12.12.10

शीत ऋतु में लाभदायीः जीर्ण व्याधिनिवारक प्रयोग

कुछ रोग ऐसे होते हैं जो शरीर में दीर्घकाल तक रहकर शरीर को दुर्बल व क्षीण कर देते हैं। सर्दियों में त्रिदोष स्वाभाविकक रूप से सम अवस्था में आने लगते हैं। जठराग्नि भी प्रदीप्त होती है। इस समय युक्तिपूर्वक की गयी औषधि योजना जीर्ण व्याधि तथा तदजन्य दुर्बलता को नष्ट करने में सक्षम होती है। ऐसे अनुभूत प्रयोग यहाँ पर प्रस्तुत हैं-
जीर्ण शिरः शूल (पुराना सिर दर्द)-
इसके मुख्यतः दो कारण हैं- एक पित्त की अधिकता व दूसरा कब्ज। इसमें दीर्घकाल तक सतत दर्द रहता है अथवा महीने-दो महीने या इससे अधिक समय पर सिरदर्द का दौरा सा पड़ता है। इसके निवारण के लिए 500 ग्राम बादाम दरदरा कूट लें। 100 ग्राम घी में धीमी आँच पर सेंक लें। 750 ग्राम मिश्री की गाढ़ी, लच्छेदार चाशनी बनाकर उसमें यह बादाम तथा जावंत्री, जायफल, इलायची, तेजपत्र का चूर्ण प्रत्येक 3-3 ग्राम व 5 ग्राम प्रवालपिष्टी मिलाकर अच्छी तरह घोंट लें। थाली में जमाकर छोटे-छोटे टुकड़े काटकर सुरक्षित रख लें। 10 से 20 ग्राम सुबह दूध अथवा पानी के साथ लें। (पाचनशक्ति उत्तम हो तो शाम को पुनः ले सकते हैं।) खट्टे, तीखे, तले हुए व पचने में भारी पदार्थों का सेवन न करें।
बादाम अपने स्निग्ध व मृदु-विरेचक गुणों से पित्त व संचित मल को बाहर निकाल कर सिरदर्द को जड़ से मिटा देता है। साथ में मस्तिष्क, नेत्र व हृदय को बल प्रदान करता है।
अमेरिकन बादाम जिसका तेल, सत्त्व निकला हुआ हो वह नहीं, मामरी बादाम अथवा देशी बादाम भी अपने हाथ से गिरी निकाल से इस्तेमाल करो तो लाभदायक है। अमेरिकन बादाम का तेल गर्मी दे के निकाल देते हैं।
बौद्धिक काम करने वालों के लिए तथा शुक्रधातु की क्षीणता व स्नायुओं की दुर्बलता में भी यह बादामपाक अतीव लाभकारी है। स्वस्थ व्यक्तियों के लिए सर्दियों में सेवन करने योग्य यह एक उत्तम पुष्टिदायी पाक है।
जीर्ण वायुविकार, अस्थिविकार, दमा एवं पुरानी खाँसीः सबसे अधिक रोग प्रकुपित वायु के कारण उत्पन्न होते हैं। उनका स्वरूप भी गम्भीर व पीड़ाकारक होता है। 'वृद्धजीवकीयं तंत्रम्' में कश्यप ऋषि ने कहा है-
सर्वष्वनिलरोगिषु लशुनान्युपयोजयेत्।
मुच्यते व्याधिभिः क्षिप्रं वपुश्चाधिकमाप्नुते।।
'सभी प्रकार के वातरोगों में लहसुन का उपयोग करना चाहिए। इससे रोगी शीघ्र ही रोगमुक्त हो जाता है तथा उसके शरीर की वृद्धि होती है।'
काश्यप संहिता, कल्पस्थान, लशुनकल्प
कश्यप ऋषि के अनुसार लहसुन सेवन का उत्तम समय पौष व माघ महीना (दिनांक 22 दिसम्बर से 18 फरवरी 2011 तक) है।
प्रयोग विधिः 200 ग्राम लहसुन छीलकर पीस लें। 4 लीटर दूध में ये लहसुन व 50 ग्राम गाय का घी मिलाकर दूध गाढ़ा होने तक उबालें। फिर इसमें 400 ग्राम मिश्री, 400 ग्राम गाय का घी तथा सोंठ, काली मिर्च, पीपर, दालचीनी, इलायची, तमालपात्र, नागकेशर, पीपरामूल, वायविडंग, अजवायन, लौंग, च्यवक, चित्रक, हल्दी, दारूहल्दी, पुष्करमूल, रास्ना, देवदार, पुनर्नवा, गोखरू, अश्वगंधा, शतावरी, विधारा, नीम, सोआ व कौंचा के बीज का चूर्ण प्रत्येक 3-3 ग्राम मिलाकर धीमी आँच पर हिलाते रहें। मिश्रण में से घी छूटने लग जाय, गाढ़ा मावा बन जाय तब ठंडा करके इसे काँच की बरनी में भरकर रखें।
10 से 20 ग्राम यह मिश्रण सुबह गाय के दूध के साथ लें (पाचनशक्ति उत्तम हो तो शाम को पुनः ले सकते हैं।
भोजन में मूली, अधिक तेल व घी तथा खट्टे पदार्थों का सेवन न करें। स्नान व पीने के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग करें।
इससे 80 प्रकार के वात रोग जैसे – पक्षाघात (लकवा), अर्दित (मुँह का लकवा), गृध्रसी (सायटिका), जोड़ों का दर्द, हाथ पैरों में सुन्नता अथवा जकड़न, कम्पन, दर्द, गर्दन व कमर का दर्द, स्पांडिलोसिस आदि तथा दमा, पुरानी खाँसी, अस्थिच्युत (डिसलोकेशन), अस्थिभग्न (फ्रेक्चर) एवं अन्य अस्थिरोग दूर होते हैं। इसका सेवन माघ माह के अंत तक कर सकते हैं। व्याधि अधिक गम्भीर हो तो वैद्यकीय सलाह से एक वर्ष तक भी ले सकते हैं। लकवाग्रस्त लोगों तक भी इसकी खबर पहुँचायें।
वर्षों तक किये गये अंग्रेजी उपचार जहाँ निष्फल हुए हैं, उन वात विकारों में यह लहसुन प्रयोग रोगनिवारक सिद्ध हुआ है। साथ में सूर्यस्नान व प्राणायाम अवश्य करें।
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सर्दियों में खजूर खाओ, सेहत बनाओ !
खजूर मधुर, शीतल, पौष्टिक व सेवन करने के बाद तुरंत शक्ति-स्फूर्ति देने वाला है। यह रक्त, मांस व वीर्य की वृद्धि करता है। हृदय व मस्तिष्क को शक्ति देता है। वात-पित्त व कफ इन तीनों दोषों का शामक है। यह मल व मूत्र को साफ लाता है। खजूर में कार्बोहाईड्रेटस, प्रोटीन्स, कैल्शियम, पौटैशियम, लौह, मैग्नेशियम, फास्फोरस आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
खजूर के उपयोग
मस्तिष्क व हृदय की कमजोरीः रात को खजूर भिगोकर सुबह दूध या घी के साथ खाने से मस्तिष्क व हृदय की पेशियों को ताकत मिलती है। विशेषतः रक्त की कमी के कारण होने वाली हृदय की धड़कन व एकाग्रता की कमी में यह प्रयोग लाभदायी है।
मलावरोधः रात को भिगोकर सुबह दूध के साथ लेने से पेट साफ हो जाता है।
कृशताः खजूर में शर्करा, वसा (फैट) व प्रोटीन्स विपुल मात्रा में पाये जाते हैं। इसके नियमित सेवन से मांस की वृद्धि होकर शरीर पुष्ट हो जाता है।
रक्ताल्पताः खजूर रक्त को बढ़ाकर त्वचा में निखार लाता है।
शुक्राल्पताः खजूर उत्तम वीर्यवर्धक है। गाय के घी अथवा बकरी के दूध के साथ लेने से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त अधिक मासिक स्राव, क्षयरोग, खाँसी, भ्रम(चक्कर), कमर व हाथ पैरों का दर्द एवं सुन्नता तथा थायराइड संबंधी रोगों में भी यह लाभदायी है।
5 से 7 खजूर अच्छी तरह धोकर रात को भिगोकर सुबह खायें। बच्चों के लिए 2-4 खजूर पर्याप्त हैं। दूध या घी में मिलाकर खाना विशेष लाभदायी है।
होली के बाद खजूर खाना हितकारी नहीं है।
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शक्तिदायक नारियल
नारियल शीतल, स्निग्ध, बलदायी, शरीर को मोटा करने वाला तथा वायु व पित्त को शांत करने वाला है। सूखा नारियल वीर्यवर्धक है। इसमें कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन्स, वसा, कैल्शियम, पोटैशियम, सोडियम, लौह, विटामिन 'सी' आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
इन गुणों के कारण नारियल आंतरिक गर्मी, अम्लपित्त (एसिडिटी), आमाशय व्रण(अल्सर), क्षयरोग(टी.बी.), दुर्बलता, कृशता व वीर्य की अल्पता में लाभदायी है। यह पचने में भारी होता है इसलिए मात्र 10 से 20 ग्राम की मात्रा में खूब चबा-चबाकर खायें। इसकी बर्फी या चटनी बनाकर अथवा सब्जी में मिलाकर भी खा सकते हैं। नारियल बालक व गर्भवती माताओं के लिए विशेष पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर देता है।
पौष्टिक चबैनाः छुहारा, सूखा नारियल व मिश्री के छोटे-छोटे टुकड़े कर मिलाकर रख लें। टॉफी-चाकलेट के स्थान पर बच्चों को यह पौष्टिक चबैना दें। इससे दाँत, हड्डियाँ मजबूत बनेंगे व बुद्धि का भी विकास होगा।
सूचनाः अष्टमी के दिन नारियल खाने से बुद्धि का नाश होता है।
(ब्रह्म वैवर्त पुराण)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 216
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ग्रहण के समय करणीय-अकरणीय (सूर्यग्रहणः 4 जनवरी 2010

ग्रहण के समय करणीय-अकरणीय
(सूर्यग्रहणः 4 जनवरी 2010)
चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके 'ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत को पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।
देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। अतः सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं। ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल(वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए। स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं।
ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।
ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दान करने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है। गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।
ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 216
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अंतःकरण की शुद्धि बड़ी उपलब्धि

(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
हमारा और परमेश्वर का सनातन संबंध है, सीधा संबंध है। हमारा और वस्तुओं का संबंध, हमारा और व्यक्तियों का संबंध माना हुआ है। माना हुआ संबंध, मान्यताएँ बदलती हैं और वस्तुएँ टूटती-फूटती है, बदल जाती हैं। वास्तविक संबंध किसी भी परिस्थिति में नहीं टूटता। वास्तविक संबंध को जानना है और माने हुए संबंध को अनासक्तभाव से निभाना है। आसक्ति से व्यक्ति की योग्यताएँ क्षीण हो जाती हैं। कर्म के फल की वांछा से अंतःकरण की योग्यता कुंठित हो जाती है और फल तो जितना प्रारब्ध में होगा, वह मिलकर ही रहता है। निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण की शुद्धि करते हैं। अंतःकरण की शुद्धि-यह बड़ी उपलब्धि है। जैसे लालटेन के काँच की कालिमा हटाकर साफ-सुथरा कर देने से लालटेन का प्रकाश बाहर फैलता है, ऐसे ही अंतःकरण की अशुद्धि मिटाने से परमात्म-प्रकाश, परमात्म-सामर्थ्य, परमात्म-आनंद मतलब परमात्मा का दिव्य प्रसाद उस व्यक्ति के द्वारा निखरता है। परमात्मा तो सब में है और सबका सनातन स्वरूप है। जो नहीं पहचानते हैं, उनका भी वास्तविक स्वरूप परमात्मा ही है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
'इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है।' (गीताः 15.7)
आप भगवान के सनातन अंश है, फिर भी दुःख, मुसीबत, शोक, चिंता, पीड़ा, जन्म, मृत्यु आदि जो कष्ट सह रहे हैं, इन सारे के सारे कष्टों का एक ही कारण है। आपके और ईश्वर के बीच जो अज्ञान है, वही सारी मुसीबतें दे रहा है।
अंतःकरण के तीन दोष हैं – मल, विक्षेप, और आवरण।' मल माने वासनाओं की भीड़। यह मिले, वह मिले, यह खाऊँ, यह करूँ.... ये इच्छाएँ है, इनसे अंतःकरणरूपी काँच मैला होता है। जितनी इच्छाएँ ज्यादा होती हैं, उतना चित्त ज्यादा विक्षिप्त रहता है, यह है विक्षेप।
तीसरा होता है 'आवरण'। आवरण क्या होता है कि जो हम हैं, उसको नहीं जानते हैं। जो नहीं हैं, उसको मानते हैं। वास्तव में जो हम हैं – आत्मस्वरूप, उसका फायदा नहीं उठाते हैं और जो नहीं है, उसी को संभाल-सजाकर मर रहे हैं। इसी का नाम है अविद्या। इसके होने से, इसको सँभालने से आदमी को सारे कष्टों का शिकार बनना पड़ता है।
जो सदा विद्यमान न रहे, उस शरीर को मैं मानते हैं और सदा उसको विद्यमान रखना चाहते हैं। जो वस्तु विद्यमान न रहेगी, सदा उसी को सँभालते हैं, क्योंकि अविद्या का प्रभाव है मस्तिष्क में। अब बात रही कि इस अविद्या को दूर कैसे करें ?काँच साफ हो तो प्रकाश ठीक से फैलेगा, ऐसे ही अंतःकरण की शुद्ध हो तो उसमें परमात्मा का प्रकाश होगा। किंतु अंतःकरण मलिन कैसे होता है और शुद्ध कैसे होता है – यह भी हम लोग जानेंगे तभी तो फायदा उठायेंगे ! सुख का लालच और दुःख का भय – इन दो कारणों से अंतःकरण मलिन रहता है। बाहर की वस्तुओं से सुख लेने का लालच और कोई वस्तु या व्यक्ति चला न जाय, उस दुःख का भय, इससे अंतःकरण अशुद्ध होता है। सुख का लालच छोड़ दें और दुःख का भय छोड़ दें बस, अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा। परमात्म-प्रकाश, परमात्म-आनन्द, परमात्म-मस्ती आने लगेगी। इसमें आहार-शुद्धि, मंत्रजप, सेवा, दान-पुण्य – ये सब सहायक चीजें हैं। एक साधन होता है बहिरंग, दूसरा साधन होता है अंतरंग। जैसे तीर्थयात्रा करते हैं तो वह बहिरंग साधन माना जाता है। भगवन्नाम का जप करते हैं तो वह अंतरंग साधन है, क्योंकि उसका प्रभाव हृदय, रक्त और नस-नाड़ियों पर पड़ेगा। मंत्र का अर्थ समझते हैं तो वह और अंतरंग साधन हो जाता है। गुरुप्रदत्त मंत्र का जप यह अंतरंग साधन है। अंतरंग साधन माने आत्मा के निकटवाला साधन। बहिरंग साधन.... जैसे, गाड़ी को बाहर से रोकना। दस पाँच आदमी खड़े होकर गाड़ी को रोक दें, यह बहिरंग है और ब्रेक पर पैर रखकर गाड़ी रोकें यह अंतरंग है। बाहर से धक्का दे के अथवा घोड़ा वोड़ा बाँधकर गाड़ी को घसीटना, दौड़ाना यह बहिरंग है और गाड़ी में इंजन फिट करके पेट्रोल डालकर फिर चलाना यह अंतरंग हो गया। ऐसे ही अंतःकरण की शुद्धि कुछ बहिरंग साधनों से भी होती है किंतु अंतरंग साधनों से जल्दी होती है, आसानी से होती है।
अपने स्वरूप के ऊपर पाँच कोष हैं, कवर हैं (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय)। जैसे बादाम रोगन (तेल) पर पाँच परते होती हैं ! बादाम का फल, उसके ऊपर एक परत, फिर वह हरी हरी गिरी, दो। फिर वह कठोर लकड़ी जैसी गिरी की परत, तीन। फिर बादामी परत, चार फिर वह सफेद गिरी, पाँच। उसके अंदर बादाम का तेल। बादाम के फल की महत्ता क्यों है ? तेल के कारण। ऐसे ही मानव की महत्ता क्यों है, कैसे है ? कि आत्मा के कारण। तो जिसकी अन्नमय कोष में ज्यादा स्थिति है, ऐसे आदमी को बहिरंग साधन अच्छा लगेगा, जैसे – तीर्थयात्रा आदि मेहनत की भक्ति। वह धार्मिक तो होगा लेकिन ध्यान आदि अंतर्मुख करने वाले साधनों में उसे मजा नहीं आयेगा। जिसका मन अन्नमय कोष से कुछ अंदर है, प्राणमय कोष में है, उसको प्राणायाम, आसन, उपवास... यह सब अच्छा लगेगा। जिसकी मनोमय कोष में स्थिति है, उसको भगवान का भजन कीर्तन, मंदिर में जाना, भगवान के नाम का जप, ध्यान अच्छा लगेगा। जिसकी विज्ञानमय कोष में स्थिति है, उसको भगवतत्त्व की कथा वार्ता के विचार उठेंगे। 'भगवान क्या हैं, कृष्ण क्या हैं, तीर्थ क्या है, मैं क्या हूँ ?' यह बात समझने का उसमें स्फुरणा भी होगा और यह बात उसे सुनायी भी पड़ेगी। तो अन्नमय कोष में रहने वाला आदमी बहिरंग है। प्राणमय कोष में जीने वाला आदमी उससे थोड़ा अंतरंग है। मनोमय कोष में जीने वाला आदमी उससे और अंतरंग है। विज्ञानमय कोष में जीने वाला आदमी उससे और अंतरंग है। उससे भी आनंदमय कोष में जीनेवाला आदमी और अंतरंग है। आनंदमय कोष में जीनेवाला साधक अगर किसी सदगुरु को मिल जाता है तो काम बन जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 216
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ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल जायें तो !


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)
मेरे मित्र संत थे मस्तराम बाबा। वे साक्षात्कारी पुरुष थे। कुछ साधक उनसे मिलने गये। उन्होंने देखा तो समय गये कि ये किसके साधक हैं।
मस्तराम बाबा ने उन साधकों से पूछाः "भगवान कैसे मिलते हैं, अपने-आप ? प्रभु का दर्शन कैसे होता है ?"
साधकों ने कहाः "स्वामी जी ! आप ही बताओ।"
बाबा ने कहाः "यह भी बताने का ही तरीका है।"
साधकों ने पूछा कि ''साक्षात्कार कैसे होता है ?" तो बोलेः "भगवान की भक्ति से और सेवा से होता है।" साधकों ने पूछा कि "कौन-से भगवान की भक्ति करें ताकि जल्दी साक्षात्कार हो ?" बोलेः "कृष्ण की, राम की, देवी की अथवा और भी जिसका जो भगवान है उसकी भक्ति करे।" तब साधकों ने पूछा कि "किसी को साक्षात्कार किये हुए महापुरुष मिल जायें तो उसको किसकी भक्ति करनी चाहिए ?"
मस्तराम बोलेः "जिसको साक्षात्कार हो गया है, वह तो शुद्ध चैतन्य हो गया। उसमें कृष्ण की भावना करो तो कृष्ण के दीदार हो सकते हैं, राम की भावना करो तो राम दिख सकते हैं, बुद्ध की भावना करो तो बुद्ध दिख सकते हैं, चोर की भावना करो तो चोर दिख सकते हैं और उसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही साथ दिख सकते हैं क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जो आधार है, वही आत्मा है। आत्मा की सत्ता के बिना, चैतन्य की सत्ता के बिना ब्रह्मा, विष्णु नहीं टिक सकते हैं। तो जो चैतन्यस्वरूप में स्थिर हो गये हैं, उनका सान्निध्य मिल गया तो फिर किसकी भक्ति करें ? फिर भक्ति क्या करनी है, जैसा ज्ञानी गुरू आदेश देते हैं उसके अनुसार चलना है बस ! फिर हो गयी भक्ति।" उच्चकोटि के साधकों के लिए तो –
ईश ते अधिक गुरु में प्रीति।
विचार सागर
ऐसी निष्ठा से ज्ञानी महापुरुषों में ईश्वरबुद्धि करके उनकी भक्ति, सेवा पूजा करने से, उनका सान्निध्य लाभ लेने से अंतःकरण शुद्ध होता है और अंतःकरण का अज्ञान भी मिटता है।
श्रीमद भागवत, में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता हैं क्योंकि उनका (तीर्थ, देवता का) बहुत समय तक सेवन किया जाये तब वे पवित्र करते हैं, परंतु संतपुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। (वे महापुरुष घड़ी, आधी घड़ी, चौथाई घड़ी के दर्शन-सत्संग से भी पवित्र कर देते हैं-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।)
जो मनुष्य वात, पित्त और कफ – इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा – अपना मैं, स्त्री पुत्रादि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है।
श्रीमद भागवतः 10.84.11.13
भक्ति से भी यदि आगे जाना है तो ज्ञानवानों के सान्निध्य की जरूरत है। भक्ति तो हमने बहुत की, बचपन में भगवान के लिए ऐसे-ऐसे नाचते थे पागल होकर कि देखने वाले अच्छे-अच्छे संत भी भाव-विभोर हो जाते थे। भक्ति तो की, उपासना भी की। भक्ति और उपासना सबका फल यही है कि ज्ञानी का दर्शन हो गया। हमारे सारे पुण्यों का फल यही है कि हमको भगवत्पाद लीलाशाह बापू मिल गये। हमारी जन्म-जन्म की भक्ति का फल यही है कि हमको सदगुरू मिल गये, सत्य का जिन्होंने अनुभव किया है, जो सत्यस्वरूप हो गये। कबीर जी कहते हैं-क
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सिर दीजै सदगुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।
जैसा तैसा आदमी तो यह बात स्वीकार भी नहीं कर सकता, सुनने का भाग्य नहीं होता। जिसका पुण्य नहीं उसको साक्षात्कार की बात सुनना तो दूर है, तत्त्ववेत्ताओं का दर्शन भी नहीं हो सकता। जो पापी हैं न, घोर पापी हैं उनको ज्ञानी का दर्शन भी नहीं हो सकता है। किसी को दर्शन होता भी है तो केवल ऊपर-ऊपर से उनके शरीर का। और जिनके बहुत पुण्य होते हैं, जितने-जितने पुण्य बढ़ते हैं, भक्ति बढ़ती है, योग्यता बढ़ती है, उतना-उतना तुम ज्ञानी को पहचान सकते हो। श्री कृष्ण ज्ञानी-शिरोमणि थे, अर्जुन साथ में था तो भी पहचान नहीं सका। ज्यों-ज्यों अर्जुन का सान्निध्य और योग्यता बढ़ती गयी त्यों-त्यों अर्जुन पहचानते गये। मेरे गुरुदेव (भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाह जी महाराज) के सान्निध्य में भी बहुत लोग थे। जिनकी जितनी-जितनी योग्यता थी, उतना-उतना उन्होंने पहचाना, पाया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 216
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संयम की महिमा

संयम की महिमा
आधुनिक मनोविज्ञान  मानसिक विशलेषण, मनोरोग शास्त्र और मानसिक रोग की चिकित्सा – ये फ्रायड के रूग्ण मन के प्रतिबिम्ब हैं। फ्रायड स्वयं स्पास्टिक कोलोन (प्रायः सदा रहने वाला मानसिक अवसाद), स्नायविक रोग, सजातीय संबंध, विकृत स्वभाव, माइग्रेन, कब्ज, प्रवास, मृत्यु व धननाश का भय, साइनोसाइटिस, घृणा और खूनी विचारों के दौरे आदि रोगों से पीड़ित था। स्वयं के जीवन में संयम का नाश कर दूसरों को भी घृणित सीख देने वाला फ्रायड इतना रोगी और अशांत होकर मरा। क्या आप भी ऐसा बनना चाहते हैं ? आत्महत्या के शिकार बनना चाहते हैं ? उसके मनोविज्ञान ने विदेशी युवक-युवतियों को रोगी बनाकर उनके जीवन का सत्यानाश कर दिया। सम्भोग से समाधि का प्रचार फ्रायड की रूग्ण मनोदशा का ही प्रचार है।
प्रो.एडलर और प्रो.सी.जी. जुंग जैसे मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के सिद्धान्तों का खंडन कर दिया है, फिर भी यह खेद की बात है कि भारत में अभी भी कई मानसिक रोग विशेषज्ञ और सैक्सोलॉजिस्ट फ्रायड जैसे पागल व्यक्ति के सिद्धान्तों का आधार लेकर इस देश के युवक युवतियों को अनैतिक और अप्राकृतिक मैथुन का, संभोग का संदेश व इसका समर्थन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के द्वारा देते रहते हैं। फ्रायड ने तो मृत्यु से पहले अपने पागलपन को स्वीकार किया था लेकिन उसके अनुयायी स्वयं स्वीकार न करें तो भी अनुयायी तो पागल के ही माने जायेंगे। अब वे इस देश के लोगों को चरित्र-भ्रष्ट और गुमराह करने का पागलपन छोड़ दें, ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। 'दिव्य प्रेरणा प्रकाश' पुस्तक पाँच बार पढ़ें-पढ़ायें, इसी में सबका कल्याण है।
' नेशनल क्राइम विक्टिमाइजेशन सर्वे' के अनुसार अमेरिका में सन् 2002 में कुल 1686600 बड़े गुनाह हुए। जिनमें से 1036400 गुनाह दर्ज किये गये। 28797 खून, 201589 बलात्कार, 633543 लूटपाट, 1238288 गम्भीर मारकाट और 4463596 साधारण मारकाट के गुनाह हुए। इस प्रकार कुल 6565805 हिंसक अपराध हुए।
वर्षक 2002 में अमेरिका में 12 से 17 वर्ष की उम्र के लड़कों ने 2 लाख 78 हजार अपराध किये। 18 वर्ष से बड़ी उम्र के लड़कों ने 181000 अपराध किये। अज्ञात उम्र के लड़कों ने 1 लाख 93 हजार अपराध किये। सन् 2002 में अमेरिका का राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यय 1548 अरब डॉलर अर्थात् करीब 69660 अरब रूपये था। सन् 2001 में किये गयेक एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में 51 प्रतिशत शादियाँ तलाक में बदल जाती हैं। प्रकृति द्वारा मनुष्य के लिए निर्धारित किये गये संयम का उपहास करने के कारण प्रकृति ने उन लोगों को जातीय रोगों का शिकारक बना रखा है। उनमें मुख्यतः एड्स की बीमारी दिन दूनी रात चौगुनी फैलती जा रही है वहाँ के पारिवारिक व सामाजिक जीवन में क्रोध, कलह, असंतोष, संताप, अशांति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का महाभयानक वातावरण छा गया है। विश्व की लगभग 4.6 प्रतिशत जनसंख्या अमेरिका में है। उसके उपभोग के लिए विश्व की लगभग 40 प्रतिशत साधन-सामग्री (जैसे कि कार, टी.वी., वातानुकूलित मकान आदि) मौजूद हैं, फिर भी वहाँ अपराधवृत्ति इतनी बढ़ी है।
कामुकता के समर्थक फ्रायड जैसे दार्शनिक की ही यह देन है। उन्होंने पाश्चात्य देशों को मनोविज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से यह आँधी अब हमारे देश में भी फैलती जा रही है। अतः हमारे देश की अवदशा अमेरिका जैसी हो, उसके पहले हमें सावधान होना पड़ेगा। यहाँ के कुछ अविचारी दार्शनिक भी फ्रायड के मनोविज्ञान के आधार पर युवक-युवतियों को बेलगाम सम्भोग की तरफ उत्साहित कर रहे हैं, जिससे हमारी युवा पीढ़ी गुमराह हो रही है। फ्रायड ने तो केवल मनःकल्पित मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर व्यभिचारशास्त्र बनाया लेकिन तथाकथित दार्शनिक ने तो सम्भोग से समाधि की परिकल्पना द्वारा व्यभिचार को आध्यात्मिक जामा पहनाकर धार्मिक लोगों को भी भ्रष्ट किया है। सम्भोग से समाधि नहीं होती, सत्यानाश होता है। 'संयम से ही समाधि होती है' – इस भारतीय मनोविज्ञान को अब पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक भी सत्य मानने लगे हैं।
जब पश्चिमी देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुआ था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था, उस समय भारतवर्ष के दार्शनिक और योगी मानव-मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं तथा समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे थे। फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छत्रछाया में पले हुए और उसके प्रकाश की चकाचौंध से प्रभावित वर्तमान भारत के मनोवैज्ञानिक भारतीय मनोविज्ञान का अस्तित्व तक मानने को तैयार नहीं हैं, यह खेद की बात है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। पाश्चात्य मनोविज्ञान प्रथम् तीन स्तरों को ही जानते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है। भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकास और चरित्र-निर्माण में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि यह आत्मा परमात्मा से अत्यधिक प्रभावित है। भारतीय मनोविज्ञान् आत्मज्ञान और आत्म सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है। इसमें बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओं को समझने एवं उन पर नियंत्रण करने के महत्त्वपूर्ण उपाय बताये गयें है। इसकी सहायता से मनुष्य सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी सकता है। मुक्ति-भुक्ति दोनों उसके चरणों में स्वयं आ जाती है।
'उत्तम भोक्ता वही है जिसमें भोग लोलुपता न हो।' – यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति में है। भोग लोलुपता जिस व्यक्ति, जिस जाति, जिस समाज में है, वे तुच्छता की खाई में गिरा है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 216
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ज्ञान के दस लक्षण

(पूज्य बापू जी की चिन्मय वाणी)
अगर आत्मज्ञान की तरफ आपने थोड़ी भी यात्रा की तो जिनको आत्मसाक्षात्कार हुआ है, उन ज्ञानियों के गुण आपके अंदर प्रकट होने लगेंगे। फिर आपको यह नहीं लगेगा कि 'गुण मुझमें हैं, मैं गुणवान हूँ अथवा मैं ज्ञानी हूँ।' नहीं-नहीं, जिस पद को पाये बिना इन्द्र भी अपने को बौना समझता है, उस आत्मपद को पाकर ज्ञानी को अहंकार नहीं होता। ऐसा ज्ञान का प्रसाद आपको मिल जायेगा।
योगी गोरखनाथजी ने कहाः
ज्ञान सरीखा गुरू न मिलिया, चित सरीखा चेला।
मन सरीखा मित्र न मिलिया, गोरख फिरे अकेला।।
ज्ञान जैसा कोई गुरु नहीं है और चित्त अपने कहने में चले तो उसके जैसा कोई चेला नहीं है। मन विकारों से बचे तो उसके जैसा कोई मित्र नहीं है। जीवन में ज्ञान के दस लक्षण आ जायें बस।
अक्रोधो वैराग्यो जितेन्द्रियश्च क्षमा दया सर्वजनप्रियश्च।
निर्लोभो मदभयशोकरहितो ज्ञानस्य एतत् दश लक्षणानि।।
अक्रोधः... क्रोध तो आयेगा लेकिन जब भी क्रोध आये, उस समयक देखो की क्रोध आया है, उसके पहले भी मैं था और क्रोध आकर चला जायेगा उसके बाद भी मैं रहूँगा। थोड़ा क्रोध के समय आप अपनी मौजूदगी की स्मृति करो ताकि क्रोध तुम पर हावी न हो। इससे क्रोध में, आवेश में गलतियाँ करने से जो आगे चलकर मुसीबत होती है, उससे आप बच जाओगे और धीरे-धीरे अक्रोध की ऊँचाई पर पहुँचने में सफल हो जाओगे। जैसे विश्वामित्र, दुर्वासा, वसिष्ठजी तथा अन्य ब्रह्मज्ञानी संत खिन्नोऽपि न च खिद्यते.... रूष्टोऽपि नि रूष्टते..... क्रुद्धोऽपि न क्रुद्धते..... खिन्न, रूष्ट, क्रुद्ध दिखते हुए भी इनसे न्यारे अपने द्रष्टा-स्रष्टास्वरूप में निमग्न रहते हैं।
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।
संत तुलसीदासजी
ब्रह्म गिआनी सदा निर्लेप।
गुरूवाणी
तस्य तुलना केन जायते।
'उसकी तुलना किससे की जा सकती है !' वह तो अतुलनीय है।
अष्टावक्र गीता
अदभुत है आत्मज्ञान की महिमा !
वैराग्यक....किसी भी चीजृ-वस्तु को ईश्वर से बढ़कर मूल्य न दो। विवेक जगाओ तो आपका वैराग्य का धन जागृत होगा।
जितेन्द्रिय.... नाक कहती है कि 'सुगंध बढ़िया हो।' जीभ कहती है कि 'जरा स्वाद बढ़िया हो।' कान कहते हैं कि 'जरा तक धिनाधिन सुन लो।' उनको रोककर कहो- 'हे निगुरो ! तुम मुझे भटकाओ मत, भगाओ मत। ॐ शांति.... ॐ आनंद !...' अपने आत्मसुख की स्मृति में गोता मारो, आप जितेन्द्रिय होने लगेंगे।
क्षमा..... कभी पत्नी से गलती हुई, कभी पति से हुई, पड़ोसी से हुई..... अपनी जीभ दाँतों तले आ जाती है तो क्या करते हैं? क्षमा तो व्यवहार में झख मार के करनी पड़ती है, नहीं तो गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती। लेकिन क्षमा करना एक बात है, मजबूरी से घूँट पीकर अंदर घुटते रहना दूसरी बात है। आज से पक्का करो कि क्षमा के गुण को विकसित करेंगे। अपने से छोटों के प्रति दया करेंगे। उनसे रूठो, उनको डाँटो लेकिन अँदर में उनके मंगल के लिए दयाभाव रखो।
सर्वजनप्रिय.... सभी जनों में अपने प्रिय को देखो। इससे आपका अंतःकरण मंगलमय होगा, मधुमय होगा। आप सबके प्रियपात्र बनोगे। निर्लोभः..... और खपे खपे (और चाहिए-और चाहिए) जो है वह भी छूट जायेगा। और खपे-खपे में अपने को खपाओ मत ! खाने में, भोग-संग्रह में निर्लोभता का अनुभव करो।
मदभयशोकरहितः.... मद नहीं करना चाहिए कि 'मैं ऐसा कर दूँगा, वैसा कर दूँगा।' अथवा भय भी नहीं रखना चाहिए कि 'ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा।' अरे, आत्मा को कोई मार नहीं सकता और शरीर प्रारब्ध भोगकर ही जाता है, फिर डर किस बात का ! डरें तो दुष्कर्म से डरें, डरें तो मनमुखता से डरें। बाकी जरा-जरा बात में अथवा सत्संग में आने में क्यों डरें ! सत्कर्म और साधना करने में क्या डरें ! 'मेरा भविष्य क्या होगा ?' – ऐसा सोचकर क्यों डरें ! बीती हुई बात को सच्चा मानकर बार-बार याद करके शोक क्यों करें !
ज्ञानस्य एतत दश लक्षणानि..... ये ज्ञान के दस लक्षण हैं। ज्ञानी महापुरुष के ये स्वतः स्वाभाविक लक्षण हैं और साधक को ये सुन-सुनकर अपने में विकसित करने हैं। शास्त्र क्या हैं ? ज्ञानी के अनुभव और अज्ञानी की मान्यता का अनुवाद। अज्ञानी की मान्यता समझकर उससे ऊपर उठो और ज्ञानी का अनुभव सुनकर उसमें लग जाओ। आपका मंगल होने लगेगा। भगवान अगर हमारा परम कल्याण भी करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? फूँक मार के करेंगे ? सिर पर हाथ रखकर करेंगे ? नहीं, नहीं। भगवान ने गीता के दसवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहाः
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही उनमें आत्मभाव से स्थित मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को देदीप्यमान तत्त्वज्ञानरूपी दीपक के द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँक।
भगवान भी हमारे दुःख हरेंगे तो तत्त्वज्ञान के दीये से। घऱ में या गुफा में अंधकार है तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेगा। खड्डे हैं तो झाड़ू लगाने से नहीं जायेंगे। कचरा है तो झाड़ू लगाने से जायेगा। खड्डे-खुड्डे हैं तो सीमेंट-कांक्रीट अथवा गारा-मिट्टी से जायेंगे लेकिन अंधकार प्रकाश से जायेगा। ऐसे ही वासना की गंदगी है तो वासनाओं को पोस-पोस के निस्तेज न हो जायें। सेवाकार्य में ऐसे लगें कि सेवा करते करते निर्वासनिक होने में सफल हो जायें। चंचलता है तो एकाग्रता का धन बढ़ाओ लेकिकन अज्ञान है तो ज्ञान का दीपक जलाओ। भगवान भी खुश हो जायेंगे।
मनुष्य शरीर का फल यही है कि आप परमात्म स्वभाव की प्राप्ति कर लें। भगवदगीता के पाँचवें अध्याय का तेईसवाँ श्लोक हैः
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोदभवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक आदि आवेगों से विचलित नहीं होता, समता में टिक जाता है, उनको सहन करके सम रह जाता है, उस पुरुष ने अपना मनुष्य जीवन सफल कर लिया।
सहने का मतलब ऐसा नहीं कि 'दुःख सह रहा हूँ, अपमान सह रहा हूँ, क्या करूँ !' नहीं, आप पर उनका प्रभाव ही नहीं पड़ेगा। जैसे, हाथी पर मक्खियाँ भी बैठी थीं। बार बार आतीं, बैठती चली जातीं। रानी मक्खी को दया आ गयी तो हाथी को कहा कि
"भैया ! मैं अकेली नहीं, मेरी कई 20-25 सखियाँ तुम पर कई घंटों से अपना बोझा लादे बैठी हैं। तुमको कष्ट होता होगा।"
हाथी ने कहाः "तुम कब आयीं पता नहीं और तुम्हारा वजन कितना है तुम्हीं जाकर तौलो ! तुम 20-25 तो क्या, 50, 100, 200, 500 और भी आ जाओ तो भी मुझे तुम्हारे वजन का पता नहीं चलेगा। तुम इतनी क्षुद्र हो, इतनी तुच्छ हो !"
ऐसे ही भगवत्सुख और भगवत्समता के आगे जगत की परिस्थितियाँ ऐसी ही तुच्छ हैं, ऐसी क्षुद्र है जैसे हाथी की पीठ पर मक्खियों का वजन !
जैसे हाथी पर मक्खियों का कोई वजन नहीं, बैल के सींग पर मच्छर का कोई वजन नहीं, ऐसे ही ज्ञानी के चित्त में इस संसाररूपी मच्छर का कोई वजन नहीं होता अथवा संसार की मक्खियों का कोई बोझा नहीं होता। दूसरों की नजर से लगेगा कि 'अरे, बाप-रे-बाप ! बापू जी बेचारे कितना काम कर रहे हैं ! अरे कितना परिश्रम ! कितना क्या का क्या.... बेचारे बापू जी !' मैं इधर-उधर सत्संग कार्यक्रमों में दौड़ता रहता हूँ तो आप सभी को मुझ पर दया आती है। लेकिन मुझे तुम पर दया आती है कि तुम कितने सुखस्वरूप हो और अपने को जानते नहीं ! शरीर को 'मैं' मान के, नश्वर चीजों को 'मेरा' मानकर काहे को परेशान हो रहे हो ! अपने सत्यस्वभाव को 'मैं' जानकर उसी में विश्रान्ति पाओ, उसी में आनंद पाओ और उसी में अपने 'मैं' को एकाकार कर दो।
जो सदा बदलता जाता है वह संसार है और सारी बदलाहट को जानता है वह परमात्मा है। जो कभी बदले नहीं और साथ छोड़े नहीं, वह परमात्मा है। जो टिके नहीं और साथ निभाये नहीं, वह संसार है। संसार का उपयोग कर लो और परमात्मा की स्मृति कर लो, एकाकारता कर लो, प्रीति पा लो। दोनों तरफ से मौज हो जायेगी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 12,13, 14 अंक 216
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भगवान का प्रिय बनना है ?


आप भगवानि को अपने-अपने ढंग से, अपनी-अपनी मान्यता से प्रेम करते हैं परंतु यदि आप भगवान से ही पूछें कि 'प्रभु !आपको कौन विशेष प्यारा है और भगवान के मार्गदर्शन में प्रेम-पथ पर चलना शुरू करें तो वह दिन दूर नहीं जब आप प्रेममूर्ति, भगवन्नमूर्ति, आनंदमूर्ति हो जायेंगे। भगवान कहते हैं ऐसे भक्त मुझे प्रिय हैं-
जो किसी से द्वेष नहीं करते। सबके मित्र हैं, दयालु हैं। जिनमें न ममता है, न अहंकार है। सुख-दुःख दोनों जिनके लिए समान हैं। जो क्षमावान हैं।
जो सदा संतोषी हैं, योगी हैं। शरीर, इन्द्रिय तथा मन को वश में रखते हैं। दृढ़ निश्चयवाले हैं। मन और बुद्धि जिन्होंने भगवान को अर्पित कर रखी है।
न तो उनसे किसी जीव को भय होता है, न उन्हें किसी जीव से भय होता है। उन्हें न तो हर्ष है, न संताप।
उन्हें किसी चीज की इच्छा नहीं रहती। बाहर भीतर से वे पवित्र रहते हैं, चतुर होते हैं। किसी से पक्षपात नहीं करते। दुःखों से मुक्त रहते हैं। किसी भी कर्म में कर्तापन का अभिमान नहीं रखते।
दुःखी प्रसन्न दिखते हुए भी ऐसे महापुरुष गहराई में सम रहते हैं। वे न किसी बात का शोक करते हैं, न कुछ चाहते हैं। शुभ और अशुभ सभी कर्मों का फल उन्होंने छोड़ रखा है।
मित्र और शत्रु में उनका एक सा भाव रहता है। मान और अपमान, गर्मी और सर्दी, सुख और दुःख उनके लिए बराबर हैं। संसार में उनकी कोई आसक्ति नहीं है।
निंदा और स्तुति उनके लिए बराबर हैं। वे मौन रहते हैं। जो मिल जाये उसी में वे संतुष्ट रहते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 216
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