27.9.11

यह तो गुरु का अधिकार है !



(ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापूजी की परम हितकारी अमृतवाणी)
एक बड़ा भारी पंडित था, वामन पंडित। वह दिग्विजय की मशाल लेकर घूमा। जो भी उससे शास्त्रार्थ करे, उसको परास्त कर देता। चलते-चलते थकान के कारण एक वृक्ष के नीचे बैठा। संध्या का समय था। उस वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस रहता था। दूसरा ब्रह्मराक्षस बैठने को आया तो पहले वाला बोलाः "ऐ ! हट जा, हट जा।"
दूसरा बोलाः "बैठने की जगह तो है और तू भी ब्रह्मराक्षस, मैं भी ब्रह्मराक्षस, फिर मुझे क्यों हटाता है भैया ?"
"अरे, तेरे को पता नहीं है। यह पंडित मरकर इधर आयेगा, ब्रह्मराक्षस होकर यहाँ रहेगा। यह उसकी जगह है।"
"क्यों ?"
"वह शास्त्रार्थ करके दूसरों को नीचा दिखाता है, अपने अहं को पोसता है। शास्त्र तो अच्छे हैं लेकिन उसने अहं पोसने का रास्ता अपनाया है। अहं पोसने के लिए जो धर्म का उपयोग करता है, वह ब्रह्मराक्षस होने के ही काबिल है न ! उसका स्थान यहीं है।"
पंडित वृक्ष के नीचे संध्या कर रहा था। उसकी कुछ पुण्याई होगी, संध्या का कुछ प्रभाव होगा। इन दोनों का संवाद वामन पंडित ने सुन लिया। उसने सोचा, "बाप रे ! मैं इतना भारी पंडित, मेरे नाम से सारे विद्वान कन्नी काटते हैं, और मैं मरूँगा तो ब्रह्मराक्षस होऊँगा ! जिसको विद्या का गर्व होता है वही तो ब्रह्म राक्षस होता है! क्या मेरा विद्या का गर्व मुझे ब्रह्मराक्षस की योनि में ले जायेगा !"
इसी भक्तिमार्ग में "मैं" को झुकाने के लिए पत्थर की मूर्ति के आगे भी लेटकर प्रणाम करना होता है। इस 'मैं' को ही मिटाने की यह व्यवस्था है, नहीं तो मूर्ति को तुम्हारे सिर झुकाने से क्या लेना है !
संध्याकाल में सुषुम्ना नाड़ी खुली रहती है। संध्याकाल कल्याणकारी कालों में से है। चार संध्याकाल होते हैं। सुबह सूर्योदय नहीं हुआ हो पर होने वाला हो और चन्द्रमा दिखाई देने बंद हुए हों तब संधिकाल होता है, वह मंत्र सिद्धि का योग है। उस समय देवता तो सोते हैं, देवता माने इन्द्रियों का आकर्षण सोता है और मंत्र देवता जाग्रत होते हैं। वह आपका शुभ संकल्प फलने की अवस्था होती है। दूसरा दोपहर को 12 बजने के कुछ मिनट पहले और कुछ मिनट बाद संधिकाल होता है। तीसरा सूर्य अस्ताचल को नहीं लेकिन सूर्य का प्रकाश दिन जैसा नहीं रहा, कुछ लालिमा रही। सूर्य जब विदा हो रहें वह संधिकाल है। चौथा रात्रि को 12 बजे संधिकाल होता है। इन संधिकालों को चतुर्मास में जो संभाल लें और ध्यान भजन करें, उसके ध्यान-भजन में विशेष सफलता, बरकत आदि की सम्भावना है।
अब उस पंडित के लिए चतुर्मास था कि कौन-सा मास था लेकिन पंडितक की वह वेला धनभागी वेला थी। जिस वेला में किसी के निमित्त आदमी का अहंकार विसर्जित हो, ममता विसर्जित हो, भगवान की प्रीति जगे, भगवान की शरण जाय, वह धनभागी घड़ियाँ होती हैं।
वामन पंडित ने सभी विजयपत्र फाड़ दिये, सारे शास्त्र वहीं विसर्जित कर दिये और हिमालय को चला गया। मैं वामन पंडित को खूब-खूब धन्यवाद दूँगा। ब्रह्मराक्षसों की बात सुनकर सर्वस्व त्यागने का कैसा सामर्थ्य था ! मनुष्य के पास यह बहुत बड़ी ईश्वरीय देन है – सर्वत्याग का सामर्थ्य। मौत तो सर्वत्याग करा देगी, जीते जी सर्वस्व-त्याग का सामर्थ्य बना रहे तो सर्व जिसका है, वह सर्वेश्वर आपका आत्मदेव है, वह प्रकट हो जायेगा।
त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्। (गीताः 12.12)
वामन पंडित ने वर्षों तपस्या की लेकिन भगवान प्रकट नहीं हुए और न तत्त्वरूप से ही अनुभव हुआ। तो उन्होंने सोचा कि 'इतना-इतना किया, कुछ नहीं हो रहा है तो अब जीकर क्या करेंगे ! इस अहंकारी शरीर को जिलाकर क्या करना !' ऐसा सोचकर पहाड़ की चोटी पर चढ़े और 'जय श्रीहरि' करके नीचे कूदने को गये। हरि तो हरि हैं। मेरे गुरु भी हरि हैं, हरि गुरु हैं। सर्वदेवमयो गुरुः। 'गु''''',....'गु' माने सिद्धिदायक बीज, 'रू', माने अज्ञान हटाने वाले, उर में प्रकट होने वाले। भगवान का एक नाम 'गुरु' भी है। गुरु प्रकट हुए, हरि प्रकट हुए। हरि, गुरु – ये सब एक ही सदवस्तु के भिन्न-भिन्न नाम हैं। ईश्वर तो अंतरात्मा हैं, बाहर प्रकट होकर हाथों में ले लिया और वामन पंडित को रोक दिया। अपना बायाँ हाथ सिर पर रखकर बोलेः "वामन पंडित ! तेरा मंगल हो।"
"भगवान ! आप इतनी तपस्या और इतनी कसौटी के बाद मिले लेकिन फिर भी... शास्त्र ने तो कहा है कि दायाँ हाथ सिर पर रखते हैं, आपने बायाँ क्यों रखा?"
"अरे वामन ! तू इतना विद्वान होकर यह नहीं जानता कि सिर पर दायाँ हाथ रखना गुरु का अधिकार है, भगवान का नहीं। जब तक सिर पर गुरु का दायाँ हाथ नहीं आता, तब तक यात्रा पूरी नहीं होती।"
अब जरूरी नहीं है कि गुरु अपना दायाँ हाथ ऐसे ही रखें, मानसिक रूप से भी रख सकते हैं, दृष्टि से भी होता, वह तो गुरु जानते हैं।
"भगवान ! आपने गुरु के अधिकार की सुरक्षा करने के लिए मेरे सिर पर अपना दायाँ हाथ न रखकर बायाँ हाथ रखा ?"
"हाँ।"
"तो क्या गुरु का अधिकार आपसे भी बड़ा है ?"
"बड़ा है, मैं अवतार लेकर भी गुरु के शरणागत होता हूँ। गुरु तो गुरु ही हैं। वामन पंडित ! जब तक गुरु का ज्ञान नहीं मिलता, तब तक मेरा मायावी रूप दिखता है। वह बुलाने पर प्रकट होता है और बाद में अंतर्धान हो जाता है। कभी किसी निमित्त प्रकट हुआ थोड़ी देर के लिए, फिर अदृश्य हो जाता है लेकिन गुरु तो....।"
"दायाँ हाथ सिर पर रखने वाले गुरु मुझे कहाँ मिलेंगे ?"
"वामन ! सज्जनगढ़ में मिलेंगे।"
"अच्छा, समर्थ रामदास !"
प्रभु को प्रणाम किया। प्रभु तो अंतर्धान हो गये और ये भाई साहब पहुँचे महाराष्ट्र के सज्जनगढ़ में। समर्थ रामदास की स्तुति की। रामदास प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना दायाँ हाथ पीठ पर रखा और बोलेः "वाह ! वाह ! आ गये, अपने घर आ गये, ठीक ! अपना अहंकार छोड़ने के लिए इतनी तपस्या की और भगवान ने तुम्हें दर्शन दिया, फिर इधर भेजा है, शाबाश !"
पंडित बोलाः "गुरुदेव ! आपने दायाँ हाथ तो रखा है लेकिन सिर पर क्यों नहीं रखते ?"
"अरे पगले ! सिर पर तो नारायण ने अपना बायाँ हाथ रख दिया न !"
"फिर आप दायाँ हाथ क्यों नहीं रखते ?"
"अरे, नारायण का बायाँ भी नारायण का है और दायाँ भी नारायण का है। जब नारायण ने रख दिया तो यहाँ भी तो नारायण है। सब नारायण ही नारायण है। नारायण में से समर्थ रामदास है।" दो वचन सुना दिये। वामन पंडित अहंकाररहित हो गये, आत्मजागृति हो गयी, ब्राह्मी स्थिति हो गयी। क्या महापुरुषों की कृपा और क्या सामर्थ्य है ! वामन पंडिति गदगद हो गये कि 'मेरे सारे शास्त्र और सारी तपस्या गुरुकृपा के आगे बहुत छोटी हो गयी।'
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शरद-ऋतुचर्या



(शरद ऋतुः 23 अगस्त से 22 अक्तूबर)
वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आती है। वर्षा ऋतु में प्राकृतिक रूप से संचित पित्तदोष शरद ऋतु में प्रकुपित होता है, जठराग्नि मंद हो जाती है। परिणामस्वरूप बुखार, पेचिश, उलटी, दस्त, मलेरिया आदि रोग होते हैं। अतः इन दिनों में ऐसा आहार एवं औषधि लेनी चाहिए जो पित्त का शमन करे।
आहारः पित्तदोष के शमन के लिए मीठे, कड़वे एवं कसैले रस का उपयोग विशेष रूप से करना चाहिए। सब्जियों में कुम्हड़ा (पेठा), लौकी, करेला, परवल, तोरई, गिल्की, गोभी, कंकोड़ा, पालक, चौलाई, गाजर, कच्ची ककड़ी, फलों में अनार, आँवला, पके केले, अमरूद (जामफल) मोसम्बी, नींबू, नारियल, ताजे अंजीर, पका पपीता, अंगूर, मक्के का भुट्टा, सूखे मेवों में चारोली, पिस्ता तथा मसालों में जीरा, धनिया, इलायची, हल्दी, सौंफ लिये जा सकते हं।
इसके अलावा दूध, घी, मक्खन, मिश्री नारियल का तेल तथा अरण्डी का तेल बहुत लाभदायी है। तेल की जगह गाय के देशी घी का उपयोग उत्तम है। घी व दूध उत्तम पित्तशामक है, अतः इनका उपयोग विशेष रूप से करना चाहिए।
शरद ऋतु में खीर खाना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। श्राद्ध के दिनों में 16 दिन तक दूध, चावल एवं खील का सेवन पित्त शामक है। शरद पूनम की शीतल रात्रि में छत पर चन्द्रमा की किरणों में रखी हुई दूध-चावल की खीर सर्वप्रिय, पित्तशामक, शीतल एवं सात्त्विक आहार है।
पके केले में घी और इलायची डालकर खाने से लाभ होता है। गन्ने का रस एवं नारियल का पानी खूब फायदेमंद है। काली द्राक्ष(मुनक्का), सौंफ एवं धनिया मिलाकर बनाया गया पेय गर्मी का शमन करता है।
इस ऋतु में पित्तदोष का प्रकोप करने वाली खट्टी, खारी(नमकीन) एवं तीखी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। भरपेट भोजन, दिन की निद्रा, बर्फ, दही, खट्टी छाछ व तले हुए पदार्थों का सेवन न करें। गुलकंद व मीठे सेब का उपयोग तथा बायें नथुने से श्वास लेकर दायें से छोड़ना – ऐसा एक से पच्चीस बार दिन में दो बार करना गर्मी-शमन में वरदानरूप है।
बाजरा, उड़द, कुलथी, अरहर(तुअर), चौलाई, मिर्च, लहसुन, अदरक, बैंगन, टमाटर, इमली, हींग, तिल, मूँगफली, सरसों आदि पित्तकारक होने से त्याज्य हैं।
अगर पित्त विकार होता हो तो पित्त के शमनार्थ आँवला चूर्ण, अविपत्तिकरचूर्ण अथवा त्रिफला चूर्ण लेना चाहिए। आँवला और मिश्री के मिश्रण से बनाया गया आश्रम-निर्मित आँवला चूर्ण शरद ऋतु में अत्यन्त लाभदायी है। यह बढ़े हुए पित्त को मल के साथ बाहर निकाल कर शीतलता, ताजगी, स्फूर्ति व बल प्रदान करता है। ताजे आँवलों से बनाया गया 'संत च्यवनप्राश' (आश्रम के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध) भी पित्त के शमन तथा रोगप्रतिकारक शक्ति को बढ़ाने के लिए श्रेष्ठ औषधि है।
ऋतुजन्य विकारों से बचने के लिए अन्य दवाइयों पर खर्च करने की अपेक्षा आँवला, धनिया और सौंफ के समभाग मिश्रण में उतनी ही मिश्री मिलाकर एक चम्मच चूर्ण भोजन के आधे घंटे बाद पानी के साथ लेना हितकर है।
इस ऋतु में जुलाब लेने से शरीर से पित्त दोष निकल जाता है। जुलाब के लिए हरड़ उत्तम औषधि है। शरद ऋतु में हरड़ में समभाग मिश्री मिलाकर सेवन करना चाहिए।
विहारः इन दिनों में रात्रि जागरण, रात्रि भ्रमण अच्छा होता है, इसीलिए नवरात्रियों में रात को कीर्तन-भजन (जागरण) आदि का आयोजन किया जाता है। रात्रि जागरण 12 बजे तक का ही माना जाता है। अधिक जागरण से और सुबह व दोपहर को सोने से त्रिदोष प्रकुपित होते हैं, जिससे स्वास्थ्य बिगड़ता है।
शरद पूनम की रात्रि को जागरण, भ्रमण, मनोरंजन आदि को आयुर्वेद ने उत्तम पित्तनाशक विहार के रूप में स्वीकार किया है। इस रात्रि में ध्यान, भजन, सत्संग, कीर्तन, चन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
श्राद्ध के दिनों में एवं नवरात्रि में पितृपूजन हेतु संयमी रहना चाहिए। कड़क ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। 'दिव्य प्रेरणा प्रकाश' पुस्तक के नियमित अध्ययन से ब्रह्मचर्य में मदद मिलेगी।
स्वास्थ्य रक्षा के कुछ सरल प्रयोगः
अतिसारः जामुन के 25-30 कोमल पत्ते पाँच बताशों के साथ पीसकर उसका रस पिलाने से अतिसार तुरंत ठीक हो जाता है।
अश्मरी (पथरी)- 25 ग्राम सहजन की जड़ की छाल को 250 ग्राम पानी में उबालें और छान लें। थोड़ा गर्म रहने पर पिलायें। कैसी भी पथरी क्यों न हो, कट-कटकर निकल जाती है।
आरोग्याम्बुः एक लिटर पानी को इतना उबालें कि 250 ग्राम शेष रह जाये, इसे आरोग्याम्बु कहते हैं। इसे पीने से खाँसी, दमा और कफ के रोग दूर होते हैं। बुखार शीघ्र उतर जाता है। यह भूख लगाता है। खायी हुई वस्तु शीघ्र पच जाती है। बवासीर, पाण्डुरोग, वायुगोला और हाथ-पैरों के शोथ को दूर करता है। इस प्रकार के जल का सदा प्रयोग किया जाय तो रोग उत्पन्न ही नहीं होते।
आलस्यः शरीर में आलस्य हो, उठते बैठते दर्द होता हो, जोड़ों दर्द हो तो भोजन कम करें तथा भोजन के पश्चात अंतिम ग्रास के साथ दो चुटकी अजावायन चबा लें। सारे उपद्रव शांत हो जायेंगे।
जुकामः सुबह तुलसी के पत्तों को मसलकर उनका रस सूँघने से जुकाम में फायदा होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 29,30, अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

खुशी का मूल किसमें ?



पूज्य संत श्री आसारामजी बापू
शरणानंद महाराज भिक्षा के लिए किसी द्वार पर गये तो उस घर के लोगों को उन्होंने बड़ा खुश देखा।
महाराज ने पूछाः "अरे ! किस बात की खुशी है बेटे-बेटियाँ ?"
"महाराज ! क्या बताएँ, आज तो बहुत मजा आ रहा है। बहुत खुशी हो रही है।"
शरणानंदजीः "अरे भाई ! कुछ तो बताओ, आखिर बात क्या है ?"
"भैया बी.ए. में पास हो गया है, समाचार आया है, इसीलिए खुश हैं।"
सारे के सारे लोग खुश थे। लेकिन संत जब मिलते हैं और बात करते हैं तो आपकी खुशी स्थायी हो और खुशी के मूल में यात्रा हो, उस नजरिये से बात करते हैं। आप मौत के सिर पर पैर रखकर जीवनदाता को मिलो, उस नजरिये से आपके बीच आते हैं। सच्चे संतों को आपसे कुछ लेना नहीं है, आपको देना ही देना है।
शरणानंदजीः "अभी जो आपकी इतनी खुशी हो रहा है, कल तक ऐसी की ऐसी खुशी आप टिका सकते हैं क्या ? अब वह नापास तो होगा नहीं ! पास है तो पास ही रहेगा। कल भी पास रहेगा, परसों भी पास ही रहेगा। लेकिन उसके पास होने की खुशी अभी जो हो रही है, वह कल भी ऐसी टिकेगी क्या ? सबकी इच्छा थी कि वह पास हो जाय और वह पास हो गया, समाचार आ गया। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी। वह इच्छा निकल गयी उस बात की खुशी है। खुशी तो आतमदेव की है !" सब चुप हो गये।
"तुम्हारी इच्छा पूरी हुई उसकी खुशी है कि कोई और खुशी है ? तुम्हारी एक इच्छा निवृत्त हुई, उसका सुख है तुम्हें। भाई की सफलता की खुशी है कि आपकी इच्छा निवृत्त हुई उसकी खुशी है ?
अच्छा, कौन सी श्रेणी से पास हुआ है ? प्रथम श्रेणी से पास हुआ है कि दूसरी, तीसरी श्रेणी से ? एम.ए. पास हो सकेगा ? नौकरी पा सकेगा ? अपने पैरों पर खड़ा रह सकेगा ?"
अब वे लोग चुप !
आपकी कोई मनचाही बात हो जाती है और आप जितने खुश होते हैं, वैसी खुशी दूसरे दिन तक रहती है क्या ? नहीं। आपकी मनचाही बात हुई तो इच्छा हट गयी। आप इच्छारहित पलों में आ गये। तुम्हारी वह इच्छारहित दशा ही अंदर का सुख लाती है। जिसकी एक इच्छा हट जाती है, वह इतना सुखी होता है तो जिसकी सारी इच्छाएँ हट गयीं, उसके सुख का क्या तुम वर्णन कर सकते हो ? एक इच्छा निवृत्त होने से लोग इतने खुश होते हैं तो जिनकी अपने सुख की सारी इच्छाएँ निवृत्त हो गयीं, उनके पास कितना सुख होगा ! उन महापुरुष ने सबको सात्त्विक बुद्धि में प्रवेश करने के लिए मजबूर कर दिया।
जिसकी सुखी होने की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सुखी है ! जिसकी बाह्य सफलताओं की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सफल है ! बाह्य आकर्षण के बिना ही स्वयं आकर्षण का केन्द्र बन गया। कितना सफल है ! इन्द्रदेव ऐसे महापुरूष का पूजन करके भाग्य बना लेते हैं। देवता ऐसे ब्रह्मज्ञानी का दीदार करके अपना पुण्य बढ़ा लेते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 5, अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दुःख व बंधन का कारणः वासना



(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
पूज्य मोटा के मित्र संत थे योगेश्वरजी महाराज। योगेवश्वर महाराज बालकेश्वर गाँव में सेनेटोरियम (स्वास्थ्य निवास) में रहने गये थे। वे कमरे में लेटे तो उन्हें बड़ी हावभाव वाली 30-32 साल की एक सुंदर स्त्री सामने खड़ी दिखाई दी। योगेश्वर महाराज साधन-सम्पन्न थे, डरे नहीं। उन्होंने उस स्त्री से पूछाः "तुम कौन हो ?"
वह बोलीः "आप आये हो तो मैंने यह खाट कर दी है। मैं इसी खाट पर रहती थी। मुझे यह कमरा और यह खाट बड़ी प्रिय है। प्रसूति करते-करते मेरी मौत हो गयी थी। अब मैं यहीं रहती हूँ।"
योगेश्वर महाराज समझ गये की यह प्रेतात्मा है।
"तुम क्या चाहती हो, क्या करती हो ?"
"बस यहीं रहती हूँ। लोगों को बीमार करती हूँ, मुझे मजा आता है।"
"ऐसा क्यों?"
"अकेले में क्या ! कुछ न कुछ करना होता है। मैं बीमार होकर मरी तो दूसरों को बीमार करने में मुझे रस आता है। अच्छा, मैं जाती हूँ। आपको बीमार नहीं करूँगी।"
बालकेश्वर गाँव में सेनेटोरियम के उस खण्ड में जो आये थे, रहे थे, वे सभी एक-एक करके बीमार हुए थे।
लंगर लगा है तो नाव बँधी रह जायेगी
रामकृष्ण परमहंस गोपाल की माँ के घर गये थे। साथ में राखाल नाम का सेवक था। जिस कमरे में रामकृष्ण आराम कर रहे थे, राखाल ने देखा कि ठाकुर वहाँ किसी से बात कर रहे हैं। दोपहर का समय था। ठाकुर अचानक उठकर बाहर जाने लगे।
राखाल ने पूछाः "ठाकुर ! तुम अपना बिछौना लेकर बाहर क्यों जा रहे हो ?"
"यहाँ जो रहते थे, वे मेरे कारण दुःख पा रहे हैं। इस घर में प्रेत रहते हैं। वे बोलते हैं कि तुम्हारे कारण हम धूप में  भटक रहे हैं।"
मैंने कहाः "मेरे कारण तुम लोग धूप में मत भटको। मैं जा रहा हूँ।"
सेवक ने कहाः "तुम्हारे जैसे संत के दर्शन करने के बाद भी भूत अपनी दुर्गति से पार नहीं होते ?"
"समय पाकर होंगे। अभी तो उन्हें इस कमरे में रहने की वासना पकड़ के बैठी है।
राखाल ! चाहे कोई भी किसी को मिल जाये लेकिन अपनी वासना जब तक जीव बदलेगा नहीं, छोड़ेगा नहीं, तब तक उसकी वास्तविक उन्नति नहीं होगी। जैसे नाव कितनी भी जोर से चलाओ लेकिन लंगर लगा है तो नाव बँधी रह जायेगी, आगे नहीं बढ़ेगी।"
कौन किससे बँधा है ?
सूफी संत जुनैद जा रहे थे अपने शागिर्दों के साथ। एकाएक रूक गये। एक गाय को घसीटकर ले जा रहा था उसका कहलाने वाला गोपाल।
जुनैद ने कहाः "देखो, यहाँ कौन किससे बँधा है ?"
मूर्ख सेवकों ने कहा कि 'गाय ग्वाले की रस्सी से बँधी है, खिंची चली जा रही है।'
ग्वाला पहचानवाला था। जुनैद ने चाकू निकाला और रस्सी काट दी। गाय पीछे भाग गयी और ग्वाला उसके पीछे भागा लेकिन गाय आगे निकल गयी। गायवाला रूष्ट होकर कहता हैः "यह तुमने क्या मजाक किया ! मेरी गाय की रस्सी काट दी, अब वह हाथ नहीं आयेगी।"
जुनैद ने अपने सेवकों को कहाः "अब कौन किससे बँधा है ? गाय खुल गयी तो गाय इसके पीछे नहीं गयी, यह गाय के पीछे गया। बताओ कौन बँधा है ?"
सेवक बोलेः "अभी पता चला कि यह बँधा है।"
ऐसे  ही संसारी वस्तुओं के पीछे तुम भागते हो तो तुम बँधे हो। अपने-आपमें बैठना सीखो। अपने-आपमें प्रसन्न होकर, तृप्त हो के, अपने आत्मचैतन्य स्वभाव में स्थित होकर संसार में जियो, फिर संसार की चीजें तुम्हारे इर्दगिर्द मँडरायेगी।
कहीं अपने को ही धोखा तो नहीं दे रहे हैं ?
ससुर ने दामाद को कहा कि "मैं जा रहा हूँ विदेश। तू आर्किटेक्ट (भवन-निर्माता) है। यह ले चेकबुक। अच्छा सा मकान बना। जल्दी बनाना, मैं आऊँ तो मकान तैयार हो। सुंदर बनाना, पैसे की कमी नहीं है।"
ससुरजी जब विदेश की यात्रा से लौटे तो उसने हलका माल डालकर, हलका सीमेंट, कंक्रीट.... ये-वो करके बढ़िया रंग-रोगन से एक कोठी, एक बँगला तैयार रखा। हवाई अड्डे से ससुर जी को ले आया।
"मकान तैयार है ?"
"बिलकुल तैयार है। यह उसकी चाबी है।"
"आज नहीं, कल। जो तुम्हारी पत्नी है, मेरी बेटी है, कल उसका जन्मदिवस है। कल उस कोठी को देखने चलेंगे। मेरी बेटी को भी ले आना।"
कोठी देखी, रंग रोगन देखा, ससुर बड़ा प्रसन्न हुआ। जमाई से सब चाबियाँ लेकर बेटी की तरफ लक्ष्य करते हुए जमाई को दीं।
"यह मकान मेरी पुत्री के जन्मदिवस पर मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ।"
जमाई पछताया कि 'अरे, जो मुझे मिलने वाली चीज थी उसमें मैंने ऐसा हलका, तुच्छ रोड़ी-सामान डाल दिया ! मैंने बेईमानी करके मेरे को ही धोखा दिया।'
हे जीव ! जो तू करता है, जो तू देता है, घूम फिर के तुझे ही मिलता है, इसलिए तू देने में, सेवा करने में, प्रेम देने में, प्रभुस्नेह करने में कंजूसी मत कर, नकली भाव मत ला। तू असली प्रीति कर।
मुझे वेद पुरान कुरान से क्या !
मुझे सत्य का पाठ पढ़ा दे कोई।
प्रभुप्रीति का पाठ पढ़ा दे कोई।
मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं,
मुझे आत्म-मंदिर में पहुँचा दे कोई।।
ऐसे गुरु मिल जायें बस।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

बुद्धियोगमुपाश्रित्य......



(पूज्य बापू के सत्संग-प्रवचन से)
श्रद्धालु होना बहुत जरूरी है। श्रद्धा के बिना धर्म नहीं होता, श्रद्धा के बिना सत्कर्म फलता नहीं, श्रद्धा के बिना जीवन रूखा हो जाता है। श्रद्धाहीन व्यक्ति तो शुष्क है, बेकार है। अपने लिए, दूसरों के लिए, समाज के लिए, मानवता के लिए कलंक है। लेकिन अकेली श्रद्धा से काम नहीं चलता है। श्रद्धा का स्थान हृदय है और बुद्धि का मस्तिष्क। अकेला हृदय होगा और मस्तिष्क अविकसित होगा तो व्यक्ति फँस जायेगा। अकेला मस्तिष्क विकसित होगा और हृदय में सुख-शांति नहीं होगी तो क्लबों में रहेगा, व्यसन व मनमाने कर्मों की धूल चाटता रहेगा। जैसे मनुष्य दो पैरों से चलता है, पक्षी दो पंखों से उड़ता है, साइकिल, स्कूटर, बाइक दो पहियों से चलते हैं, सृष्टि में सूर्य और चाँद दोनों की जरूरत होती है, शारीरिक संतुलन के लिए दायें और बायें दोनों नथुनों का चलना जरूरी है, ऐसे ही श्रद्धा भी चाहिए और बुद्धियोग भी चाहिए।
बुद्धिमान में श्रद्धा होगी तो फिर बुद्धिमान दारू और पिक्चर में मरता है और श्रद्धालु में बुद्धियोग नहीं तो श्रद्धालु खुद को ठगा के मरते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं, श्रद्धा के साथ बुद्धियोग का होना भी जरूरी है।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य.....(गीताः 18.57)क
बुद्धियोग से उपासना करने वाला सब द्वंद्वों से, सब दुःखों से, सब विकट परिस्थितियों से पार होकर मुझ परमेश्वर को पा लेता है।
तो बुद्धियोग किसको मिलता है ? बोलेः
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपायन्ति ते।।
(गीताः 10.10)
जो प्रीतिपूर्वक भजता है, वह बुद्धियोग को पाता है। तो भगवान में प्रीति कैसे हो ? जिसमें अपनापन होगा उससे प्रीति होगी। जूता अपना लगता है तो प्यारा हो जाता है। वास्तव में जूता पहले अपना नहीं था, बाद में अपना नहीं रहेगा लेकिन आत्मदेव तो पहले भी हमारे अपने थे, अभी भी हैं, बाद में भी रहेंगे। इस समय भी हमारे साथ हमारे अंतरात्मदेव होकर बैठे हैं। इस प्रकार के बुद्धियोग की उपासना जिस बुद्धियोगी ने भी की, उसने हँसते-खेलते विघ्न-बाधाओं पर, कष्टों पर पैर रखते हुए, भगवान श्रीकृष्ण की तरह संसाररूपी कालिय नाग पर नृत्य करते हुए संसार-सागर से पार होकर परम वैभव को पा लिया। चाहे फिर कबीर जी हों, नानकजी हों, लीलाशाह प्रभुजी हों, राजा परीक्षित हों, संत रविदास हों, एकनाथ जी हों या फिर धन्ना जाट, सदना भक्त, शाण्डिली कन्या हो चाहे अनपढ़ शबरी भीलन हो, जिन्होंने भी प्रीतिपूर्वक भगवान को सुमिरा, भजा उनको बुद्धियोग मिला।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।
(गीताः 18.57)
भगवान कहते हैं- मुझ सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, आनन्दस्वरूप ईश्वर में चित्त लगाओ, बुद्धियोग की उपासना करो। बाहर के मंदिरों में बहुत गये, उसका फल है मुझ अंतर्यामी ईश्वररूपी मंदिर में आना। बाहर की मस्जिद और पूजा स्थलों में बहुत गये, उसका फल है बुद्धियोग की उपासना करके अल्लाहस्वरूप आत्मा में आना।
बुद्धियोग की उपासना की रीति जान लें। उससे बड़ा वैभव प्राप्त होता है। जिस वैभव को यहाँ के चोर-लुटेरे तो क्या, यहाँ की सरकार तो क्या, मौत के बाप की भी ताकत नहीं कि लूट सके, ऐसा होता है बुद्धियोग ! संतान पैदा करने की, सुख में टिके रहने की, दुःख से भागने की साधारण बुद्धि कौवे और कुत्ते के पास भी है, खटमल और मच्छर के पास भी है, घोड़े-गधों के पास भी है। मनुष्य ऐसी बुद्धि लेकर क्या करेगा ! मनुष्य की विशेषता है कि बुद्धि में महान योग भर ले। कौन-सा योग? भगवदविश्रान्ति, भगवत्प्रीति, भगवद् ज्ञान योग।
भगवदज्ञान योग तक की यात्रा करने के लिए श्रद्धा भी चाहिए, बुद्धियोग भी चाहिए। और बुद्धियोग के साथ समाधि भी चाहिए, विचार भी चाहिए, उत्साह भी चाहिए। अकेला उत्साह है तो आदमी भ्रमित हो जायेगा। अकेली समाधि है तो आदमी आलसी  हो जायेगा। अकेली श्रद्धा है तो आदमी ठगा जायेगा। इसलिए उत्साह, समाधि, श्रद्धा, बुद्धियोग और विचार – इन पाँचों का संतुलन जीवन में बहुत जरूरी है। ये पाँचों चीजें जितनी ठीक-ठाक होंगीं, उतना-उतना जीवन निर्भार, निर्द्वन्द्व और निश्चिंत नारायण में विश्रान्ति पायेगा और जितना विश्रान्ति पाने में आप सक्षम हो जायेंगे, उतना ही चिन्मय विचार, चिन्मय आरोग्यता, चिन्मय ज्ञान और चिन्मय प्रसन्नता आपकी मुट्ठी में आ जायेगी।
तो कर्म को भगवत्सत्ता का सम्पुट देकर कर्मयोगक बना लो। भक्ति को भगवदरस का सम्पुट देकर भक्तियोग बना लो। ज्ञान को भगवत-तत्त्व का सम्पुट देकर ज्ञानयोग बना लो। फिर तो कर्म करते समय भी योग का आनंद आयेगा, भक्ति करते समय भी तुम्हारा मंगल होगा। तुम दीन-हीन, लाचार और ठगे जाओ ऐसे मूर्ख नहीं रहोगे। अकेली श्रद्धावाले लोग प्रायः ठगे जाते हैं। मेरे जैसे को कौन ठग पायेगा !
तो यहाँ भगवान श्रीकृष्ण की बात माननी पड़ती हैः
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।
(गीताः 18.57)
मुझ सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना करके बुद्धि को आप कुशल बनाओ। किसी ने कुछ ढेला रख दिया, किसी ने कुछ रख दिया और आप नाक रगड़ते-रगड़ते जिंदों से तो माँग रहे हो और मुर्दों का भी पीछा नहीं छोड़ते हो, कैसी बेवकूफी है !
आप आज से ही निश्चय करो कि 'मुझे अब बुद्धियोग का प्रसाद पाना है। सभी दुःखों के सिर पर पैर रखकर, सभी सुखों के लालच पर पैर रखकर परम आनंद पाना है। अपने कमरे में जरा धूप-दीप जला देना, जिससे वातावरण पवित्र हो जाये और ठाकुर जी को, भगवान को अथवा गुरुजी को एकटक देखो। ॐकार का दीर्घ उच्चारण करो। प्रारम्भ में कम-से-कम छः मिनट तक देखो, फिर आँखें बंद करके बैठ जाओ। दुःख होता है उसको जानने वाला मैं कौन हूँ ?' बस खोजो। 'शरीर मरता है, फिर भी जो नहीं मरता वह मैं कौन हूँ ?' पहले दिन से ही आपको बुद्धियोग की झलकें मिलने लगेंगी और कुछ दिन के निरन्तर अभ्यास से तो आप बुद्धियोग बन जायेंगे।
अजपाजप करके चालू व्यवहार में भी बुद्धियोग का आश्रय ले सकते हैं। श्वासोच्छ्वास की साधना की जो विधि बतायी जाती है, रात्रि को सोते समय उसका अभ्यास करें। दीक्षा के समय जो प्रयोग बताये जाते हैं गर्दन पीछे करके करने के, वे सुबह उठने के बाद करें। सत्संग-सान्निध्य से ऐसे पुण्यात्माओं का बुद्धियोग सहज में हो जायेगा। मित्र रूठ गया, चला गया.... 'चलो, कोई बात नहीं, परम मित्र (भगवान) ! तुम मेरे साथ हो।' – यह बुद्धियोग है। द्रव्य और यश चला गया तो सोचे कि 'मरने वाले शरीर भी जाते हैं तो उनका द्रव्य और यश कब तक !' इस प्रकार विचार करके जो धन, द्रव्य मिल गया, उसका सदुपयोग करे कि 'वाह-वाह प्रभु ! सेवा के लिए दिया।' और चला गया तो समझे कि 'वाह प्रभु ! तुमने आसक्ति मिटाने के लिए लीला की है।' सफलता-विफलता जो भी आये, 'उसमें मेरे प्रभु का हाथ है।' – ऐसा समझकर प्रसन्न रहना, यह बुद्धियोग है।
पुण्यों से, उद्योग से, प्रारब्ध से सफलता मिलती है। उसका सदुपयोग करना, यह बुद्धियोग है। दुनिया में सारी चीजें मिल जायें लेकिन बुद्धियोग के बिना दुःख नहीं मिटता और बुद्धियोग मिल गया तो सारी चीजें चली जायें अथवा हजार गुनी होकर आ जायें आदमी फँसता नहीं, इतराता नहीं।
मनुष्य को अपने आत्मा-परमात्मा में विश्राम पाने की शक्ति बुद्धियोग देता है। जो जरूरी कार्य है, बहुत जरूरी है उसमें तत्पर रहो, सजग रहो और बुद्धिमत्ता से कर डालो। कार्य कर डालोगे तो करने की जो वासनाएँ हैं, उनके शांत होते ही आत्मा में विश्रान्ति मिलेगी, बुद्धियोग का प्रसाद मिलेगा। जिससे बुद्धि ठगी करने वाली नहीं परोपकारी बनेगी। दूसरो को ठगने वाली बुद्धि बुद्धि नहीं, वह तो कुबुद्धि है। जो दूसरे का ज्ञान बढ़ाये, तंदरूस्ती बढ़ाये, प्रसन्नता बढ़ाये, निर्भयता बढ़ाये, वह बुद्धि है। आत्मा शाश्वत है तो मरने से डरो नहीं, दूसरों को डराओ नहीं, यह बुद्धियोग है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है तो अपना भी आत्मज्ञान, आत्मविश्रान्ति बढ़ाओ, दूसरों का भी बढ़ाओ, यह बुद्धियोग है। आत्मा आनंदस्वरूप है, सुखरूप है। अपना आत्मसुख, अपनी आत्मविश्रान्ति बढ़ाओ, दूसरों को भी आत्मविश्रान्ति बढ़े ऐसे कार्य करो। बुद्धि से करो वह परमात्मयोग के लिए करो, बुद्धियोग के लिए करो। इससे तुम्हारा दुःख तो मिट जायेगा, तुम्हारी वाणी और दीदार से औरों के पाप-ताप, संताप और दुःख मिट जायेंगे। तुम ऐसे बन जाओ न लाला ! लालियाँ !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 11,12,13,14 अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपनी समझ बढ़ाओ



पूज्य श्री आसारामजी बापू
'यह अलौकिक अर्थात् अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।'
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
(गीताः 7.14)
हे अर्जुन ! मुझ अंतर्यामी आत्मदेव की माया दुस्तर है, पर जो मेरे को प्रपन्न (शरणागत) होते हैं उनके लिए मेरी माया गोपद जैसी है, गाय के पग के खुर जैसी है। जिनको जगत सच्चा लगता है उनके लिए मेरी माया दुस्तर है।
जय विजय ने सनकादि ऋषियों का अपमान किया। उन सेवकों को सनकादि ऋषियों का शाप मिला। वे रावण और कुम्भकर्ण हुए। भगवान अन्तर्यामी हैं तो भी क्या हो गया ! सेवकों के अपने कर्म, अपनी इच्छा, अपने प्रारब्ध हैं। कोई कहे भगवान अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ? अरे, तेरी बुद्धि में खबर नहीं पड़ती भाई ! अंतर्यामी-अंतर्यामी मतलब क्या ? मतलब जगत के व्यवहार को जगत की रीति से नहीं चलने देना, इसका नाम अंतर्यामी है ? गुरु अंतर्यामी हैं, तो ऐसा क्यों ? भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ?..... ऐसे कुतर्कों से पुण्याई और शांति सब खो जाती है।
कबीरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
निंदक अपने दिमाग में कुतर्क भर के रखता है इसलिए उसकी शांति चली जाती है, उसका कर्मयोग भाग जाता है, भक्तियोग भाग जाता है और फिर खदबदाता रहता है।
भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों हुआ ? भगवान सर्वसमर्थ हैं और जिनके घर आने वाले हैं ऐसे वसुदेव-देवकी को जेल भोगना पड़े, ऐसा क्यों ? पैर में जंजीरें, हाथ में जंजीरें ऐसा क्यों ? राम जी अंतर्यामी हैं तो मंथरा को पहले ही निकाल देते नौकरी से.. कैकेयी को मंथरा के प्रभाव से बाहर कर देते.....! विधि की लीलाओं को समझने के लिए गहरी नजर चाहिए। तर्क कुतर्क करना है तो कदम-कदम पर होगा लेकिन श्रद्धा की नजर से देखो तो यह भगवान की माया है। जो भगवान की शरण जाता है उसके यह गोपद की नाईं नन्हीं हो जाती है और जो अश्रद्धा और कुतर्क की शरण जाता है उसके लिए माया विशाल, गम्भीर संसार-सागर हो जाती है। कई डूब जाते हैं उसमें।
गुरु अंतर्यामी हैं तो हमारे से कभी-कभी ऐसा गुरुजी से पूछते थे कि लगे की हमारे गुरु अंतर्यामी हैं, कैसे ? लेकिन हमारे मन में ऐसा कभी नहीं आया। अंतर्यामी माने क्या ? जिन्होंने अंतरात्मा में विश्राम पाया है। जब मौज आयी तो अंतर्यामीपने की लीला कर देते हैं, नहीं आयी तो साधारण मनुष्य की नाईं जीने में उनको क्या घाटा है ! भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी नारद जी से पूछते हैं। भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी सीता जी के लिए दर-दर पूछते हैं तो उनकी ऐसी लीला है ! उनके अंतर्यामीपने की व्याख्या तुमको क्या पता चले ! पूरे ब्रह्माण्डक में चाहे उथल-पुथल हो जाये लेकिन व्यक्ति का मन न हिले ऐसी श्रद्धा हो, फिर साधक को कुछ नहीं करना पड़ता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 4, अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !



(राष्ट्रभाषा-दिवसः 14 सितम्बर)


लॉर्ड मैकाले ने कहा थाः 'मैं यहाँ की शिक्षा-पद्धति में ऐसे कुछ संस्कार डाल जाता हूँ
 की आने वाले वर्षों में भारतवासी अपनी ही संस्कृति से घृणा करेंगे... मंदिर में जाना पसंद नहीं करेंगे... माता पिता को प्रणाम करने में तौहीन महसूस करेंगे... वे शरीर से तो भारतीय होंगे लेकिन दिलोदिमाग से हमारे ही गुलाम होंगे....'



हमारी शिक्षा-पद्धति में उसके द्वारा डाले गये संस्कारों का प्रभाव आज स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। आज के विद्यार्थी पढ़-लिख के ग्रेजुएट होकर बेरोजगार हो नौकर बनने के लिए भटकते रहते हैं।
महात्मा गाँधी के शब्दों में- "करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े ! हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग हैं। प्रजा की हाय अंग्रेजों पर नहीं बल्कि हम लोगों पर पड़ेगी।"
अंग्रेजी का हमारे जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, इस पर गांधी जी ने कहाः "विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पड़ता है वह असह्य है। यह बोझ केवल हमारे बच्चे ही उठा सकते हैं लेकिन उसकी कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे ग्रेजुएट अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज की शक्ति, विचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, निडरता आदि गुण बहुत ही क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते, बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर सकते। कुछ लोग जिनमें उपरोक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं।
गांधी जी ने आगे कहा कि "माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के शिकार होकर मातृद्रोह करते हैं।"
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी मातृभाषा को बड़े सम्मान से देखा और कहा था कि "अपनी भाषा में शिक्षा पाना जन्म सिद्ध अधिकार है। मातृभाषा में शिक्षा दी जाय या नहीं, इस तरह की कोई बहस होना ही बेकार है।" उनकी मान्यता थी की 'जिस तरह हमने माँ की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है। ये दोनों माताएँ हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं।'
गाँधी जी ने मातृभाषा-प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा कि "मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं उससे उसी तरह चिपका रहूँगा जिस तरह अपनी माँ की छाती से। वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। मैं अंग्रेजी को उसकी जगह प्यार करता हूँ लेकिन अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा। मैं इसे दूसरी जबान के तौर पर जगह दूँगा लेकिन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, स्कूलों में नहीं। वह कुछ लोगों के सीखने की चीज हो सकती है, लाखों करोड़ों की नहीं। रूस ने बिना अंग्रेजी के विज्ञान में इतनी उन्नति की है। आज अपनी मानसिक गुलामी की वजह से ही हम यह मानने लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम चल नहीं सकता। मैं इस चीज को नहीं मानता।"
विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से अति आवश्यक है, क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा को व्यवहार में आयी हुई देखते हैं तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं। साथ ही उन्हें सब कुछ यदि उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाता है तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बहुत ही आसान हो जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी 'निज भाषा' कहकर मातृभाषा के महत्त्व व प्रेम को अपने निम्नलिखित बहुचर्चित दोहे में व्यक्त किया हैः
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
उन्नति पूरी हैं तबहिं, जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
रवीन्द्रनाथजी ने जापान का दृष्टान्त देते हुए बताया है कि "इस देश में जितनी उन्नति हुई है, वह वहाँ की अपनी भाषा जापानी के कारण है। जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा।"
जापानी इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि वे अमेरिका जाते हैं तो वहाँ भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं। ....और हम भारतवासी ! भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट कर देते हैं। गुलामी की मानसिकता ने ऐसी गंदी आदत डाल दी है कि उसके बिना रहा नहीं जाता। आजादी मिले 64 वर्ष से भी अधिक समय हो गया, बाहरी गुलामी की जंजीर तो छूटी लेकिन भीतरी गुलामी, दिमागी गुलामी अभी तक नहीं गयी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने चिंतन-प्रक्रिया से गुजरते हुए जनसामान्य के लिए इस महत्त्वपूर्ण विचार को प्रस्तुत किया कि "अनावश्यक को जिस परिमाण में हम अत्यावश्यक बना डालेंगे, उसी परिमाण से हमारी शक्ति का अपव्यय होता चला जायेगा। यूरोप के समान हमारे पास सम्बल नहीं है। यूरोपवालों के लिए जो सहज है हमारे लिये वही भारतस्वरूप हो जाता है। सुगमता, सरलता और सहजता ही वास्तविक सभ्यता है। अत्यधिक आयोजन की जटिलता एक प्रकार की बर्बरता है।"
अतः अपनी मातृभाषा की गरिमा को पहचानें। अपने बच्चों को अंग्रजी में शिक्षा दिलाकर उनके विकास को अवरूद्ध न करें। उन्हें मातृभाषा में पढ़ने की स्वतन्त्रता देकर उनके चहुँमुखी विकास में सहभागी बनें। कोई भी ऐसे माता-पिता नहीं होंगे, जो अपने पुत्र-पुत्रियों की भलाई या उन्नति न चाहते होंगे। चाहते ही हैं, सिर्फ आवश्यकता है तो अपनी विचारधारा बदलने की।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 27,28, अंक 224
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ