3.9.10

सच्चे हितैषी हैं सदगुरू - संत रज्जबजी



इस सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी पुण्यकर्म करते हैं, वे सभी संतों का ज्ञानोपदेश सुन के ही करते हैं। अतः संसार में जो कुछ भी अच्छापन है वह सब संतों का ही उपकार है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर से परे अपने निजस्वरूप घर को प्राप्त करने का विचार गुरू बिना नहीं मिलता। गुरू बिना परमेश्वर के ध्यान की युक्ति नहीं मिलती और हृदय में ब्रह्मज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकता। जैसे पथिक पंथ बिना किसी भी देश को नहीं जा सकता, वैसे ही साधक ब्रह्मज्ञान बिना संसार दशा रूप देश से ब्रह्म स्थिति रूप प्रदेश में नहीं जा सकता। सम्पूर्ण लोकों में घूमकर देखा है तथा तीनों भुवनों को विचार द्वारा भी देखा है, उनमें साधक के ब्रह्म-आत्म विषयक संशय को नष्ट कर सके ऐसा सदगुरू बिना कोई भी नहीं।

साधन-वृक्ष का बीज सदगुरू वचन ही है। उसे साधक निज अंतःकरणरूप पृथ्वी में बोये व विचार-जल से सींचे तथा कुविचार-पशुओं से बचाने रूप यत्न द्वारा सुरक्षित रखे तो उससे मनोवांछित (परम पद की प्राप्तिरूप) फल प्राप्त होगा।

जो गुरुवचनों को प्रेमपूर्वक हृदय में धारण करता है, वह अपने जीवनकाल में सदा सम्यक् प्रकार का सुख ही पाता है। सदगुरू का शब्द प्रदान करना अनंत दान है। वह अनंत युगों के कर्मों को नष्ट कर डालता है। सदगुरू के शब्दजन्य ज्ञान से होने वाले पुण्य से अधिक अन्य कोई भी धर्म नहीं दिखता। इस संसार में गुरू के शब्दों द्वारा ही जीवों का उद्धार होता है, सम्पूर्ण विकार हटकर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है।

जैसे सूर्य ओलों को गलाकर जल में मिला देता है ,ओले होकर भी जल अपने जलरूप को नहीं त्याग सकता, वैसे ही सदगुरू जीवात्मा के अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म से मिला देते हैं, जीवात्मा में अज्ञान आने पर भी वह अपने चेतन स्वरूप का त्याग नहीं कर सकता।

गुरूदेव की दया से सुंदर ज्ञानदृष्टि प्राप्त होती है, जिसके बल से साधक प्रकटरूप से भासने वाले मायिक संसार को मिथ्यारूप से पहचानता है और जिसे कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता उस गुप्त परब्रह्म को सत्य तथा अपना निजस्वरूप समझकर पहचानता है।

गुरु गोविन्द की सेवा करने से शिष्य सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से पूर्ण हो जाता है, उसकी सब प्रकार की कमी उसके हृदय से उठ जाती है। जन्मादिक दुःख नष्ट हो जाते हैं और आशारूपी दरिद्रता भी सम्यक् प्रकार से दूर हो जाती है।

सदगुरू आकाश के समान हैं और गुरू-आज्ञा में रहने वाले शिष्य बादल के समान हैं। नभ-स्थित बादल में जैसे अपाल जल होता है, वैसे ही गुरू आज्ञा में रहने वाले शिष्यों में अपार ज्ञान होता है, उन्हें कुछ भी कमी नहीं रहती है।

जिस प्रकार वनपंक्ति के पुष्पों में शहद छिपा रहता है, वैसे ही शरीराध्यास में मन रहता है। जैसे शहद को मधु-मक्षिका निकाल लाती है, वैसे ही गुरू मन को निकाल लाते हैं। वह जो मन की छिपी हुई स्थिति है उससे भी मन को गुरू निकाल लाते हैं, अतः मैं गुरूदेव की बलिहारी जाता हूँ।

ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया किंतु शरीर के राग में बाँध दिया, इससे वह दुःखी ही रहा। फिर गुरूदेव ने ज्ञानोपदेश द्वारा राग के मूल कारण अज्ञान को नष्ट करके राग-बंधन से मुक्त किया है और परब्रह्म से मिलाया है। अतः इस संसार में गुरू के समान जीव का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है।

संत रज्जबजी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 211

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शिष्य की मनमुखता और गुरु का धैर्य



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

गुरु अपने शिष्य की सौ-सौ बातें मानते हैं, सौ-सौ नखरे और सौ-सौ बेवकूफियाँ स्वीकार करते हैं ताकि कभी-न-कभी, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में यह जीव पूर्णता को पा ले। बाकी तो गुरु को क्या लेना है ! अगर गुरु को कुछ लेना है तभी गुरु बने हैं तो वे सचमुच में सदगुरु भी नहीं हैं। सदगुरु को तो देना-ही-देना है। सारा संसार मिलकर भी सदगुरु की सहायता नहीं कर सकता है पर सदगुरु अकेले पूरे संसार की सहायता कर सकते हैं। मगर संसार उनको सदगुरु के रूप में समझे, माने, मार्गदर्शन ले तब न ! ऐसा तो है नहीं इसलिए लोग बेचारे पच रहे हैं।

सब एक दूसरे को नीचा दिखाकर, एक दूसरे का अधिकार छीनकर सुखी होने में लगे हैं। सब-के-सब दुःखी हैं, सब के सब पच रहे हैं, नहीं तो ईश्वर के तो खूब-खूब उपहार हैं – जल है, तेज है, वायु है, अन्न है, फल हैं, धरती है और इसी धरती पर ब्रह्मज्ञानी सदगुरु भी हैं तो आनंद से जी सकते हैं, मुक्तात्मा हो सकते हैं। लेकिन राग में, द्वेष में, स्वार्थ में, अधिक खाने में, अधिक विकार भोगने में, सुखी होने में, मनमुखता में लगे हैं। गुरु आज्ञा-पालन में रूचि नहीं इसलिए ज्ञान में गति नहीं, पर जो आज्ञा-पालन में रुचि रखते हैं उनको गुरु-ज्ञान नित्य नवीन रस, नित्य नवीन प्रकाश देता है, वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं। वे परम सुख में विराजते हैं, परमानंद में, परम ज्ञान में, परम तत्त्व में एकाकार रहते हैं। परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति यह बहुत ऊँची स्थिति है, मानवता के विकास की पराकाष्ठा है। स्वर्ग मिल गया तो कुछ नहीं मिला। स्वर्ग से बढ़कर तो धरती पर कुछ नहीं है। तत्त्वज्ञानी की नजर में स्वर्ग भी कुछ नहीं है। स्वर्ग के आगे पृथ्वी का राज्य कुछ नहीं है। क्लर्क का पद प्रधानमंत्री पद के आगे छोटा है, तुच्छ है। ऐसे ही प्रधानमंत्री पद स्वर्ग के इन्द्रपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है। जो सदगुरु की कृपा को सतत पचाने में लगेगा, उसको ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है। अतः अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ायें। तड़प और प्यास बढ़ने से अंतःकरण की वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तपकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। जैसे गेहूँ को भून दिया फिर वे बीज बोने के काम में नहीं आयेंगे, चने या मूँगफली को भून दिया तो फिर उसका विस्तार नहीं होगा, ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वासनाएँ भून डालो तो फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी। ईश्वर की तड़प जितनी ज्यादा है उतना ही शिष्य गुरु की आज्ञा ईमानदारी से मानेगा। गुरु की समझ और धैर्य गजब का है और शिष्य की अपनी मनमुखता भी गजब की है, फिर भी दोनों की गाड़ी चल रही है तो गुरु की करूणा और शिष्य की श्रद्धा से। गुरु अपनी करुणा हटा लें तो शिष्य गिर जायेगा अथवा तो शिष्य अपनी श्रद्धा हटा ले तो भी गिर जायेगा। गुरु की दया और शिष्य की श्रद्धा का मेल.....। नहीं तो गुरु कहाँ और शिष्य कहाँ ! गुरु सत्स्वरूप में जीते हैं और शिष्य असत् में जीता है, दोनों का मेल होना सम्भव ही नहीं है। अमावस्या की काली रात और दोपहर का सूर्य कभी मिल सकते हैं क्या ? लेकिन यहाँ मिलन है। गुरु अपनी ऊँचाइयों से थोड़ा नीचे आ जाते हैं जहाँ शिष्य है और शिष्य अपनी नीची वासना से थोड़ा ऊपर श्रद्धा के बल से चलने को तैयार हो जाता है। जहाँ गुरु हैं वहाँ पहुँचने की भावना तो बनती है बेचारे की। चलो, आज नहीं कल पहुँचेगा।

भगवान का चित्र तो काल्पनिक है, किसी ने बनाया है परंतु भगवान जहाँ अपनी महिमा में प्रकट हुए हैं, ऐसे महापुरुष तो साक्षात् हमारे पास हैं। वे महापुरुष पूजने व उपासना करने योग्य हैं। 'मुण्डकोपनिषद' में आता है कि 'जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए वह भी ज्ञानवान का पूजन करे और मरने के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी ज्ञानवान की पूजा करे।'

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।

'वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।'

(मुण्डकोपनिषद् 3.1.10)

वे ज्ञानी अपने शिष्य या भक्त के लिए मन से जिस-जिस लोक की भावना करके संकल्प कर देते हैं, उनका शिष्य उसी-उसी लोक में जाता है। तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः। अपनी कामना पूर्ण करने के लिए आत्मज्ञानी महापुरुष का पूजन-अर्चन करें, उपासना करें। हम तो कहते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुष का पूजन-अर्चन करो यह तो ठीक लेकिन आप ही आत्मज्ञानी हो जाओ मेरा ध्यान उधर ज्यादा है। घुमा-फिराकर मेरा प्रयत्न उधर की ओर ही रहता है।

आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे उत्तम पद में पहुँचे होते हैं, उनकी चेतना इतनी व्यापक, इतनी ऊँचाई में व्याप्त रहती है कि चन्द्र, सूर्य और आकाशगंगाओं से पार अनेकों ब्रह्माण्ड भी उनके अंतर्गत होते हैं। साधारण आदमी को यह बात समझ में नहीं आयेगी। जो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते थे ऐसे सत्यनिष्ठ रामजी को वसिष्ठ जी ने यह बात बतायी थी। रामजी के आगे उपदेश देना कोई साधारण गुरु का काम नहीं है और राम जी किसी ऐरे-गैरे को गुरु को नहीं बनाते हैं, अपने से कई गुना ऊँचे होते हैं वहीं माथा झुकता है। गुरु का स्थान कोई ऐरा-गैरा नहीं ले सकता है। कितनी भी सत्ता हो, कितनी भी चतुराई का ढोल पीटे फिर भी गुरु के लिए हृदय में जो जगह है उस जगह पर, गुरु के सिंहासन पर ऐसे किसी को भी थोड़े ही बिठाया जाता है, कोई बैठ ही नहीं सकता। हमारे जीवन में कई ऊँचे-ऊँचे साधु-संत आये परंतु सब मित्रभाव से आये, सदगुरु तो हमारे पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाह जी महाराज ही हैं। कई नेता आये, कई भक्त आये किंतु मेरे गुरुदेव के लिए मेरे हृदय में जो जगह है, उस जगह पर आज तक कोई बैठा नहीं है क्या ! अदृश्य होने वाले, हवा पीकर पेड़ पर रहने वाले योगियों से भी हमारा परिचय हुआ परंतु गुरुकृपा से जो आत्मज्ञान का सुख मिला उसके आगे बाकी सब नन्हा, बचकाना है। तो गुरु की जगह तो गुरु की है, उस जगह पर और कोई बैठ ही नहीं सकता। वह बहुत ऊँचा स्थान है। गुरु-गोविन्द दोनों एक साथ आ जायें तो क्या करोगे ?

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

उस ईश्वरस्वरूप आत्मा-ब्रह्मवेत्ता को कौन तौल सकता है ? किससे तौलोगे ? उसके समान कोई बाट हो तभी तो तौलोगे !

किसी को परेशान होना हो, अशांत होना हो तो आत्मज्ञानी गुरु के लिए फरियाद करे कि 'हमारा तो कुछ नहीं हुआ, हमको तो कोई लाभ नहीं हुआ।' निषेधात्मक विचार करेगा तो निषेध ही हो जायगा। जो उनके प्रति आदरभाव और विधेयात्मक विचार करेगा, उसकी बहुत प्रगति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,22 अंक 211

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सितारों से जहाँ कुछ और भी है......



(पूज्य बापू जी का सत्संग-गंगा से)

एक महात्मा हो गये स्वामी राम। स्वामी रामतीर्थ नहीं, दूसरे स्वामी राम। अभी उनका शरीर तो नहीं है पर देहरादून में संस्था है। देश-विदेश में उनके बहुत अनुयायी थे। स्वामी राम के गुरु बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे एकांतप्रिय थे, जिस किसी से ज्यादा बात करना या मिलना उन्हें पसंद नहीं था।

स्वामी राम ने अपनी बाल्यावस्था में लिखा है कि भुवाल नाम के एक संन्यासी थे, जो संन्यास-दीक्षा के पहले बंगाल की 'भवाल' रियासत के राजकुमार थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी के साथ दार्जिलिंग में रहते थे। उनकी पत्नी पहले से ही किसी डॉक्टर से प्रेम करती थी लेकिन शादी हो गयी इस राजकुमार से। फिर भी वह डॉक्टर उससे मिलने आता-जाता रहा। उनकी पत्नी और डॉक्टर ने मिलकर राजकुमार को साँप से विष के इंजेक्शन (सुई) लगाने शुरू कर दिये। राजकुमार समझते रहे कि यह विटामिन सी सुई लग रही है। डॉक्टर ने धीरे-धीरे वि, की मात्रा बढ़ायी और कुछ महीनों बाद विष ने अपना प्रभाव दिखाया, राजकुमार की मृत्यु हो गयी। दिखावा किया कि स्वाभाविक ढंग से मृत्यु हुई है।

राजकुमार की शव यात्रा में हजारों लोग एकत्रित हो गये। जलाने के लिए शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी नाले के किनारे श्मशानघाट में ले गये। चिता तैयार की गयी लेकिन देव की लीला तो देखो ! एकाएक उस पहाड़ी इलाके में बहुत तेज बरसात आयी, दार्जिलिंग में तो वैसे ही कभी भी बरसात आ जाय। उस पहाड़ी इलाके में बरसात भी तेज आयी। ऐसी मूसलाधार बरसात आयी कि सारे लोग भाग गये। चिता को अग्नि लगी ही थी, शव का कफन थोड़ा-बहुत जला-न जला और बरसात ने सब तहस-नहस कर दिया। बरसात के कारण पहाड़ी नाले में भयंकर बाढ़ आ गयी और वह शव उसमें बह गया।

श्मशानघाट से तीन मील दूर स्वामी राम के गुरु अपने शिष्यों के साथ एक गुफा में ठहरे थे। उन्होंने उस कफन में लिपटे तथा बाँसों में बँधे शव को नाले में बहते देखा तो अपने शिष्यों को बोलेः "इस शव को ले आओ।" शव को नाले से निकालकर अर्थी की लकड़ी आदि जो बाँधी थी रस्सी-वस्सी से, वह खोली। लाश को उठाकर लाया गया। गुरुजी बोलेः "देखो, इसमें प्राण हैं, अभी यह मरा नहीं है। यह पूर्वजन्म का मेरा शिष्य है।" थोड़ा उपचार करके राजकुमार को उठाया लेकिन वे मौत की यह घटना, पूर्व का जीवन सब कुछ भूल गये थे। उनको गुरु ने पुनः दीक्षा दी और अपने साथ रख लिया। वे साधु बन गये। सात वर्ष तक साथ में रहे फिर गुरु जी बोलेः "जाओ बेटा ! देशाटन करो, विचरण करते-करते आगे बढ़ो। कहीं अटकना नहीं, अनुकूलता में रुकना नहीं और प्रतिकूलता को भी सत्य मत मानना। रोज अपना नित्य नियम और भगवद् ध्यान आदि करते रहना। समय पाते सब ठीक हो जायेगा।"

'जो आज्ञा' कहकर वे तो रवाना हुए। गुरुजी ने अपने शिष्यों से कहाः "इसकी बहन इसे पहचान लेगी और जब यह अपनी बहन से मिलेगा तब इसकी खोयी हुई स्मृति पुनः लौट आयेगी।"

राजकुमार परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते हुए अनजाने में अपनी बहन के द्वार पर जा पहुँचे। बहन ने भैया को पहचान लिया और भैया का नाम लेकर पुकारा। भैया की खोयी हुई स्मृति जागृत हो गयी, उन्होंने अपनी पूरी कहानी बतायी। बात बिजली की नाईं गाँव में फैल गयी। लोग आपस में बोलने लगे कि 'राजकुमार तो मर गये थे, हम तो श्मशान में छोड़कर आये थे !'

राजकुमार के संबंधियों ने न्यायालय की शरण ली। बाबाजी ने अपने दो शिष्यों को राजकुमार की मदद में भेज दिया। शिष्यों ने भी जब सच्चाईपूर्वक बात कही तो हजारों आदमी उनके पक्ष में हो गये और कौतूहलवश हजारों आदमी दूसरे पक्ष में भी हो गये। दार्जिलिंग के न्यायालय में इतनी भीड़ कभी नहीं हुई थी जितनी इसके निमित्त हुई। लोग उत्सुक थे कि सच्चाई क्या है ?

राजकुमार योग-साधना करते थे, अपनी स्मृति के बल से स्मरण करके न्यायालय में अपना पूरा वृत्तान्त बताया कि 'ऐसे-ऐसे साँप के जहर के इंजेक्शन मुझे देते थे। मैं समझता था कि विटामिन मिल रहा है। इस तरह से मेरी मृत्यु हुई, ऐसी शवयात्रा हुई। मूसलाधार वर्षा हुई, शव बह गया और इस तरह से गुरुजी ने मुझे बचाया।'

आखिर न्यायालय में यह सिद्ध हो गया कि राजकुमार की पत्नी ने अपने प्रेमी डॉक्टर से मिलकर उनको साँप के जहर के इंजेक्शन दिये थे तथा स्वामी जी ने उनको अपना पूर्व-साधक समझकर मदद की और शेष जिंदगी बचायी है।

राजकुमार की जीत हुई और वे पुनः अपने भवाल नामक राज्य में लौट पड़े। उनके गुरुजी की यही आज्ञा थी। वे एक साल तक रहे फिर शरीर छोड़ दिया।

इन कथाओं से यह बात सामने आती है कि तुमको जितना दिखता है, सुनाई पड़ता है उतना ही जगत नहीं है, जगत और कुछ, बहुत सारा है लेकिन यह अष्टधा प्रकृति के अंदर हैं। जब तक प्रकृति को 'मैं' मानते रहेंगे, प्रकृति के शरीर को 'मैं' मानते रहेंगे व वस्तुओं को 'मेरा' मानते रहेंगे, तब तक असली 'मैं' स्वरूप जो परमात्मा है वह छुपा रहता है और जन्म मृत्यु, जरा व्याधि की यातनाओं के कष्ट और शोक तथा राग द्वेष, तपन में जीव तपते रहते हैं। ऐसा भी कोई है जो इन सबसे परे राग-द्वेष, कष्ट, शोक को जान रहा है। जिन्होंने अपने उस चिदानंदस्वरूप को, सत्स्वरूप को 'मैं' के रूप में जान लिया वे धन्य हैं ! उनके दर्शन करने वाले भी धन्य हैं ! ब्रह्म गिआनी का दरसु1 बडभागी पाईऐ।(गुरुवाणी) 1 दर्शन.

वह लक्ष्य रखो, ऊँचा उद्देश्य, ऊँचा लक्ष्य रखो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 211

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वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य-सुरक्षा



ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक दुर्बलता को प्राप्त हुए शरीर को वर्षा ऋतु में धीरे-धीरे बल प्राप्त होने लगता है। आर्द्र (नमीयुक्त) वातावरण जठराग्नि को मंद कर देता है। शरीर में पित्त का संचय व वायु का प्रकोप हो जाता है। परिणामतः वात-पित्तजनित व अजीर्णजन्य रोगों का प्रादुर्भाव होता है। अतः इन दिनों में जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, सुपाच्य व वात-पित्तशामक आहार लेना चाहिए।

सावधानियाँ

भोजन में अदरक व नींबू का प्रयोग करें। नींबू वर्षाजन्य रोगों में बहुत लाभदायी है।

गुनगुने पानी में शहद व नींबू का रस मिलाकर सुबह खाली पेट लें। यह प्रयोग सप्ताह में 3-4 दिन करें।

प्रातःकाल में सूर्य की किरणें नाभि पर पड़ें इस प्रकार वज्रासन में बैठ के श्वास बाहर निकालकर पेट को अंदर-बाहर करते हुए 'रं' बीजमंत्र का जप करें। इससे जठराग्नि तीव्र होगी।

भोजन के बीच गुनगुना पानी पीयें।

सप्ताह में एक दिन उपवास रखें। निराहार रहें तो उत्तम, अन्यथा दिन में एक बार अल्पाहार लें।

सूखा मेवा, मिठाई, तले हुए पदार्थ, नया अनाज, आलू, सेम, अरबी, मटर, राजमा, अरहर, मक्का, नदी का पानी आदि त्याज्य हैं।

देशी आम, जामुन, पपीता, पुराने गेहूँ व चावल, तिल अथवा मूँगफली का तेल, सहजन, सूरन, परवल, पका पेठा, टिंडा, शलजम, कोमल मूली व बैंगन, भिंडी, मेथीदाना, धनिया, हींग, जीरा, लहसुन, सोंठ, अजवायन सेवन करने योग्य हैं।

श्रावण मास में पत्तेवाली हरी सब्जियाँ व दूध तथा भाद्रपद में दही व छाछ का सेवन न करें।

दिन में सोने से जठराग्नि मंद व त्रिदोष प्रकुपित हो जाते हैं। अतः दिन में न सोयें। नदी में स्नान न करें। बारिश में न भीगें। रात को छत पर अथवा खुले आँगन में न सोयें।

औषधि प्रयोगः

वर्षा ऋतु में रसायन के रूप में 100 ग्राम हरड़ चूर्ण में 10-15 ग्राम सेंधा नमक मिला के रख लें। दो ढाई ग्राम रोज सुबह ताजे जल के साथ लेना हितकर है।

हरड़ चूर्ण में दो गुना पुराना गुड़ मिलाकर चने के दाने के बराबर गोलियाँ बना लें। 2-2 गोलियाँ दिन में 1-2 बार चूसें। यह प्रयोग वर्षाजन्य सभी तकलीफों में लाभदायी है।

वर्षाजन्य सर्दी, खाँसी, जुकाम, ज्वर आदि में अदरक व तुलसी के रस में शहद मिलाकर लेने से व उपवास रखने से आराम मिलता है। एंटीबायोटिक्स लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 30, अंक 211

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आरम्भ सँवारा तो सँवरता है जीवन



जीवन का आरम्भिक समय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जीवन का पतन और उत्थान बाल्यावस्था के संस्कारों पर ही निर्भर है। बाल्यावस्था व युवावस्था से ही जो व्यक्ति सदगुणों का संग्राहक है, दयालु है, उदार है, कष्टसहिष्णु है, कर्तव्यपरायण तथा प्रेमी है, आगे चलकर वही समाज में एक अच्छा मानव हो सकता है। युवावस्था में ही जो नशीले पदार्थों का व्यसनी हो जाता है तथा जिसमें क्रोध, अभिमान, इन्द्रिय-लोलुपता की प्रधानता है एवं जो काम, क्रोध और रसना के स्वाद के वेग को नहीं रोक पाता, वही आगे चलकर समाज में मानवता को कलंकित करता है। सौभाग्यशाली युवक उसी को समझना चाहिए जो अपने जीवन में आरम्भ से ही सज्जन एवं साधु-महात्माओं के सुसंग से दैवी सम्पत्ति को बढ़ाता है और कुसंग से बचता है।

अपने कर्तव्यकर्मों में सावधान रहना, प्रसन्न रहना, उन्हें विधि के साथ पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प लेना – यह सब सफलता का शुभ मुहूर्त है। इसके विपरीत अपने कर्तव्य में आरम्भ से आलस्य करना, खिन्न उदास रहकर बिना मन के कार्य आरम्भ करना – ये सफलता के पथ में अशुभ संकेत हैं, अपशकुन हैं।

सभी का यह अनुभव है कि जिस दिन प्रातः उठने में आलस्यवश देरी हो जाती है, उस दिन शौच, स्नान आदि नित्यकर्म समयानुसार नहीं होते, उस दिन सभी कार्यों में गड़बड़ी, अस्त-व्यस्तता रहती है और जिस दिन समय पर उठने में एवं नित्यनियम पूर्ण करने में आलस्य नहीं रहता, उस दिन सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से पूरे होते हैं। वह दिन हँसता हुआ सा प्रतीत होता है।

जिसका आरम्भ सुन्दर, धर्म, नीति और मर्यादा से सुसंबद्ध होकर विधिवत चलता है, उसका भविष्य भला क्यों न सुंदर, पवित्र, सुखमय और मंगलमय होगा ? अवश्य होगा !

जिन व्यक्तियों के हृदय में आरम्भ से केवल शरीर की सुंदरता का तथा शरीर को सुंदर बनाने के लिए वस्त्राभूषणों का और वस्त्राभूषणों के लिए धन का महत्त्व प्रतीत होता है, वे जीवन को सुंदर नहीं बना पाते। ऐसे लोग वस्तुओं एवं व्यक्तियों की दासत में बँधे रहते हैं। यदि बाल्यावस्था एवं युवावस्था के आरम्भ में आलस्य, विलासित, दुर्व्यसन अथवा भोग-कामनाओं को स्थान मिल जाता है, तब उस जीवन का मध्य और अंत भी प्रायः अशुभ एवं असुंदर ही सिद्ध होता है।

मनुष्य का भविष्य प्रकाशपूर्ण होगा या अंधकारपूर्ण, इसका परिचय आरम्भ की गतिविधियों से ही मिल जाता है। आरम्भ में साथ लगा हुआ थोड़ा सा दोष, थोड़ा सा कोई दुर्व्यन, थोड़ी सी चोरी की आदत, थोड़ा झूठ बोलने का स्वभाव, थोड़ी सी कुटेव अथवा कोई भी अनुचित कुचेष्टा आगे चलकर थोड़ी न रह जायेगी। वह उसी प्रकार अपना बड़ा आकार धारण करेगी, जिस प्रकार आरम्भ में थोड़ी सी अग्नि की चिनगारी ईंधन का संयोग पाकर भयानक रूप धारण करती है।

यह समझने की बात है कि आरम्भ में जो कुछ थोड़ा दिखता है, वह आगे कभी थोड़ा नहीं रह जाता। वह चाहे थोड़ा सा दोष हो या साथ चलने वाली कोई थोड़ी सी भूल हो अथवा कोई थोड़ा गुण हो या सुंदर भाव अथवा सदविचार हो या दुर्विचार।

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए की सावधान होकर जो कुछ भी अशुभ, असुंदर, अपवित्र, अनावश्यक एवं अहितकर हो, उसे थोड़े से ही त्याग कर दे। जो थोड़े का त्याग नहीं कर सकता, वह अधिक का त्याग किस प्रकार करेगा ! अतः अधिक होने पर जिसका त्याग अति कष्टकर है उसका थोड़े से ही त्याग करना सुगम है।

जो प्रत्येक कार्य के आरम्भ में आवश्यक एवं हितकर का स्वीकार करना और अहितकर का त्याग करना जानता है, उसी का जीवन आगे चलकर सुंदर और पुण्यशाली होता है।

वैसे तो बाल्यावस्था और युवावस्था का आरम्भ अपने संरक्षकों अर्थात् माता-पिता, भाई, गुरुजनों के अधिकार में रहता है, फिर भी कुछ सयाने बालक अथवा युवक आरम्भ से ही अच्छी बुद्धि से युक्त होते हैं कि जिन्हें स्वयं ही अशुभ, असुंदर, अपवित्र बातों से घृणा होती है और शुभ, सुंदर, पवित्र बातों में अनायास ही प्रीति होती है।

माता-पिता, बड़े भ्राता तथा गुरु का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान का आरम्भ से ही किसी प्रकार की अशुद्ध, असुंदर, अपवित्र बातों से संसर्ग न होने दें। बालकों के हृदय एवं मस्तिष्क में आरम्भ से विद्याध्ययन तथा बड़ों के प्रति शिष्टाचार, सदाचार, धर्म एवं ईश्वर का महत्त्व भरना चाहिए।

आरम्भ को सुंदर बनाना, कुसंग तथा कुसंस्कार से दूषित न होने देना, शुभ कर्मों में ही शक्ति का सदुपयोग करना, धर्मतत्त्व, ईश्वरतत्त्व को जानने की अभिलाषा को प्रबल बनाना – ये सौभाग्यवानों में ही देख जाते हैं।

मनुष्य की जीवनगति प्रकाश की ओर है या अंधकार की ओर – इसका ज्ञान दूरदर्शी एवं बुद्धिमान को आरम्भ के दर्शन से ही हो जाता है।

किसी प्रकार के आरम्भ को आलस्य और प्रमाद से बचाकर सुंदर संग से विधिवत् सँभालना ही भविष्य को सुंदर बनाना है।

प्रातःकाल नींद खुलते ही आरम्भ में ही उस परमात्मा का स्मरण कर लो, जिसकी सत्ता से तुम जी रहे हो और सब प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति का रस ले रहे हो।

दिन में कार्य आरम्भ करने की विधि को, उसकी मर्यादित गति को और दिन भर के कार्यक्रम को समझ लो। स्मरण न रहे तो आरम्भ में ही सब कार्य लिख लो।

किसी से मिलो तो आरम्भ में सरल भाव से, प्रसन्नचित्त से, गम्भीरतापूर्वक, सुंदर शब्दों में बात करो अधिक बनावटीपन न आने दो और भद्दापन भी मिश्रित न होने दो। किसी से प्रीति का संबंध जोड़ो तो आरम्भ में ही अपनी चाह, अपना स्वभाव या त्रुटि उसके सामने रख दो, उसे आरम्भ में ही तैयार कर लो कि वह तुमसे यदि प्रेम करता है तो तुम्हारी त्रुटियों के साथ, भूलों के साथ, दोषों के साथ किस प्रकार निर्वाह करना होगा। उसे धोखा न दो ताकि विश्वासघात न हो।

जो कार्य आरम्भ करो, प्रारम्भ में ही उसकी पूर्ति के साधन जुटा लो, जो कुछ प्रतिकूलताएँ आ सकती हों, उनका सामना करने के लिए, अपने को सावधान करने के लिए जिन-जिन बातों की आवश्यकता पड़ती हो, उनको साथ लिये रहो। इससे साधन के सिद्ध होने में चूक नहीं होगी। यह तो हुई व्यवहार-जगत की बात, साधना-जगत में तो इससे भी अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 211

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गुरू आज्ञा सम पथ्य नहीं

(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

उज्जयिनी (वर्तमान में उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते थे।

एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः "देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।" शिष्यों ने कहाः "गुरूजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !"

गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः "भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।" राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।

गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः "जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।" चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये। भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न होंठ फड़के।

गुरू जी ने चेलों से कहाः "देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।"

शिष्य बोलेः "गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।"

थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः "अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।"

शिष्यों ने कहाः "गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।"

गोरखनाथजी ने कहाः "अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।"

भर्तृहरिः "जो आज्ञा गुरूदेव !"

भर्तृहरि चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप... मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन..... यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।

गोरखनाथ जी बोलेः "देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।"

अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो !

'मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।' – कूदकर दूर हट गये।

गुरु जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।' गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।

शिष्य बोलेः "गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।"

गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः "जरा छाया का उपयोग कर लो।"

भर्तृहरिः "नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।"

गोरखनाथ जी ने सोचा, 'अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।' थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने 'आह' तक नहीं की।

तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी।

तैसा मानु तैसा अभिमानु।

हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।

1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक

भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, 'यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है'।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ?

उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोलेः "शाबाश भर्तृहरि ! वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।"

भर्तृहरिः "गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।"

भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'

"गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।"

"नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।"

इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः "गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।"

गोरखनाथजी और खुश हुए कि 'हद हो गयी ! कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।'

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।

'जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'

(गीताः 12.16)

'कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।'

अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।

कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।

एक बार नैनीताल में मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहाः "जाओ, इन लोगों को 'चाइना पीक' (वर्तमान नाम – नैना पीक, यह हिमालय पर्वत का एक प्रसिद्ध शिखर है) दिखा के आओ।"

चलने वाले आनाकानी कर रहे थे, बार-बार इनकार कर रहे थे। हम हाथा-जोड़ी करके उनको 'चाइना पीक' ले गये। वहाँ मौसम साफ हो गया। सूर्य उदय नहीं हुआ था हम लोग तब चले थे पैदल और शाम को सूर्य ढल गया तब आश्रम में पहुँचे।

गुरुजी ने पूछाः "ऐसा खराब मौसम था, ओले पड़ रहे थे, कैसे पहुँचे ?"

हमारे साथ जो लोग गये थे, वे बोलेः "आसाराम ने कहा कि 'बापूजी ने आज्ञा दी है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा, आप चलो।' हम नहीं जाना चाहते थे तो हमको हाथा-जोड़ी करे, कभी हमको समझाये, कभी सत्संग सुनाये। कैसे भी करके दो बजे हमको 'चाइना पीक' पहुँचा दिया, जहाँ कोई सैलानी नहीं थे, सब वापस भाग गये थे।"

गुरुजी खुश हुए, बोलेः "पीऊऽऽऽ ! जो गुरु की आज्ञा मानता है, प्रकृति उसकी आज्ञा मानेगी।" हमको तो वरदान मिल गया !

सर्प विषैले प्यार से वश में बाबा तेरे आगे।

बादल भी बरसात से पहले तेरी ही आज्ञा माँगें।।

हमने गुरु की आज्ञा मानी तो हमारी तो हजारों लोग आज्ञा मानते हैं। गुरु की आज्ञा मानने से मुझे तो बहुत फायदा हुआ। गुरु की आज्ञा मानने में जो दृढ़ रहता है, बस उसने तो काम कर लिया अपना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 11, 12, 13 अंक 211

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गुरु की आवश्यकता क्यों ?

बात दो टूक, पर है सच्ची !

-स्वामी श्रीअखंडानंदजी सरस्वती

गुरु की आवश्यकता क्यों ?

यूँ तो प्रत्येक ज्ञान में गुरु की अनिवार्य उपयोगिता है परंतु ब्रह्मज्ञान के लिए तो दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। गुरु के बिना उपासना-मार्ग के रहस्य मालूम नहीं होते और न उसकी अड़चनें दूर होती है। जो उपासना करना चाहता है, वह गुरु के बिना एक पग भी नहीं बढ़ सकता। गुरु के संतोष में ही शिष्य की पूर्णता है। एक दृष्टांत कहता हूँ – मेरे बचपन का एक मित्र था। हम दोनों वर्षों से मिले नहीं किंतु पत्र-व्यवहार चलता था। एक बार मैं उसके घर गया पर उसने पहचाना नहीं। मैंने अपना नाम नहीं बताया और उसके साथ खुला व्यवहार करने लगा। वह तो हैरान हो गया। इतने में किसी ने मेरा नाम ले दिया तो आकर गले से लिपट गया। अब देखो कि मैं उसके सामने प्रत्यक्ष था परंतु नेत्रों के सामने होना एक बात है और पहचानना दूसरी वस्तु है।

हमारा आत्मा जो ब्रह्म है, हमसे कहीं दूर नहीं है। सदा सोते-जागते, उठते-बैठते अपने साथ है। यह नित्य प्राप्त है। इसमें वियोग की सम्भावना नहीं है। परंतु ऐसे नित्य प्राप्त आत्मा को हम पहचान नहीं रहे हैं। यदि इसमें स्थित होने से इसकी पहचान होती तो सुषुप्ति में, समाधि में हो जाती। पास रहते हम इसे पहचान नहीं रहे हैं तो बताने वाले की आवश्यकता है। जब तक कोई बतायेगा नहीं कि 'वह ब्रह्म तो तू ही है' तब तक उसका ज्ञान नहीं होगा।

उस ब्रह्म को आत्मरूप से जानने के लिए साधन-सम्पन्न जिज्ञासु हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु की शरण में जाय।

सदगुरु प्राप्त हो जायें तब क्या करें ?

तब उनकी विनय से सेवा करें और उसके प्रति प्रेम करें। उनमें दोष बुद्धि न करें और उनके महत्त्व को हृदयंगम करके उनसे ही अपने कल्याण की आशा करें। इस प्रकार सेवा और भक्ति से सदगुरु को अपने अनुकूल बनायें।

जब तक हम सदगुरु को भगवान के रूप में नहीं देख पाते, उनसे प्रवाहित होने वाले भगवदज्ञान को स्वीकार नहीं करते और उनकी प्रत्येक क्रिया हमें लीला के रूप में नहीं मालूम होने लगती, तब तक गुरुकरण नहीं हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। सदगुरु मानने के पश्चात उन्हें भगवान से नीचे कुछ भी समझना पतन का हेतु है। इस भगवदस्वरूप में वे ही एक हैं, जगत के और जितने भी गुरु हैं वे मेरे गुरु के लीलाविग्रह हैं। सर्वत्र उन्हीं का ज्ञान और उन्हीं का अनुग्रह प्रकट हो रहा है।

मंत्रदान के पश्चात गुरु की मनुष्यरूप में प्रतीती होना, यह तो शिष्य की कल्पना है। वास्तव में गुरु परमात्मा ही हैं। इन गुरु की शरण और इनके करकमलों की छत्रछाया पाकर शष्य धन्य-धन्य हो जाता है।

सदगुरु के प्रति शिष्य के हृदय में जितनी श्रद्धा, प्रेम और उनके महत्त्व का ज्ञान होता है, उसी के अनुसार उनसे शिष्य का व्यवहार होता है। जिह्वा पर 'गुरू' शब्द के आते ही शिष्य गदगद हो जाता है। गुरु का स्मरण कराने वाली वस्तु को देखकर लोट-पोट होने लगता है। गुरू सबसे श्रेष्ठ हैं, गुरु साक्षात् भगवान हैं, गुरु की पूजा ही भगवत्पूजा है। गुरु, गुरुमंत्र और इष्टदेवता ये तीन नहीं एक हैं। शिष्य अधिकारहीन होने पर भी यदि सदगुरू की शरण में पहुँच जाय तो वे उसे अधिकारी बना लेते हैं। पारस तो लोहे को ही सोना बनाता है अन्य धातु को नहीं, पर सदगुरू अधिकारहीन को भी अधिकारी बनाकर परम पद दे देते हैं।

जिस शरीर से सदगुरु की प्राप्ति हुई है, उस शरीर के प्रति अपनी कृतज्ञता कैसे प्रकट की जाय ?

उस शरीर को परमात्मा की, सदगुरु की सेवा में लगा दिया जाय – यही कृतज्ञता है। सेवा क्या है ? पाँव दबाने का नाम सेवा नही है, न पानी भरने का, उनके विचार में अपना विचार, उनके संकल्प में अपना संकल्प, उनकी पसंदगी में अपनी पसंदगी मिला देने का नाम सेवा है, यह सच्ची सेवा है। सेवा अपने मन की पसंद नहीं है, जिसकी सेवा की जाती है उसकी पसंद है। सदगुरु के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर देना ही कृतज्ञता है और यही भगवान की भी सेवा है।

गुरू और इष्ट एक ही हैं – यह बुद्धि कैसे हो ?

आत्मा और परमात्मा एकी है, ज्यों-ज्यों इस बुद्धि के निकट पहुँचते जायेंगे त्यों-त्यों गुरू और परमात्मा की एकता समझ में आती जायेगी। ईमानदारी से देखो कि आप कितनी गहराई के साथ शालग्राम की शिला को परमात्मा समझते हो। जयपुर से या वृंदावन से गढ़ी हुई जो मूर्तियाँ निकलती हैं, उनको आप कितनी ईमानदारी, कितनी गहराई से साक्षात् भगवान समझते हैं। जब हम अपने आत्मा को सच्चाई और ईमानदारी से हड्डी, मांस के शरीर से अलग, क्रिया-प्रक्रिया से अलग, इच्छाओं एवं भिन्न-भिन्न विचारों से अलग और जाग्रत, स्वप्न, सुषप्ति से भी अलग जितनी सूक्ष्मता से समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में गुरु को समझेंगे। और जितनी सूक्ष्मता में अपने को और गुरु को समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में परमात्मा को समझेंगे।

संत ज्ञानेश्वरजी ने 'ज्ञानेश्वरी गीता' में आचार्योपासना की व्याख्या में कहा है- "आचार्य के 'उप' माने पास आसन लगाना। जहाँ तुम्हारे गुरु बैठते हैं वहाँ तुम बैठो। तुम्हारे गुरू ईश्वर से एकता का अनुभव करते हैं तो तुम भी वैसा ही अनुभव करो। जितनी गहराई में तुम्हारे गुरू बैठते हैं, उतनी ही गहराई में तुम भी अपना आसन लगाओ।"

बाहर जाकर ईश्वर के पास नहीं बैठा जाता है, बाहर से लौटकर भीतर, हृदय के भी हृदय में, अंतर्देश के भी अंतर्देश में, अपने-आपमें जब हम बैठते हैं, उतने ही हम गुरु के पास बैठते हैं। असल में गुरू और ईश्वर दो अलग-अलग अपने स्वार्थ के कारण ही मालूम पड़ते हैं। बात जरा दो टूक है, पर है सच्ची !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 4, 5, 8 अंक 211

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।।गूरूपूर्णिमा।।



गुरुदेव कह रहे हैं- "हे जीव ! हे वत्स ! अब तू तेरे निज शिव-स्वभाव की ओर जा। अब तू प्रगति कर। ऊपर उठ। कब तक प्रकृति, जन्म-मृत्यु और दुःखों की गुलामी करता रहेगा !

गुरुपूर्णिमा का यह उत्सव उत्थान के लिए आयोजित किया गया है। तू विलम्ब किये बिना इस उत्सव में आकर अत्यन्त आनंदपूर्वक भाग ले। आ जा.... आ जा.... तू तेरे अपने सिंहासन पर आकर बैठ जा। साधक कोई डरपोक सियार या गरीब बकरी नहीं है, साधक तो सिंह है सिंह ! आध्यात्मिक सत्संग में उमंगपूर्वक आने वाले साधक के लिए तो गुरु का हृदय ही सिंहासन है। उस सिंहासन पर तू आरूढ़ हो। तू अपनी महिमा में आ जा। तू आ जा अपने आत्मस्वभाव में....

वत्स ! तू तेरे उत्कृष्ट जीवन में ऊपर उठता जा। प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा। दृढ़ निश्चय कर कि अब अपना जीवन दिव्यता की तरफ लाऊँगा।"

दया के सागर, कृपासिंधु वेदव्यासजी को हम नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को हम व्यास कहते हैं। उन्होंने मानव-जाति का परम हित करने के लिए ऐश-आराम, ऐन्द्रिक आकर्षण का, सबका त्याग करके जीवनदाता के साथ एकत्व साधा और जीवन के सभी पहलुओं को देख लिया। उन्होंने जीवन का उज्जवल पक्ष भी देखा और अंधकारमय पक्ष भी देखा। आसुरी भावों को भी देखा, सात्त्विक भावों को भी देखा और इन दोनों भावों को सत्ता देने वाले भावातीत, गुणातीत तत्त्व का भी साक्षात्कार किया। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों से लाभ लेने का पर्व, उनके और निकट जाने का पर्व है गुरूपूर्णिमा।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं किंतु गुरूपूर्णिमा का पर्व हमारे उत्कर्ष के लिए मनाता है।

गुरूदेव कहते हैं- "हे बंधु ! हे साधक ! तू कब तक संसार के गंदे खेलों को खेलता रहेगा ! कब तक इन्द्रियों की गुलामी करता रहेगा ! कब तक तू इस संसार का बोझ वहन करता रहेगा ! कब तक अपने अनमोल जीवन को मेरे तेरे के कचरे में नष्ट करता रहेगा ! जाग... जाग.... जाग... अब तो जाग.... अहंकार को लगा दे आग और निजस्वरूप में जाग... लगा दे विषय-विकारों को आग और निजस्वरूप में जाग ! लगा दे जीवत्व को आग और शिवस्वरूप में जाग !

तू अभी जहाँ है वहीं से प्रगति कर। उठ, ऊपर उठ। जैसे वायुयान पृथ्वी को छोड़कर गगन में विहार करता है, ऐसे ही तू मन से देहाध्यास छोड़कर ब्रह्मानंद के विराट गगन में प्रवेश करता जा। ऊपर उठता जा। विशालता की तरफ आगे बढ़ता जा।

अरे ! कब तक इन जंजीरों में जकड़ा रहेगा ! जंजीर लोहे की हो या ताँबे की या फिर भले सोने की हो परंतु जंजीर तो जंजीर है। स्वतन्त्रता से वंचित रखने वाली पराधीनता की बेड़ी ही है।

हे वत्स ! दीन-हीन बनकर कब तक गुलामी की जंजीरी में जकड़ता रहेगा ! गुलाम को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। कल्पनाओं की जंजीरें खींचने से न टूटती हो तो ॐ की शक्तिशाली गदा मारकर इन्हें तोड़ डाल। ॐ..... ॐ.....

अब तक जन्म-मरण के चक्कर को काट डाल। चौरासी लाख शीर्षासनों की परम्परा को तोड़ दे। तुझमें असीम बल है, असीम शक्ति है, अनंत वेग है, असीम सामर्थ्य है। ॐ... ॐ.... ऊपर उठता जा, आगे बढ़ता जा।"

गुरुतत्त्व की प्रेरक सत्ता में निमग्न होने वाले साधक, सत्शिष्य के अंदर गुरुवाणी का गुंजन होने लगा। अंदर से गुरुवाणी का प्रकाश प्रकट होने लगा और गुरु ने प्रेरणा दी कि 'हे वत्स ! तू जाग.... लगा दे अपने बंधनों को आग ! निजस्वरूप में जाग ! सब चिंताओं एवं शंकाओं को छोड़ दे। इसलिए तो तुझे यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

यह सचमुच में पावन उत्सव है, सुहावना उत्सव है, हमारे परम कल्याण का सामर्थ्य रखने वाला उत्सव है। अन्य देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद भी कोई पूजा बाकी रह जाती है, किंतु उन आत्मारामी महापुरुष की पूजा के बाद फिर कोई पूजा बाकी नहीं रहती।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।।

दुनिया भर के काम करने के बाद भी कई काम करने बाकी रहे जाते हैं। सदियों तक भी वे पूरे नहीं होते। किंतु जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा बताया गया काम उत्साह से करता है, उसके सब काम पूरे हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्वं तीर्थदातं तेन सर्व दानम्।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने एक क्षण के लिए भी ब्रह्मवेत्ताओं के अनुभव में अपने मन को लगा दिया, उसने समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सब दान दे दिये, सब यज्ञ कर लिये, सब पितरों का तर्पण कर लिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 2,5 अंक 211

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हृदयमंदिर की यात्रा कब करोगे ?



(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

कलकत्ता में दो भाई रहते थे। दोनों के पास खूब धन-सम्पदा थी। उनके बीच इकलौता बैटा था प्राणकृष्ण सिंह। ये दोनों भाइयों की सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी थे। उनके यहाँ भी एक ही लड़का था। उसका नाम था कृष्णचंद्र सिंह। उनके दादा जी, पिता उन्हें प्यार से 'लाला' कहकर पुकारते और नौकर-चाकर 'लालाबाबू' कहते थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद लालाबाबू की वर्धमान कलेक्टरी के सेरेस्तादार पद पर नियुक्ति हो गयी। बाद में उड़ीसा के सर्वोच्च दीवान के पद पर भी उन्हें नियुक्त किया गया।

समय बीता, लालाबाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया। पिता की जमींदारी और सारी सम्पदा की देखभाल का भार इनके ऊपर आ गया। इनके दादाजी अंग्रेज शासन काल में दीवान थे और बड़ी धन-सम्पदा के मालिक थे।

लालाबाबू कलकत्ता में अपने कामकाज से समय निकाल कर शाम को गंगाजी के किनारे घूमने निकल जाते। पाँच-पचीस मुनीम, मैनेजर और खुशामदखोर साथ चलते। नौकर-चाकर आरामदायक कुर्सी लगा देते, चाँदी का हुक्का रख देते। लालाबाबू आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते और गंगाजी की लहरों का आनन्द लेते।

एक शाम को लालाबाबू गंगा किनारे बैठे थे। कोई माई अपने कुटुम्बी को जगा रही थीः "लाला ! शाम हो गयी, कब तक सोओगे, जागो। दे ह्वै गयी, दिन बीतो जाय रियो है। लालाबाबू ! देर ह्वै गयी, जागो !"

पुण्यात्मा लालाबाबू ने सोचा कि 'सच है, देर हो रही है। जिंदगी का उत्तरकाल शुरु हो रहा है, बाल सफेद हो रहे हैं, अब जागना चाहिए। समाज की चीज धन-दौलत, वाहवाही.... ये कब तक !"

घर आये और कुटुम्बियों से कहाः "अब मैं वृंदावन जाऊँगा। जीवन की साँझ हो रही है, देर हो रही है। मेरे को जागना है।"

सब छोड़-छाड़कर वृंदावन में आ गये। भिक्षुक लोग जैसे भिक्षा माँगते हैं, ऐसे अन्नक्षेत्रों से टुकड़ा माँगकर खाते और 'राधे-राधे, राधे-कृष्ण, राधे-राधे-राधे.....' का जप कीर्तन करते। देखा कि 'अब मैं टुकड़ा माँगकर खाता हूँ पर और साधु-संत भी भिक्षा माँग रहे हैं। घर पर खूब सम्पदा है, वहाँ से धन मँगाकर साधु-संतों के लिए अन्नक्षेत्र और उनके निवास के लिए कुछ आश्रम-वाश्रम बनवायें।'

रंगजी के मंदिर में दर्शन करने गये तो मन में हुआ कि 'सेठ लक्ष्मीचंद ने यह मंदिर बनवाया है, मैं खूब धन लगाकर इससे भी बढ़िया मंदिर बनवाऊँ।'

घर से कुछ सम्पदा मँगाकर लालाबाबू ने बाँके बिहारी जी का मंदिर बनवाया। अब भगवान को पाने की तड़प ने लालाबाबू की जिज्ञासा जगायी कि अगर ठाकुरजी की प्राण प्रतिष्ठा विधिपूर्वक हुई है तो मूर्ति में प्राण चलने चाहिए।

सर्दियों के दिन थे। लालाबाबू ने पूजारी को मक्खन की एक टिक्की दी और बोलेः "ठाकुर जी के सिर पर रखो। यदि प्राण चलते हैं तो शरीर में गर्मी होती है, मस्तक की गर्मी से मक्खन पिघलेगा।"

उनकी सदभावना से ठाकुरजी के सिर पर रखा हुआ मक्खन पिघलने लगा। वे बड़े भाव विभोर हो गये और जोर जोर से पुकारने लगेः "जय हो प्रभु ! जय हो !! राधे गोविन्द, राधे-राधे, राधे-गोविन्द-राधे, कृष्ण-कण्हैया लाल की जय !" दण्डवत प्रणाम करके ठाकुरजी के चरणों में गिर पड़े। जैसे तुलसीदास जी के कहने से भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी छोड़ दी और धनुष उठाया था, ऐसे ही बाँके बिहारी ने प्रार्थना सुन ली। बाँके बिहारी की मूर्ति से शरीर की गर्मी का प्रमाण मिल गया। मन में संतोष हुआ कि ठाकुर जी में प्राण प्रतिष्ठा हुई है, मूर्ति में चैतन्य जागृत हो गया है।

कुछ दिनों बाद फिर परीक्षा का विचार आया। पुजारी को पतली सी रूई दी और बोलेः "ठाकुर जी की नासिका पर रखो। अगर प्राण-प्रतिष्ठा हुई है तो शरीर में प्राण भी चलने चाहिए। देखें, ठाकुर जी श्वास लेते हैं कि नहीं।"

पुजारी ने रूई रखी तो देखते हैं कि ठाकुरजी की मूर्ति के निःश्वास से रूई हिल रही है ! लालाबाबू अहोभाव से भर गये। लेकिन कुछ समय के बाद देखा कि 'अब भी ठाकुरजी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। मेरे सदभाव से, संकल्प से, शुद्ध पूजा से ठाकुरजी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का तो मैं एहसास करता हूँ परंतु मेरे प्राण, मन ठाकुर जी में रमण करें तब तो बात बने।'

उस समय कृष्णदासजी महाराज प्रसिद्ध थे वृंदावन में। लालाबाबू उनके पास गये और प्रार्थना कीः "महाराज ! मुझे भगवान से मिलाओ, भगवान के दर्शन कराओ, भगवान के स्वरूप का ज्ञान, भगवान की प्रीति का दान दे दो।"

कृष्णदास जी महाराज बोलेः "अभी समय नहीं हुआ है, समय होगा तो मैं तुम्हें खुद आकर दीक्षा दे दूँगा।"

लालाबाबू सोचने लगे कि 'सब कुछ छोड़कर आया हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, सदभाव से ठाकुरजी मममें प्राण-प्रतिष्ठा का एहसास भी मुझे हो गया किंतु गुरु जी मुझे बोलते हैं कि अभी समय नहीं हुआ है, मैं दीक्षा के योग्य नहीं हुआ हूँ। क्या कमी है ?'

अपनी कमी खोजने जाओ ईमानदारी से तो जल्दी मिल जायेगी। हम अपनी कमी जितनी जानते हैं उतना हमारे कुटुम्बी नहीं जानते, पड़ोसी नहीं जानते, दूसरे नहीं जानते। अपनी कमी पर चादर रखने से हमारी मति-गति और जिज्ञासा दब जाती है। अगर अपनी कमी निकालकर फेंक दें तो हमारे हृदय में परमेश्वर यूँ छलकते हुए प्रकटते हो जायें ! जैसे बोर करने से मिट्टी, कंकड़ हट जाते हैं तो पानी के झरने अंदर मिल जाते हैं और खूब नित्य नवीन जलधारा मिलती रहती है, ऐसे ही अपनी कमी निकालें तो नित्य नवीन सुख, नित्य नवीन प्रेमरस, ज्ञानरस और आरोग्य रस मिलता रहता है। लेकिन हमने वासनाओं से पर्दे से, इच्छाओं के कंकड़ और मिट्टी से उसे दबाकर रखा है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है, ज्ञान के लिए पोथे रटने पड़ते हैं, प्रसन्नता के लिए क्लबों में भटकना पड़ता है। जिसके जीवन में भगवदरस आ गया उसको प्रसन्नता के लिए क्लबों में नहीं जाना पड़ता, वह निगाह डाल दे तो लोगों में प्रसन्नता छा जाय।

लालाबाबू कमी खोजते गये तो पाया कि 'मेरे में कमी तो है। लक्ष्मीचंद सेठ ने रंगजी का मंदिर बनवाया और मैंने उनके प्रति प्रतिस्पर्धी भाव रखा। उनके साथ मुकद्दमेबाजी भी की। मुकद्दमे में जीत गया, मेरे में यह अहं भी है।'

जब तक अहं रहता है तब तक ठाकुरजी की प्राप्ति नहीं होती।

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा तुझसे पूछे कि बंदे ! तरी रजा क्या है ?

अभी खुदी अहंवाली है, खुदी ईश्वर में नहीं खोयी।

रंगजी के मंदिर के बाहर अन्न क्षेत्र में गरीब गुरबों को भोजन मिलता था। जहाँ सब याचक लोग कतार में खड़े रहते थे, वहाँ जाकर वे खड़े रह गये। नौकर ने सेठ लक्ष्मीचंद को बताया कि "लालाबाबू जिन्होंने रंगजी के मंदिर जैसे ही भव्य मंदिर बनवाया, साधु-संतों के लिए सदावर्त खोला, वे स्वयं भिक्षा माँगने के लिए अपने यहाँ खड़े हैं।"

सेठ लक्ष्मी चंद कच्चा सीधा, पक्की रसोई और सौ अशर्फियाँ लेकर हाजिर हो गये कि "महाराज ! स्वीकार करें।"

लालाबाबू बोलेः "यह आप मुझ भिक्षुक के लिए लाये हैं ! भिक्षुक को यह शोभा नहीं देता। आप इतना सारा सामान उठाकर लाये हैं, यह आप मेरी सम्पदा का स्वागत कर रहे हैं। इसका मैं अधिकारी नहीं हूँ। मैंने तो आपसे मुकद्दमेबाजी की थी, अब आप मुझे क्षमा कीजिए। एक भिक्षुक, तुच्छ भिक्षुक, आपके द्वार का भिखारी मानकर मुट्ठी भर अन्न दे दीजिए। मैं उसी से निर्वाह कर लूँगा।"

ये नम्रता के, अहंशून्यता के वचन सुनकर लक्ष्मीचंद सेठ के हृदय में छुपे हुए हृदयेश्वर का, परमात्म-सत्ता का भक्तिभाव छलका। आँखों में आँसू, हृदय में प्यार...

लक्ष्मीचंद बोलेः "यह क्या कह रहे हो लालाबाबू !"

लालाबाबू ने कहाः "लक्ष्मीचंद ! क्षमा करो, मैं आपका गुनहगार हूँ।"

दो और दो चार आँखें लेकिन प्रेमस्वरूप परमात्मा दोनों के द्वारा रसमय होकर छलक रहा है, द्रवीभूत हो रहा है। दोनों गले लगे और दोनों एक दूसरे के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। इतने में कृष्णदास महाराज आये और बोलेः "लालाबाबू ! आ जाओ, दीक्षा का समय हो गया है।"

कृष्णदास जी ने लालाबाबू को दीक्षा दी और कहाः "भगवान को प्राप्त करना है तो किसी से मिलो मत, जब तक ईश्वरप्राप्ति न हो तब तक इसी गुफा में रहो। भिक्षा तुम्हें हम यहीं भिजवा देंगे।"

अमीरी की तो ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, कृष्णदास की गुफा में आ बैठे।।

सातत्य.... भक्ति में सातत्य ! हम लोग थोड़ी भक्ति करते हैं, थोड़ा साधन करते हैं और बहुत सा असाधन करते हैं इसलिए ईश्वरप्राप्ति का रास्ता लम्बा हो जाता है, नहीं तो ईश्वर तो हमारा आत्मा है। जिसको हम कभी छोड़ नहीं सकते वह परमात्मा है और जिसको सदा न रख सकें उसी का नाम संसार है।

तो लालाबाबू ने अपना कल्याण कर लिया। ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में पहुँच गये और हृदय मंदिर की यात्रा की। पुत्रों और पत्नी के मोहपाश में न पड़े, प्रभुप्रेम में पावन हुए। लालाबाबू ने तो अपना काम बना लिया। अब हम इस माया से निपटकर किस दिन कल्याण के मार्ग पर चलेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 211

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जो गुरु-आज्ञा के जितने करीब होते हैं, उतने वे खुशनसीब होते हैं



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

पूज्य मोटा सन् 1930 में स्वतंत्रता संग्राम में आन्दोलनकारियों के साथ लगे थे तो एक बार साबरमती जेल में गये। साबरमती जेल में जब कैदी ज्यादा हो जाते थे तो उनको खेड़ा जेल में ले जाते थे। जब कैदियों का स्थानांतरण होता तो जेल के एक छोटे-से दरवाजे से सिर झुकाकर गुजरना पड़ता था। जब कैदी एक एक होकर निकलते थे तो सिपाही उनकी पीठ पर इतने जोर से डंडा मारता की कैदी बेचारे चिल्ला उठते। दूसरे कैदी देखकर ही डर जाते थे। अंग्रेज लोग इतना डरा देते ताकि उनका हौसला दब जाय, वे दब्बू होकर रहें और आंदोलन बंद हो जाय। उन कैदियों में पूज्य मोटा का पचासवाँ नम्बर था। उनचास कैदियों के पीछे खड़े-खड़े पूज्य मोटा डंडे की आवाज और कैदियों की करूण पुकार सुन रहे थे। जब उनका आठवाँ नम्बर आया तो मोटा जी सोचने लगे कि अब क्या करूँ ? तो वे जिन्हें अपना गुरु मानते थे, उनकी आवाज आयीः "त्राटक कर !" साथ में कैदी साथी शिवाभाई भी थे। पूज्य मोटा ने उनसे पूछाः "तुम्हें कोई आवाज सुनाई दी ?"

उन्होंने कहाः "मुझे तो कुछ सुनाई नहीं पड़ा।" मोटा को लगा क 'मेरे मन की कल्पना होगी।' जब सातवाँ नम्बर आया तो फिर से आवाज आयी की त्राटक कर ! तब उन्हें पता चला कि यह मेरे गुरुदेव धूनीवाले दादा केशवानंदजी ने प्रेरणा की है। जब उनके ऊपर डंडा लगने का मौका आया तो मोटा ने गुरुदेव का सुमिरन करके डंडा मारने वाले की आँखों में झाँका, निर्भय होकर ॐकार का जप किया। उन्हें मारने के लिए सिपाही ने डंडा ऊपर तो उठाया लेकिन मारने की हिम्मत नहीं हुई। सिपाही देखता ही रह गया ! बड़े अधिकारी ने उसे डाँटा कि, "क्या करता है ! मार !" सिपाही ने कहा कि "मैं नहीं मार सकता हूँ।" तो बड़े अधिकारी ने डंडा उठाया। मोटा जी ने उसकी भी आँखों में निर्भीक होकर झाँका। ॐकार का चिंतन करते हुए, गुरू के साथ मन जोड़कर देखा तो वह भी डंडा मारने में सफल नहीं हुआ। अधिकारी जेलर के पास गया और बोलाः "एक ऐसा कैदी आया है पता नहीं उसके पास क्या शक्ति है कि हम उसको डंडा नहीं मार सकते हैं।"

उस समय अंग्रेज शासन था इसलिए वे लोगों को बहतु सताते थे। सरकारी पिट्ठू भारत को आजाद करानेवालों को तो अपना दुश्मन मानते थे। जेलर बोलाः "ले आओ इधर !"

"तू कौन है, क्या करता है, कैदी है कि क्या है ? तेरे पास क्या जादू है ?"

जेलर ने सिर से पैर तक घूर-घूरकर देखा। मोटा ने जेलर की आँखों में देखा और कहाः "भाई ! हम तो कुछ नहीं करते, हम तो भगवान का नाम लेते हैं। सबमें ईश्वर है, वह ईश्वर हमारा बुरा नहीं चाहेंगे। आपके अंदर भी हमारा ईश्वर है – ऐसा चिन्तन करके खड़े थे तो उसी ईश्वर की सत्ता से उन्होंने हमको डंडा नहीं मारा और आप भी स्नेह करने लगेंगे।"

जेलर कुछ प्रभावित हुआ और बोलाः "तुम तो इतने अच्छे आदमी हो, फिर इन आंदोलनकारियों के साथ कैसे जुड़े ?"

पूज्य मोटाः "हमने सोचा कि देखें जरा क्या होता है, मान-अपमान का चित्त पर क्या असर होता है ? सबमें ब्रह्म है, आत्मा है, परमेश्वर है, एक सत्ता है तो उसका जरा प्रयोग करने के लिए हम इस आंदोलन में दो साल से जुड़ गये। जेल की सी क्लास की रोटियाँ खाते हैं। 'सी' क्लास में लोगों को कैसे-कैसे प्रताड़ित किया जाता है, वह भी हम देखते हैं।

जेलर तो पानी-पानी हो गया। उसने रजिस्टर मँगाया और लिख दिया कि 'मोटा जी को 'ए' क्लास की ट्रीटमेंट दी जाय। इनके भोजन में घी होगा, गुड़ होगा। इनको रात को दूध मिलना चाहिए। इनके बिस्तर पर मच्छरदानी होनी चाहिए।' एक नम्बर के कैदी को जो सुख सुविधाएँ मिलती हैं, वे सारी लिख दीं और उनके लिए सिफारिश लिख दी। तब से पूज्य मोटा को 'ए' क्लास का खाना-पीना मिलने लगा लेकिन वे उसे अपने साथियों में बाँट देते थे और स्वयं "सी" क्लास का भोजन करते कि 'अनेकों शरीरों में वही-का-वही है। 'सी' क्लास, 'बी' क्लास, 'ए' क्लास सब ऊपर-ऊपर की है। पानी की तरंग, बुलबुले, झाग, भँवर ऊपर-ऊपर है, समुद्र में गहराई में तो पानी एक-का-एक है।

सब घट मेरा साइयाँ खाली घट न कोय।

बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।

कबीरा कुआँ एक है पनिहारी अनेक।

न्यारे न्यारे बरतनों में पानी एक का एक।।

ॐ आनंद.... ॐ माधुर्य.....

शिष्य को जिस दिन से ब्रह्मज्ञानी गुरु से दीक्षा मिल जाती है, उस दिन से गुरू हर क्षण उसके साथ होते हैं, पर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। संसार की झंझटों से तो क्या जन्म-मरण से भी मुक्ति दिला देते हैं-

सभी शिष्य रक्षा पाते हैं,

व्याप्त गुरू बचाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 211

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किया योग्यता का दुरूपयोग हुआ मौत से संयोग





(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आपके पास मानने की, जानने की, करने की शक्ति है, अतः आप ऐसे सत्कर्म करो जिन कर्मों से अंतर्यामी परमात्मा संतुष्ट हो, अहंकार पुष्ट न हो, लोभ-मोह न बढ़े, द्वेष, चिंता न बढ़े, ये सब घट जायें। आपके पास जो भी धन, सत्ता योग्यता है, अगर उसके साथ ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं है तो वह न जाने किस प्रकार तुम्हें धोखा दे जाय कोई पता नहीं।

हरिदास महाराज के दो शिष्य थे बैजू बावरा और तानसेन। दोनों गुरुभाई महान संगीतज्ञ हो गये। बैजू बावरा का जन्म ईस्वी सन् 1542 में चंदेरी (ग्वालियर क्षेत्र, म.प्र.) में हुआ था। बैजू का संगीत और व्यवहार बहुत सुखद था। वह गुरु की कृपा को पचाने में सफल रहा। गुरु से संगीत की विद्या सीखकर बैजू एकांत में चला गया और झोंपड़ी बनाकर संयमी जीवन जीते हुए संगीत का अभ्यास करने लगा। अभ्यास में ऐसा तदाकार हुआ कि संगीत की कला सीखने वाले कई लोग उसके शिष्य बन गये। उनमें गोपाल नायक नाम का एक शिष्य बड़ा प्रतिभा सम्पन्न था। जैसे बैजू ने अपने गुरु हरिदासजी की प्रसन्नता पा ली थी, ऐसे ही गोपाल ने भी बैजू की प्रसन्नता पा ली। सप्ताह बीते, महीने बीते, वर्षों की यात्रा पूरी करके गोपाल ने संगीत-विद्या में निपुणता हासिल कर ली।

अब वक्त हुआ गुरु से विदाई लेने का। गोपाल ने प्रणाम किया। विदाई देते समय बैजू का हृदय भर आया कि यह शिष्य मेरी छाया की तरह था, मेरी विद्या को पचाने में सफल हुआ है पर जाने से रोक तो सकते नहीं। बैजू भरे कंठ, भरी आँखें शिष्य को विदाई देता हुआ बोलाः "पुत्र ! तुझे संगीत की जो विद्या दी है, यह मनुष्य जाति का शोक, मोह, दुःख, चिंता हरने के लिए है। इसका उपयोग जेब भरने या अहंकार पोसने के लिए नहीं करना।" विदाई लेकर गोपाल चला गया।

गोपाल नायक अपने गीत और संगीत के प्रभाव से चारों तरफ जय-जयकार कमाता हुआ कश्मीर के राजा का खास राजगायक था।

जब ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं होता तब धन मिलता है तो धन की लालसा बढ़ती है, मान मिलता है तो मान की लालसा, सत्ता मिलती है तो सत्ता की लालसा बढ़ती है। उस लालसा-लालसा में आदमी रास्ता चूक जाता है और न करने जैसे कर्म करके बुरी दशा को प्राप्त होता जाता है। इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलेंगी।

अब गोपाल को चारों तरफ यश मिलने लगा तो उसका अहंकार ऐसा फूला, ऐसा फूला कि वह गायकों का सम्मेलन कराता तथा उनके साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करता। गायकों को ललकारताः "आओ मेरे सामने ! अगर कोई मुझे हरा देगा तो मैं अपना गला कटवा दूँगा और जो मेरे आगे हारेगा उसको अपना गला कटवाना पड़ेगा।" जो हार जाता उसका सिर कटवा देता। हारने वाले गायकों के सिर कटते तो कई गायक-पत्नियाँ विधवा और गायक-बच्चे अनाथ, लाचार, मोहताज हो जाते लेकिन इसके अहंकार को मजा आता कि मैंने इतने सिर कटवा दिये। मुझे चुनौती देने वाला तो मृत्यु को ही प्राप्त होता है।

बैजू बावरा का दिखाने वाला सत्शिष्य कुशिष्य बन गया। मेरे गुरुदेव का भी एक कहलाने वाला सत्शिष्य ऐसा ही कुशिष्य हो गया था तो गुरुजी ने उसका त्याग कर दिया। वह मुझसे बड़ा था, मैं उसका आदर करता था। बाद में मेरी जरा प्रसिद्धि हुई तो मेरे पास आया लेकिन मैंने उससे किनारा कर लिया। जो मेरे गुरु का नहीं हुआ, वह मेरा कब तक ? गुरुभाई तब तक है जब तक मेरे गुरु की आज्ञ में रहता है। मेरे आश्रम से 40 साल में जो 5-25 लोग भाग गये, वे बगावत करने वाले और धर्मांतरण वालों के हथकंडे बन गये। अब उनकी बातों में मेरे शिष्य थोड़े ही आते हैं। वे तो गुरुभाई तब तक थे जब तक गुरु के सिद्धान्त में रहते थे। गुरु का सिद्धान्त छोड़ा तो हमारा गुरुभाई नहीं है, वह तो हमारा त्याज्य है। जैसे सुबह मल छोड़कर आते हैं तो देखते नहीं हैं। वमन करते हैं तो देखते नहीं हैं कि कितनी कीमती उलटी है।

उस जमाने में मोबाईल की व्यवस्था नहीं थी। बैजू बावरा को गोपाल की करतूतों का जल्दी से पता नहीं चला। कई गायकों के सिर कट गये, कई अबलाएँ विधवा हो गयीं, उनके बच्चे दर-दर की ठोकर खाने वाले मोहताज हो गये तब बात घूमती-घामती बैजू बावरा के कान पड़ी। उसे बड़ा दुःख हुआ कि इस दुष्ट ने मेरी विद्या का उपयोग अहंकार पोसने में किया ! मैंने कहा था कि यह संगीत की विद्या अहंकार पोसने के लिए नहीं है।

आखिर वह अपने शिष्य को समझाने के लिए पचासों कोस पैदल चलते-चलते वहाँ पहुँचा, जहाँ गोपाल नायक बड़े तामझाम से रहता था।

राजा साहब का खास था गोपाल, इसलिए अंगरक्षकों, सेवकों और टहलुओं से घिरा था। उसे संदेशा भेजा कि तुम्हारे गुरु तुमसे मिलने को आये हैं। गोपाल ने गुरु से मिलना अपना अपमान समझा। बैजू ने पहरेदारों से बहुत आजिजी की और किसी बहाने से अंदर पहुँचने में सफल हो गया। वृद्ध गुरु आये हैं यह देखकर भी वह बैठा रहा, उठकर खड़े होना उसके अहंकार को पसंद नहीं था। वह जोर से चिल्लायाः "अरे, क्या है बूढ़ा !"

बैजू बोलाः "बेटा ! भूल गया क्या ? मैंने भरी आँखें, भरे हृदय से तुझे विदाई दी थी। मैं वही बैजू हूँ गोपाल ! क्यों तू अहंकार में पड़ गया है ! मैंने सुना तूने कइयों के सिर कटवा दिये। बेटा ! इसलिए विद्या नहीं दी थी। मैं तेरी भलाई चाहता हूँ पुत्र !"

गोपालः "पागल कहीं का, क्या बकता है ! यदि तू गायक है या गुरु है तो कल आ जाना राजदरबार में, दिखा देना अपनी गायन कला का शौर्य। अगर हार गया तो सिर कटवा दिया जायेगा। पागल ! बड़ा आया गुरु बनने को !"

नौकरों के द्वारा धक्के मार के बाहर निकलवा दिया। अहंकार कैसा अंधा बना देता है ! लेकिन गुरुओं की क्या बलिहारी है कि एकाध दाँव अपने पास रखते हैं। उस लाचार दिखने वाले बूढ़े ने राजदरबार में घोषणा कर दी कि 'कल हम राजगायक के साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करेंगे। अगर हम हारेंगे तो राजा साहब हमारा सिर कटवा सकते हैं और अगर वह हारता है तो उसका कटवायें-न-कटवायें स्वतंत्र हैं।' आखिर गुरु का दिल गुरु होता है, उदार होता है। तामझाम से अपनी विजय-पताका फहराने वाले गोपाल नायक के सामने वह बूढ़ा बेचारा हिलता-डुलता ऐसा लगा मानो, मखमल से पुराने चिथड़े आकर टकरा रहे हैं लेकिन बाहर से देखने में पुराने चिथड़े थे, भीतर से हरिदास गुरु की कृपा उसने सँभाल रखी थी। गुरु से गद्दारी नहीं की थी। गुरु से गद्दारी करने से गुरु की दी हुई विद्या लुप्त हो जाती है, मेरे गुरुभाई के जीवन में मैंने देखा है।

दूसरे दिन गोपाल ने ऐसा राग आलापा की महलों के झरोखों से देखने वाली रानियाँ, दास-दासियाँ वहीं स्तब्ध हो गयीं, राजा गदगद हो गया, प्रजा भी खुश हो गयी। वह संगीत सुनने के लिए जंगल से हिरण भाग-भागकर आ गये। गोपाल ने गीत गाते-गाते हिरणों के गले में हार पहना दिये और उनको पता ही नहीं चला। गीत-संगीत के प्रभाव से वे इतने तन्मय हो गये थे। गीत बंद किया तो हिरण भाग गये। गोपाल ने गुरु को ललकाराः "औ बुड्ढे ! क्या है तेरे पास ? अब तू दिखा कोई जलवा। अगर तुझमें दम है तो उन भागे हुए जंगली हिरणों को अपने राग से वापस बुला और उनके गले की मालाएँ उतार कर दिखा तो मैं कुछ मानूँ, नहीं तो तुझे मेरे आगे परास्त होने का दंड मिलेगा। सिर कटाने को तैयार हो जा।"

जो अपने गुरु को बुड्ढा कहता है समझ लो कि उसकी योग्यताओं का ह्रास शुरु हो गया, उसकी भावना का दिवाला निकला है। उस आदमी का पुण्य प्रभाव क्षीण और मति-गति विकृत हो जाती है।

अब बैजू बावरा ने गुरु हरिदासजी का ध्यान कियाः

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

गुरु की इजाजत मिल गयी कि 'अहंकार सजाने, किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि धर्मरक्षा के लिए अपनी विद्या का उपयोग कर सकते हो।'

बैजू बावरा ने तोड़ी राग गाया। ऐसा राग आलापा कि राज भाव समाधि में चला गया, रानियाँ और प्रजा सब स्तब्ध हो गये। आज तक गोपाल ने जो प्रभाव जमा रखा था वह सब फीका हो गया। जो भागे हुए हिरण थे वे वापस आ गये। बैजू खड़े-खड़े गीत गाते गये और उनके गले की मालाएँ उतारकर एक तरफ ढेर कर दिया। हिरण एकटक देखते रहे, उन्हें अपनी सुधबुध न रही।

बाद में भीमपलासी राग गाते-गाते बैजू ने एक पत्थर पर दृष्टि डाली तो वह पत्थर पिघलने लगा जैसे मोम पिघलता है। पिघले हुए उस पत्थऱ पर उसने अपना तानपूरा फेंका और गीत बंद किया तो पत्थर फिर कड़क हो गया और तानपुरा उसमें जम गया।

बैजू बावराः "हे गुणचोर, गुरुद्रोही गोपाल नायक ! अगर तेरे पास है कोई विद्या, बल या अपनी योग्यता तो इस पत्थर को पिघला और मेरा तानपूरा निकाल कर दिखा।" जिसने अहंकार के कारण कइयों की जानें ली थीं और गुरुद्रोह कर रखा था, अब उसके राग दम ही कहाँ।

गोपाल ने गीत गाते-गाते कई बार पानी के घूँट भरे, सभी कोशिशें की मगर सब नाकाम रहीं। वह गाते-गाते थक गया, न पत्थर पिघला, न साज निकला, आखिर हार गया। राजा की आँखें क्रोध से चमचमाने लगीं। बैजू ने कहाः "राजन् ! इसे माफ कर दें। आखिर मेरा शिष्य है, बालक है। इसे मृत्युदण्ड न दें।"

गोपालः "मृत्युदण्ड तो इस बुड्ढे को दें यह मेरा गुरु बना था और यह विद्या मुझसे छुपाकर रखी। अगर यह विद्या मुझे सिखाता तो आज मैं हारता नहीं।"

बैजू बावराः "हाँ राजन् ! मुझे ही मृत्युदण्ड दे दो कि मैंने ऐसे कुपात्र को विद्या सिखायी जिसने लोकरंजन न करके, लोकेश्वर की भक्ति का प्रचार न करके अपने अहं को सजाया, कर्म को विकर्म बनाया। जिससे कई अबलाओं का सुहाग छिन गया, कई निर्दोष बच्चों के पिता छिन गये और तुम्हारे जैसे कई राजाओं का राज्य, धन-वैभव इसका अहंकार पोसने में लग गया। मैं अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये।"

राजाः "गायकराज ! तुम्हारे गीतों से पत्थर पिघल सकता है लेकिन न्याय के इस तख्त पर बैठे राजा का कठोर हृदय तुम नहीं पिघला सकते हो। इस गद्दार को मृत्युदण्ड दिया जायेगा।"

क्रोध से चमचमाती आँखों और उग्र हाथ ने इशारा किया – इस नमकहराम, अहंकारी का शिरोच्छेद कर दो। जल्लादों ने गोपाल का सिर धरती पर गिरा दिया। यह घटना बैजू बावरा सह नहीं सका। जैसे कुपुत्र के जाने से भी माता-पिता के दिल में दुःख होता है, ऐसे ही बैजू बावरा के दिल में दुःख हुआ।

सतलज नदी के तट पर गोपाल का अग्नि संस्कार हुआ। उसकी पत्नी ने प्रार्थना कीः "हे गुरुवर ! मेरे पति ने तो अनर्थ किया लेकिन आप तो करूणामूर्ति हैं, उन्हें क्षमा कर दें। मैं अपने पति की अस्थियों के दर्शन करना चाहती हूँ। अस्थियाँ नदी में चली गयी हैं। आप मेरी सहायता करें।"

बैजू बावरा ने उसे ढाढ़स बँधाया और एक राग की रचना की। वह राग उसकी बेटी मीरा को सिखाया। मीरा को बोलेः "तू यह राग गा और भगवान को प्रार्थना कर कि पिता कि अस्थियाँ जो नदी के तल में पहुँच गयी हैं वे सब एकत्रित होकर किनारे आ जायें।" मीरा ने राग गाया और सारी अस्थियाँ किनारे लग गयीं। आज के विज्ञान के मुँह पर थप्पड़ मारने वाले गायक अपने भारत में थे, अब भी कहीं होंगे।

गोपाल ने गुरु की विद्या को अहंकार पोसने में लगाया, क्या हम-आप ऐसी गलती तो नहीं कर रहे हैं ? श्रीकृष्ण कहते हैं- सावधान !....

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।

'कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।'

(गीताः 4.17)

आप जो भी कर्म करते हो तो वह ईश्वर की प्रीति के लिए, समाज के हित के लिए करो, न अहं पोसने के लिए, न कर्तृत्व-अभिमान बढ़ाने के लिए, न फल-लिप्सा के लिए और न कर्म-आसक्ति के वशीभूत होकर कर्म करो। क्रियाशक्ति, भावशक्ति और विवेकशक्ति इनका सदुपयोग करने से आप करने की शक्ति, मानने की शक्ति, जानने की शक्ति जहाँ से आती है उस सत्स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,16,17 अंक 211

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नंगा होना तो कोई विरला जाने !



(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

गांधारी ने दुर्योधन को कहा किः "मैंने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। मेरा तप इतना है कि आँख पर से पट्टी खोलूँ तो जैसा चाहूँ वैसा हो जायेगा। बेटे ! तू सुबह एकदम नग्न होकर आ जाना। मैं तुझे वज्रकाय हो जायेगा, फिर तेरे को कोई मार नहीं सकेगा।"

गांधारी की तपस्या सब लोग जानते थे। पांडवों में सनसनी फैल गयी। 'दुर्बुद्धि दुर्योधन वज्रकाय हो जायेगा, अमर हो जायेगा तो धरती पर अच्छे आदमी का रहना मुश्किल हो जायेगा ! क्या करें ?....' इस प्रकार पांडव बड़े दुःखी, चिंतित थे। भगवान श्रीकृष्ण आये। पांडव बोलेः "गोविन्द ! क्या आपने सुना, गांधारी ने दुर्योधन को बुलाया है कि एकदम निर्वस्त्र होकर आ, मैं पट्टी खोलकर तुझे देखूँगी तो तू वज्रकाय हो जायेगा और तुझे कोई मार नहीं सकेगा।"

श्रीकृष्ण हँसे। पांडव बोलेः "माधव ! आपको तो सब विनोद लगता है।"

"अरे ! विनोद ही है। सारा प्रपंच ही विनोद है, सारी सृष्टि विनोदमात्र है। जैसे नाटिका में उग्र रूप, सामान्य रूप, स्नेहमय रूप दुष्टों का क्रूर रूप.... जो कुछ दिखाते हैं, वह सब दर्शक के विनोद के लिए होता है। ऐसे ही यह सारी सृष्टि ब्रह्म के विनोदमात्र के लिए है, इसमें ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है।"

"लेकिन वह दुर्योधन नंगा होकर जायेगा...."

"अरे ! वह बेवकूफ नंगा होना जानता ही नहीं है। नंगा होना जानता तो बेड़ा पार हो जाता। उसने तो अपने ऊपर काम के, क्रोध के, लोभ के, अहंता के विचारों के कई आवरण लगा दिये हैं।"

दुर्योधन नंगा होना जानता ही नहीं है, नंगा होना तो महापुरुष जानते हैं। अन्नमय कोष मैं नहीं हूँ, प्राणमय कोष मैं नहीं हूँ, मनोमय कोष मैं नहीं हूँ, विज्ञानमय कोष मैं नहीं हूँ, आनंदमय कोष मैं नहीं हूँ, बचपन मैं नहीं हूँ, जवानी मैं नहीं हूँ, बुढ़ापा मैं नहीं हूँ, सुख मैं नहीं हूँ, दुःख मैं नहीं हूँ.... इन सबको जाननेवाला मैं चैतन्य आत्मा हूँ – यह है नंगा होना।

खुश फिरता नंगम-नंगा है, नैनों में बहती गंगा है।

जो आ जाये सो चंगा है, मुख रंग भरा मन रंगा है।।

देखो रमण महर्षि कितने नंगे थे ! एक बार एक पंडित ने महर्षि के पास आकर लोगों को प्रभावित करने के लिए कई प्रश्न पूछे। महर्षि ने उठाया डंडा और पंडित को भगाने लगे। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई, विदेशी पत्रकार पॉल ब्रंटन जैसे जिनके चरणों में बैठते थे, ऐसे रमण महर्षि कितने नंगे ! कोई आवरण नहीं। लोग सोच भी नहीं सकते कि शांत आत्मा, ब्रह्म-स्वरूप, सबमें अद्वैत ब्रह्म देखने की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए रमण महर्षि को ऐसा भी क्रोध आता है !

अरे, क्रोधी तो अपने को जलाता है, वे महापुरुष तो क्रोध का भी उपयोग करते हैं। आ गया गुस्सा तो आ गया, किसी का अहित करने के लिए नहीं परंतु व्यवस्था सँभालने के लिए। देखो, महापुरुष कितने नंगम नंगे हैं ! कोई आवरण नहीं। तो दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता और गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती। पट्टी खोलती है पर मोह-ममता चालू रखती है तो पट्टी क्या खोली ! अपनी वर्षों की तपस्या अपने रज से उत्पन्न एक जीव के पीछे नष्ट कर रही है ! मासिक धर्म के रक्त को पीकर जो शरीर बना है और अधर्म कर रहा है, उसके पीछे गांधारी अपनी तपस्या खत्म कर रही है। धर्म के पक्ष में निर्णय लेना चाहिए, वह तो ममता में निर्णय लेकर अपने पापी बेटे को दीर्घ जीवन देना चाहती है तो उसने पट्टी नहीं खोली, बेवकूफी की पट्टी बाँधे रखी।

लोग समझते हैं कि नंगा होने में क्या है, कपड़े उतार दिये तो हो गया नंगा ! अरे ! कपड़े उतारने से कोई नंगा होता है क्या ! वह तो बेशर्म आदमी है। अहं की चादरें पड़ी हैं, विकारों की चादरें पड़ी हैं, मान्यताओं की चादरें पड़ी हैं......। नंगा तो कोई भाग्यशाली हो। लोग फोटो में देखते हैं कि श्रीकृष्ण ने चीर हरण किया और गोपियों को नंगा किया। चित्रकार भी ऐसे ही चित्र बना देते हैं कि गोपियाँ बेचारी चिल्ला रही हैं और श्रीकृष्ण कपड़े ऊपर ले गये। यह बेवकूफी है। श्रीकृष्ण ने ग्वाल गोपियों को नंगा किया, मतलब 'मैं गोपी हूँ, मैं ग्वाल हूँ, मैं अहीर हूँ, मैं फलाना हूँ.....' इन मान्यताओं की परतें हटायीं।

पाँच शरीर होते हैं और हर शरीर में अपने-अपने विकार होते हैं। वही चादरें ओढ़कर जीव जी रहा है, नंगा होना जानता ही नहीं।

हम अमेरिका में स्वीमिंग पूल देखने गये थे। वह सब पुरुषों के शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, एकदम नंगे। ऐसे नंगा होने से तो पाप लगता है। शरीर को नंगा करना शास्त्रविरूद्ध है। स्नानागार में भी नंगा नहीं रहना चाहिए। कोई-न-कोई वस्त्र कटि पर होना चाहिए।

श्रीकृष्ण ने कहाः "गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती है और दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता है। तुम चिंता क्यों करते हो ?"

"माधव ! लेकिन वह देख लेगी तो ?"

"अरे ! तुम देखो तो सही। वह किस रास्ते से जाता है, मैंने पता करके रखा है।"

दुर्योधन एकदम नंगधड़ंग होकर जा रहा था तो श्रीकृष्ण ने देख लिया। अब ढकने को कुछ था नहीं तो ऐसे ही बैठ गया। श्रीकृष्ण ने कहाः "अरे दुर्योधन ! तू इतना समझदार और ऐसे जा रहा है ! वह तेरी माँ है और तू इतनी बड़ी उम्र का है, मैं तो पुरुष हूँ, जब मेरे सामने तेरे को इतना संकोच होता है तो माँ के सामने जाने पर कैसा होगा ! कम-से-कम कटिवस्त्र तो पहन ले।"

दुर्योधन को लगा कि बात तो ठीक कहते हैं। उसने कटिवस्त्र (कमर से घुटने तक शरीर ढकने का वस्त्र) पहन लिया।

दुर्योधन गया गांधारी के पास और गांधारी ने संकल्प किया कि 'दुर्योधन के शरीर पर जहाँ-जहाँ मेरी नजर पड़े, वे सभी अंग वज्रसमान हो जायें।' सारी तपस्या दाँव पर लगा दी। पट्टी खोली तो देखती है कि दुर्योधन ने कटिवस्त्र पहना है। उसको देखकर बोलने लगीः "अरे अभागे ! यह क्या कर दिया तूने !"

श्रीकृष्ण ने भीम को कहाः "अब दुर्योधन को कहाँ मारने से मरेगा, वह उपाय समझ लें। इधर-उधर गदा मारने की जरूरत नहीं है कमर पर ही गदा मारना, गांधारी ने उसके मरने का रास्ता बता दिया है।"

गांधारी ईश्वर विधान को जानती तो थी, धर्म का उसे ज्ञान तो था लेकिन उसका धन मोहवश अधर्म की पीठ ठोंकता है। किसी भी व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में ममता हुई, आसक्ति हुई, मोह हुआ तो समझो की मरे ! इसलिए मोह-ममता नहीं होनी चाहिए और वह सदगुरु की कृपा बिना नहीं मिटती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 23, 24 अंक 211

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देवताओं का प्रभातकालःउत्तरायण


(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )
(उत्तरायण पर्वः 14 जनवरी)

उत्तरायण पर्व के दिवस से सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर चलता है। उत्तरायण से रात्रियाँ छोटी होने लगती हैं, दिन बड़े होने लगते हैं. अंधकार कम होने लगता है और प्रकाश बढ़ने लगता है।
जैसे कर्म होते हैं, जैसा चिंतन होता है, चिंतन के संस्कार होते हैं वैसी गति होती है, इसलिए उन्नत कर्म करो, उन्नत संग करो, उन्नत चिंतन करो। उन्नत चिंतन, उत्तरायण हो चाहे दक्षिणायण हो, आपको उन्नत करेगा।
इस दिन भगवान सूर्यनारायण का मानसिक ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें क्रोध से, काम विकारों से चिंताओं से मुक्त करके आत्मशान्ति पाने में गुरू की कृपा पचाने में मदद करें। इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जाएंगे, वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे।
ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना। इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, नीरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे। रोग तथा अनिष्ट का भय फिर आपको नहीं सताएगा। ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः । जपते जाओ और मन ही मन सूर्यनारायण का ध्यान करते जाओ, नमन करो।
ॐ सूर्याय नमः । मकर राशि में प्रवेश करने वाले भगवान भास्कर को हम नमन करते हैं। मन ही मन उनका ध्यान करते हैं। बुद्धि में सत्त्वगुण, ओज़ और शरीर में आरोग्य देनेवाले सूर्यनारायण को नमस्कार करते हैं।
नमस्ते देवदेवेश सहस्रकिरणोज्जवल।
लोकदीप नमस्तेsस्तु नमस्ते कोणवल्लभ।।
भास्कराय नमो नित्यं खखोल्काय नमो नमः।
विष्णवे कालचक्राय सोमायामातितेजसे।।
हे देवदेवेश! आप सहस्र किरणों से प्रकाशमान हैं। हे कोणवल्लभ! आप संसार के लिए दीपक हैं, आपको हमारा नमस्कार है। विष्णु, कालचक्र, अमित तेजस्वी, सोम आदि नामों से सुशोभित एवं अंतरिक्ष में स्थित होकर सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाले आप भगवान भास्कर को हमारा नमस्कार है।
(भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्वः 153.50.51)
उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी है। ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्यगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः।
उत्तरायण देवताओं का प्रभातकाल है। इस दिन तिल के उबटन व तिलमिश्रत जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल का भोजन तथा तिल का दान सभी पापनाशक प्रयोग हैं।
उत्तरायण का पर्व पुण्य-अर्जन का दिवस है। उत्तरायण का सारा दिन पुण्यमय दिवस है, जो भी करोगे कई गुणा पुण्य हो जाएगा। मौन रखना, जप करना, भोजन आदि का संयम रखना और भगवत्-प्रसाद को पाने का संकल्प करके भगवान को जैसे भीष्म जी कहते हैं कि हे नाथ! मैं तुम्हारी शरण में हूँ। हे अच्युत! हे केशव! हे सर्वेश्वर! हे परमेश्वर! हे विश्वेश्वर! मेरी बुद्धि आप में विलय हो। ऐसे ही प्रार्थना करते-करते, जप करते-करते मन-बुद्धि को उस सर्वेश्वर में विलय कर देना। इन्द्रियाँ मन को सँसार की तरफ खीँचती हैं और मन बुद्धि को घटाकर भटका देता है। बुद्धि में अगर भगवद्-जप, भगवद्-ध्यान, भगवद्-पुकार नहीं है तो बुद्धि बेचारी मन के पीछे-पीछे चलकर भटकाने वाली बन जाएगी। बुद्धि में अगर बुद्धिदात की प्रार्थना, उपासना का बल है तो बुद्धि ठीक परिणाम का विचार करेगी कि यह खा लिया तो क्या हो जाएगा? यह इच्छा करूँ-वह इच्छा करूँ, आखिर क्या? – ऐसा करते-करते बुद्धि मन की दासी नहीं बनेगी। ततः किं ततः किम् ? – ऐसा प्रश्न करके बुद्धि को बलवान बनाओ तो मन के संकल्प-विकल्प कम हो जाएंगे, मन को आराम मिलेगा, बुद्धि को आराम मिलेगा।
ब्रह्मचर्य से बहुत बुद्धिबल बढ़ता है। जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, जिससे बुद्धि में बल बढ़े।
ॐ सूर्याय नमः......... ॐ शंकराय नमः......... ॐ गं गणपतये नमः............ ॐ हनुमते नमः......... ॐ भीष्माय नमः........... ॐ अर्यमायै नमः............ ॐ ॐ ॐ ॐ
उत्तरायण का पर्व प्राकृतिक ढंग से भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इस दिन लोग नदी में, तालाब में, तीर्थ में स्नान करते हैं लेकिन शिवजी कहते हैं जो भगवद्-भजन, ध्यान और सुमिरन करता है उसको और तीर्थों में जाने का कोई आग्रह नहीं रखना चाहिए, उसका तो हृदय ही तीर्थमय हो जाता है। उत्तरायण के दिन सूर्यनारायण का ध्यान-चिंतन करके, भगवान के चिंतन में मशगूल होते-होते आत्मतीर्थ में स्नान करना चाहिए।
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स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2007.

मन को कैसे जीतें?

(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

जितने बढ़े व्यक्ति को हराया जाता है, उतना ही जीत का महत्त्व बढ़ जाता है। मन एक शक्तिशाली शत्रु है। उसे जीतने के लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना पड़ता है। मन जितना शक्तिशाली है, उस पर विजय पाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मन को हराने की कला जिस मानव में आ जाती है, वह मानव महान् हो जाता है।
‘श्रीमद् भगवद् गीता ‘ में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता हैः
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद् दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
‘हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बड़ा बलवान् है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।‘
(गीताः६,३४)
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुनिर्ग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
‘हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास अर्थात् एकीभाव में नित्य स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से वश में होता है।‘
(गीताः ६,३५)
जो लोग केवल वैराग्य का ही सहारा लेते है, वे मानसिक उन्माद के शिकार हो जाते हैं। मान लो, संसार में किसी निकटवर्ती के माता-पिता या कुटुम्बी की मृत्यु हो गयी। गये श्मशान में तो आ गया वैराग्य... किसी घटना को देखकर हो गया वैराग्य... चले गये गंगा किनारे... वस्त्र, बिस्तर आदि कुछ भी पास न रखा... भिक्षा माँगकर खा ली फिर... फिर अभ्यास नहीं किया। ... तो ऐसे लोगों का वैराग्य एकदेशीय हो जाता है।
अभ्यास के बिना वैराग्य परिपक्व नहीं होता है। अभ्यासरहित जो वैराग्य है वह ‘मैं त्यागी हूँ’ ... ऐसा भाव उत्पन्न कर दूसरों को तुच्छ दिखाने वाला एवं अहंकार सजाने वाला हो सकता है। ऐसा वैराग्य अंदर का आनंद न देने के कारण बोझरूप हो सकता है। इसीलिए भगवान कहते हैं-
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
अभ्यास की बलिहारी है क्योंकि मनुष्य जिस विषय का अभ्यास करता है, उसमें वह पारंगत हो जाता है। जैसे – साईकिल, मोटर आदि चलाने का अभ्यास है, पैसे सैट करने का अभ्यास है वैसे ही आत्म-अनात्म का विचार करके, मन की चंचल दशा को नियंत्रित करने का अभ्यास हो जाए तो मनुष्य सर्वोपरि सिद्धिरूप आत्मज्ञान को पा लेता है।
साधक अलग-अलग मार्ग के होते हैं। कोई ज्ञानमार्गी होता है, कोई भक्तिमार्गी होता है, कोई कर्ममार्गी होता है तो कोई योगमार्गी होता है। सेवा में अगर निष्कामता हो अर्थात् वाहवाही की आकांक्षा न हो एवं सच्चे दिल से, परिश्रम से अपनी योग्यता ईश्वर के कार्य में लगा दे तो यह हो गया निष्काम कर्मयोग।
निष्काम कर्मयोग में कहीं सकामता न आ जाये – इसके लिए सावधान रहे और कार्य करते-करते भी बार-बार अभ्यास करे किः ‘शरीर मेरा नहीं, पाँच भूतों का है। वस्तुएँ मेरी नहीं, ये मेरे से पहले भी थीं और मैं मरूँगा तब भी यहीं रहेंगी... जिसका सर्वस्व है उसको रिझाने के लिए मैं काम करता हूँ...’ ऐसा करने से सेवा करते-करते भी साधक का मन निर्वासिक सुख का एहसास कर सकता है।
भक्तिमार्गी साधक भक्ति करते-करते ऐसा अभ्यास करे किः ‘अनंत ब्रह्माण्डनायक भगवान मेरे अपने हैं। मैं भगवान का हूँ तो आवश्यकता मेरी कैसी? मेरी आवश्यकता भी भगवान की आवश्यकता है, मेरा शरीर भी भगवान का शरीर है, मेरा घर भगवान का घर है, मेरा बेटा भगवान का बेटा है, मेरी बेटी भगवान की बेटी है, मेरी इज्जत भगवान की इज्जत है तो मुझे चिन्ता किस बात की?’ ऐसा अभ्यास करके भक्त निश्चिंत हो सकता है।

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ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने

(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

परमात्मा सदा से है, सर्वत्र है। उसके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं । इस बात को जो समझ लेता है, जान लेता है वह परमात्मारूप हो जाता है। सूर्य के उदित होते ही संपूर्ण जीव-सृष्टि अपने-अपने गुण-स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाती है। सूर्य को कुछ नहीं करना पड़ता है। जैसे सूर्य अपनी महिमा में स्थित रहकर चमकता रहता है, ऐसे ही परमात्मा-प्राप्त महापुरूष का जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में प्रारब्ध वेग से व्यतीत होता रहता है।
अजमेर में ऐसे ही एक संत बूलचंद सोनी हो गये जिन्होंने अपना जीवन आत्मसूर्य के प्रकाश में बिताया। पूर्व के पुण्य प्रभाव से उनकी बुद्धि में विवेक का उदय हुआ। उन्होंने सोचाः ‘ज़िन्दगी भर संसार की खटपट करते रहने में कोई सार नहीं है। आयुष्य ऐसे ही बीता जा रहा है। ऐसा करते-करते एक दिन मौत आ जाएगी। अतः अपने कल्याण के लिए भी कुछ उपाय करने चाहिए।‘
ऐसा सोचकर वे ऐसा संग ढूँढने में लग गये जो उन्हें ईश्वर के रास्ते ले चले, उसमें सहयोगी हो सके। ढूँढते-ढूँढते उन्हें कुछ पण्डित मिल गये। वे कुछ समय तक उन लोगों के साथ रहे और उनके कथनानुसार सब कुछ करते रहे, परन्तु थोड़े ही दिनों में वे ऊब गये। उन्हें लगा कि चित्त में आनन्द नहीं उभर रहा है, भीतर की शाँति नहीं मिल रही है। अतः पण्डितों का साथ छोड़कर वे पुनः किसी सत्पुरूष की खोज में चल पड़े।
मिल जाए कोई पीर फकीर, पहुँचा दे भव पार।
खोजते-खोजते वे पहुँच गये एक तत्त्वज्ञानी महापुरूष के चरणों में।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानीनस्तत्त्वदर्शिनः।।
‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली-भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली-भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।‘
(श्रीमद् भगवद् गीताः ४-३४)
बूलचन्द सोनी विनम्रतापूर्वक उन महापुरूष की शरण में रहे। उनके आदेशानुसार जप-ध्यानादि करते हुए धीरे-धीरे वे भी ब्रह्मज्ञान पाने के अधिकारी हो गये और उन संत की करूण-कृपा से आत्म-परमात्मज्ञान में उनकी स्थिती हुई।
अब उन्हें कर्मकाण्ड आदि की बाते व्यर्थ लगने लगीं। उनमें उनकी दिलचस्पी ही नहीं रही। पंडितों की बातों से उनका मेल नहीं बैठता था क्योंकि उन्होंने अब जान लिया था कि कर्मकाण्ड क्या है और सत्यस्वरूप आत्मा का ज्ञान क्या है। उन पंडितों ने देखा कि अब ये हमारे पास नहीं आते हैं, अतः वे उन्हें समझाने लगे किः ‘ भाई! तुम अब यहाँ क्यों नहीं आते हो? यज्ञादि में भाग क्यों नहीं लेते हो?’
उन्होंने कहाः ‘’प्रार्थना से भगवान प्रसन्न होते हैं, यज्ञ से भगवान प्रगट होते हैं, यह सब ठीक तो है लेकिन यह सब तभी तक ठीक था जब तक मैंने अपने भगवद्स्वरूप को नहीं जाना था। अब मैंने जान लिया है कि मैं भी भगवद्स्वरूप हूँ तो क्यो गिड़गिड़ाऊँ।‘’
उनकी ऐसी बात सुनकर वो लोग चिढ़ गयेः ‘’ तुम क्या बकते हो? क्या तुम भगवान हो? अपने को भगवान मानते हो।‘’
बूलचन्द सोनीः ‘’ यह तो आप भगवान को सब कुछ समझ रहे हो, इसलिए कहता हूँ कि, ‘मैं भगवान हूँ’ अन्यथा तो भगवान की सत्ता जिससे प्रगट होते हैं वह चैतन्य ब्रह्म मैं हूँ। इस बात को मैं मानता और जानता भी हूँ।
पंडितः ‘’ अच्छा... तो तुम भगवान को नहीं मानते नहीं हो।‘’ फिर सब पंडित आपस में मिल कर कहने लगेः ‘’ यह तो नास्तिक हो गया है।‘’
शेर अकेला होता है, भीड़ भेडियों की होती है। सब पंडितों ने मिलकर घेर लिया बूलचन्द सोनी को और कहने लगेः ‘’ तुम ब्रह्म हो- यह बात हम तब मानेंगे, जब तुम कोई करिश्मा दिखाओगे।‘’
साधारण लोग जब यह बना-बनाया जगत देखते हैं तो समझते हैं कि भगवान ने बनाया है, परन्तु ऐसी बात नहीं है। ब्रह्म में जगत विवर्तरूप होकर भासता है, भ्राँतिरूप होकर भासता है। इसे किसी ने बैठकर बनाया नहीं है। यदि जगत ऐसे बना है जैसे कुम्हार मिट्टि से घड़ा बनाता है तो जिन पाँच महाभूतों से जगत बना है वह मिट्टि, हवा, जल आदि बनाने का कच्चा माल भी तो चाहिए! वह कच्चा माल भगवान लाए कहाँ से?
ऐसा तो नहीं है कि भगवान ने कुछ कच्चा माल लाकर पृथ्वी, जल, वायु आदि बनाकर चिड़िया आदि जीवों को रख दिया है कि जाओ खेलो। परन्तु लोग समझ रहे हैं कि भगवान ने दुनिया बनायी और वह खेल देख रहा है। मंदमति के लोगों को असली बात का पता ही नहीं है। भेड़ों की भीड़ की तरह चल रहे हैं। इसलिए वे भगवान को मानते हैं, भगवान में श्रद्धा रखते हैं। लेकिन उनमें से कोई विरला होता है जो अपने-आपको भगवद्स्वरूप जान लेता है, बाकी तो सब ठनठनपाल रह जाते हैं।
पंडितों की करिश्मा दिखाने की बात सुनकर बूलचंद हँस पड़े। ‘’ भाई ! क्यों हँसते हो?’’ ‘’ अरे ! तुम मुझे करिश्मा दिखाने के लिए कहते हो? तुम कितने भोलेभाले हो ! तुम मैनेजर का काम सेठ को सौंपते हो। सृष्टि बनाने का संकल्प ब्रह्मा जी करते हैं। बूलचंद का शरीर तो ब्रह्माजी का दास है किन्तु मैं बूलचंद नहीं हूँ। मैं तो वह हूँ जिससे चेतना लेकर ब्रह्माजी संकल्प करते हैं। ब्रह्माजी का चित्त एकाग्र है, इसलिए उनका संकल्प फलता है। बूलचंद का अंतःकरण एकाग्र नहीं है, इसलिए उसका संकल्प नहीं फलता है। लेकिन बूलचंद एवं ब्रह्माजी दोनों के अंतःकरण को चेतना देने वाला चैतन्य आत्मा एक है और मैं वही हूँ।‘’
वे पंडित तो मूढ़वत उनकी बातें सुनते रहे। उनको ये बातें जचीं नहीं और वे सब वहाँ से उठकर चल दिये।
यह ज़रूरी नहीं कि आपको आत्म-साक्षात्कार हो जाए तो आप भी कुछ चमत्कार कर सको। करना-धरना अंतःकरण में है और वह एकाग्रता से होता है। ब्रह्म में कुछ नहीं है। ब्रह्म कुछ नहीं करता है। ब्रह्म तो सत्तामात्र है। सारी क्रियाएँ, सारी सत्ताएँ उसी से स्फुरित होती हैं। जिनका अंतःकरण एकाग्र होता है, उनके जीवन में चमत्कारिक घटनाएँ घट सकती हैं। लेकिन चमत्कार के बिना भी ज्ञान हो सकता है।
वेदव्यास जी और वशिष्ठ जी के जीवन में चमत्कार भी हैं और ज्ञान भी है। साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन में भी चमत्कार और ज्ञान दोनों हैं। किसी के पास अकेला ज्ञान है, तब भी वह मुक्त ही है। योग सामर्थ्य हो चाहे न हो किन्तु मुक्ति पाने के लिए तत्त्वज्ञान हो- यह बहुत ज़रूरी है। ज्ञान से ही मुक्ति होती है। ऐसा ज्ञान पाया हुआ आदमी सब प्रकार के शोकों से तर जाता है। उसका मन निर्लेप हो जाता है। शोक के प्रसंग में शोक बाधित होता है एवं राग के प्रसंग में राग बाधित होता है। काम और क्रोध के प्रसंग में काम और क्रोध बाधित होते हैं। नानक जी ने भी कहा हैः
ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा,
जैसे जल में कमल अलेपा।
ब्रह्मज्ञानी का मत कौन बखाने,
नानक ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने।।


ॐ शांति... ॐ शांति... ॐ शांति... ॐ शांति... ॐ शांति... ॐ शांति...

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अंक ७७, मई १९९९, पृष्ठ संख्या १५,१६,१७

ब्रह्मः अनन्त शक्तियों का पुंज

(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )
स्पन्दनशक्ति के अलावा और अनेकानेक शक्तियाँ ब्रह्म में समाविष्ट हैं। ब्रह्म ही अनेक शक्तियों का पुंज है। ब्रह्म ही अपनी शक्तियों को जहां चाहे, प्रकट कर सकता है।
श्रीयोगवाशिष्ठ रामायण में कहा हैः
सर्वशक्तिमयो आत्मा। आत्मा (परमात्मा) सब शक्तियों से युक्त है। वह जिस शक्ति की भावना जहां करे, वहीं अपने संकल्प द्बारा उसे प्रकट हुआ देखता है।
सर्वशक्ति हि भगवानयैव तस्मै हि रोचते।
भगवान ही सब प्रकार की शक्तियों वाला तथा सब जगह वर्तमान है। वह जहां चाहे अपनी शक्ति को प्रकट कर सकता है। वास्तव में नित्य, पूर्ण और अक्षय ब्रह्म में ही समस्त शक्तियाँ मौजूद हैं। संसार में कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सर्वरूप से प्रतिष्ठित ब्रह्म में मौजूद न हो। शांत आत्मा, ब्रह्म में ज्ञान शक्ति, क्रियाशक्ति आदि अनेकानेक शक्तियाँ वर्त्तमान हैं ही। ब्रह्म की चेतनाशक्ति शरीरधारी जीवों में दिखाई देती है तो उसकी स्पन्दनशक्ति, जिसे क्रियाशक्ति भी कहते हैं, हवा में दिखती है। उसी शक्तिरूप ब्रह्म की जड़शक्ति पत्थर में है तो द्रवशक्ति (बहने की शक्ति) जल में दिखती है। चमकने की शक्ति का दर्शन हम आग में कर सकते हैं। शून्यशक्ति आकाश में, सब कुछ होने की भवशक्ति संसार की स्थिति में, सबको धारण करने की शक्ति दशों दिशाओं में, नाशशक्ति नाशों में, शोकशक्ति शोक करने वालों में, आनन्दशक्ति प्रसन्नचित्त वालों में, वीर्यशक्ति योध्दाओं में, सृष्टि करने की शक्ति सृष्टि में देख सकते हैं। कल्प के अन्त में सारी शक्तियाँ स्वयं ब्रह्म में रहती हैं।
परमेश्वर की स्वाभाविक स्पन्दनशक्ति प्रकृति कहलाती है। वही जगन्माया नाम से भी प्रसिध्द है। यह स्पन्दनशक्तिरूपी भगनान की इच्छा इस दृश्य जगत की रचना करती है। जब शुध्द संवित में जड़शक्ति का उदय हुआ तो संसार की विचित्रता उत्पन्न हुई। जैसे चेतन मकड़ी से जड़ जाले की उत्पत्ति हुई वैसे ही चेतन ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई। ब्रह्मानन्दस्वरूप आत्मा ही भाव की दृढ़ता से मिथ्यारूप में प्रकट हो रहा है।
प्रकृति के तीन प्रकार हैं- सूक्ष्म, मध्यम और स्थूल। तीनों अवस्थाओं में प्रकृति स्थित रहती है। इसी कारण प्रकृति भी तीन प्रकार की कहलाई। इसके भी तीन भेद हुए- सत्त्व, रज, तम। त्रिगुणात्मक प्रकृति को अविद्या भी कहते हैं। इसी अविद्या से प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सारा जगत अविद्या के आश्रयगत है। इससे परे परब्रह्म है। जैसे फूल और उसकी सुगन्ध, धातु और आभूषण, अग्नि और उसकी ऊष्णता एकरूप है वैसे ही चित्त और स्पन्दनशक्ति एक ही है। मनोमयी स्पन्दनशक्ति उस ब्रह्म से भिन्न हो ही नहीं सकती। जब चितिशक्ति क्रिया से निवृत्त होकर अपने अधिष्टान की ओर यानी ब्रह्म में लौट आती है और वहीं शांत भाव से स्थित रहती है तो उसी अवस्था को शांत ब्रह्म कहते हैं। जैसे सोना किसी आकार के बिना नहीं रहता वैसे ही परब्रह्म भी चेतनता के बिना, जो कि उसकी स्वभान है, स्थित नहीं रहता. जैसे तिक्तता के बिना मिर्च, मधुरता के बिना गन्ने का रस नहीं रहता वैसे चित्त की चेतनता स्पन्दन के बिना नहीं रहती।
प्रकृति से परे स्थित पुरूष सदा ही शरद ऋतु के आकाश की तरह स्वच्छ, शांत व शिवरूप है। भ्रमरूपवाली प्रकृति परमेश्वर की इच्छारूपी स्पन्दनात्मक शक्ति है। वह तभी तक संसार में भ्रमण करती है कि जब तक वह नित्य तृप्त और निर्विकार शिव का दर्शन नही करती। जैसे नदी समुद्र में पड़ कर अपना रूप छोड़कर समुद्र ही बन जाती है वैसे ही प्रकृति पुरूष को प्राप्त करके पुरूषरूप हो जाती है, चित्त के शांत हो जाने पर परमपद को पाकर तद्रूप हो जाती है।
जिससे जगत के सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जिसमें सब पदार्थ स्थित रहते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, जो सब जगह, सब कालों में और सब वस्तुओं में मौजूद रहता है उस परम तत्त्व को ब्रह्म कहते हैं।
यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च।
यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नम:।।
ज्ञाता ज्ञानं तथाज्ञेयं द्रष्टादर्शनदृश्यभू:।
कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञत्यात्मने नम:।।
स्फुरन्तिसीकरा यस्मादानन्दरस्याम्बरेsवनौ।
सर्वेषां जीवनं तस्मै ब्रह्मानन्दात्मने नम:।।
( श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण: १.१.१-२-३ )
जिससे सब प्राणी प्रकट होते हैं, जिसमें सब स्थित हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, उस सत्यरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का दृष्टा-दर्शन-दृश्य का तथा कर्त्ता, हेतु और क्रिया का उदय होता है उस ज्ञानस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे पृथ्वी और स्वर्ग में आनंन्द की वर्षा होती है और जिससे सब का जीवन है उस ब्रह्मानंदस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
ब्रह्म केवल उसको जाननेवाले के अनुभव में ही आ सकता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह अवाच्य, अनभिव्यक्त और इन्द्रियों से परे है। ब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव द्वारा ही होता है। वह परम पराकाष्ठास्वरूप है। वह सब दृष्टियों की सर्वोत्तम दृष्टि है। वह सब महिमाओं की महिमा है। वह सब प्राणिरूपी मोतियों का तागा है जो कि उनके हृदयरूपी छेदों में पिरोया हुआ है। वह सब प्राणिरूपी मिर्चों की तीक्षणता है। वह पदार्थ का पदार्थतत्त्व है। वह सर्वोत्तम तत्त्व है।
उस परमेश्ववर तत्त्व को प्राप्त करना, उसी सर्वेश्वर में स्थिति करना-यही मानव जीवन की सार्थकता है.

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ऋषि प्रसाद वर्ष १० अंक ७९ जुलाई १९९९

सेवा कर निर्बन्ध की

(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )
परब्रह्म परमात्मा को न जानना उसका नाम है अविद्या। उसे कारण शरीर भी कहते हैं। कारण शरीर से सूक्ष्म शरीर बनता है। सूक्ष्म शरीर की माँग होती है देखने की, सूघँने की, चखने की। सूक्ष्म शरीर की इच्छा होती है तो फिर स्थूल शरीर धारण होता है। स्थूल शरीर के द्वारा जीव भोग की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहता है। स्थूल शरीर से भोग भोगते-भोगते सूक्ष्म शरीर को लगता है कि इसी में सुख है और अपना जो सुखस्वरूप है उसे भूल जाता है। अविद्या के कारण ही व्यक्ति अपने असली स्वरूप को जान नहीं पाता है।
यह बहुत सूक्ष्म बात है। यह ब्रह्म विद्या है। इसको सुनने मात्र से जो पुण्य होता है, उसको बयान करने के लिए घंटो का समय चाहिए। इसे सुनकर थोड़ा बहुत मनन करे उसका तो कल्याण होता ही है लेकिन मनन के पश्चात् निदिध्यासन करके फिर उस परमात्मा में डूब जाए, परमात्मामय हो जाए तो उसके दर्शन मात्र से औरों का भी कल्याण हो जाता है। नानक जी कहते हैः
ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावै।
भाग्यवान व्यक्ति ही ब्रह्मज्ञानी महापुरूष के दर्शन कर सकता है। अभागे को ब्रह्मज्ञानी के दर्शन भी नहीं होते हैं। थोड़े भाग्य होते हैं तो धन मिल जाता है। थोड़े ज़्यादा भाग्यवान को पद-प्रतिष्ठा मिलती है लेकिन महाभाग्यवान को संत मिलते हैं। संत का मतलब है जिनके जन्म मरण का अन्त हो गया है, जिनकी अविद्या का अंत हो गया है। ऐसे संतो के लिए तुलसीदास जी ने कहा हैः
पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
जब व्यक्ति के पुण्यों का पुंज, पुण्यों का खज़ाना भर जाता है तब उसे संत मिलते हैं और जब संत मिलते हैं तो भगवान मिलते हैं। भगवान की कृपा से, पुण्यों के प्रभाव के कारण संत मिलते हैं। जब दोनों की कृपा होती है तब आत्म-साक्षात्कार होता है।
ईश कृपा बिन गुरू नहीं, गुरू बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहीं वेद पुराण।।
ईश्वर की कृपा के बिना गुरू नहीं मिलते और गुरू की कृपा के बिना ज्ञान नहीं मिलता।
गुरू का मतलब यह नहीं कि थोड़ा त्राटक आदि कर लिया, थोड़ी-बहुत बोलने की कला सीख ली, थोड़े-बहुत भजन-कीर्तन, किस्से-कहानियाँ, कथा-प्रसंगों से लोगों को प्रभावित कर दिया और बन गए गुरू।
गोपो वीज्जी टोपो घिसकी वेठो गादीय ते।
गोपा टोपा पहनकर गादी पर बैठ गया और गुरू बन कर कान में फूँक मार दिया, मंत्र दे दिया, माला पकड़ा दी। आजकल ऐसे गुरूओं का बाहुल्य है।
विवेकानन्द कहते थेः ‘’गुरू बनना माने शिष्यों के कर्मों को सिर पर ले लेना, शिष्यों की जिम्मेदारी लेना। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है। आजकल जो गुरू बनने के चक्कर में पड़ गए हैं वे लोग ऐसे हैं जैसे कंगला आदमी प्रत्येक व्यक्ति को हज़ार सुवर्णमुद्रा दान करने का दावा करता है। ऐसे लेभागु गुरूओं के लिए कबीर जी ने कहा हैः
गुरू लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों डूबे बावँरे चढ़ी पत्थर की नाव।।
एक राजा था। उसका कुछ विवेक जगा था तो वह अपने कल्याण के लिए कथा-वार्ताएँ सुनता रहता था पर उसके गुरू ऐसे ही थे। राजा को उनकी कथाओं से कोई तसल्ली नहीं मिली, चित्त को शांति नहीं मिली।
आखिर वह राजा कबीर जी के पास आया। उसने कहाः ‘’महाराज, मैंने बहुत कथाएँ सुनी हैं लेकिन आज तक मेरे चित्त को चैन नहीं मिला।‘’
कबीर जी ने कहाः ‘’अच्छा, मैं कल राजदरबार में जाऊँगा। तुम अठारह साल से कथा सुनते हो और शांति नहीं मिली ? कौन तुम्है कथा सुनाते है वह मैं देखूँगा।‘’ दूसरे दिन कबीर जी राजदरबार में गए। उन्होंने राजा से कहाः ‘’जिनसे ज्ञान लेना होता है, जिनसे शांति की अपेक्षा रखते हो उनके कहने में चलना पड़ता है।‘’ राजा ने कहाः ‘’महाराज, मैं आपके चरणों का दास हूँ। आपके कहने में चलूँगा। आप मुझे शांतिदान दें।‘’
कबीर जी ने कहाः ‘’मेरे कहने में चलते हो तो वजीरों से कह दो कि कबीर जी जैसा कहें वैसा ही करना।‘’ राजा ने वजीरों से कहाः ‘’अब मैं राजा नहीं हूँ, ये कबीर जी महाराज ही राजा हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठा दो।‘’ कबीर जी राजा के सिंहासन पर विराजमान हो गए। फिर कबीर जी ने कहाः अच्छा, ‘’वजीरों को मैं हुक्म देता हूँ कि जो पंडित जी तुम्हें कथा सुनाते हैं, उनको एक खम्भे के साथ बाँध दो।‘’
राजा ने कहाः भाई, उनको महाराज जी के आगे खम्भे के साथ बाँध दो।‘’ पंडित जी को एक खम्भे के साथ बाँध दिया गया। फिर कबीर जी ने कहाः ‘’राजा को भी दूसरे खम्भे से बाँध दो।‘’ वजीर थोड़ा हिचकिचाए किन्तु राजा का संकेत पाकर उन्हें भी बाँध दिया। इस तरह पंडित जी और राजा दोनों बँध गए। अब कबीर जी ने पंडित से कहाः ‘’पंडित जी, राजा कई वर्षों से तुम्हारी सेवा करता है, तुम्हें प्रणाम करता है, तुम्हारा शिष्य है, वह बँधा हुआ है उसे छुड़ाओ।‘’
पंडित ने कहाः ‘’मैं राजा को कैसे छुड़ाऊँ ? मैं खुद बँधा हुआ हूँ।‘’ तब कबीर जी ने कहाः
बन्धे को बन्धा मिले छूटे कौन उपाय।
सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाए।।
जो खुद स्थूल शरीर में बँधा हुआ है, सूक्ष्म शरीर में बँधा है, विचारों में बँधा है, कल्पनाओं में बँधा है ऐसे कथाकारों को, पंडितों को हज़ारों वर्ष सुनते रहो फिर भी कुछ काम नहीं होगा। उससे चित्त को शांति, चैन, आनन्द, आत्मिक सुख नहीं मिलेगा।
सेवा कर निर्बन्ध की जो पल में देत छुड़ाए।
निर्बन्ध की सेवा से, निर्बन्ध की कृपा से अज्ञान मिटता है और आत्मज्ञान का प्रकाश मिलता है। सच्ची शांति और आत्मिक सुख का अनुभव होता है।
मनुष्य अविद्या के कारण किसी कल्पना में, किसी मान्यता में, किसी धारणा में बँधा हुआ होता है। पहले वह तमस में, आसुरी भाव में बँध जाता है। धन तो बैंक में होता है और मनुष्य मानता है ‘’मैं धनवान।‘’ पुत्र तो कहीं घूम रहे हैं और मानता है ‘’मैं पुत्रवान।‘’ फिर ‘’मैं त्यागी...मैं तपस्वी...मैं भोगी...मैं रोगी...मैं सिंधी...मैं गुजराती...’’ इसमें मनुष्य बँध जाता है। उससे थोड़ा आगे निकलता है तो ‘मैं कुछ नहीं मानता...जात-पांत में नहीं मानता...मैं किसी पंथ में नहीं मानता।‘ इस तरह ‘न माननेवाले ‘ में बँध जाता है।
ऐसा जीव न जाने किस गली से निकलकर किस गली में फँस जाता है। किस भाव से छूटकर किस भाव में बँध जाता है। लेकिन जब जीव को निर्बंध पुरूष, सदगुरू मिल जाते हैं तो वह उनकी कृपा से सब बँधनों से मुक्त हो जाता है, उसकी अविद्या दूर हो जाती है और वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है।
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स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च १९९७, अंक ५१, पृष्ठ १४,१५,२३

सच्चा मित्र


(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

गुजराती भक्त-कवि नरसिंह मेहता जी ने गाया हैः
समरने श्री हरि, मेल ममता परी
जोने विचारी ले मूल तारूँ।
तुं अल्या कोण ने कोने वळगी रह्यो
वगर समज्ये कहे मारूं मारूं।
यहां कवि नरसिंह मेहता कहते हैः ‘ममता को छोड़कर जीव को श्री हरि का स्मरण करना चाहिए। अपने मूल स्वरूप का विचार कर लेना चाहिए। तुम कोन हो और ‘मेरा-मेरा’ करके किसको पकड़कर बैठे हो ? ज़रा समझो।‘
शास्त्रों ने पुत्र परिवार का लालन पालन करने की मना नहीं की है। धन और पद को पाने की मना नहीं की है लेकिन स्थूल शरीर से संबंधित जिन पुत्र-परिवार या धन के पीछे जीवन पूरा कर देते हो, उनमें से कुछ भी अंत समय में साथ में नहीं आता है। जिस नश्वर शरीर के लिए धन इकठ्ठा करने में कितने ही पाप-ताप सहे, कितने ही दाँव-पेच किए, उस शरीर को यहीं पर छोड़ कर जाना पड़ता है। जिन पुत्र-परिवार के लालन-पालन में पूरा आयुष्य बिता दिया, उन पुत्र-परिवार को छोड़ कर जाना पड़ता है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
खिला पिलाकर देह बढायी
वह भी अग्नि में जलाना है।
पड़ा रहेगा माल खज़ाना
छोड़ त्रिया सुत जाना है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
अगर तुम पीछे पछताना नहीं चाहते हो तो पुत्र-परिवार धन-पद आदि में आसक्ति मत करो। व्यवहार के लिए जितना आवश्यक हो उतना धन मिल जाए फिर और धन कमाने की, उसे संभालने की या उसे बढ़ाने की झंझट में पड़ कर जीवन बरबाद मत करो। इन सबमें आसक्तिरहित होकर व्यवहार चलाओ और प्रीति केवल आत्मा-परमात्मा में रखो, उसे बढ़ाते जाओ क्योंकि आत्मा-परमात्मा का संबंध ही शाश्वत है। बाकी के सब संबंध नश्वर हैं।
किसी आदमी के तीन मित्र थे। मित्र तो उसके साथ इतना गाढ़ संबंध नहीं रखते थे, परन्तु उन लोगों में इस आदमी की थोड़ी-बहुत आसक्ति थी। पहले मित्र में तो इतनी ज्‍यादा आसक्ति थी कि जब उसके संग में रहता तो खाना-पीना और सोना भी भूल जाता था।
दूसरे मित्र के साथ उस आदमी की दोस्ती पहले मित्र जैसी प्रगाढ़ नहीं थी। उसके साथ भी रहता था, घूमता फिरता था और साथ में अपना काम भी निकाल लेता था। तीसरा मित्र उसे हमेशा अच्छी सीख देता कि ‘दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है, इसका दुरूपयोग मत कर। इस शरीर को कितना भी खिलाएगा-पिलाएगा आखिर तो इसे स्मशान की अग्नि में जला देना है। तू अन्तर्यामी परमात्मा का स्मरण कर। वही सदा के लिए तेरा साथी रहेगा।‘ इस तीसरे मित्र की बातें उसे इतनी जँचती नहीं थीं, इसलिए हफ्ते दो हफ्ते में, महीने दो महीने में उस मित्र से मिलता न जुलता, उसकी बात सुनी-अनसुनी करके उससे विदा ले लेता था।
दैवयोग से उस आदमी के ऊपर किसी ने कुछ आरोप लगा दिया। सरकारी अमलदारों ने उसको जेल में डाल देने का आदेश दिया। यह सुनकर उसने सोचा कि ‘मैं अपने मित्रों के पास जाऊँ। शायद वे मेरी कुछ मदद कर सकें तो मैं जेल में जाने से बच जाऊँ।
वह अपने पहले मित्र के पास गया और सारी बातें बताईं। उस मित्र ने कहाः "तेरे साथ मेरी दोस्ती कहाँ है ? तू ही मेरे पीछे-पीछे घूमता था। मेरे पास ऐसा फालतू समय नहीं है कि तेरे पीछे गवाऊँ।"
वह अपने दूसरे मित्र के पास गया और अर्ज करने लगा कि कुछ भी करो, मुझे जेल में जाने से बचा लो। तब दूसरे मित्र ने कहाः "जब पुलिस अमलदार ने तुम्हें पकड़ने का आदेश दे ही दिया है तो अब मैं क्या कर सकता हूँ ? ज़्यादा से ज़्यादा मैं पुलिस चौकी तक तुम्हारा साथ दे सकता हूँ।" वह निराश होकर बैठ गया।
तीसरे मित्र को पता चला कि वह आदमी जो उसकी बात टाल देता है, उसे मिलने के लिए भी उत्सुक नहीं है वह बड़ी मुसीबत में है। वह तीसरा मित्र उसके पास दौड़ता चला गया और पूछने लगा .... "मित्र ! क्या बात है ? सुना है तुम किसी मुसीबत में फँस गये हो ।"
तीसरे मित्र की ऐसी ह्रदयपूर्वक सहानुभूति देखकर उसने सारी बात बताईः "मेरा इतना दोष नहीं है लेकिन अमलदारों ने जेल में डालने का आदेश दे दिया है। तुम अगर मुझे बचा लो तो तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी।"
तब उस मित्र ने जवाब दियाः "मेरे मित्र ! तू चिन्ता मत कर। मैं तेरे साथ हूँ। तूने कुछ गलती नहीं की होती और सावधान रहा होता तो जेल जाने से बच जाता। अब जेल जाना भी पड़े तो भी मैं तेरे साथ रहूँगा। तेरा साथ नहीं छोड़ूंगा।"
यह तो एक कल्पित कहानी है लेकिन अपने जीवन से जुड़ी हुई।
जिस तरह उस आदमी ने अपने पहले मित्र के लिए खाना-पीना छोड़ दिया, पुत्र-परिवार का भी ख्याल नहीं रखा, लेकिन संकट के समय में उस मित्र ने ज़रा भी साथ नहीं दिया, उसी तरह मनुष्य का पहला मित्र धन है। जिस धन को प्राप्त करने के लिए मनुष्य खाना-पीना हराम करके भी लगा रहता है वह धन उसकी मृत्यु के समय काम नहीं आता है। जीव के लिए संकट का समय है मृत्यु। जीव को मृत्यु के समय यमदूत लेने आते हैं तब धन उसकी रक्षा नहीं करता है। वह तो कहता है कि ‘’मैंने तेरे साथ दोस्ती नहीं की, तू ही मेरे पीछे-पीछे घूमता था।‘’
मनुष्य का दूसरा मित्र है पुत्र-परिवार। मनुष्य पुत्र-परिवार को सुखी करने के लिए कितने-कितने पापकर्म करता है लेकिन जब यमदूत मृत्यु रूपी फाँसी लेकर आते हैं तब कुटुम्बी कहते हैं, "हम ज़्यादा-से-ज़्यादा स्मशान तक तुम्हारा साथ दे सकते हैं लेकिन तुम्हारे साथ नहीं आ सकते।"
मनुष्य का तीसरा मित्र है धर्म। वह कहता हैः "मित्र ! तू चिन्ता मत कर। तू कहीं भी जाएगा, मैं तेरे साथ आऊँगा। मैं सदा तेरे साथ रहूँगा।"
इस कहानी से समझ लेना चाहिए कि जिसको तुम ‘मेरा’ मान कर लिपटे रहते हो वह धन, पुत्र-परिवार तुम्हारा कहाँ तक साथ देता है ? धर्म ही मनुष्यमात्र का सच्चा मित्र है। जिस धन को कमाने के लिए तुम दिन-रात गँवा देते हो उस धन में सदगुण तो सोलह हैं लेकिन दुर्गुण चौंसठ हैं। धन ज़्यादा होगा और उसका सदुपयोग नहीं किया तो जीवन में कोई न कोई दुर्गुण आ ही जाएगा जो जीवन को बरबाद कर देगा। जबकि धर्म लोक और परलोक दोनों में जीव का रक्षण करता है। अतः धर्म का ही आचरण करना चाहिए।
वह धर्म क्या है ? जो समग्र विश्व को धारण कर रहा है उस आत्मा-परमात्मा का ध्यान करना, उस अंतर्यामी परमात्मा का ज्ञान पाना एवं ‘आत्मा शाश्वत है और शरीर नश्वर है’ ऐसी समझ को दृढ़ करके अपने आत्मस्वरूप को जानना ही धर्म है। ‘जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को सत्ता दे रहा है वह चैतन्य आत्मा मैं हूँ’ – ऐसा अनुभव पा लेना धर्म है।
हम लोग स्थूल शरीर को ‘मैं’ मान रहे हैं इसलिए हमारे सच्चे मित्र धर्म का साथ नहीं ले सकते हैं। अगर हम धर्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो अपनी समझ को बदलना होगा, हमारे व्यवहार को, हमारे चिंतन को बदलना होगा। जैसे स्थूल शरीर के लिए अन्न फल आदि आहार की आवश्यकता है वैसे सूक्ष्म शरीर के लिए भी भगवन्नाम, जप, ध्यान और आध्यात्मिक चिंतनरूपी आहार की ज़रूरत है। इन स्थूल-सूक्ष्म दोनों शरीरों को उचित मात्रा में यथायोग्य आहार मिलता रहेगा तो स्वस्थता और शांति सहज में मिल जाएगी। आत्मा-परमात्मा का रस प्रगट हो जाएगा।


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स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल १९९७, अंक ५२, पृष्ठ २४-२५