7.9.10

स्वार्थ त्यागें, महान बनें


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

मनुष्य को कभी भी स्वार्थ में आबद्ध नहीं होना चाहिए। व्यावहारिक वासनाओं को पोसने का स्वार्थ सुख का अभिलाषी है वह सच्ची सेवा नहीं कर सकता। जो संसारी वासनाओं का गुलाम है वह अपना ठीक से विकास नहीं कर सकता। जो अपने स्वार्थ का गुलाम है वह अपना कल्याण नहीं कर सकता। व्यक्तिगत स्वार्थ कुटुम्ब में कलह पैदा कर देगा, कुटुम्ब का स्वार्थ पड़ोस में कलह पैदा कर देगा, पड़ोस का स्वार्थ गाँव में कलह पैदा कर देगा, गाँव का स्वार्थ तहसील में कलह पैदा करेगा, तहसील का स्वार्थ जिले में कलह पैदा कर देगा, जिले का स्वार्थ राज्य में कलह पैदा कर देगा और राज्य प्रांतीयता का स्वार्थ राष्ट्र में कलह पैदा कर देगा, राष्ट्रीयता का स्वार्थ विश्व में कलह करेगा और वैश्विकता का स्वार्थ विश्वेश्वर के दूर पटक देगा। स्वार्थ में आकर मूर्खतावश जो कुप्रचार करते हैं, करवाते हैं मेरे दिल में उनके प्रति नफरत नहीं होती।

दूसरे लोग फोन पर फोन करते हैं 'बापू जी की सहनशक्ति कैसी है ! इतना कुप्रचार, इतना जुल्म पर जुल्म हो रहा है और बापू जी को देखो तो कोई दुःख नहीं ! जब देखो मुस्कराते रहते हैं। हमको तो बड़ा दुःख होता है।'

बेटा ! तुम जहाँ बैठकर देखते हो वहाँ तुम ठीक हो लेकिन वास्तविकता कुछ और है। जो अखण्ड भारत को तोड़ना चाहते हैं उनकी मुरादें हैं कि हम आपस में लड़ें-भिड़ें, झगड़े परन्तु हमारा ज्ञान कहता है किः

जो हम आपस में न झगड़ते।

बने हुए क्यों खेल बिगड़ते।।

लोग यह मानते हैं कि संघर्ष के बिना विकास नहीं होता, संघर्ष के बिना अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती। भाई साहब ! विदेशी लोग तो ऐसी बड़ी भारी गलती में पड़े हैं कि लड़ाओ और राज करो ()। हिन्दू हिन्दुओं को लड़ाओ, हिन्दूवादी सरकार को बदनाम करो, हिन्दू संस्थाओं को बदनाम करो। हिन्दुओँ को आपस में लड़ाकर उन पर राज करने की मुराद वालों ने, धर्मांतरण कराने वालों ने हिन्दू साधुओं और पुलिस के बीच में, हिन्दू संस्थाओं और मीडिया के बीच में एक खाई खड़ी कर दी। ये लोग सफल भी हो पाते हैं जब हम स्वार्थ के वशीभूत होकर आपस में लड़ने लग जाते हैं। हमें आपस में लड़ना नहीं चाहिए। लड़ाई-झगड़े से जो भी मिलेगा वह सुखद नहीं होगा और सात्त्विक ज्ञान, आत्मज्ञान, गीताज्ञान से जो मिलेगा वह कभी दुःखद नहीं होगा। संघर्ष से आपको कुछ मिल गया तो आप भोगी बन जाओगे, और अधिक संघर्ष करोगे, अपने से कमजोर लोगों का शोषण करने लग जाओगे।

संघर्ष से अपनी इच्छापूर्ति करो – यह स्वार्थियों की, संकीर्ण मानसिकतावालों की मान्यता बहुत छोटी जगह पर बैठकर होती है। वास्तव में संघर्ष करके अपनी इच्छापूर्ति करने के बाद भी दुःख नहीं मिटता, चिंता नहीं मिटती, विकार नहीं मिटते, अशांति नहीं मिटती। उस अशांति, विकार तथा बदले की भावना से मरने के बाद भी न जाने किस-किस रूप में एक-दूसरे से प्रतिशोध लेने के लिए न जाने किन किन योनियों में भटकते हैं, मारकाट करते रहते हैं, तपते-तपाते रहते हैं कुत्तों की नाईं।

स्वार्थी, नासमझ आपस में कुत्तों की नाईं लड़ मरते हैं परंतु समझदार मनुष्य तो बहुत ऊँचे ज्ञान के धनी होते हैं, दूरदृष्टिवाले होते हैं। लोग कहते हैं- 'बापू के करोड़ो शिष्य हैं। बापू जी आज्ञा करें तो देश को हिला देंगे, यह कर देंगे – वह कर देंगे।' मैंने कहाः 'नहीं बाबा ! देश को हिलाओगे तो भी अपने की ही घाटा है।'

षड्यंत्रकारियों के बहकावे में आकर समझदारी की कमीवाले कुछ की कुछ साजिशें करते हैं। जो षड्यंत्र करके दूसरें का बुरा सोचता है, बुरा चाहता है, बुरा करता है उसका तो अपनी ही बुरा हो जाता है। आप किसी का बुरा चाहोगे तो पहले अपने दिल में बुराई लायेंगे, इससे कुछ-न-कुछ आपकी बुद्धि मारी जायेगी। बुद्धि मारी जाती है तब लाखों करोड़ों की नजरों में आदरणीय व्यक्ति के लिए भी हलकी भाषा बोलते है। फिर उनको लोगों की बददुआएँ मिलती हैं। शास्त्र में आता है कि

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम्।।

(शिव पुराण, रूद्र. सती. 35.9)

जहाँ पूजनीय माता-पिता, सदगुरुओं का आदर नहीं होता और अपूजनीय लोगों का आदर-सत्कार होता है, वहाँ भय, दरिद्रता और मृत्यु का तांडव होने लगता है। गलत निर्णय होने लगते हैं। अशांति के कारण अकाल मृत्यु हो जाती है, हार्टअटैक आ जाता है, एक्सीडेंट होने लगते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त है – अफगानिस्तान में महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ी गयीं, महापुरुषों के प्रति नफरत जगायी गयी तो वहाँ कितना कितना कहर हो रहा है !

स्वार्थ आदमी को गुमराह कर देता है। वे लोग सचमुच मूर्ख हैं जो अपनी ही संस्कृति की जड़ों को काटने में लगे रहते हैं। ये फिर भटक जाते हैं, स्वार्थ में अंधे होकर किसी भी तरीके से पैसा इकट्ठा करने लग जाते हैं। ऐसे लोग मरने के बाद नीच योनियों में जाते हैं।

लोगों में सुख शांति का प्रसाद बाँटने वाले संतों-महापुरुषों के प्रति जिनको वैरभाव है, समझ लो उनकी तो तौबा है ! वे न जाने कुत्ता बनकर कितने जन्मों तक दुष्कर्मों का फल भोगेंगे, मेंढक बनेंगे। रामायण में आता हैः

हर गुर निंदक दादुर होई।

जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

एक बार नही, हजार जन्मों तक उनको मेंढक बनना पड़ता है, फिर ऊँट बनते हैं, बैल बनते हैं। लोग बोलते हैं- 'इनको दंड मिलना चाहिए।' अरे ! आप हम क्या दंड देंगे ! वे स्वयं दंड ले रहे हैं। अशांति का दंड ले रहे हैं और कई जन्मों में दंड भोगने वाला मन बना रहे हैं। अब उनको हम आप क्या दंड देंगे।

बहुत गयी थोड़ी रही व्याकुल मन मत हो।

धीरज सबका मित्र है करी कमाई मत खो।।

अगर कोई शुभकामना करनी है तो दो-दो माला भगवन्नाम का जप कर लो। स्वार्थ में अँधे बनकर आपस में लड़ाकर मारने वाले इन षड्यंत्रकारियों से बचकर अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सदैव सावधान रहो। अपनी दृष्टि को व्यापक बनाने का अभ्यास करो। महापुरुषों का सत्संग सुनो।

भगवदसुमरिन का, परिस्थितियों में सम रहने की सजगता का, परमात्म-विश्रान्ति का, आकाश में एकटक निहारने का, श्वासोच्छवास में सोऽहं जप द्वारा समाधि-सुख में जाने का आदरसहित अभ्यास करना। कभी-कभी एकांत में समय गुजारना, विचार करना कि इतना मिल गया आखिर क्या ? अपने को स्वार्थ से बचाना। स्वार्थरहित कार्य ईश्वर को कर्जदार बना देता है और स्वार्थसहित कार्य इन्सान को गद्दार बना देता है। निष्काम कर्म, संस्कृति की सेवा, भगवान का सुमिरन और एकांत में आत्मविचार करके आत्मा के आनंद में आने वाला महान हो जाता है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 210

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सत्संग यही सिखाता है


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )


'लोग बोलते हैं कि इच्छा छूटती नहीं, इच्छा छोड़ना कठिन है' लेकिन संत बोलते हैं कि 'इच्छा पूरी करना असंभव है।' इच्छा पूरी नहीं होती, इच्छा गहरी होती जाती है। जो कठिन काम है वो तो हो सकता है लेकिन जो काम असम्भव है तब नहीं हो सकता है। हमें इच्छाएँ खींचती हैं इसलिए हम सत् वस्तु (परमात्मा) से दूर हो जाते हैं। किस विषय की इच्छाएँ खींचती हैं ? या तो देखने की या तो सुनने की या सूँघने की या चखने की या स्पर्श करने की। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध.... इन पाँच प्रकार के विषयों की इच्छाएँ हमें घसीटती हैं। अब आज हमारी जो स्थिति है, जो अवस्था है, इसके जवादार हम हैं। हमारी इच्छाएँ घूम-फिरकर देर-सवेर अवस्था का रूप धारण कर लेती हैं। इच्छाएँ आकर अवस्था दे जाती हैं, मिटती नहीं और दूसरी बन जाती है।

विषम इच्छाएँ होती हैं इसीलिए हम दुःखी होते हैं। सजातीय इच्छा हुई और वह पूरी हुई तो गहरी चली जायेगी। इच्छा थोड़ी देर के लिए पूरी हुई, थोड़ी देर का हर्ष हुआ परंतु जिस वस्तु से सुख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर राग की एक गहरी लकीर खींच दी और जिस वस्तु से दुःख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर भय की लकीर खींच दी। इच्छाएँ पूरी नहीं हुई बल्कि उन्होंने हमारे चित्त को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अब क्या करना चाहिए ?

एक तो होती है सत् वस्तु और दूसरी होती है असत् वस्तु। तो मन के फुरने, कल्पनाएँ जो हैं कि 'यह करूँ तो सुखी होऊँगा, यह करूँ तो सुखी होऊँगा...' इन कल्पनाओं के द्वारा असत् वस्तु को पाने की इच्छा हमारे जीवन को टुकड़े-टुकड़े कर देती है और सत्संग के द्वारा सत्त्वगुण बढ़ायें तो हम सत् वस्तु अपने सत्स्वरूप को पा लेते हैं।

दो चीजें होती हैं। एक होती है – नित्य और दूसरी होती है – अनित्य। बुद्धिमान आदमी अपने लिए अनित्य वस्तु पसंद करने के बजाय नित्य वस्तु पसंद करेगा, असत् वस्तु पसंद करने के बजाय सत् वस्तु पसंद करेगा। जो नित्य है, आप उसको पसंद करना और जो अनित्य है, उसका उपयोग करना।

देह अनित्य है – पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है। जो वस्तु अभी मिली है, वह पहले हमारे पास नहीं थी और मिली है तो उसको छोड़ना पड़ेगा। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मिली हुई और आप सदा रख सकें। या तो मिली हुई वह वस्तु आपको छोड़नी पड़ेगी या वस्तु आपको छोड़कर चली जायेगी। फिर चाहे वह नौकरी हो, चाहे मकान हो, चाहे परिवार हो, चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, चाहे गाड़ी हो, चाहे देह हो। देह आपको मिली है तो उसे छोड़ना पड़ेगा। बचपन आपको मिला था तो छूट गया। जवानी मिली थी, छूट गयी। बुढ़ापा मिला है, छूट जायेगा। मौत मिलेगी, वह भी छूट जायेगी किंतु आप नहीं छूटोगे क्योंकि आप अछूट आत्मा हो, स्वतः सिद्ध हो, सच्चिदानंदघन हो। जो मिली हुई चीज है उसको आप रख नहीं सकते और अपने-आपको छोड़ नहीं सकते। कितना सरल सत्य है, कितना सनातन सत्य है, कितना स्वाभाविक है !

लोग बोलते हैं, संसार को छोड़ना कठिन है लेकिन संतों का यह अनुभव है, सत्संग से हमने यह जाना है कि संसार को छोड़न कठिन नहीं, संसार को रखना असम्भव है। कठिन नहीं, असम्भव ! परमात्मा को छोड़ना असम्भव है। ईश्वर को आप छोड़ नहीं सकते और जगत को आप रख नहीं सकते। देखो, कितना सरल सौदा है !

बचपन छोड़ने की आपने मेहनत की क्या ? अपने आप छूट गया। बचपन छोडूँ, बचपन छोडूँ.... कोई रट लगायी थी ? जवानी छोड़ूँ, जवानी छोड़ूँ... कोई चिन्ता की थी ? छूट गयी। आप रखना चाहें तो भी छूट जायेगी। ऐसे ही अपमान छोड़ूँ, निंदा छोड़ूँ या स्तुति छोड़ूँ... नहीं ये अपने आप छूटते जा रहे हैं। एक साल पहले जो आपकी निंदा या स्तुति का प्रसंग था, वह अभी पुराना हो गया, तुच्छ हो गया। जो निंदा हुई वह पहले दिन बड़ी भयानक लगी, जो स्तुति हुई वह पहले दिन बड़ी मीठी लगी लेकिन अब देखो, सब पुराना हो गया। संसार की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है, कोई स्थिति नहीं है कि जिसको आप रख सकें। आपको छोड़ना नहीं पड़ता है महाराज ! छूटता चला जा रहा है।

संसार को थामना असम्भव है और अपने को हटाना असम्भव है। जिसको आप हटा नहीं सकते वह है सत् वस्तु और जिसको आप रख नहीं सकते वह है असत् वस्तु। सत्संग सत् वस्तु का बोध कराने के लिए होता है और जब तक सत् वस्तु का बोध नहीं हुआ तब तक आदमी कहीं टिक नहीं सकता क्योंकि असत् शाश्वत नहीं है। तो असत् का उपयोग करो और सत् का साक्षात्कार करो। बस, सत्संग यही सिखाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 210

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सबसे बड़ा सहयोगी



(परमपूज्य आसाराम बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

जैसे जुआरी होना है तो दूसरा जुआरी आपको सहयोग करेगा, भँगेड़ी होना है तो दूसरा भँगेड़ी आपको सहयोग करेगा, ऐसे ही मुक्तात्मा बनना है तो भगवान ही आपका साथ देते हैं। कितना बड़ा सहयोग है भगवान का ! भगवान मुक्तात्मा हैं. आपका मुक्तात्मा बनने का इरादा हो गया तो वे खुश हो जाते हैं कि हमारी जमात में आ रहा है। जैसे कोई अच्छा आदमी किसी पार्टी में आता है तो पार्टी वाले खुश होते हैं। पार्टीवाले तो चमचे को अच्छा बोलेंगे और सच बोलने वाले को बुरा बोलेंगे परंतु भगवान की नजर में कोई बुरा नहीं है। भगवान तो सच बोलने वाले को ही अच्छा मानते हैं, चमचागिरी से भगवान राजी नहीं होते हैं।

मूर्ख लोग बोलते हैं- 'अरे भाई ! प्रशंसा से, फूल चढ़ाने से, भोग लगाने से तो भगवान भी राजी हो जाते हैं और हमको दुःखों से बचाते हैं।'

अरे मूर्ख ! भगवान की प्रशंसा से भगवान राजी हो जाते हैं – यह तू कहाँ से सुनकर आया, कहाँ से देखकर आया ? यह वहम घुस गया है। तुम भगवान के कितने गुण गाओगे ? अरब-खरबपति को बोलो कि 'सेठजी ! आप तो हजारपति हो, आप तो लखपति हो..... आपके पास तो बहुत पैसा है, 12,14,15 लाख हैं....।'

खरबपति को बोलो कि आपके पास 15 लाख हैं तो उसको तो गाली दी तुमने ! ऐसे ही अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड जिसके एक-एक रोम में हैं, ऐसे भगवान की व्याख्या हम क्या करेंगे और उनकी प्रशंसा क्या करेंगे ! हम भगवान की प्रशंसा करके उनका अपमान ही तो कर रहे हैं ! फिर भी भगवान समझते हैं कि 'बच्चे हैं, इस बहाने बेचारे अपनी वाणी पवित्र कर रहे हैं।'

भगवान प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं – यह वहम निकाल देना चाहिए। भगवान की प्रशंसा नहीं, गुणगान करने से हमारी दोषमयी मति थोड़ी निर्दोष हो जाती है। बाकी तो भगवान का कुछ भी गुणगान करोगे तो एक प्रकार का बचकानापन ही है क्योंकि भगवान असीम हैं। आपकी बुद्धि सीमित है और आपकी कल्पना भी सीमित है तो आप भगवान की क्या महिमा गाओगे ! फिर भी भगवान कहते हैं- 'मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों से तर जायेगा। यदि तू अहंकार के कारण मेरी बा नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा।'

फिर न जाने कीट, पतंग आदि किन-किन योनियों में भटकना पड़ेगा।

जैसे किसी मनुष्य को मस्का मारकर उससे काम लिया जाता है, ऐसे ही भगवान को मस्का मारकर आप अपना कुछ भला नहीं कर सकते। भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते हैं, कुछ देते हैं तो उन चीजों की आसक्ति छूटती है और भगवान के लिए आदर होने से आपका हृदय पवित्र होता है। बाकी भगवान खुशामद से राजी हो जायें, ऐसे वे भोले नहीं हैं। जैसे किसी नेता को, किसी और व्यक्ति को कोई चीज देकर, खुशामद करके आप राजी पा लेते हैं, वैसे भगवान खुशामद से राजी नहीं होते हैं। भजतां प्रीतिपूर्वकम्..... भगवान प्रेम से राजी होते हैं। भगवान को स्नेह करो। कुछ भी न करो, एक नये पैसे की चीज भगवान को अर्पण नहीं करो तो भी चल जायेगा लेकिन प्रीतिपूर्वक भगवान को अपना मानो और अपने को भगवान का मानो।

भगवान ऐसा सहयोग करते है, ऐसी मदद करते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हम दस हजार जन्म लेकर भी यहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे जहाँ गुरु, भगवान ने पहुँचा दिया। अपनी तपस्या से, अपने बल से हम नहीं पहुँच सकते थे। भगवान में प्रीति थी तो गुरु में प्रीति हो गयी। गुरु भगवत्स्वरूप हैं। संत कबीरजी ने कहा हैः 'भगवान निराकार है। अगर साकार रूप में चाहते हो तो साधु प्रत्यक्ष देव।' गुरु को भगवत्स्वरूप मानने से गुरु के हृदय से वही परब्रह्म परमात्मा छलके।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।......

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 210

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हृदयकोष की रक्षा करो

(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

काम, क्रोध, लोभ, मोह के जो आवेग आते हैं, उनसे बचने के लिए सोचो कि 'इन आवेगों के अनुसार कौन-सा काम करें, कौन सा न करें ?' इसमें तुम्हारी पुण्याई चाहिए। पहले जानो। जानाति, इच्छति, करोति। जानो, फिर शास्त्र अनुरूप इच्छा करो, फिर कर्म करो। आप क्या करते हैं कि पहल कर्म करते हैं। इन्द्रियाँ कर्म में लगती हैं, मन उसके पीछे लगता है और बुद्धि को घसीट के ले जाता है तो धीरे-धीरे बुद्धि राग-द्वेषमयी हो जाती है।

इच्छा हुई तो सोचो कि 'इच्छा के अनुसार कर्म करें या बुद्धि से सोच के कर्म करें ?' इच्छा हुई, फिर मन से उसको सहमति दी और इच्छा के अनुरूप मन करना चाहता है तो धीरे-धीरे बुद्धि दब जायेगी। बुद्धि का राग-द्वेष का भाग उभरता जायेगा, समता मिटती जायेगी। अगर शास्त्र, गुरु और धर्म का विचार करके बुद्धि को बलवान बनायेंगे और समता बढ़ाने वाला, मुक्तिदायी जो काम है वह करेंगे तो बुद्धि और समता बढ़ेगी लेकिन मन का चाहा हुआ काम करेंगे तो बुद्धि और समता का नाश होता जायेगा। कुत्ते, गधे, घोड़े, बिल्ले, पेट से रेंगने वाले तुच्छ प्राणी और मनुष्य में क्या फर्क है ?

वसिष्ठजी कहते हैं- हे रामजी ! कभी ये मनुष्य थे लेकिन जैसी इच्छा हुई ऐसा मन को घसीटा और बुद्धि उसी तरफ चली गयी तो धीरे धीरे दुर्बुद्धि होकर केँचुए, साँप और पेट से रेंगने वाले प्राणियों की योनियों में पड़े हैं।

जो बहुत द्वेषी होता है वह साँप की योनि में जाता है। इसी प्रकार की और भी कई योनियाँ हैं। यह चार दिन की जिंदगी है, अगर इसको सँभाला नहीं तो चौरासी लाख जन्में की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हें।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।

यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

'जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष है हृदय। उसकी रक्षा करो, रक्षा करो।'

खरीदारी करके कमीशन खाना, चोरी करना, बेईमानी करना.... ले क्या जायेंगे, कहाँ ले जायेंगे ! प्रारब्ध में जो होगा वह नहीं माँगने पर भी मिलेगा और कितनी भी बेईमानी करो, देर-सवेर उसका फल बेईमान को दुःखद योनियों में ले जायेगा। यदि तुम दगाखोर और कपटी हुए तो उसका फल तुमको भी दुःखद योनियों में ले जायेगा। ऐसे कपटी, बगला भगत को फिर बगुले, बिलार वाली, कपट करके पेट भरने वाली योनियों में जाना पड़ता है। तो बुद्धि में लोभ का आवेग आया, काम का आवेग आया, क्रोध का आवेग आया इंद्रियों में शरीर में तो शास्त्र के अनुरूप परिणाम का ख्याल करके बुद्धि को बलवान बनायें और आवेग को सहन करें। लोभ के आवेग को सहन करें। सोचें, 'अनीति का धन क्या करना, अनीति का भोग क्या करना ?' पहले शास्त्र के ढंग से बुद्धि में औचित्य-अनौचित्य समझ लो। वासना कहती है यह कर्म करो, इच्छा बोलती है करो लेकिन बुद्धि बोलती है उचित तो नहीं है, तो धीरे-धीरे थोड़ा समय निकाल दो और मन को थोड़ा समझाओ अथवा दूसरे काम में लगाओ तो वासना और द्वेष की लहर शांत हो जायेगी। अगर करने का आवेगा है, मन भी कहता है करो, बुद्धि भी कहती है करो और करने का औचित्य भी है तो उसे कर डालो।

एक तरफ इच्छा खींचती है और दूसरी तरफ बुद्धि और शास्त्र सहमति नहीं देते हैं तो वह कर्म अधर्म है। ऐसी स्थिति में थोड़ा समय गुजरने दो। जैसे समुद्र की लहर आयी और आप बैठ गये, समय गया तो लहर उतर गयी। ऐसे ही ये आवेग हैं। आवेग के समय थोड़ा शांत हो जायें, थोड़ा धैर्य रखें तो आवेग उतर जाता है। नहीं तो आवेग-आवेग में आदमी अंधा हो जाता है। आवेग-आवेग में अपनी खुशामद करने वाले चमचे अच्छे लगेंगे।

तो राग-द्वेष से बचें। आवेगों से बचें और भगवान में श्रद्धा करें। भगवान में सर्वसमर्थता, अंतर्यामीपना आदि दिव्य गुण हैं। आर्त्तभाव से प्रार्थना करे कि 'प्रभु ! हमें अपने प्रसाद से पावन करो। हम तो आपके रस में नहीं आ रहे, आप ही हमें जबरदस्ती अपने रस में डुबा दो।'

आप चाहे कैसे भी हो, आर्त्तभाव से भगवान को प्रार्थना करते हो तो भगवान तुरंत आपको दोषों को झाड़ देते हैं और भगवदरस मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 210

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राक्षस भी जिसे पसन्द नहीं करते

(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला व्यक्ति कृतघ्न कहलाता है। 'महाभारत' में पितामह भीष्म धर्मराज से कहते हैं- "कृतघ्न, मित्रद्रोही, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।"

गौतम नाम का ब्राह्मण था। ब्राह्मण तो वह केवल जाति से था, वैसे एकदम निरक्षर और म्लेच्छप्राय था। पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करते हुए जब म्लेच्छों के नगर में पहुँचा तो वहीं एक विधवा स्त्री को पत्नी बना कर बस गया। म्लेच्छों के संग से उसका स्वभाव भी उन्हीं के समान हो गया। वन में पशु-पक्षियों का शिकार करना ही उसकी जीविका हो गयी।

एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण जंगल से गुजरे यज्ञोपवीतधारी गौतम को व्याध के समान पक्षियों को मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने उसको समझाया कि यह पापकर्म छोड़ दे। गौतम के चित्त पर उनके उपदेश का प्रभाव पड़ा और वह धन कमाने का दूसरा साधन ढूँढने निकल पड़ा। वह व्यापारियों के एक दल में शामिल हो गया किंतु वन में मतवाले हाथियों ने उस दल पर आक्रमण कर दिया, जिससे कुछ व्यापारी मारे गये। गौतम अपने प्राण बचाने के लिए भागा और रास्ता भटक गया। वह भटकते-भटकते दूसरे जंगल में जा पहुँचा, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। उस वन में महर्षि कश्यप का पुत्र राजधर्मा नामक बगुला रहता था। गौतम संयोगवश उसी वटवृक्ष के नीचे जा बैठा, जिस पर राजधर्मा का विश्राम-स्थान था।

संध्या के समय जब राजधर्मा ब्रह्मलोक से लौटे तो देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य की भाषा में गौतम को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतम को भोजन करा के कोमल पत्तों की शय्या बना दी। जब वह लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखों से उसे हवा करने लगे।

परोपकारी राजधर्मा ने पूछाः "ब्राह्मणदेव ! आप कहाँ जा रहे हैं तथा किस प्रयोजन से यहाँ आना हुआ ?"

गौतमः मैं बहुत गरीब हूँ और धन पाने के लिए यात्रा कर रहे था। मेरे कुछ साथियों को हाथियों ने मार डाला। मैं अपने प्राण बचाने के लिए इधर आ गया हूँ।"

राजधर्माः "आप मेरे मित्र राक्षसराज विरूपाक्ष के यहाँ चले जाइये, वे आपकी मदद करेंगे।"

प्रातःकाल ब्राह्मण वहाँ से चल पड़ा। जब विरूपाक्ष ने सुना कि उनके मित्र ने गौतम को भेजा है, तब उन्होंने उसका बड़ा सत्कार किया और उसे खूब धन देकर विदा किया।

गौतम जब लौटकर आया तो राजधर्मा ने फिर सत्कार किया। रात्रि में राजधर्मा भी भूमि पर ही सो गये। उन्होंने पास में अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रि में ब्राह्मण पर आक्रमण न करें। परंतु रात्रि में जब उस लालची, कृतघ्न गौतम की नींद खुली तो वह सोचने लगा, 'मेरा घर यहाँ से बहुत दूर है। मेरे पास धन तो पर्याप्त है पर मार्ग में भोजन के लिए तुच्छ नहीं है। क्यों न इस मोटे बगुले को मारकर साथ ले लूँ तो रास्ते का मेरा काम चल जायेगा।' ऐसा सोचकर उस क्रूर ने सोते हुए राजधर्मा को मार डाला। उनके पंख नोच दिये, अग्नि में उनका शरीर भून लिया और धन की गठरी लेकर वहाँ से चल पड़ा।

इधर विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहाः "बेटा ! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजी को प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना घर नहीं जाते। आज दो दिन बीत गये, वे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मण के लक्षण अच्छे नहीं लगते। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम जाओ, पता लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्था में है।"

राक्षसकुमार दूसरे राक्षसों के साथ जब राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के पंख खून से लथपथ बिखरे पड़े हैं। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। क्रोध के मारे उसने गौतम को ढूँढना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देर मे राक्षसों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर राक्षसराज को सौंप दिया।

अपने मित्र का आग में झुलसा शरीर देखकर राक्षसराज शोक से मूर्च्छित हो गये। मूर्च्छा दूर होने पर उन्होंने कहाः "राक्षसो ! इस दुष्ट के टुकड़े-टुकड़े कर दो और अपनी भूख मिटाओ।"

राक्षसगण हाथ जोड़कर बोलेः "राजन् ! इस पापी को हम लोग नहीं खाना चाहते। आप इसे चाण्डालों को दे दें।"

राक्षसराज ने गौतम के टुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालों को देना चाहा तो वे भी उसे लेने को तैयार नहीं हुए। वे बोलेः "यह तो कृतघ्न का मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़े तक नहीं खाना चाहेंगे तो हम इसे कैसे खा सकते हैं !" फलतः वह मांस एक खाई में फेंक दिया गया।

राक्षसराज ने सुगंधित चंदन की चिता बनवायी और उस पर बड़े सम्मान से अपने मित्र राजधर्मा का शरीर रखा। उसी समय देवराज इन्द्र के साथ कामधेनु उस परोपकारी महात्मा के दर्शन करने आकाशमार्ग से आयीं। कामधेनु के मुख से अमृतमय झाग राजधर्मा के मृत शरीर पर गिर गया और राजधर्मा जीवित हो गये।

इस प्रकार परोपकारी, धर्मनिष्ठ राजधर्मा की तो जयजयकार हुई और कृतघ्न गौतम को प्राप्त हुई – मौत अपकीर्ति और नरकों की यातनापूर्ण यात्रा !

ऐसे अनेक कृतघ्नों की दुर्दशा का वर्णन इतिहास में मिलता है। जैसे – महावीरजी से गोशालक ने तेजोलेश्या विद्या की शिक्षा ली और उस विद्या का प्रयोग उन्हीं के ऊपर कर दिया तो महावीर जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटा वह दुष्ट ही उस विद्या के तेज से झुलसकर मर गया।

महापुरुष तो अपनी समता में रहते हैं, उनके मन में किसी के प्रति नफरत नहीं होती पर प्रकृति उन कृतघ्नों को धोबी के कपड़ों की तरह पीट-पीटकर मारती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 210

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निंदकों, कुप्रचारकों की खुल गयी पोल

निंदकों, कुप्रचारकों की खुल गयी पोल

महेन्द्र चावला के आरोपों की हकीकत

विदेशी षड्यंत्रकारियों का हत्था बनकर मीडिया में आश्रम के खिलाफ मनगढंत आरोपों की झड़ी प्रचारित करने वाले महेन्द्र चावला की न्यायाधीश श्री डी.के.त्रिवेदी जाँच आयोग के समक्ष पोल खुल गयी। चालबाज महेन्द्र ने वास्तविकता को स्वीकारते हुए उसने कहा कि मैं अहमदाबाद आश्रम में जब-जब आया और जितना समय निवास किया, तब मैंने आश्रम में कोई तंत्रविद्या होते हुए देखा नहीं।

आश्रम में छुपे भोंयरे (गुप्त सुरंग) होने का झूठा आरोप लगाने वाले महेन्द्र ने सच्चाई को स्वीकारते हुए माना कि यह बात सत्य है कि जिस जगह आश्रम का सामान रहता है अर्थात् स्टोर रूम है, उसे मैं भोंयरा कहता था।

श्री नारायण साँई के नाम के नकली दस्तावेज बनाने वाले महेन्द्र ने स्वीकार किया कि यह बात सत्य हे कि कम्पयूटर द्वारा किसी भी नाम का, किसी भी प्रकार का, किसी भी संस्था का तथा किसी भी साइज का लेटर हेड तैयार हो सकता है। बनावटी हस्ताक्षर किये गये हों, ऐसा मैं जानता हूँ।

महेन्द्र ने स्वीकार किया कि वह दिल्ली से दिनांक 5.8.2008 को हवाई जहाज द्वारा अहमदाबाद आया, जहाँ अविन वर्मा, वीणा चौहान व राजेश सोलंकी पहले से ही आमंत्रित थे। इन्होंने प्रेस कान्फ्रेन्स द्वारा आश्रम के विरोध के झूठे आरोपों की झड़ी लगा दी थी। साधारण आर्थिक स्थितिवाला महेन्द्र अचानक हवाई जहाजों में कैसे उड़ने लगा ? यह बात षड्यंत्रकारी के बड़े गिरोह से उसके जुड़े होने की पुष्टि करती है।

महेन्द्र के भाइयों ने पत्रकारों को दिये इंटरव्यू में बतायाः "आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बावजूद हमने उसकी पढ़ाई के लिए पानीपत में अलग कमरे की व्यवस्था की थी। उसकी आदतें बिगड़ गयी। वह चोरियाँ भी करने लगा। एक बार वह घर से 7000 रूपये लेकर भाग गया था। उसने खुद के अपहरण का भी नाटक किया था और बाद में इस झूठ को स्वीकार कर लिया था।

इसके बाद वह आश्रम में गया। हमने सोचा वहाँ जाकर सुधर जायेगा लेकिन उसने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा। और अब तो धर्मांतरणवालों का हथकंडा बन गया है और कुछ का कुछ बक रहा है। उसे जरूर 10-15 लाख रूपये मिले होंगे। नारायण साँई के बारे में उसने जो अनर्गल बातें बोली हैं वे बिल्कुल झूठी व मनगढंत है।"

महेन्द्र के भाइयों ने यह भी बतायाः "आश्रम से आने के बाद किसी के पैसे दबाने के मामले में महेन्द्र के खिलाफ एफ.आई.आर. भी दर्ज हुई थी। मार-पिटाई व झगड़ाखोरी उसका स्वभाव है। वास्तव में महेन्द्र के साथ और भी लोगों का गैंग है और ये लोग ही 'मैं नारायण साँई बोल रहा हूँ, मैं फलाना बोल रहा हूँ..... मैं यह कर दूँगा, वह कर दूँगा.....' इस प्रकार दूसरों की आवाजें निकाल के पता नहीं क्या-क्या साजिशें रच रहे हैं।"

अंततः महेन्द्र चावला की भी काली करतूतों का पर्दाफाश हो ही गया। इस चालबाज साजिशकर्ता को उसक घर परिवार के लोगों ने तो त्याग ही दिया है, साथ ही समाज के प्रबुद्धजनों की दुत्कार का भी सामना करना पड़ रहा है। भगवान सबको सदबुद्धि दें, सुधर जायें तो अच्छा है।

ऐसे विदेशियों के हथकंडे साबित हो ही रहे हैं। कोई जेल में है तो किसी को परेशानी ने घेर रखा है तो कोई प्रकृति के कोप का शिकार बन गये हैं। और उनके सूत्रधारों के खिलाफ उन्हीं का समुदाय हो गया है। यह कुदरत की अनुपम लीला है। कई देशों में तथाकथित धर्म के ठेकेदारों द्वारा सैंकड़ों बच्चों का यौन-शोषण कई वर्षों तक किया गया। गूगे-बहरे, विकलांग बालकों का यौन-शोषण और वह भी इतने व्यापक पैमाने पर हुआ। उसका रहस्य प्रकृति के खोल के रख दिया है (जिसका विवरण ऋषि प्रसाद के पिछले अंक में प्रकाशित हुआ है)। ऐसी नौबत आयी कि साम, दाम, दंड, भेद आदि से भी विरोध न रूका। आखिरकार इन सूत्रधारों को जाहिर में माफी माँगनी पड़ी। पूरे यूरोप का वकील-समुदाय बालकों किशोरों का यौन-शोषण करने वालों के खिलाफ खड़ा हो गया। भारत को तोड़ने की साजिशें रचने वाले अपने कारनामों की वजह से खुद ही टूट रहे हैं। पैसों के बल से न जाने क्या-क्या कुप्रचार करवाते हैं परंतु सूर्य को बादलों की कालिमा क्या ढकेगी और कब तक ढकेगी ? स्वामी रामतीर्थ, स्वामी रामसुखदासजी आदि के खिलाफ इनकी साजिशें नाकामयाब रहीं। ऐसे ही अब भी नाकामायाबी के साथ कुदरत का कोप भी इनके सिर पर कहर बरसाने के लिए उद्यत हुआ है।

डॉ. प्रे. खो. मकवाना (एम.बी.बी.एस.)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 5,6, अंक 210

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हर परिस्थिति का सदुपयोग



(परमपूज्य आसाराम बापूजी की सर्वहितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन का मुख्य कार्य प्रभुप्राप्ति ही है। शरीर से संसार में रहो किंतु मन को हमेशा भगवान में लगाये रखो। समय बड़ा कीमती है, फालतू गप्पे मारने में अथवा व्यर्थ कि चेष्टाओं में समय बर्बाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए। भगवदस्मरण, भगवदगुणगान और भगवदचिंतन में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है। आपका हर कार्य भगवदभाव युक्त हो, भगवान की प्रसन्नता के लिए हो इसका ध्यान रखें।

आपके पास क्या है, क्या नहीं है इसका महत्त्व नहीं है, जो है, जितना है उसका उपयोग किसलिए कर रहे हो इसका महत्त्व है। धन है, मान है और धन की हेकड़ी दिखा रहे होः "मैं बड़ा हूँ अथवा मेरे कुटुम्बी ऐसे हैं, वैसे हैं....।" धन का दिखावा करके दूसरों को प्रभावित करते हो और ईश्वर को भूलते हो तो धन का यह दुरुपयोग आपको दुःख में गिरा देगा। धन है, भगवान के रास्ते जाने में उसका सदुपयोग करते हो, जिसका है उसी की प्रीति के लिए लगाते हो तो धन आपका कल्याण कर देगा।

गरीब हो, मजदूरी करते हो, कमियाँ हैं इसकी परवाह न करो। इनका सदुपयोग करने से आपका मंगल हो जायेगा। आपके पास कैसी भी परिस्थिति आये – बीमारी की हो या तंदरुस्ती की, निंदा की हो या वाहवाही की, सबका सदुपयोग करो। आपके पास क्या है इसका मूल्य नहीं है, आप उसका उपयोग सत् के लिए, प्रभु को पाने के लिए करो तो आपका कल्याण हो जायेगा। शबरी भीलन अनपढ़ थी, नासमझ थी लेकिन मैं भगवान की हूँ, गुरु की हूँ..... ऐसा सोचकर गुरुआज्ञा में चली तो महान हो गयी। राजा जनक विद्वान थे, धनवान थे, धन को, विद्या को समाज के हित में लगा दिया तो महान हो गये।

बीमारी आयी। किस कारण आयी यह समझकर सावधान हो गये कि दुबारा वह गलती नहीं करेंगे। बीमारी आयी तो तपस्या हो गयी, वाह प्रभु ! ऐसे प्रसन्न हुए तो यह बीमारी का सदुपयोग हुआ। जरा सी बीमारी आयी और परेशान हो गये... तुरंत इंजेक्शन ले लिया, बिना विचार किये ऑपरेशन करा लिया और असमय बूढ़े हो गये। पैसे भी लुटवाये और शरीर भी खराब करा लिया तो यह बीमारी का दुरुपयोग हुआ।

लोग आपका मजाक उड़ाते हैं तो सावधान हो जाओ कि 'मरने वाले शरीर का मजाक उड़ा रहे हैं, मसखरी कर रहे हैं। मैं इसको जानने वाला हूँ। ॐआनन्द... तो यह उस परिस्थिति का सदुपयोग हो गया।

कैसी भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करके अपने-आपको जानने की, भगवान को पाने की कला सीख लो।

बोलेः महाराज ! हमको भगवान पाने की इच्छा तो है लेकिन हमारे पतिदेव मर गये न, उनकी याद आ रही है। पति में बड़ा मोह था हमारा।

कोई बात नहीं, मोह को रहने दो, मोह को तोड़ो मत। पतिदेव चले गये तो चले गये, भगवान की तरफ गये। मेरे पति को भगवान ने अपने-आपमें समा लिया। अब पति की आकृति में ममता और विकार सब चला गया, भगवान रह गये। हम उस भगवान के रो रहे हैं- 'हे प्रभु ! कब मिलेंगे....' यह ममता का, रुदन का सदुपयोग हो गया।

"बाबा ! झूठ बोलने की आदत है। क्या करें?"

ठीक है, खूब झूठ बोलो किंतु उसका सदुपयोग करो, भगवान खुश हो जायेंगे। आप मन ही मन ठाकुरजी के लिए सिंहासन सजाओ और भगवान से झूठ बोलो कि 'प्रभु ! आओ, आपके लिए सोने का सिंहासन बनाया है, बहुत नौकर-चाकर लगा रखे हैं, मक्खन मिश्री रखी है....' इस प्रकार मन में जो भी भाव आये ठाकुर जी को प्रसन्न करने के लिए बंडल पर बंडल मारते जाओ। झूठ बोलने की आदत है, कोई बात नहीं, उसको दबाओ मत और कर्मों में फँसाने वाला झूठ कभी बोलो मत। ठाकुर जी को रिझाने वाला झूठ रोज बोलो, धीरे-धीरे झूठ चला जायेगा। ठाकुर जी की प्रीति, ठाकुर जी की निगाहें और ठाकुर जी का माधुर्य आपके हृदय रति, प्रीति और तृप्ति के रूप में प्रगट होगा। कैसी है सनातन धर्म की व्यवस्था !

मिले हुए का आदर, जाने हुए में दृढ़ता और प्रभु में विकल्परहित विश्वास से आपका कर्मयोग हो जायेगा, भक्तियोग हो जायेगा, ज्ञानयोग हो जायेगा।

गरीबी से भी निर्दुःखता नहीं आती, अमीरी से भी निर्दुःखत नहीं आती बल्कि गरीबी व अमीरी का सदुपयोग करने से निर्दुःखता आती है और हृदय में परमात्मा का प्रागट्य हो जाता है। आपके पास गरीबी है तो डरो मत, उसका सदुपयोग करो, इससे आपके पास वह प्रगट होगा जिसके लिए दुनिया तरसती है। आप पठित हो या अनपढ़ हो, विद्वान हो या मूर्ख हो, बीमार हो या स्वस्थ हो, जैसे भी हो उसका सदुपयोग करे, भाई है तो भाईपने का सदुपयोग करे। मुख्य सम्पादक है तो सम्पादकपने का सदुपयोग करे। पत्रकार हो तो पत्रकारिता का सदुपयोग करे। सदुपयोग में इतनी शक्ति है कि उसके सहारे भगवान मिल जाते हैं।

'बाबा ! दुर्घटना हो जाय, दुःख आये उसका सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' हाँ ! मर्खता का विद्वता का, धन-धान्य का सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' हाँ बिल्कुल मिल जायेंगे। कुछ भी नहीं है, निपट-निराले एकदम कंगाल हैं, इस परिस्थिति का भी सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' बोलेः हाँ !

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः।।

'हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख या दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।'

(भगवदगीताः 6.32)

परिस्थिति कैसी भी आयें, उनमें डूबो मत। उनका उपयोग करो। समझदार लोग संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान व प्रकाश फैलाने में भागीदार होते हैं और मूर्ख लोग सुख आता है तो अहंकार में तथा दुःख आता है तो विषाद में डूब के स्वयं का तो सुख, ज्ञान और शांति नष्ट कर लेते हैं, औरों को भी परेशान करके संसार से हारकर चले जाते हैं।

संसार से जाना तो सभी को है, हमको भी जाना है, आपको भी जाना है, यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध-महावीर सब आये और चले गये, हमारे दादे-परदादे सब चले गये तो हम कब तक ? यह शरीर तो जाने वाला है। जो जाने वाला है उसके जाने का सदुपयोग करो और जो रहने वाला है उसको सत्संग के द्वारा पहचान कर अभी आप निहाल हो जाओ, खुशहाल हो जाओ, पूर्ण हो जाओ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।.....

तो अब करना क्या है ? गरीब होना है ? अमीर होना है ? यहाँ रहना है ? परदेश जाना है ? क्या करना है ?

कुछ करना नहीं है, कोई परिवर्तन की इच्छा नहीं करनी है, जो कुछ हो रहा है उसका सदुपयोग करना है। 'ऐसा हो जाय, वैसा हो जाय, ऐसा बन जाऊँ....' इस चक्कर में मत पड़ो।

प्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।

तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।

पुरुषार्थ अपनी जगह पर है, प्रारब्ध अपनी जगह पर है, दोनों का सदुपयोग करने वाला धन्य हो जाता है।

परिस्थिति कैसी भी आये, अपने चित्त में दुःखाकार या सुखाकार वृत्ति पैदा होगी लेकिन उस वृत्ति को बदलकर भगवदाकार करना, यह है परिस्थिति का सदुपयोग। धन आया, सत्ता आयी, योग्यता आयी और अहंकार बढ़ाया तो आपने इनका दुरुपयोग किया। यदि धन से 'बहुजन हिताय-बहुजनसुखाय' का नजरिया बना और मिली हुई योग्यता का सत्यस्वरूप ईश्वर के ज्ञान में, शांति में, ईश्वरप्रसादजा बुद्धि बनाने में सदुपयोग किया तो आप और ऊपर उठते जायेंगे, अनासक्त भाव से और ऊँचाइयों को छूते जायेंगे। बाहर की ऊँचाई दिखे चाहे न दिखे लेकिन अंतरात्मा की संतुष्टि, प्रीति और तृप्ति आपके हृदय में आयेगी।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 210

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ज्ञान का अंजन मिला तो आँख खुल गयी



(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )


कबीर दास जी के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कमाली जब सोलह सत्रह वर्ष की थी तब की एक घटना है। कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी। उसका स्वभाव मधुर और हिलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है। उसकी निगाहें नासाग्र रहतीं. वह इधर उधर नहीं देखती थी। युवती तो थी, उम्रलायक थी लेकिन कबीर जी की मधुर छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा-सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था।

एक बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी। कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली, इतने में एक ब्राह्मण आया और बोलाः "मैं बहुत प्यासा हूँ।" कमाली ने गागर दे दी। वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया और लम्बी साँस ली। कमाली ने पूछाः "भाई ! इतना सारा पानी पी गये, क्या बात है ?"

ब्राह्मण ने कहाः "मैं कश्मीर गया था पढ़ने के लिए। अब पढ़ाई पूरी हो गयी तो अपने घर जा रहा था। रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं, सुबह का प्यासा था। पानी नहीं मानो यह तो अमृत था, बहुत देर के बाद मिला है तो इसकी कद्र हो रही है। अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ?"

कमाली बोलीः "कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते।"

ब्राह्मणः "मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं, प्यास बहुत जोरों की लगी थी। बताओ, जाति की कौन हो तुम ?"

कमालीः "हमारे पिता संत कबीर जी ताना-बुनी करते हैं। हम जाति के बुनकर हैं।"

उस विद्वान का नाम था हरदेव पंडित। 'बुनकर' सुनते ही वह आगबबूला हो गया, बोलाः "कबीर तो ब्राह्मणों को धर्मभ्रष्ट करते हैं और तुम भी उसमें सहयोगी हो ! मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी। तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?"

कमालीः "ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं और मैंने धर्मभ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है। मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है और पानी माँगता है इसलिए पानी पिलाया है। तुमने पानी जैसी चीज माँगी तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति-पाँति के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा, पथिक प्यासा है, वैसे तो करोड़ों-करोड़ों लोग प्यासे ही हैं, उनकी प्यास तो मेरे पिता जी ही बुझा सकते हैं लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ। जिसकी प्यास आत्मा-परमात्मानुसंधान से बुझती है उसकी प्यास तो मेरे पिता जी बुझा सकते हैं।"

हरदेव पंडितः "वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में वैसी तू भी चतुर है। अपनी जाति नहीं बतायी और लगी है ज्ञान छाँटने।"

कमालीः "पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है। ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए, रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए। कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है, यह ज्ञान था तभी तो तुम पढ़ने गये। पढ़ाई पूरी हुई, यह ज्ञान हुआ तभी अपने वतन में आये हो। प्यास का ज्ञान हुआ तभी तुमने पानी माँगा। ज्ञान तो सतत चाहिए लेकिन वह ज्ञान अज्ञानसंयुक्त शरीर को पोसने में लगता है इसलिए दुःखकारी हो जाता है। यदि वह ज्ञानस्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है तो पूजनीय हो जाता है, वंदनीय हो जाता है।"

हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है। वह बोलाः "चुप रह, ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है !"

कमालीः "पंडित जी ! ब्राह्मण कौन और बुनकर कौन ?"

हरदेवः "जो जुलाहे लोग हैं वे बुनकर होते हैं और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं वे ब्राह्मण होते हैं।"

कमालीः "नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण होता है और जो राग-द्वेष में झूलता रहता है वह जुलाहा होता है।"

हरदेवः "तुम्हारे पिता जी भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं, पंडित बदे सो झूठा और तुमने हमारे साथ ऐसा किया ! लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं। चलो तुम्हारे पिता के पास, वहीं खुलासा होगा।"

कमालीः "हाँ, चलिये पिता जी के पास।"

कबीर जी तो अपने सततस्वरूप में रमण करने वाले थे। उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है। कबीर जी ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा और पूरी बात जान ली।

पंडित बोलाः "तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया। मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया।"

जिनको अपने सततस्वरूप का स्मरण होता है, वे छोटी-मोटी बातों में उलझते नहीं। भले बाहर से कभी आँख दिखाके भी बात करें लेकिन भीतर से उलझते नही। वे समझते है कि संसार एक नाटक है।

कबीर जी हँसने लगे, बोलेः "पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया ! लेकिन कुएँ के अंदर क्या-क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं उनका मलमूत्र आदि उसी में होता है। कछुए आदि और भी जीव-जंतु रहते हैं, उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती है। घड़ा जिस मिट्टी से बना है उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है, कई जीव-जंतु मरते हैं तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं। उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं, फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय, चाहे बुनकर के घर। पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये और मरे। ऐसी कौन सी मिट्टी होगी, ऐसा कौन सा एक कण होगा जिसमे मुर्दे का अंश न हो। पंडित ! कुआँ तो गाँव का है, उसमें से तो सभी लोग पानी भरते है, कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी। बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी, उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं और तुम पवित्रता-अपवित्रता कि विचार करते हो, तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है। शूद्र वह है जो हाड़-मांस की देह को 'मैं' मानता है और ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता है अथवा जानने के रास्ते चलता है।"

कबीर जी की युक्तियुक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ। कबीर जी के दिल में सततस्वरूप का अनुसंधान था। वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे। पंडित का गुस्सा शांत हुआ। कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया और कहाः "हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया। आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा। तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया, मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी। अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा।"

जो देह को में मानते हैं वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते है व बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं। इसलिए सतत चिंतन किया जाय कि जहाँ से मन फुरता है, बुद्धि को सत्ता मिलती है, चित्त को चेतना मिलती है, जहाँ से मन भूख-प्यास का पता लगाता है और मन को पता लगाने का जहाँ से सामर्थ्य मिलता है, उस चैतन्य आत्मा की स्मृति ही परमात्मा की सतत् स्मृति है। उस चैतन्य को 'मैं' मानना समझो सारे दुःख, क्लेश, पाप से परे हो जाना है और उस चैतन्य की विस्मृति, करके देह को 'मैं' मानना मानो सारे दुःख, क्लेश और पापों को आमेंत्रित करना है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 25,26,27 अंक 210

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भगवान की विशेष कृपाएँ


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

ईश्वर की चार विशेष कृपाएँ हैं जिन्हें नास्तिक आदमी भी स्वीकार करेगा। ईश्वर की पहली कृपा है कि हमको मनुष्य शरीर दिया। 'रामायण' में आता हैः

बड़ें भाग मानुष तन पावा।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

'बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर (भारत में जन्म) देवताओं को भी दुर्लभ है।'

(रामचरित. उ.कां. 42.4)

हमारे जन्मते ही माँ के भोजन से हमारे लिए दूध बन गया। किसी वैज्ञानिक के बाप की ताकत नहीं कि रोटी सब्जी से दूध बनाके दिखाये। यह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। जब बच्चा खाने पीने के लायक नहीं होता है तो दूध बंद हो जाता है और जब दूसरा बच्चा आता है तो फिर दूध चालू हो जाता है। यह जड़ का काम नहीं है, इसमें समझदारी, शक्ति चेतन परमात्मा की है।

ईश्वर की दूसरी कृपा है हमको बुद्धि दी, शास्त्र का ज्ञान, भगवान की उपासना की पद्धति और श्रद्धा दी।

श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्व श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

"श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्री हरि संतुष्ट होते हैं।'

(नारद पुराण, पूर्व भागः 4.1)

श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। यदि मनुष्य को ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों में दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो फिर उसके लिए मुक्ति पाना सहज हो जाता है। श्रद्धा ही श्रेष्ठ धन है। श्रद्धा ऐसा अनुपम सदगुण है कि जिसके हृदय में वह रहता है, उसका चित्त श्रद्धेय के सदगुणों को पा लेता है। श्रद्धा में ऐसी शक्ति है कि वह दुःख में सुख बना देती है और सुख में सुखानंद्स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करा देती है। जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है वह भले ही बड़े पद पर है लेकिन अशांति की आग उसके चित्त को और वैरवृत्ति की आग उसके कर्मों को धूमिल कर देगी।

तीसरी कृपा है भगवान क्या है, हम क्या हैं और भगवान को कैसे प्राप्त करें, ऐसी जिज्ञासा दी। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्म-ज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

सारी कृपाओं में आखिरी कृपा है कि उसने हमें किसी जाग्रत, हयात, आत्मारामी महापुरुष तक पहुँचाया। वे संसार के सर्वोत्तम केवट हैं। जो उनकी भवतरण-नौका में सवार हो जाते हैं, वे निश्चित ही समस्त दुःखों-आपदाओं से पार हो जाते हैं।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

महापुरुषों का मिलना वह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। अगर मुझे सदगुरु लीलाशाहजी महाराज नहीं मिलते तो मैं दस जन्म तो क्या दस हजार जन्मों में भी इस ऊँचाई को नहीं छू सकता था, जो मुझे मेरे सदगुरु के सान्निध्य और कृपा से मिली। ऐसे ही एक महापुरुष हो गये है, लोग उनको मोकलपुर के बाबा बोलते थे। वे बड़े उच्चकोटि के संत थे। गंगाजी ने उनको अपने मध्य में ही रहने को जगह दे दी थी। गंगा जी की दो धाराएँ बन गयीं और बीच के टापू पर मोकलपुर के बाबा का निवास, आश्रम बना। बाद में फिर धीरे-धीरे गाँव भी बस गया।

मोकलपुर के बाबा बड़े अच्छे, आत्मारामी संत थे। उनके पास एक सज्जन आये और बोलेः "बाबा ! मुझे ईश्वर के दर्शन करा दीजिए। हमने आपके सत्संग में सुना है कि ईश्वर हमारे आत्मा हैं और ईश्वर के लिए सच्ची तड़प हो तो वे जरूर दर्शन देते हैं पर महापुरुषों की कृपा होनी चाहिए। मुझ पर कृपा करो बाबा ! मुझे दर्शन करा दो।"

"बाबा ! जब तक मुझे दर्शन नहीं होगा, मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं, अन्न नहीं खाऊँगा, जल नहीं पीऊँगा, उपवास करूँगा।" बाबा ने फिर अनसुना कर दिया। 12 घंटे हो गये, 24 घंटे हो गये, 36 घंटे हो गये, 48 घंटे हो गये।

बड़े अलबेले होते हैं महापुरुष ! सुबह को बाबा डंडा लेकर सामने खड़े हो गयेः "क्यों रे ! ईश्वर का दर्शन चाहता है, कैसा बेवकूफ है ! यह जो दिख रहा है वह क्या है !

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

मैं जल में रस हूँ, सूरज और चंदा में मैं ही प्रभा के रूप में हूँ। वृक्षों में पीपल मैं हूँ। जब सर्वत्र नहीं देख सकता तो ईश्वर विशेषरूप से जहाँ प्रकट हुआ है वहाँ तो देख।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।

"मैं सम्पूर्ण वेदों में ॐकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।"

ईश्वर ही ईश्वर तो है, और नया कौन सा ईश्वर बुलायेगा ! कैसा बेवकूफ है !" बाबा जी ने मार दिया डंडा। डंडा तो बाहर लगा पर अंदर से ईश्वर और उसके बीच की जो खाई थी वह भर गयी और वह आदमी समाधिस्थ हो गया।

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।

गुरु शिष्य की कमी को निकालने के लिए बाहर से चोट करते दिखते हैं पर अंदर अपनी कृपा का सहारा देकर रखते हैं। डंडा मारते ही बाबा ने अपना संकल्प बरसाया और शिष्य को परमात्म-विश्रान्ति मिल गयी। आप लोग ऐसी इच्छा मत करना कि बापू भी कभी हमें डंडा मारे। यह मेरी प्रक्रिया नहीं है, मेरी प्रक्रिया दूसरी है।

हमको हयात महापुरुष में दृढ़ श्रद्धा दे दी, यह ईश्वर की कृपा नहीं तो क्या है ! ऐसा सदभाव दिया कि सदगुरु ईश्वर का दर्शन करा सकते हैं। यह भाव आना ईश्वर की कृपा की पराकाष्ठा नहीं है तो क्या है ! अगर मुझमें मेरे गुरुदेव के प्रति दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, गुरुजी मुझे ईश्वर से मिला देंगे ऐसा दृढ़ विश्वास नहीं होता तो जैसे दूसरे लोग भाग गये 5 – 25 प्रतिशत फायदा लेकर, ऐसे ही मैं भी तो भाग जाता। मेरी भी कई कसौटियाँ हुई पर मैं भागा नहीं।

मैं जब मेरे गुरुदेव के श्रीचरणों में रहता था, तब एक दिन गुरुदेव ने एक सेवक को 'पंचदशी' ग्रंथ पढ़ने को दिया। वह उसके सातवें प्रकरण का पहला श्लोक पढ़ रहा था।

आत्मानं चेद्धिजानीयादयमस्मीति पुरुषः।

किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत्।।

'यदि पुरुष यह आत्मा है, मैं हूँ – इस प्रकार आत्मा को जान ले तो किस विषय की इच्छा करता हुआ और किस विषय के लिए आत्मा को तपायमान करे अर्थात् आत्मज्ञान से ही सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं।'

शरीर छूट जाने वाला है और आत्मा अमर है, इसको जानने के बाद वह पुरुष शरीर की वाहवाही अथवा शरीर के भोग के लिए क्यों अपने को पचायेगा ! यह चल रहा था और गुरुजी ने जरा सी कृपा-दृष्टि डाली और अपने घर में घर दिखला दिया। तरंग ने अपने को सागर जान लिया, घड़े के आकाश ने अपने को महाकाश के रूप में देख लिया। जीव की कल्पना हटी और ब्रह्म हो गया।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे न शेष।

धनभागी हैं वे, जो संत-दर्शन की महत्ता जानते हैं, उनके दर्शन-सत्संग का लाभ लेते हैं, उनके द्वार पर जा पाते हैं, उनकी सेवा कर पाते हैं और धन्य है यह भारतभूमि, जहाँ ऐसे आत्मारामी संत अवतरित होते रहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 210

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एक भरोसा, एक आस, एक विश्वास....


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )




सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।

जो सत् है, चित् है, जो आनन्दस्वरूप है उस पूर्ण परमात्मा का भरोसा, उसी की आस, उसी का विश्वास .....! पूर्ण की आस पूर्ण कर देगी, पूर्ण का भरोसा पूर्णता में ला देगा, पूर्ण का विश्वास पूर्णता प्रदान कर देगा। नश्वर की आस, नश्वर का भरोसा, नश्वर का विश्वास नाश करता रहता है।

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि एक भगवान का ही भरोसा, भगवान को पाने की ही आस और परम मंगलमय भगवान ही हमारे हितकारी हैं, ऐसा विश्वास हमें निर्दुःख, निश्चिंत, निर्भीक बना देता है। जगत का भरोसा, जगत की आस, जगत का विश्वास हमें जगत में उलझा देता है। भरोसा, आस और विश्वास मिटता नहीं, यह तो रहता है लेकिन जो इसे नश्वर से हटाकर शाश्वत में ला देता है वह धनभागी हो जाता है।

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु,

रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।

यह बिनती रघुबीर गुसाई।

और आस-बिस्वास-भरोसो,

हरो जीव-जड़ताई।।

नश्वर चीजों की आस, नश्वर चीजों का भरोसा, नश्वर चीजों का विश्वास यह जीवात्मा की जड़ता है। हे प्रभु ! आप शाश्वत हैं, हमारा आत्मा होकर बैठे हैं। आप पर विश्वास, आपका भरोसा और आपकी आस छोड़कर जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, संबंध, सम्पदा पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है उन्हीं की आस, विश्वास और भरोसा करना यह हमारी जड़ता है। इस जड़ता को हर लो महाराज, बस।

नश्वर चीजों की आशा है – पेंशन आयेगी फिर आराम से भजन करूँगा। हे भैया ! आराम तो अपने राम में है। सुविधाजन्य भजन तेरे को खोखला बना देगा। पेंशन का आधार, मित्र का आधार, कुटिया का आधार, वातावरण का आधार तेरे को खोखला बना देगा।

मैंने भी यह गलती की थी। गुरुजी ने आज्ञा दी की 'डीसा में जाकर रहो'। जहाँ कुटिया थी उसके आसपास में झोंपड़पट्टी थी। एक दिन भी रहने की इच्छा नहीं होती थी। कुछ दिन रहा, फिर गुरुजी को चिट्ठी लिखी कि 'कृपा करके आज्ञा प्रदान करें कि मैं नर्मदा किनारे मेरे मित्र संत की गुफा है, वहाँ स्वतन्त्रता से रहके अनुष्ठान आदि आराम से कर सकता हूँ, मैं वहाँ रहूँ ?"

गुरुजी ने उत्तर भेजा कि 'वहें रहो।' महीना-दो महीना खींचा, मन को सँभाल के फिर चिट्ठी लिखीः 'हे गुरुदेव ! आपको न कहूँगा तो किसको कहूँगा। मेरे मन में आता है कि कुटिया को और बाउण्ड्री को ताला लगाकार चाबियाँ बाउण्ड्री में फेंककर नर्मदा किनारे भाग जाऊँ। वहाँ शांति है, एकांत है और तपस्या भूमि है। यहाँ झोंपड़पट्टी के बच्चे दिन-रात चिल्लाते रहते हैं, आपस में गालियाँ बोलते और दीवालों पर भी लिखते रहते हैं।' गुरुजी ने कहाः 'गालियाँ निकालते हैं तो वे तो आकाश में चली गई, रात को कुत्ते भौंकते हैं तो ॐ ॐ बोलते हैं – ऐसी भावना क्यों नहीं करते ! बैठे रहो वहीं !'

सात साल वहाँ निकाले और गुरुदेव ने ऐसा पक्का, मजबूत बना दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इतनी भीड़, बाहर की इतनी प्रवृत्ति के अंदर भी निर्लेप नारायण की आस, भरोसा, विश्वास पर मौज ही मौज, आनन्द ही आनन्द है।

हम अपनी मान्यता की आशा रखते हैं, अपनी चीज वस्तु, बुद्धिमत्ता का भरोसा रखते हैं लेकिन ये सब बेचारे, बेचारे ही हैं। एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास परमात्मा को देखो।

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि और देवियों की पूजा करो तो खुश होती हैं लेकिन आशा देवी का भरोसा छोड़ने से आप पूर्ण सुखी हो जाते हैं।

आशा देवी की पूजा छोड़ दो, आशा देवी का भरोसा छोड़ दो, आशा का विश्वास न करो, आशाओं के दास न बनो, आशा के राम बन जाओ बस !

आशा तो एक राम की, और आस निराश।

अगर मिले तो राम मिले, और मिला तो क्या मिला ! मिलकर बिछड़ जायेगा। यह जीव की जड़ता ही है कि आशा छोड़ नहीं सकता। कहीं न कहीं विश्वास तो रखना ही पड़ता है, किसी-न-किसी पर भरोसा रखना ही पड़ता है तो रखिये भरोसा प्रकृति से परे उस परमात्मा पर।

असंगो ह्यं पुरुषः।

आप उसी की आस, उसी का भरोसा और उसी में विश्वास करते हो तो जैसी आस, जैसा भरोसा, जैसा विश्वास रखते हैं और जैसा आपका भाव होता है, वह सत्-चित्-आनंदघन परमात्मा उसी रूप में आपके आगे लीला करके आपको संतुष्ट कर सकते हैं। परंतु आप अपना आग्रह छोड़िये की 'ठाकुरजी ! आप ऐसे रूप में मिलो, वैसे रूप में मिलो......।' नहीं, आप तो प्रार्थना करो। 'महाराज ! तुम कैसे हो यह हम नहीं जानते लेकिन हम कैसे हैं तुम जानते हो। मम हृदय भवन प्रभु तोरा। मेरा हृदय तो तेरा भवन है मेरे परमेश्वर ! तू सत् है, तू चित् है, तू आनन्दस्वरूप है यह हम जानते नहीं हैं, शास्त्र और महापुरुषों के वचनों से मानते हैं।

जगत की ऐसी वस्तु मिलेगी, ऐसा निवास मिलेगा, ऐसा एकांत मिलेगा, ऐसी साधना मिलेगी तब मैं भजन करूँगा – यह मेरी आशा हर लो महाराज ! आप सर्वत्र हो, हर हाल में हो।'

स्वामी रामतीर्थ ने उस परमेश्वर की महिमा को कुछ जानते हुए गुनगुनायाः

कोई हाल मस्त, कोई माल मस्त,

कोई तूती मैना सूए में।

कोई खान मस्त, पहरान मस्त,

कोई राग रागिनी दोहे में।।

'ऐसा हाल हो तब मैं सुखी होऊँगा' – यह भ्रम निकाल दो। इतनी माल मिल्कियत होगी तब सुखी होंगे' – यह आशा भटकाती है। इन तुच्छ अवस्थाओं की आशा, विश्वास और भरोसा करके हम फँस जाते हैं। इनके बिना भी हम अपने-आप में पूर्ण सुखी रह सकते हैं।

नानक जी कहते हैं-

पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ।

नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ।।

सुखमनी साहिब

कोई अवस्था अभी नहीं है, आयेगी तब हम सुखी होंगे तो आप नश्वर की आशा करते हैं, नश्वर पर भरोसा करते हैं, नश्वर पर विश्वास करते हैं।

एक बार दरिया में जोरों का तुफान उठा। पालवाली नाव तरंगो में उछलने लगी। समुद्री तुफान को देख यात्रियों के प्राण कंठ में आ गये। अब क्या करें, किसकी आशा करें, किसका भरोसा करें, किस पर विश्वास करें ? अब गये-अब गये, रोये चीखे चिल्लाये। यात्रियों में एक दूल्हा-दुल्हन भी थे। दुल्हन देख रही थी के मेरे पति आकाश की ओर शांत भाव से देख रहे हैं।

वह बोलीः "अजी ! ऐसी आँधी चल रही है, तुफान आ रहा है। अब क्या होगा, कोई पता नहीं। सब चीख रहे हैं, हे प्रभु ! बचाओ। और आप निश्चिंत हो !"

दूल्हे ने म्यान में तलवार निकाली और उसके गले पर रख दी। दुल्हन पति के सामने देखने लगी।

पति बोलाः तुझे डर नहीं लगता ? मौत तेरे सिर पर आ गयी है।"

"मैं क्यों डरूँगी ! तलवार है तो मेरी गर्दन पर लेकिन मेरे स्वामी के हाथ में है। यह तलवार मेरा क्या बिगाड़ेगी !"

"तेरा अपने स्वामी पर भरोसा है तो तू निश्चिंत है, तो मेरा भी मेरे स्वामी पर भरोसा है इसलिए मैं निश्चिंत हूँ। मेरे स्वामी पर मेरा विश्वास है कि जो करेंगे भले के लिए करेंगे। अगर यह नाव डुबाते हैं तो नया शरीर देना चाहेंगे, उसमें भी मेरा भला है और इसी जीवन में सत्संग-साधना में आगे बढ़ाना चाहेंगे तो नाव किनारे लगायेंगे। हमारे हाथ की बात तो है नहीं कि आँधी, तूफान को रोक दें लेकिन आशा, विश्वास और भरोसा उन्हीं का है, उनको जो भी अच्छा लगेगा ये करेंगे।"

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।

एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।।

तुलसी दोहावलीः 277

जैसे चातक की नजर एक ही जगह पर होती है, ऐसे ही हे प्रभ ! हमारी दृष्टि तुम पर रख दो। भगवान पर भरोसा करोगे तो क्या शरीर बीमार नहीं होगा, बूढा नहीं होगा, मरेगा नहीं ? अरे भाई ! जब शरीर पर, परिस्थितियों पर भरोसा करोगे तो जल्दी बूढ़ा होगा, जल्दी अशांत होगा, अकाल भी मर सकता है। भगवान पर भरोसा करोगे तब भी बूढ़ा होगा, मरेगा लेकिन भरोसा जिसका है देर-सवेर उससे मिलकर मुक्त हो जाओगे और भरोसा नश्वर पर है तो बार-बार नाश होते जाओगे। ईश्वर की आशा है तो उसे पाओगे व और कोई आशा है तो वहाँ भटकोगे। पतंगे का आस-विश्वास-भरोसा दीपज्योति के मजे पर है तो उसे क्या मिलता है ? परिणाम क्या आता है ? जल मरता है ।

मत कर रे गुमान, गुलाबी रंग उड़ी जावेलो।

इस बाहर के सौंदर्य पर, बाहर के धन पर, बाहर के प्रमाणपत्रों पर आस, विश्वास, भरोसा न रख, उस अंतर्यामी परमात्मा पर आस, विश्वास भरोसा कर। तू तो तर जायेगा, तू तो 'उस' मय हो जायेगा और तेरे सम्पर्क में आने वाले भी तर जायेंगे।

एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास.... परमात्मा के ज्ञान में ही रहना और दूसरों को लगाना, आप प्रसन्न रहना और दूसरों को प्रसन्न करना – इस ईश्वरीय सिद्धान्त में रहे।

यह संसार तो ऐसा है, आप झूठ का मिथ्या आरोप का, कपट का आश्रय लेते हैं, उस पर विश्वास रखते हैं तो देर सवेर बेड़ा गर्क होता है परंतु सत्य का आश्रय लेते हैं, सत्यस्वरूप ईश्वर पर विश्वास रखते हैं, भरोसा रखते हैं तो आपकी नाव डोलेगी तो सही लेकिन डूबेगी नहीं। अगर वह डुबाकर भी पूरा वचन करना चाहता है तो आपको दिव्य जीवन देने की उसकी व्यवस्था होगी क्योंकि अपने उसका भरोसा किया है। उसकी आस, उस पर विश्वास किया है। एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास बस !

यह मत सोचो कि क्या खायेंगे, क्या होगा ? जब उसके लिए चल पड़े तो फिर क्या है !

अखण्डानंद जी चल पड़े थे, उड़िया बाबा चल पड़े थे। जहाँ किसी व्यक्ति की संभावना नहीं, वहाँ भी कोई न कोई आकर दे जाता, खिला जाता है। मार्ग भूलते हैं तो कोई रास्ता दिखा जाता है। कोई डूबने लगता है और उसी की आस, उसी का भरोसा रखकर पुकारता है तो उस जल में कौन सी ऐसी सत्ता है जो हाथ पकड़कर किनारे पर देती है ?

कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्।

उस परमात्मा की आस, भरोसा और विश्वास परम हितकारी, परम मंगलमय है। इसका मतलब यह नहीं कि अपना पुरुषार्थ छोड़ दें, चलो बैठे रहें। नहीं, पुरुषार्थ करें किंतु अपने अहं पर भरोसा करके पुरुषार्थ न करें, शाश्वत आत्मा-परमात्मा का भरोसा.... नश्वर का भरोसा, नश्वर की आस, नश्वर का विश्वास नाश की तरफ ले जाता है। शाश्वत आत्मा-परमात्मा का भरोसा, उसी को पाने की आस और उसी पर विश्वास उसी से मिला देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 2,3,4,8. अंक 210.

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