दुनाश (वीर्यनाश) ही मृत्यु है और बिन्दुरक्षण ही जीवन है।' जैन ग्रन्थों में अब्रह्मचर्य को पाप बताया गया हैः अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिठ्ठियम्। 'अब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है।'
(दश वैकालिक सूत्रः 6.17)
अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य को उत्कृष्ट व्रत की संज्ञा दी गयी हैः व्रतेषु वै वै ब्रह्मचर्यम्।
ब्रह्मचर्यं परं बलम्। 'ब्रह्मचर्य परम बल है। ऐसा वैद्यकशास्त्र में कहा गया है।
वीर्यरक्षण की महिमा सभी सत्पुरुषों ने गायी है। योगीराज गोरखनाथ ने कहा हैः
कंत गया कूँ कामिनी झूरै।
बिन्दु गया कूँ जोगी।।
पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।
भगवान शंकर ने तो यहाँ तक कह दिया हैः
यस्य प्रसादान्महिमा ममाप्येतादृशो भवेत्।
'इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महानि महिमा हुई है।'
आधुनिक चिकित्सकों का मत
यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते हैं। डॉ. निकोल कहते हैं- "यह एक भैषजिक व दैहिक तथ्य है कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन-तत्त्व बनते हैं। शुद्ध व व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है। यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशिय ऊतकों का निर्माण करने के लिए तैयार होकर पुनः परिसंचरण में हो जाता है। मनुष्य का यह वीर्य ऊर्ध्वगामी होकर शरीर में फैलने पर उसे निर्भीक, बलवान, साहसी तथा वीर बनाता है। यदि इसका अपव्यय किया गया तो यह उसको स्त्रैण दुर्बल कृशकलेवर एवं कामोत्तेजनशील बनाता है तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत एवं स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है और उसे मिर्गी एवं अन्य अनेक रोगों तथा मृत्यु का शिकार बना देता है। जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृत्ति से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है।"
परम धीर एवं अध्यवसायी वैज्ञानिकों के अनुसन्धानों से पता चला है कि जब कभी भी वीर्य को सुरक्षित रखा जाता है तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनः अवशोषण किया जाता है तो वह रक्त को समृद्ध व मस्तिष्क को बलवान बनाता है।
डॉ डिओ लुई कहते हैं- "शारीरिक बल, मानसिक ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिए इस तत्त्व (वीर्य) का संरक्षण परम आवश्यक है।"
डॉ. ई.पी.मिलर लिखते हैं- "शुक्रस्राव का स्वैच्छिक या अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है। यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिए जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है।"
पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। वे हैं- शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे या विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।
उपरोक्त रोगों को मिटाने का एकमात्र इलाज ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य-पालन में निम्न प्रयोग मदद करेंगेः 80 ग्राम आँवला चूर्ण और 20 ग्राम हल्दी चूर्ण का मिश्रण बना लो। सुबह शाम 3-3 ग्राम यह मिश्रण फाँकने से 8-10 दिन में ही उपरोक्त सभी रोगों में चमत्कारिक लाभ होगा। वीर्यरक्षा में इससे मदद मिलेगी और ॐ अर्यमायै नमः। मंत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है। गीता में भी इसके देवता अर्यमा की महिमा है। स्थल-बस्ति भी वीर्यरक्षा में अमोघ उपाय है। लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें। ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा। यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, वात-पित्त-कफजन्य रोग भी दूर होंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
महात्मा गाँधी की सेवानिष्ठा
(महात्मा गाँधी जयंतीः 2 अक्तूबर)
(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
महात्मा गाँधी के पास एक डॉक्टर सेवक था, जो कि विदेश होकर आया था। एक माई बड़ी बीमार थी, वह गाँधी जी के पास आयी। गाँधी जी ने उस डॉक्टर से कहाः "इस गरीब माई को नीम की पत्तियाँ खिलाओ और छाछ पिलाओ, ठीक हो जायेगी।"
डॉक्टर उस माई को इलाज बताकर आ गया। दो-चार घंटे के बाद गाँधी जी ने पूछाः "उस माई को नीम की पत्तियाँ दीं ?"
डॉक्टरः "जी ! ले ली होंगी उसने।"
गाँधी जीः "छाछ पिलायी ?"
डॉक्टरः "हाँ ! पी होगी।"
गाँधी जीः "तो तू डॉक्टर काहे का बना ! पी होगी। वह माई गरीब है, उसने पी कि नहीं पी तुमने जाँच की ? डॉक्टर केवल नब्ज देखकर, दवा लिखकर आ जाय ऐसा नहीं होता। जब तक मरीज ठीक नहीं हो जाता तब उसे क्या-क्या तकलीफें हैं, उन्हें दूर करना इसकी जिम्मेदारी डॉक्टर की होती है।"
गाँधी जी स्वयं उस गरीब महिला के पास गये और उससे पूछाः "माता जी ! तुमने छाछ पी ?"
माई बोलीः "बापू जी ! पैसे नहीं हैं। एक गिलास छाछ के लिए एक पैसा तो चाहिए न ! वह कहाँ से लाऊँ ?"
उस माई की ऐसी गरीब हालत देखकर गाँधी जी को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने डॉक्टर को डाँटते हुए कहाः "तू गाँव से माँगकर या अपने पैसे से खरीदकर एक प्याली छाछ नहीं पिला सकता था !"
गाँधी जी ने उस माई को नीम की पत्ती खिलायी और छाछ पिलायी, जिससे वह एकदम ठीक हो गयी।
गरीबों के प्रति कितना प्रेम, अपनापन, दया व करूणा से भरा था गाँधी जी का हृदय ! तभी तो आज करोड़ों हृदय उन्हें महात्मा के रूप में याद करते हैं।
महात्मा गाँधी की सूझबूझ
एक दिन गाँधी जी रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे। बाहर का दृश्य बड़ा मनोरम था। वे दरवाजे के पास खड़े होकर भारत की प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन कर रहे थे। उसी समय उनके एक पैर की चप्पल रेलगाड़ी से नीचे गिर गयी। गाड़ी तीव्र गति से अपनी मंजिल की तरफ भाग रही थी। गाँधी जी ने बिना एक पल गँवाये दूसरे पैर की चप्पल भी नीचे फेंक दी। उनके साथी ने पूछाः "आपने दूसरे पैर की चप्पल क्यों फेंक दी ?"
गाँधी जी ने कहाः "वह मेरे किस काम की थी ? मैं तो उसे पहन नहीं सकता था और नीचे गिरी चप्पल को पाने वाला भी उसका उपयोग न कर पाता अब दोनों पैर की चप्पल पाने वाला ठीक से उपयोग तो कर सकता है !" प्रश्नकर्ता इस परोपकारिता भरी सूझबूझ से प्रभावित और प्रसन्न हुआ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 28, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तुलसी व तुलसी-माला की महिमा
तुलसीदल एक उत्कृष्ट रसायन है। यह गर्म और त्रिदोषशामक है। रक्तविकार, ज्वर, वायु, खाँसी एवं कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है। सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा, मांस और हड्डियों के रोग दूर होते हैं। काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं। तुलसी की जड़ और पत्ते ज्वर में उपयोगी हैं। वीर्यदोष में इसके बीज उत्तम हैं तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वातपित्त विकार दूर होते हैं, भूख बढ़ती है।
तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव नारदजी से कहते हैं-
पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम्।
तुलसीसंभवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम्।।
'तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।'
(पद्मपुराण, उत्तर खंडः 24.2)
जहाँ तुलसी का समुदाय हो, वहाँ किया हुआ पिण्डदान आदि पितरों के लिए अक्षय होता है।
तुलसी सेवन से शरीर स्वस्थ और सुडौल बनता है। मंदाग्नि, कब्जियत, गैस, अम्लता आदि रोगों के लिए यह रामबाण औषधि सिद्ध हुई है।
गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है, बहुत से रोगों से मुक्ति मिलती है। तुलसी की माला पर भगवन्नाम जप करने से एवं गले में पहनने से आवश्यक एक्युप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव में लाभ होता है, संक्रामक रोगों से रक्षा होती है तथा शरीर स्वास्थ्य में सुधार होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है। तुलसी माला धारण करने से शरीर निर्मल, रोगमुक्त व सात्त्विक बनता है। तुलसी शरीर की विद्युत संरचना को सीधे प्रभावित करती है। इसको धारण करने से शरीर में विद्युतशक्ति का प्रवाह बढ़ता है तथा जीव-कोशों द्वारा धारण करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है।
गले में माला पहने से बिजली की लहरें निकलकर रक्त संचार में रूकावट नहीं आनि देतीं। प्रबल विद्युतशक्ति के कारण धारक के चारों ओर चुम्बकीय मंडल विद्यमान रहता है।
तुलसी की माला पहनने से आवाज सुरीली होती है, गले के रोग नहीं होते, मुखड़ा गोरा, गुलाबी रहता है। हृदय पर झूलने वाली तुलसी माला फेफड़े और हृदय के रोगों से बचाती है। इसे धारण करने वाले के स्वभाव में सात्त्विकता का संचार होता है।
तुलसी की माला धारक के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। कलाई में तुलसी का गजरा पहनने से नब्ज नहीं छूटती, हाथ सुन्न नहीं होता, भुजाओं का बल बढ़ता है। तुलसी की जड़ें कमर में बाँधने से स्त्रियों को, विशेषतः गर्भवती स्त्रियों को लाभ होता है। प्रसव वेदना कम होती है और प्रसूति भी सरलता से हो जाती है। कमर में तुलसी की करधनी पहनने से पक्षाघात नहीं होता, कमर, जिगर, तिल्ली, आमाशय और यौनांग के विकार नहीं होते हैं।
यदि तुलसी की लकड़ी से बनी हुई मालाओं से अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरों के पूजनादि कार्य करे तो वह कोटि गुना फल देने वाला होता है। जो मनुष्य तुलसी की लकड़ी से बनी हुई माला भगवान विष्णु को अर्पित करके पुनः प्रसाद रूप से उसे भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं।
तुलसी दर्शन करने पर सारे पाप-समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, तुलसी लगाने पर भगवान के समीप ले जाती है और भगवद चरणों में चढ़ाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 26, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तुलसी माला की महिमा
एक सत्य घटना
राजस्थान में जयपुर के पास एक इलाका है – लदाणा। पहले वह एक छोटी सी रियासत थी। उसका राजा एक बार शाम के समय बैठा हुआ था। उसका एक मुसलमान नौकर किसी काम से वहाँ आया। राजा की दृष्टि अचानक उसके गले में पड़ी तुलसी की माला पर गयी। राजा ने चकित होकर पूछाः
"क्या बात है, क्या तू हिन्दू बन गया है ?"
"नहीं, हिन्दू नहीं बना हूँ।"
"तो फिर तुलसी की माला क्यों डाल रखी है ?"
"राजासाहब ! तुलसी की माला की बड़ी महिमा है।"
"क्या महिमा है ?"
"राजासाहब ! मैं आपको एक सत्य घटना सुनाता हूँ। एक बार मैं अपने ननिहाल जा रहा था। सूरज ढलने को था। इतने में मुझे दो छाया-पुरुष दिखाई दिये, जिनको हिन्दू लोग यमदूत बोलते हैं। उनकी डरावनी आकृति देखकर मैं घबरा गया। तब उन्होंने कहाः
"तेरी मौत नहीं है। अभी एक युवक किसान बैलगाड़ी भगाता-भगाता आयेगा। यह जो गड्ढा है उसमें उसकी बैलगाड़ी का पहिया फँसेगा और बैलों के कंधे पर रखा जुआ टूट जायेगा। बैलों को प्रेरित करके हम उद्दण्ड बनायेंगे, तब उनमें से जो दायीं ओर का बैल होगा, वह विशेष उद्दण्ड होकर युवक किसान के पेट में अपना सींग घुसा देगा और इसी निमित्त से उसकी मृत्यु हो जायेगी। हम उसी का जीवात्मा लेने आये हैं।"
राजासाहब ! खुदा की कसम, मैंने उन यमदूतों से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि 'यह घटना देखने की मुझे इजाजत मिल जाय।' उन्होंने इजाजत दे दी और मैं दूर एक पेड़ के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में उस कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी दौड़ती हुई आयी और जैसा उन्होंने कहा था ठीक वैसे ही बैलगाड़ी को झटका लगा, बैल उत्तेजित हुए, युवक किसान उन पर नियंत्रण पाने में असफल रहा। बैल धक्का मारते-मारते उसे दूर ले गये और बुरी तरह से उसके पेट में सींग घुसेड़ दिया और वह मर गया।"
राजाः "फिर क्या हुआ ?"
नौकरः "हजूर ! लड़के की मौत के बाद मैं पेड़ की ओट से बाहर आया और दूतों से पूछाः 'इसकी रूह (जीवात्मा) कहाँ है, कैसी है ?"
वे बोलेः 'वह जीव हमारे हाथ नहीं आया। मृत्यु तो जिस निमित्त से थी, हुई किंतु वहाँ हुई जहाँ तुलसी का पौधा था। जहाँ तुलसी होती है वहाँ मृत्यु होने पर जीव भगवान श्रीहरि के धाम में जाता है। पार्षद आकर उसे ले जाते हैं।'
हुजूर ! तबसे मुझे ऐसा हुआ कि मरने के बाद मैं बिहिश्त में जाऊँगा कि दोजख में यह मुझे पता नहीं, इसले तुलसी की माला तो पहन लूँ ताकि कम से कम आपके भगवान नारायण के धाम में जाने का तो मौका मिल ही जायेगा और तभी से मैं तुलसी की माला पहनने लगा।'
कैसी दिव्य महिमा है तुलसी-माला धारण करने की ! इसीलिए हिन्दुओं में किसी का अंत समय उपस्थित होने पर उसके मुख में तुलसी का पत्ता और गंगाजल डाला जाता है, ताकि जीव की सदगति हो जाय।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 27, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
प्रीति और स्मृति
(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
प्रीति और स्मृति में अन्तर है। देखो, जिससे प्रीति होती है उसकी स्मृति सतत बनी रहे यह कोई जरूरी नहीं। बेटे के लिए प्रीति होती है और कामकाज करते हैं तो क्या दिन भर बेटे की स्मृति करते हैं ? गहरी नींद में सो जाते हैं तो मैं कौन हूँ ? कहाँ हूँ ? बेटा कहाँ है ? – ये सब बातें विस्मृति की खाई में चली जाती हैं। फिर भी हृदय की गहरी कंदरा में अपने प्रिय की स्मृति बनी रहती है। सुबह उठे तो कामकाज में लगे लेकिन बेटे का फोन आया या बेटा आ गया तो आपकी प्रीति उभर आती है। स्मृति तो करनी पड़ती है लेकिन प्रीति एक बार हो जाय तो बनी रहती है। तो जिसको अपना मानते हैं उसमें प्रीति स्वाभाविक होती है। बेटे को अपना मानते हैं, वस्तु को अपनी मानते हैं... किसी के जूते पड़े हैं, कुत्ता उन पर पिचकारी लगा रहा है तो उसे हम नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन अपने जूते पर जब कुत्ता पिचकारी लगाने लगता है तो हम हटाते हैं क्योंकि जूता अपना है। तो जो अपनी चीज होती है, अपना जिसको मानते हैं उसमें प्रीति होती है।
मैं आपको हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि आप भगवान को अपना मानिये। वास्तव में भगवान आपके थे, हैं और रहेंगे। शरीर आपका पहले नहीं था, बचपन आपका नहीं था इसीलिए नहीं रहा। बचपन कौन-से दिन चला गया, बताओगे तुम ? जवानी भी आपकी नहीं है, नहीं रहेगी। बुढ़ापा भी आपका नहीं है। शरीर भी आपका नहीं है। आपका हो तो आपके कहने में रहे। आप नहीं चाहते कि यह बीमार हो जाय, नहीं चाहते मर जाय, नहीं चाहते बूढ़ा हो जाय तो भी हो जाता है। तो शरीर माया का है, प्रकृति का है, संसार का है। इसको संसार की सेवा में, कर्तव्य में लगा दो किंतु आपका आत्मा-परमात्मा है। वह एकरस है, नित्य है, सुखस्वरूप है। आपका बचपन असत् था, उसको जानने वाला सत् अभी भी है - 'बचपन में मैं ऐसा था, वैसा था....' वह आपका परमात्मा ज्ञानस्वरूप है। आपकी बुद्धि में ज्ञान उसी से आता है। वह आपका परमात्मा आनंदस्वरूप है इसीलिए हृदय में कभी-कभी प्रेम, खुशी, आनंद आता है। उस परमात्मा को अपना मान लो। जो सत् है, चेतन है, आनंदस्वरूप है, वह मेरा आत्मा-परमात्मा है। जो बदलने वाला है दुःख-सुख, वह मेरा नहीं है। मनुष्य ने यह ठान लिया है कि हमको जो मिलेगा उसको पकड़े रहेंगे। कोई छुड़ायेगा तो हम रोयेंगे। 'यह मिल गया, अब मेरा है। लेकिन यह देखते-देखते सड़ जायेगा, गल जायेगा फिर मुझे रोना पड़ेगा जो आ गया वह आ गया, उसका उपयोग किया परंतु जिसकी सत्ता से आया, जिसको दिखा वह आत्मा चैतन्य मैं हूँ। जो दिखा वह मेरा नहीं है, जो मिला वह मेरा नहीं है किंतु मिला हुआ जिससे दिखा वह सच्चिदानंद प्रभु मेरा है।' – ऐसा चिन्तन करने से आपके दुःख ऐसे मिटेंगे जैसे सूरज उगते ही अंधकार मिट जाता है। आपको दुःख और सुख स्वप्नवत् दिखेंगे और उनको जानने वाला परमेश्वर अपना महसूस होगा। प्रभु ऐसा नहीं कि कहाँ से आयेंगे, घूमकर दर्शन देंगे और चले जायेंगे। वह उपासना के अंतर्गत है, भावना के बल से है, वह प्रभु का अवतार आयेगा, जायेगा किंतु प्रभु तो वास्तव में सर्वत्र, सर्वव्यापक है और आपके आत्मा है। अंतर्यामी प्रभु इधर (हृदय में) होंगे तभी तो बाहर के मंदिर के प्रभु दिखेंगे अथवा आये हुए प्रभु दिखेंगे। आये हुए प्रभु तो चले जायेंगे किंतु जिससे दिखेंगे वे प्रभु कभी नहीं जाते।
तो भगवान में प्रीति बने रहे। प्रीति में स्मृति की शर्त नहीं है। स्मृति जब प्रीति बन जाती है, स्मृति जब अपनत्व दिखाती है फिर स्मृति की भी आवश्यकता नहीं रहती। भगवान कहते हैं-
मत्कर्मकृन्मत्परमो मदभक्तः संगवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
'हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूर्तप्राणियों में वैरभाव से रहित है, वह अनन्य भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।'
(गीताः 11.55)
हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को करने वाला है... माँ से मधुर व्यवहार, पत्नी का पालन अथवा पति की सेवा या बेटों का पालन, ये मुझे सुख देंगे – इस भावना से नहीं अपितु अब संसार में फँसे हैं तो भगवान के निमित कर्तव्य करते हैं – इस भावना से करें। तो भगवान के परायण होकर जो कर्म करता है, भगवान कहते हैं कि वह मेरा भक्त है। जिसके कर्म भगवान के निमित्त हों, जो आसक्तिरहित और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित हो, वह मनुष्य, अनन्य भावयुक्त पुरुष मुझको (भगवान को) ही प्राप्त हो जाता है। एक तो मत्कर्मकृत्। भगवान के लिए कर्म। दूसरा मत्परमः। भगवान का ही भरोसा। भगवान के निमित्त कर्म और भगवान का भरोसा। बुढ़ापे में क्या होगा ? क्या खायेंगे ? अरे, माँ के गर्भ से आये तब उस परमात्मा ने हमारे लिए दूध बना दिया तो बुढ़ापे में भी कुछ-न-कुछ हो जायेगा। क्यों चिन्ता करके मरो !
मुर्दे को प्रभु देत है, कपड़ा लकड़ा आग।
जिंदा नर चिंता करे, ताके बड़े अभाग।।
मदभक्तः.... मेरे में भक्ति। भगवान का मैं अर्थात् जहाँ से मैं-मैं स्फुरता है। मैं, यह, वह सब भूल जाते हैं लेकिन वास्तविक 'मैं' ज्यों का त्यों रहता है। मदभक्तः.... मेरे में भक्ति, मेरे में प्रीति, मेरे में भरोसा तथा दूसरे से ममता नहीं और वैर नहीं। आदमी या तो ममता से फँसता है या तो वैर से फँसता है। भगवान के निमित्त कर्म करने से तो फँसान छूट जाती है।
तो रति भी भगवान में, प्रीति भी भगवान में। भगवान की महत्ता जान के उनको अपना जानें तो उनमें हमारी प्रीति स्वाभाविक है। बिना प्रीति के कोई व्यक्ति रह नहीं सकता। प्रीति जब मूल में (परमात्मा में) नहीं होती और विकारों के द्वारा भटकती है तो वह संसार बन जाती है और प्रीति निर्विकार नारायण के प्रति होकर व्यवहार करते हैं तो प्रीति भक्ति के रूप में चमकती है। भगवान सत्स्वरूप है उससे हमारा अस्तित्व है। भगवान चेतनस्वरूप हैं उससे जीव की बुद्धि में चेतना है और भगवान आनन्दस्वरूप हैं इसीलिए जीवों को किसी-न-किसी के प्रति प्रीति है। अगर जीव वह प्रीति नाम में, रूप में, आकृति में, वस्तु में ही आबद्ध कर लेता है तो संसार में फँसता है किंतु नाम में, रूप में, वस्तु में जिसके आधार से प्रीति होती है उस उदगम स्थान का सुमिरन करता है अथवा उसमें प्रीति करता है तो निर्लेप ब्रह्मज्ञानी संत बन जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
प्रभु पूजा के पुष्प
हर भक्त ईश्वर की, गुरु की पूजा करना चाहता है। इस उद्देश्य से वह धूप, दीप और बाह्य पुष्पों से पूजा की थाली को सजाता है। बाह्य पुष्पों एवं धूप-दीप से पूजा करना तो अच्छा है परंतु इतने से इष्ट या गुरु प्रसन्न नहीं होते। ईश्वर या गुरु की कृपा को शीघ्र पाना हो तो भक्त को अपनी दिलरूपी पूजा की थाली में भक्ति, श्रद्धा, प्रेम, समता, सत्य, संयम, सदाचार, क्षमा, सरलता आदि दैवी सदगुणरूपी पुष्प भी सजाने चाहिए। पवित्र और स्वस्थ मन-मंदिर में मनमोहन की स्थापना करनी हो तो इन पुष्पों की ही आवश्यकता पड़ेगी।
इन फूलों का त्याग करके जो केवल बाह्य फूलों से ही परमात्मा को प्रसन्न करना चाहता है, उस भक्त के हृदय में सच्चिदानन्द भगवान अपने आनंद, माधुर्य, ऐश्वर्य के साथ विराजमान नहीं होते और जहाँ सच्चिदानन्दस्वरूप की प्रतिष्ठा ही न हो वहाँ उनकी पूजा का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है !
इस हकीकत को हृदय में दृढ़ कर लो कि जगत क्षणभंगुर है और हम सब मौत के मुख में बैठे हैं। काल-देवता कब, किस घड़ी किसका ग्रास कर लेंगे इसका पता तक न चलेगा। इसलिए प्रत्येक क्षण सावधान रहो। ईश्वर ने साधन-शक्ति दी है तो दूसरों के सुख का सेतु बनो, किसी के दुःख का कारण तो कभी न बनना। सबका भला चाहो और साथ-साथ सबका भला करो भी। ईश्वर से प्रेम करो और अपने विशुद्ध व्यवहार से आपके स्वामी भगवान, गुरुदेव के प्रति सबको प्रेमभाव जगे ऐसा आचरण करो।
कभी भी हृदय में निराशा को, हताशा को स्थान मत देना और इतना तो पक्का समझना कि दुनिया के सबसे बड़े महापुरुष को ईश्वर ने जितनी शक्ति दी है, उतनी शक्ति तुम्हें भी दी है, फर्क केवल इतना ही है कि उन्होंने जिस निश्चय, विश्वास और साधना से आत्मशक्ति का विकास किया है, वह तुमने नहीं किया है। नहीं तो यदि तुम्हारा दृढ़ निश्चय हो, अविचल विश्वास और नियमित साधना हो तो तुम भी इसी जन्म में ऊँचे-से-ऊँचे ध्येय को सिद्ध कर सकते हो।
अपनी इस अशक्ति को नजर के सामने रखकर तुम उत्साहहीन मत बनाना। तुम शक्तिहीन हो या शक्तिमान किंतु सर्वशक्तिमान प्रभु तो सदा अपने बालकों की सहायता करने के लिए प्रतिक्षण मौजूद हैं। केवल उस शक्ति को पाने के लिए तुम्हारी अपनी तत्परतापूर्वक तैयारी होनी चाहिए।
अतः अपनी पूजा की थाली में कर्तव्य-परायणता, परहित की भावना, शील, संयम, निर्भयता आदि दिव्य सुख प्रदान करने वाले सदगुण अवश्य सजाना। इससे हे मानव ! तेरा कल्याण अवश्य हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 25, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
परिवर्तन नहीं परिमार्जन
(पूज्य बापूजी का सत्संग-वचनामृत) अर्जुन के सामने भगवान श्रीकृष्ण खड़े हैं, फिर भी उनका भय नहीं गया, शोक नहीं गया। जब उसने श्रीकृष्ण का सत्संग सुना और उस अनुसार अपने आत्मा का ज्ञान जगाया तो अर्जुन का भय भी नहीं रहा, शोक भी नहीं रहा, दुःख भी नहीं रहा और युद्ध जैसा घोर कर्म किया किंतु उसके ऊपर बंधन नहीं रहा, मुक्तात्मा हो गया। तो गीता का ज्ञान तुम्हे ऐरी-गैरी चीजों में आसक्ति करके भोगी नहीं बनाना चाहता, ऐरी गैरी परिस्थितियों का गुलाम बनाकर तुम्हें जगत का पिट्ठू नहीं देखना चाहता। लोग क्या करते हैं कि परिवर्तन चाहते हैं। दुःख आया है.... अब दुःख मिटे, सुख आयें। रोग आया है... रोग मिटे, तंदुरूस्ती आये। निंदा आयी है, अभी सराहना आ जाय, परिवर्तन... परिवर्तन करते-करते खुद परिवर्तित होकर मौत के मुँह में चले जाते हैं लेकिन 'गीता' कहती है कि परिवर्तन के चक्कर में मत आओ। दुःख को सुख से दबाओ मत। दुःख की जड़ उखाड़ के फेंक दो। निंदा को प्रशंसा से दबाओ मत, निंदा और प्रशंसा की गहराई में तुम एकरूप हो – ऐसी ज्ञान की समझ जगाओ। बीमारी में और तंदुरुस्ती में तुम एकरस हो। बचपन, जवानी, बुढ़ापा – यह सब बदलता है, फिर भी जो नहीं बदलता वह है तुम्हारा अपना आप, हर परिस्थिति का बाप ! गुरु की कृपा से ऐसे अनुभव की कुंजी पा लो। शब्दों की डींग मत हाँकना। वास्तविक अनुभव में सदगुरु का प्यारा सत्शिष्य ही पहुँच सकता है। अपने जीवन में परिवर्तन की इच्छा मत करो। जैसे यूरोप, अमेरिका, और देश परिवर्तन, परिवर्तन में लगे हैं। नया पैक, नया फैशन, गाड़ी नयी, मॉडल नया, कार्पेट नया, रंग-रोगन नया.. नया, नया, नया... परिवर्तन, परिवर्तन..... यहाँ तक कि पत्नी बदलो, पति बदलो, मकान बदलो.... फिर भी अभागे लोग दुःखी हैं। 'गीता' कहती है प्रकृति के परिवर्तन में मत पड़ो। तुम तो अपनी बुद्धि का परिमार्जन करो। सारे परिवर्तन तुम्हें उलझा रहे हैं। तुम परिवर्तन के आधारस्वरूप परमात्मा में सुलझकर अभी सुखी हो जाओ, अभी निश्चिंत हो जाओ, अभी निर्णय हो जाओ। मर जायेंगे फिर हमें श्मशान में, कब्र में डालकर आयेंगे। कोई पैगम्बर आकर हमारे लिए सिफारिश करेगा, फिर हमें बिहिश्त मिलेगा, अप्सराएँ मिलेंगी, शराब के चश्मे मिलेंगे। यहाँ शराब की बोतल तबाही कर देती है, अपनी पत्नी के सिवाय रावण जैसा भी यदि दूसरे की पत्नी के प्रति बुरी नजर करता है तो उसकी दुर्दशा होती है तो वे अप्सराएँ क्या दे देंगी ! सोचते हैं, 'यहाँ बुढ़िया है, मर जायेंगे तो अप्सराएँ मिलेंगी।' शराब के चश्मे, हूरें और हूरों का विलास तुम्हें नोच लेगा बेटे ! सावधान हो जाओ, ऐसी ख्वाहिश मत करो। इश्क मिजाजी, इश्क इलाही, इश्क नुरानी में अभी लग जाओ। जिसे प्रेमाभक्ति, अनुरागा भक्ति, पराभक्ति भी कहते हैं। मदभक्तिं लभते पराम्। श्रीकृष्ण के वचनों को रहीम खानखाना ने और अकबर की बेगम ताज ने अनुभव किया, मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने, कबीर जी ने और लीलाशाह प्रभुजी ने, राजा जनक ने जो प्रेमाभक्ति का परम स्वाद पाया और बाँटा उसी में तुम आ जाओ। सब दुःखों की एक दवाई, पराभक्ति पा लो भाई। वह प्रभु तुमसे दूर नहीं, तुम उससे दूर नहीं। आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।। तो गीता परिवर्तन नहीं परिमार्जन करती है, समझ बदल देती है परिवर्तन प्रकृति में होगा। यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते। 'हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।' (गीताः 2.15) परमात्मा तो नित्य और एकरस है। जो भी होगा हमारे विकास के लिए होगा। सिनेमा में सुंदर मकान, बगीचे दिखते हैं। हो-हो के चले जाते हैं। जो मूर्ख है, उन्हें रोके रखना चाहता है वह दुःखी होगा। जो अपने ढंग का देखना चाहता है वह भी दुःखी होगा। जो दिख रहा है, दिख रहा है... बदल रहा है, बदल रहा है। जो आता है आने दो, जाता है जाने दो। बनता है बनने दो बिगड़ता है बिगड़ने दो। जो धन मिल गया, मिल गया। जो चला गया, उसके लिए रोते क्यों हो ! जो मान मिल गया मिल गया, चला गया तो चला गया। इसी का नाम तो दुनिया है। खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा। यह नाव दो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।। तो काहे को रोयें ! वाह-वाह ! क्यों न करें ! अपनी बुद्धि में भगवान के ज्ञान का प्रकाश ले आओ। जो बीत गया उसको याद करके शोक मत करो। मैं पहले ऐसा सुखी था, यह दुःख मिला, अभी ऐसा है। नहीं, नहीं, जो बीत गया, अभी हमारे पास नहीं है उसके पीछे क्यों मरें ! भविष्य हमारे पास नहीं है, वर्तमान में आनंदित करो, परिमार्जित करो अपने मन को रसमय जीवन... जिह्वा में भगवदरस में, मन में भगवदरस भरो। मधुर बोलेंगे, सारगर्भित बोलेंगे, स्नेहयुक्त बोलेंगे, गीता के ज्ञान से भरकर वाणी बोलेंगे। हो गया परिमार्जन ! मन में किसी का बुरा नहीं सोचेंगे, किसी का बुरा नहीं चाहेंगे और कोई भी हमारा बुरा करे को वह व्यक्ति सदा के लिए ऐसा नहीं है, ऐसी समझ जाग्रत रखेंग। कोई किसी को दुःख देता है तो दुःख सामने वाले को मिले न मिले, दुःख देने वाले का दिल तो दुःख देने के विचार से गंदा होता है और कोई किसी को सुख देता है या भला करता है तो सामने वाले का कब-कितना भला हो भगवान जानें लेकिन भलाई के विचार से उसका खुद का दिल तो भला होता है न ! जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा यह नियम प्रभु का है। हम मन के चाहे पर अड़ जाते हैं इसीलिए दुःख होता है, तनाव होता है। बच्चा मनचाही चाहता है इसीलिए दुःखी होता है। माँ बच्चे को रगड़-रगड़ के शुद्ध करना चाहती है लेकिन बच्चे को अच्छा नहीं लगता, स्कूल भेजना चाहती है लेकिन अच्छा नहीं लगता फिर भी रोते-रोते भी स्नान तो करना पड़ता है, रोते-रोते भी स्कूल जाना तो पड़ता है। तो आप अपना मनचाहा परिवर्तन मत करो, परिमार्जन होने दो। स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 213 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ |
पपीहे जैसा नियम हो तो प्रभुप्राप्ति इसी जन्म में हो जाय
(जयदयालजी गोयन्दका)
कोई भी मनुष्य यदि दृढ़ निश्चय कर ले कि आज भगवान अवश्य मिलेंगे तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे भगवान आज मिलेंगे। ऐसा निश्चय करना तो अपना काम है। इसमें भगवान की दया को भी निमित्त बना लें। जैसे कोई परम मित्र के पहुँचने का तार आ जाय तो हम उसके स्वागत के लिए कितनी व्यवस्था करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, ऐसे ही प्रभुप्राप्ति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। प्रभु इस बात को जानते हैं कि कौन उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। आज उन्हें सच्चे मन से पुकारेंगे तो आज ही आपसे मिलनि की उन्हें फुर्सत मिल जायेगी।
उसमें दो प्रकार की दशाएँ होती हैं – एक तो आर्तभाव, परम व्याकुलता जैसे मछली को जल से अलग होने पर होती है जड़ तो जड़ है, प्रभु चैतन्य हैं, वे बड़े दयालु हैं। दूसरा भाव प्रेम का है। जैसे मित्र के आने का दृढ़ निश्चय होता है, उसमें प्रसन्नता एवं प्रतीक्षा होती है इसी प्रकार प्रभु में प्रेम होने पर वे अवश्य पहुँच जाते हैं। नियम और प्रेम दोनों रखें। नियम पपीहे का होता है, वह स्वाति की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है। बादल बरसें तब भी उसका नियम नहीं टूटता, प्रेम में कमी नहीं आती। यहाँ तक कि उसके प्राण भी चले जायें, तब भी वह नियम नहीं तोड़ता। इसमें बादल तो जड़ हैं, वैसे ही बरस जाते हैं। प्रभु तो चैतन्य हैं और बड़े दयालु हैं, वे अपने प्रेमी को मरने नहीं देते।
इसी प्रकार हम भी नियम ले लें कि सिवाय प्रभु के और कुछ भी नहीं चाहिए। किसी का चिंतन न करें तो हमें प्रभु अवश्य ही मिलेंगे। 'हमें कैसे मिलेंगे ?' पहले से ही ऐसा विपरीत निश्चय नहीं करना चाहिए। दृढ़ विश्वास होना चाहिए।
कई लोग सोचते हैं कि अमुक महाराज दया कर दें, कह दें तो हमको ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी, भगवान मिल जायेंगे। ऐसी अवस्था में भगवान से मिलने की आवश्यकता ही क्या है, जब किसी के कहने से मिलें।
करोड़ों में कोई एक भगवत्प्राप्त मनुष्य होता है और उनमें भी कोई विरला ही होता है जो भगवान को मिला सके। कोई कहे कि भगवत्प्राप्त पुरुष मार्ग तो बतला सकते हैं। यह ठीक है तो फिर लोग इतने अच्छे मार्ग पर क्यों नहीं चलते ? इसका उत्तर यही है कि इस विषय में उन्हें विश्वास नहीं है। इसी कारण समस्त संसार की यह दशा हो रही है।
बात रही महापुरुष की दया की, भगवान की दया की वह तो सतत रहती ही है। फिर भी काम नहीं होता तो यह मानना पड़ेगा कि हमें उनकी दया में विश्वास नहीं है। हमने उनकी दया को माना नहीं है, बात वास्तव में यही है।
गजेन्द्र, द्रौपदी आदि ने विश्वास से भगवान को बुलाया तो भगवान इनके पास अतिशीघ्र पहुँच गये। यद्यपि इनको दुःख-निवारण की ही आवश्यकता थी।
केवल भगवान से मिलने के लिए भगवान को चाहे तो वह तो बात ही कुछ और होती है। ऐसे भक्त से शीघ्र मिलने की भगवान की भी इच्छा हो जाती है, इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि प्रभु की इच्छा तो पूरी होगी ही। हमारी इच्छा पूरी हो इसमें हम लाचार हैं, पर प्रभु की इच्छा पूरी न हो ऐसा नहीं हो सकता।
जब हमारी इच्छा केवल और केवल उनसे मिलने की हो जायेगी तो सारा भार भगवान पर आ जायेगा और ऐसे प्रेमी भक्त के वश होकर भगवान उससे मिल जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 17,19 अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
लालबहादुर ही क्यों ?
(लालबहादुर शास्त्री जयंतीः 2 अक्टूबर)
लालबहादुर शास्त्री जी के बाल्यकाल की एक घटना है। एक दिन वे सोचने लगे कि परिवार में सभी लोगों का नाम प्रसाद व लाल पर है लेकिन माँ ने मेरा नाम 'बहादुर' क्यों रखा।
बालक माँ के पास गया और बोलाः "माँ ! मेरा नाम लालबहादुर क्यों रखा है, जबकि हमारे यहाँ तो किसी का नाम बहादुर पर नहीं है ? अपने रिश्तेदारों में भी तो सभी लाल या प्रसाद हैं, फिर मेरा नाम इतना खराब क्यों है ? मुझे यह नाम अच्छा नहीं लगता।"
पास ही बैठे उनके मामा ने कहाः "क्यों नहीं है, देखो इलाहाबाद के नामी वकील है तेज बहादुर।"
तभी माँ रामदुलारी देवी हँसी और बोलीं- "नन्हें का नाम 'वकील बहादुर' बनने के लिए तुम्हारे जीजा जी ने नहीं रखा है बल्कि उन्होंने 'कलम बहादुर' बनाने के लिए और मैंने अपने नन्हें को 'करम बहादुर' बनाने के लिए इसका नाम लालबहादुर रखा है। मेरा लाल 'बहादुर' बनेगा अपनी हिम्मत व साहस का....।"
और इतना कहते-कहते उनकी आँखें डबडबा आयीं। पति की स्मृति उनके मानस-पटल पर आ गयी। उन्होंने अपने 'लाल बहादुरि' को गोद में बैठाकर अनेकानेक आशीष दे डाले। ये ही आशीर्वाद जेल-जीवन की यातनाओं तथा पारिवारिक समस्याओं में उनका साहस बढ़ाते रहे। माता के आशीर्वाद फलीभूत हुए और इतिहास साक्षी है कि वे सहनशीलता, शालीनता, विनम्रता और हिम्मत में कितने बहादुर हुए। उनका धैर्य, साहस, संतोष तथा त्याग असीम था।
बाल्यावस्था बहुत नाजुक अवस्था होती है, इसमें बच्चों को आप जैसा बनाना चाहते हैं, वे वैसे बन जायेंगे। आवश्यकता है तो बस अच्छे संस्कारों के सिंचन की।
लालबहादुर एक बार बालमित्रों के साथ मेला देखने जा रहे थे। उनके पास नाविक को देने के लिए पैसे नहीं थे। स्वाभिमान के धनी 'लाल' यह बात किसी को कैसे बताते ! वे गंगा जी की वेगवती धारा में कूद पड़े और तैरकर ही उस पार पहुँच गये।
एक बार लालबहादुर शास्त्री इलाहाबाद की नैनी जेल में थे। घर पर उनकी बेटी पुष्पा बीमार थी और गम्भीर हालत में थी। साथियों ने उन पर दबाव डाला कि 'आप घर जाकर बेटी की देखभाल करें।' वे राजी भी हो गये। उनका पेरोल भी मंजूर हो गया परंतु उन्होंने उस पेरोल पर छूटने से मना कर दिया क्योंकि उसके अनुसार उन्हें यह लिखकर देना था कि वे जेल के बाहर आन्दोलन के समर्थन में कुछ न करेंगे। उधर बेटी जीवन और मौत की लहरों में गोते खाने लगी, इधर शास्त्री जी अपने स्वाभिमान पर दृढ़ थे। आखिर जिलाधीश इनकी नैतिक, चारित्रिक दृढ़ता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इन्हें बिना किसी शर्त के मुक्त कर दिया।
शास्त्रीजी घर पहुँचे पर उसी दिन बेटी ने शरीर छोड़ दिया। शास्त्री जी अग्नि संस्कार करके लौटे। घर के भीतर किसी से मिलने भी नहीं गये, सामान उठाकर ताँगे में बैठ गये। लोगों ने बहुत कहाः ''अभी तो पेरोल बहुत बाकी है।" शास्त्री जी ने उत्तर दियाः "मैं जिस कार्य के लिए पेरोल पर छूटा था, वह खत्म हो गया है। अतः सिद्धान्ततः अब मुझे जेल जाना चाहिए।" और वे जेल चले गये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जीवन-संजीवनी
(श्री परमहंस अवतारजी महाराज)
भोजन सत्त्वगुणी, हलका और कम खाओ तो श्वास सरलता से चलेंगे और भजन में सहयोग प्राप्त होगा।
शारीरिक रोग अथवा कष्ट तो गुरुमुख पर भी आते हैं लेकिन वह मालिक (ईश्वर) के नाम में इतना लवलीन रहता है कि उसे दुःखों का आभास ही नहीं होता।
गुरुमति का मूल्य है मनमति का त्याग। इसके बिना भक्तिमार्ग में सफलता प्राप्त करना असम्भव है।
किसी की भी निंदा न करो क्योंकि उससे तुम्हारी भी हानि होगी। तुम्हारे सब शुभ कर्मों का फल उसके पास चला जायेगा। जिसकी तुम निंदा कर रहे हो।
जिस सेवक का सदगुरु के चरणों में प्रेम है वह नाम का अभ्यास करे। नाम का अर्थ है 'मैं' नहीं हूँ। संतों का फरमान है कि भगवान को अहंकार नहीं सुहाता। जहाँ नाम होगा वहाँ अहंकार नहीं होगा। सेवक को अपनी सुरति नाम से ऐसी जोड़नी चाहिए कि केवल 'तू-ही-तू' रह जायि और 'मैं-मैं' भूल जाय, इसी को कहते हैं सच्चा प्रेम।
आत्मिक लाभ-हानि की पूर्ण जानकारी सदगुरु को होती है। जीव की प्रायः यही दशा होती है कि थोड़ा भजन या सेवा करके स्वयं को कुछ समझने लगता है, इसलिए हानि की ओर जाता है और समझता यही है कि मैं लाभ की ओर जा रहा हूँ। यदि हृदय में दीनता धारण करोगे तो सुरक्षित रहोगे।
जिसको प्रभुप्राप्ति की अभिलाषा हो, उसे अन्य सभी इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए।
यदि स्वयं को प्रेम-रंग में रँगना चाहते हो तो पहले मोह-ममता की मैल को सत्संगरूपी सरोवर पर जाकर धोओ।
सुमिरन में महान शक्ति है। जैसे लोहा लोहे से काटा जाता है, उसी प्रकार नाम के सुमिरन से अन्य सभी मायावी विचारों को काट दो।
घण्टे दो घण्टे तीन घण्टे भजन नियम करके शेष समय सेवा, सत्संग, स्वाध्याय में अपने मन को लगाकर मालिक से दिल का तार जोड़े रखोगे तो आत्मिक शांति बनी रहेगी।
जिस मनरूपी शत्रु ने कई जन्मों ने तुम्हें धोखा दिया है, उस पर विश्वास न करो। गुरु शब्द पर दृढ़ विश्वास करके उस पर विजय प्राप्त कर लो।
जो बीती सो बीती, शेष श्वास मालिक को अर्पण करो।
शांति के अमृत से जीवन को मधुर बनाओ।
जैसे परीक्षा के दिन निकट आने पर बालक अधिक पढ़ाई करते हैं, वैसे ही सेवक को भी चाहिए कि जैसे-जैसे जीवन के दिन व्यतीत होते जायें, वैसे-वैसे अभ्यास के लिए समय और पुरुषार्थ बढ़ाता चले।
मन का सुमिरन करने का स्वभाव तो है ही, फिर क्यों न उससे लाभ उठाया जाय। जैसे चलती हुई रेल का काँटा बदलने से रेल एक ओर से दूसरी ओर चली जाती है, इसी प्रकार मन के सुमिरन का काँटा विषय-विकारों से बदल कर नाम-सुमिरन में लगाया जायेगा तो चौरासी से बचकर परम पद को प्राप्त करोगे।
पूर्ण एकाग्रता से सुमिरन करो तो अथाह शक्ति उपलब्ध होगी। सासांरिक दुःख आपके सम्मुख ठहर ही नहीं सकेंगे।
सदैव प्रसन्न रहने का प्रयत्न करो। प्रसन्नता सदा सत्पुरुषों का संगति से ही मिलती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 11, अंक 213
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सदस्यता लें
संदेश (Atom)