28.10.10

अमृतफल आँवला


चिरयौवन व दीर्घायुष्य प्रदान करने वाला, रसायन द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ, आयुर्वेद में 'अमृतफल' नाम से सम्बोधित व औषधियों में श्रेष्ठ फल है – आँवला। आँवला सभी ऋतुओं में, सभी जगह सभी के लिए लाभदायी है।
आँवला विटामिन सी का राजा होने के कारण शरीर को रोगाणुओं के आक्रमण से बचाता है, शारीरिक वृद्धि में आने वाली रूकावटों को दूर करता है, यकृत के कार्यों को सुचारू रूप से चलने में मदद करता है, जीवनीशक्ति को बढ़ाता है तथा दाँतों व मसूढ़ों को मृत्युपर्यन्त सुदृढ़ बनाये रखता है।
स्वादिष्ट, पुष्टिप्रद आँवला पाक
गुण और उपयोगः आँवले का यह हलवा अत्यंत स्वादिष्ट, पुष्टिदायक व उत्तम पित्तशामक है। यह सप्तधातुओं की वृद्धि कर शरीर को बलवान व वीर्यवान बनाता है। इसके सेवन से पित्तजनित विकार जैसे – आँखों की जलन, आंतरिक गर्मी, सिरदर्द आदि तथा उच्च रक्तदाब, रक्त व त्वचा के विकार, मूत्र एवं वीर्य संबंधी विकार नष्ट हो जाते हैं। यह एक अत्यन्त सुलभ, सस्ता एवं गुणकारी प्रयोग है।
सामग्रीः ताजे पके हुए रसदार आँवले 1 किलो, मिश्री या चीनी 1 किलो, घी 100 ग्राम, चिरौंजी 25 ग्राम, इलायची (छोटी या बड़ी) 10 ग्राम।
विधिः कुकर में आँवले व आधी कटोरी पानी डालकर आँवलों को उबाल लें। उबले हुए आँवलों में से गुठलियाँ निकालकर गूदा अलग कर लें। गूदे को घी में तब तक भूनें, जब तक पानी का अंश पूर्णतः जल न जाय। पानी जल जाने पर गूदे में से घी अलग होने लगता है। अब इसमें मिश्री या चीनी मिलाकर कलछी से हिलाते रहें। मिश्रण हलवे जैसा गाढ़ा होने पर नीचे उतारकर उसमें इलायची तथा चिरौंजी मिला दें।
सेवन की मात्राः दो चम्मच (सुबह)।
सावधानीः आँवले के सेवन के बाद 2 घंटे तक दूध नहीं पीना चाहिए। शुक्रवार, रविवार, षष्ठी तथा सप्तमी के दिन आँवले का सेवन निषिद्ध माना गया है (परंतु बाकी के दिनों में इसका सेवन अवश्य करना चाहिए।)
चटनी, मुरब्बा आदि के रूप में अन्य रीतियों से भी आँवले का सेवन कर लाभ उठा सकते हैं।
औषधि प्रयोग
नवशक्ति की प्राप्तिः  एक महीने तक आँवले का चूर्ण नियमित रूप से घी, शहद और तिल का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से मनुष्य की बोलने की शक्ति बढ़ती है, शरीर कांतिमान हो उठता है तथा चिरयौवन प्राप्त होता है।
इन्द्रियों की कार्यक्षमता में वृद्धिः आँवले का चूर्ण पानी, घी या शहद के साथ सेवन करने से जठराग्नि बढ़ती है, सुनने, सूँघने, देखने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है तथा दीर्घायुष्य प्राप्त होता है।
हृदय की मजबूतीः सूखा आँवला एवं मिश्री चूर्ण सम मात्रा में एक-एक चम्मच सुबह शाम सेवन करने से हृदय मजबूत होता है। हृदय के वाल्व ठीक ढंग से कार्य करते हैं। हृदयरोगियों को यह प्रयोग कम से कम एक वर्ष तक नियंत्रित करना चाहिए।
काले, घने, रेशम जैसे बालों के लिएः 20 सि 40 ग्राम सूखा आँवला 200 ग्राम पानी में रात को भिगो दें व सुबह उस पानी से बाल धो दें। आँवला-मिश्री का समभाग चूर्ण पानी के साथ सेवन करें। इस प्रयोग से बालों की सभी समस्याएँ खत्म हो जायेंगी व बाल चमचमाते नजर आयेंगे।
गर्भवती स्त्रियों के लिएः नित्य 2 नग मुरब्बा सुबह खाली पेट गर्भवती महिला को खिलाने से प्रसव नैसर्गिक रूप से बिना किसी औषधि और चिकित्सकीय सहयोग के होता है तथा शिशु में तीव्र रोगप्रतिरोधक क्षमता पायी जाती है, जिसके प्रभाव से शिशु ओजस्वी व सुंदर होता है।
उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) आँवले का मुरब्बा छः माह तक नित्य प्रातःकाल खाली पेट खाने से लाभ होता है।
समस्त यकृत रोगः ताजे आँवलों का 25 से 35 ग्राम रस या सूखे आँवलों का 5 ग्राम चूर्ण सेवन करने से यकृत (लीवर) के दोष दूर हो जाते हैं।
पेट के कीड़ेः ताजे आँवले का रस छः चम्मच और शुद्ध शहद 1 चम्मच मिलाकर एक सप्ताह तक सुबह शाम दें। इससे निश्चित रूप से कृमि मल के साथ बाहर आ जाते हैं।
पेट के समस्त रोगः आँवला चूर्ण का गोमूत्र के साथ सेवन करने से पेट के लगभग सभी रोगों में लाभ होता है।
तेज व मेधा की वृद्धिः आँवला चूर्ण घी के साथ रोज सेवन करने से शरीर में तेज व मेधाशक्ति की वृद्धि होती है।
दीर्घायु-प्राप्ति हेतुः 'गरूड़ पुराण' के अनुसार सौ वर्ष तक जीने के इच्छुक व्यक्ति को नित्य आँवला मिले जल से स्नान करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 214
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वीर्य कैसे बनता है ?


वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा हैः
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।
मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।
जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे 'रज' कहते हैं। इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है।
आकर्षक व्यक्तित्व का कारण
वीर्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने'ओज' कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वीर्यरक्षण का ही चमत्कार है।
एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है।
माली की कहानी
एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंधयुक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि 'वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था.....' मगर अपने-आप में ही झाँककर देंखें, उस माली को कहीं और ढूँढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं।
वीर्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ! क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी।
युवावस्था आने तक वीर्य संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वीर्यक्षय से वह तो नष्ट होता ही है, साथ ही अति मैथुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नारकीय बन जाता है। वीर्यरक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मैथुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं।
सृष्टि क्रम के लिए मैथुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था
शरीर से वीर्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणिवर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मैथुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही कामवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशुवर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
भोजन करना, भयभीत होना, मैथुन करना और सो जाना – ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेकपूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 214
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वे वीडियो व आवाज को काट-छाँटकर प्रसारित करते हैं


परम पूज्य सदगुरुदेव संत श्री आसारामजी बापू के श्रीचरणों में सादर प्रणाम !
आज भारतीय मीडिया जिस दिशा में जा रहा है वह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। अपने ही संत-संस्कृति का मखौल उड़ाकर पूरे विश्व में भारत की छवि को बिगाड़ने का प्रयास कुछ चैनल कर रहे हैं। मैं तो खुद एक टी.वी. पत्रकार हूँ इसलिए बेहतर तरीके से जानता हूँ कि मीडिया में कुछ ऐसे तत्त्व घुस आये हैं, जिन्होंने भारतीय संत-समाज को बदनाम करने का ठेका दुराचारियों से ले लिया है।
पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति का डंका बजाने वाले और अध्यात्म-ज्ञान, आत्मज्ञान का खजाना बाँटने वाले, स्वस्थ, सुखी, सम्मानित जीवनि की राह दिखाने वाले लोकलाडले संत श्री आसारामजी महाराज को सनसनी खबर बनाकर बदनाम करने का सोचा समझा षडयंत्र है। केवल बापू जी ही नहीं, श्री श्री रविशंकरजी महाराज, कांची कामकोटि पीठ के श्रद्धेय शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती जी, श्री सत्य साँई बाबा और योग गुरु स्वामी रामदेव को भी बदनाम करने का कुचक्र कुछ मीडिया संस्थानों ने किया है।
दिन रात दौड़ धूप कर समाज को जागृत करने में तत्पर बापू जी के लोक-कल्याणकारी कार्य दिखाने में इन चैनलों को शर्म आती है, परंतु अभिनेता अभिनेत्रियों के लज्जाहीन बाईट इंटरव्यू और फुटेज दिखाने में ये गर्व महसूस करते हैं। मैं जानता हूँ कि किस तरीके से बापू जी के सत्संग के वास्तविक वीडियो और आवाज को काट-छाँटकर प्रसारित किया जाता है। टी.आर.पी. (टेलिविज़न रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने के चक्कर में इन अधर्मियों को यह भी नहीं पता कि ऐसा करके वे भारत की अस्मिता पर प्रहार कर रहे हैं। अरे ये सहनशील हिन्दू संतों के पीछे क्यों पड़े हैं ? और... कट्टरपंथी धर्मों के आचार्यों के खिलाफ एक शब्द भी छापने व दिखाने की हिम्मत इनमें क्यों नहीं है ? क्योंकि उनके बारे में कुछ दिखाया तो वे आग लगा देंगे, काटकर रख देंगे, लेकिन ये हिन्दू संत अपमान सह लेते हैं और इन अधर्मियों का फिर भी बुरा न चाहकर लोककल्याम में लगे हैं।
मैं तो इन चैनलों के मालिकों के साथ ही भारत सरकार से अपील करता हूँ कि वह जाँच कराये कि कहीं भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाने वाले इन चैनलों में आतंकवादी व आई.एस.आई. एजेन्ट तो नहीं घुस गये हैं, जो मीडियारूपी मजबूत हथियार का इस्तेमाल कर भारत को नष्ट-भ्रष्ट करने पर उतारू हैं। इन चैनलों के बड़े पदों पर भी संदिग्ध लोगों का आधिपत्य बढ़ता जा रहा है।
मीडिया में कुछ अच्छे लोग भी हैं जो संस्कृति के रक्षण् में लगे हैं लेकिन कई बार जब रिपोर्टर खबर भेजता है तो वह या तो रोक ली जाती है या फिर ये विधर्मी चैनल उन खबरों को निगेटिव बनाकर प्रसारित करते हैं। पत्रकार न चाहकर भी कई बार अपने आलाओं के लिए नकारात्मक खबरें बनाने को बाध्य हो जाता है।
मैं मीडिया समुदाय से आग्रह करना चाहूँगा कि भारतीय संस्कृति का रक्षक बने, न कि भक्षक !भारत के अध्यात्म-ज्ञान की आज भारत को ही नहीं पूरे विश्व को जरूरत है, इसलिए बापू जी जैसे महान संतों के वचनों को जन-जन तक पहुँचाकर अपना व विश्व का कल्याण करें।
पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में पुनः नमन।
धर्मेन्द्र साहू
टी.वी. पत्रकार, संवाददाता,
सहारा समय न्यूज चैनल।
कबीरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
संतों की निंदा करके समाज की श्रद्धा तोड़ने वाले लोग कबीर जी के इस वचन से सीख लेकर सँभल जायें तो कितना अच्छा है !
जो अपराध छुड़ायें, रोग मिटायें, राष्ट्रप्रेम में दृढ़ बनायें, सबमें समता-सदभाव बढ़ायें, ऐसे संत पर से श्रद्धा तोड़ना, इसे राष्ट्रद्रोह कहें कि विश्वमानव-द्रोह कहें ? धिक्कार है ऐसे द्वेषपूर्ण रवैयेवालों को !
आर.सी.मिश्र
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 214
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सिद्धान्त प्रेमी सरदार पटेल


(सरदार पटेल जयंतीः 31 अक्तूबर)
महान आत्माओं की महानता उनके जीवन-सिद्धान्तों में होती है। उन्हें अपने सिद्धान्त प्राणों से भी अधिक प्रिय होते है। सामान्य मानव जिनि परिस्थितियों में अपनी निष्ठा से डिग जाता है, महापुरुष ऐसे प्रसंगों में भी अडिग रहते हैं। सत्य ही उनका एकमात्र आश्रय होता है, वे फौलादी संकल्प के धनी होते हैं। उनका अपना पथ होता है, जिससे वे कभी विपथ नहीं होते।
सरदार वल्लभ भाई पटेल जिन्हें देश 'लौह-पुरूष' के नाम से भी जानता है, ऐसे ही एक सिद्धान्तनिष्ठ नेता थे। उनके जीवन का यह प्रसंग उनके इसी सदगुण की झाँकी कराता है।
वल्लभ भाई अपने पुत्र-पुत्री को शिक्षा हेतु यूरोप भेजना चाहते थे। इस हेतु रूपये भी कोष में जमा कर दिये गये थे लेकिन ज्यों ही असहयोग आंदोलन की घोषणा की गयी, त्यों ही उन्होंने पूर्वनिर्धारित योजना को ठप्प कर दिया। उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि 'चाहे जो हो, मैं मन, वचन और कर्म से असहयोग के सिद्धान्तों पर दृढ़ रहूँगा। जिस देश के निवासी हमारी बोटी-बोटी के लिए लालायित हैं, जो हमारे रक्त तर्पण से अपनी प्यास बुझाते हैं, उनकी धरती पर अपनी संतान को ज्ञान प्राप्ति के लिए भेजना अपनी ही आत्मा को कलंकित करना है। भारत माता का आत्मा को दुखाना है।'
उन्होंने सिर्फ सोचा ही नहीं, अपने बच्चों को इंग्लैंड में पढ़ने से साफ मना कर दिया। ऐसी थी उनकी सिद्धान्त-प्रियता। तभी तो थे वे 'लौह पुरुष'
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 25, अंक 214
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सर्वाधिक अमृतवर्षा की रात्रिः शरद पूर्णिमा

(शरद पूर्णिमाः 22 अक्तूबर 2010)
(पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से)
कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि "हे वासुदेव ! मैं बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों तपस्वियों और ब्रह्मचारियों को हरा चुका हूँ। मैंने ब्रह्माजी को भी आकर्षित कर दिया। शिवजी की भी समाधि विक्षिप्त कर दी। भगवान नारायण ! अब आपकी बारी है। आपके साथ भी मुझे खिलवाड़ करना है तो हो जाय दो-दो हाथ ?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः "अच्छा बेटे ! मुझ पर तू अपनी शक्ति का जोर देखना चाहता है ! मेरे साथ युद्ध करना चाहता है ! तो बता, मेरे साथ तू एकांत में आयेगा कि मैदान में आयेगा ?"
एकांत में काम की दाल नहीं गली तो भगवान ने कहाः "कोई बात नहीं। अब बता, तुझे किले में युद्ध करना है कि मैदान में ? अर्थात् मैं अपनी घर-गृहस्थी में रहूँ, तब तुझे युद्ध करना है कि जब मैं मैदान में होऊँ तब युद्ध करना है ?"
बोलेः महाराज ! जब युद्ध होता है तो मैदान में होता है। किले में क्या करना !
भगवान बोलेः "ठीक है, मैं तुझे मैदान दूँगा। जब चन्द्रमा पूर्ण कलाओं से विकसित हो, शरद पूनम की रात हो, तब तुझे मौका मिलेगा। मैं ललनाएँ बुला लूँगा।"
शरद पूनम की रात आयी और श्रीकृष्ण ने बजायी बंसी। बंसी में श्रीकृष्ण ने 'क्लीं' बीजमंत्र फूँका। क्लीं बीजमंत्र फूँकने की कला तो भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं। यह बीजमंत्र बड़ा प्रभावशाली होता है।
श्रीकृष्ण हैं तो सबके सार और अधिष्ठान लेकिन जब कुछ करना होता है न, तो राधा जी का सहारा ढूँढते हैं। राधा भगवान की आह्लादिनी शक्ति माया है।
भगवान बोलेः "राधे देवी ! तू आगे-आगे चल। कहीं तुझे ऐसा न लगे कि ये गोपिकाओं में उलझ गये, फँस गये। राधे ! तुम भी साथ में रहो। अब युद्ध करना है। काम बेटे को जरा अपनी विजय का अभिमान हो गया है। तो आज उसके साथ दो दो हाथ होने हैं। चल राधे तू भी।"
भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी बजायी, क्लीं बीजमंत्र फूँका। 32 राग, 64 रागिनियाँ... शरद पूनम की रात... मंद-मंद पवन बह रहा है। राधा रानी के साथ हजारों सुंदरियों के बीच भगवान बंसी बजा रहे हैं। कामदेव ने अपने सारे दाँव आजमा लिये। सब विफल हो गया।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
"काम ! आखिर तो तू मेरा बेटा ही है !"
वही काम भगवान श्रीकृष्ण का बेटा प्रद्युम्न होकर आया।
कालों के काल, अधिष्ठानों के अधिष्ठान तथा काम-क्रोध, लोभ मोह सबको सत्ता-स्फूर्ति दने वाले और सबसे न्यारे रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण को जो अपनी जितनी विशाल समझ और विशाल दृष्टि से देखता है, उतनी ही उसके जीवन में रस पैदा होता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन के विध्वंसकारी, विकारी हिस्से को शांति, सर्जन और सत्कर्म में बदल के, सत्यस्वरूप का ध्यान् और ज्ञान पाकर परम पद पाने के रास्ते सजग होकर लग जाये तो उसके जीवन में भी भगवान श्रीकृष्ण की नाईं रासलीला होने लगेगी। रासलीला किसको कहते हैं ?नर्तक तो एक हो और नाचने वाली अनेक हों, उसे रासलीला कहते हैं। नर्तक एक परमात्मा है और नाचने वाली वृत्तियाँ बहुत हैं। आपके जीवन में भी रासलीला आ जाय लेकिन श्रीकृष्ण की नाईं नर्तक अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में रहे और नाचने वाली नाचते-नाचते नर्तक में खो जायें और नर्तक को खोजने लग जायें और नर्तक उन्हीं के बीच में, उन्हीं के वेश में छुप जाय-यह बड़ा आध्यात्मिक रहस्य है।
ऐसा नहीं है कि दो हाथ-पैरवाले किसी बालक का नाम कृष्ण है। यहाँ कृष्ण अर्थात् कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आह्लादित कर दे, उस परमेश्वर ब्रह्म का नाम 'कृष्ण' है। ऐसा नहीं सोचना कि कोई दो हाथ-पैरवाला नंदबाबा का लाला आयेगा और बंसी बजायेगा तब हमारा कल्याण होगा, ऐसा नहीं है। उसकी तो नित्य बंसी बजती रहती है और नित्य गोपिकाएँ विचरण करती रहती हैं। वही कृष्ण आत्मा है, वृत्तियाँ गोपिकाएँ हैं। वही कृष्ण आत्मा है और जो सुरता है वह राधा है। 'राधा'..... उलटा दो तो 'धारा'। उसको संवित्, फुरना और चित्तकला भी बोलते हैं।
काम आता है तो आप काममय हो जाते हो, क्रोध आता है तो क्रोधमय हो जाते हो, चिंता आती है तो चिंतामय हो जाते हो, खिन्नता आती है तो खिन्नतामय हो जाते हो। नहीं,नहीं। आप चित्त को भगवदमय बनाने में कुशल हो जाइये। जब भी चिंता आये तुरंत भगवदमय। जब भी काम, क्रोध आये तुरंत भगवदमय। यही तो पुरुषार्थ है। पानी का रंग कैसा ? जैसा मिलाओ वैसा। चित्त जिसका चिंतन करता है, जैसा चिंतन करता है, चिदघन चैतन्य की वह लीला वैसा ही प्रतीत कराती है। दुश्मन की दुआ से डर लगता है और सज्जन की गालियाँ भी मीठी लगती हैं। चित्त का ही तो खेल है ! भगवदभाव से प्रतिकूलताएँ भी दुःख नहीं देतीं और विकारी दृष्टि से अनुकूलता भी तबाह कर देती है। विकारी दृष्टि विकार और विषाद में गिरा देती है।
शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है। इस रात को चन्द्रमा की किरणों से अमृत-तत्त्व बरसता है। चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषकशक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है।
आज की रात्रि चन्द्रमा पृथ्वी के बहुत नजदीक होता है और उसकी उज्जवल किरणें पेय एवं खाद्य पदार्थों में पड़ती हैं तो उसे खाने वाला व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। उसका शरीर पुष्ट होता है। भगवान ने भी कहा हैः
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।
'रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।'
गीताः15.13
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो चन्द्र का मतलब है शीतलता। बाहर कितने भी परेशान करने वाले प्रसंग आयें लेकिन आपके दिल में कोई फरियाद न उठे। आप भीतर से ऐसे पुष्ट हों कि बाहर की छोटी मोटी मुसीबतें आपको परेशान न कर सकें।
शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि में (9 से 12 बजे के बीच) छत पर चन्द्रमा की किरणों में महीन कपड़े से ढँककर रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर अवश्य खानी चाहिए। देर रात होने के कारण कम खायें, भरपेट न खायें, सावधानी बरतें। रात को फ्रिज में रखें या ठंडे पानी में ढँक के रखें। सुबह गर्म करके उपयोग कर सकते हैं। ढाई तीन घंटे चन्द्रमा की किरणों से पुष्ट यह खीर पित्तशामक, शीतल, सात्त्विक होने के साथ वर्ष भर प्रसन्नता और आरोग्यता में सहायक सिद्ध होती है। इससे चित्त को शांति मिलती है और साथ ही पित्तजनित समस्त रोगों का प्रकोप भी शांत होता है।
इस रात को हजार काम छोड़कर 15 मिनट चन्द्रमा को एकटक निहारना। एक आध मिनट आँखें पटपटाना। कम से कम 15 मिनट चन्द्रमा की किरणों का फायदा लेना, ज्यादा करो तो हरकत नहीं। इससे 32 प्रकार की पित्त संबंधी बीमारियों में लाभ होगा, शांति होगी। और फिर ऐसा आसन बिछाना जो विद्युत का कुचालक हो, चाहे छत पर चाहे मैदान में। चन्द्रमा की तरफ देखते-देखते अगर मौज पड़े तो आप लेट भी हो सकते हैं। श्वासोच्छवास के साथ भगवन्नाम और शांति को भरते जायें, निःसंकल्प नारायण में विश्रान्ति पायें। ऐसा करते-करते आप विश्रान्ति योग में चले जाना। विश्रांति योग... भगवदयोग.... अंतरंग जप करते हुए अपने चित्त को शांत, मधुमय, आनंदमय, सुखमय बनाते जाना। हृदय से जपना प्रीतिपूर्वक। आपको बहुत लाभ होगा। कितना लाभ होगा, यह माप सकें ऐसा कोई तराजू नहीं है। वह तराजू आज तक बनी नहीं। ब्रह्माजी भी बनायें तो वह तराजू टूट जायेगा।
जिनको नेत्रज्योति बढ़ानी हो वे शरद पूनम की रात को सुई में धागा पिरोने की कोशिश करें। जिनको दमे की बीमारी हो वे नजदीक के किसी आश्रम या समिति से सम्पर्क के साथ लेना। दमा मिटाने वाली बूटी निःशुल्क मिलती है, उसे खीर में डाल देना। जिसको दमा है वह बूटी वाली खीर खाये और घूमे, सोये नहीं, इससे दमे में आराम होता है। दूसरा भी दमा मिटाने का प्रयोग है। अंग्रजी दवाओं से दमा नहीं मिटता लेकिन त्रिफला रसायन 10-10 ग्राम सुबह शाम खाने से एक महीने में दमे का दम निकल जाता है।
इस रात्रि में ध्यान-भजन, सत्संग, कीर्तन, चन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 27,28,29 अंक 214
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नूतन वर्ष पर पुण्यमय दर्शन


(नूतन वर्षः 7 नवम्बर  2010)
पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से
दीपावली का दिन वर्ष का आखिरी दिन है और बाद का दिन वर्ष का प्रथम दिन है, विक्रम सम्वत् के आरम्भ का दिन है (गुजराती पंचांग अनुसार)। उस दिन जो प्रसन्न रहता है, वर्ष भर उसका प्रसन्नता से जाता है।
'महाभारत' भगवान व्यास जी कहते हैं।
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।
'हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है, उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में व्यतीत होता है।'
दीपावली के दिन, नूतन वर्ष के दिन मंगलमय चीजों का दर्शन करना भी शुभ माना गया है, पुण्य प्रदायक माना गया है। जैसेः
उत्तम ब्राह्मण, तीर्थ, वैष्णव, देव-प्रतिमा, सूर्यदेव, सती स्त्री, संन्यासी, यति ब्रह्मचारी, गौ, अग्नि, गुरु, गजराज, सिंह, श्वेत अश्व, शुक, कोकिल, खंजरीट (खंजन), हंस, मोर, नीलकंठ, शंख पक्षी, बछड़े सहित गाय, पीपल वृक्ष, पति-पुत्रवाली नारी, तीर्थयात्री, दीपक, सुवर्ण, मणि, मोती, हीरा, माणिक्य, तुलसी, श्वेत पुष्प, फल, श्वेत धान्य, घी, दही, शहद, भरा हुआ घड़ा, लावा, दर्पण, जल, श्वेत पुष्पों की माला, गोरोचन, कपूर, चाँदी, तालाब, फूलों से भरी हुई वाटिका, शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा, चंदन, कस्तूरी, कुंकुम, पताका, अक्षयवट (प्रयाग तथा गया स्थित वटवृक्ष), देववृक्ष (गूगल), देवालय, देवसंबंधी जलाशय, देवता के आश्रित भक्त, देववट, सुगंधित वायु, शंख, दुंदुभि, सीपी, मूँगा, स्फटिक, मणि, कुश की जड़, गंगाजी की मिट्टी, कुश, ताँबा, पुराण की पुस्तक, शुद्ध और बीजमंत्रसहित भगवान विष्णु का यंत्र, चिकनी दूब, रत्न, तपस्वी, सिद्ध मंत्र, समुद्र, कृष्णसार (काला) मृग, यज्ञ, महान उत्सव, गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोधूलि, गौशाला, गोखुर, पकी हुई खेती से भरा खेत, सुंदर (सदाचारी) पद्मिनी, सुंदर वेष, वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित सौभाग्यवती स्त्री, क्षेमकरी, गंध, दूर्वा, चावल और अक्षत (अखंड चावल), सिद्धान्न (पकाया हुआ अन्न) और उत्तम अन्न-इन सबके दर्शन से पुण्यलाभ होता है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खंड, अध्यायः 76 एवं 78)
लेकिन जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे साक्षात् कोई लीलाशाहजी बापू जैसे, नरसिंह मेहता जैसे संत अगर मिल जायें तो समझ लेना चाहिए कि भगवान की हम पर अति-अति विशेष, महाविशेष कृपा है।
कबिरा दर्शन संत के साहिब आवे याद।
लेखे में वो ही घड़ी बाकी के दिन बाद।।
जिनको देखकर परमात्मदेव की याद आ जाय, ऐसे हयात महापुरुष अगर मिल जायें तो वह परम लाभकारी, परम कल्याणकारी माना जाता है। चेतन परमात्मा जिनके हृदय में प्रकट हुआ है, ऐसे संत का, सदगुरु का दर्शन जिनको मिल जाता है, उनको तो शिवजी के ये वचन याद करने चाहिएः
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।
हे पार्वती ! उनकी माता धन्य है, उनके पिता धन्य हैं, उनका कुल और गोत्र धन्य है, कुलोदभवःअर्थात् जो उनके कुल में उत्पन्न होंगे वे भी धन्य हैं, क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी-ब्रह्मवेत्ता संतों का दर्शन, उनके वचन और भगवन्नाम के उच्चारण का लाभ उन्हें मिलता है, जिससे अंतःकरण की प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने लगती है।
भगवान श्री कृष्ण ने कहाः
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
'अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और इस प्रसन्न चित्तवाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।'गीताः2.65
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 214
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नूरे - इलाही, शाहों के शाह


न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
'आत्मवेत्ता गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरु से अधिक कोई तप नहीं है और गुरु से विशेष कोई ज्ञान नहीं है। ऐसे श्री गुरुदेव को मेरा नमस्कार है।'
गुरुतत्त्व में जगे हुए महापुरुष परमात्मा का प्रकट रूप होते हैं। अंतर्यामी परमात्मा के अंतर्यामित्व का दर्शन करना हो तो ऐसे महापुरुषों के जीवन में ही उसे देख सकते हैं। एक तेजस्वी महापुरुष किसी जंगल में एकांतवास के लिए ठहरे हुए थे। तब एक मुसलमान माली उन्हें रोज देखता था। उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर माली के मन में होता कि 'इन साधु को कुछ खिलाऊँ।' परंतु मन ही मन शंका होती कि क्या पता, ये हिन्दू साधु मुसलमान के हाथ का कुछ खायेंगे कि नहीं !' इस प्रकार कितने ही दिन बीत गये।
एक दिन वह मूली धो रहा था। इतने में तो वे साधु उसके आगे आकर खड़े हो गये और बोलेः "जो खिलाना हो, खिला। रोज-रोज सोचता रहता है तो आज अपनी इच्छा पूरी कर।"
वह मुसलमान माली तो आश्चर्यचकित हो उठा कि 'इन साधु को मेरे मन की बात का पता कैसे चला !' वह तो उन महापुरुष के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कहने लगाः "सचमुच, आप नूरे इलाही हो ! आप शाहों के शाह हो ! मुझे दुआ करो।" ऐसा कहकर उसने बड़ी श्रद्धा और भावपूर्ण हृदय से दो मूली साफ करके, धोकर महाराज को दीं। संत श्री ने भी बड़े प्रेम से उन मूलियों को खाया। वह दृश्य देखने वालों को तो भगवान श्रीरामजी और शबरी भीलन के बेरों की याद आ गयी।
जानते हैं, वे अंतर्यामी, आत्मारामी स्वामी कौन थे ? वे थे भक्तवत्सल योगिराज स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज !
(भगवत्पाद स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज महानिर्वाण तिथिः 15 नवम्बर)
यदि वह संकल्प चलाये....
संसार-ताप से तप्त जीवों में शांति का संचार करने वाले, अनादिकाल से अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकते हुए जीवों को ज्ञान का प्रकाश देकर सही दिशा बताने वाले, परमात्म-प्राप्तिरूपी मंजिल को तय करने के लिये समय-समय पर योग्य मार्गदर्शन देते हुए परम लक्ष्य तक ले जाने वाले सर्वहित चिंतक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा अवर्णनीय है।
वे महापुरुष केवल दिशा ही नहीं बताते वरन् चलने के लिए पगडंडी भी बना देते हैं, चलना भी सिखाते हैं, उंगली भी पकड़ाते हैं। जैसे माता पिता अपने बालक को कंधे पर उठाकर यात्रा पूरी करवाते हैं, वैसे ही वे कृपालु महापुरुष हमारी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण कर देते हैं। भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन की एक कृपापूर्ण घटना इस प्रकार हैः
स्वामी लीलाशाहजी ने स्वामी राम अवतार शुक्ला के गीता-व्याख्यान की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। अतः एक दिन वे उनसे मिलने उनके घर चल दिये। स्वामी राम अवतार जी की आयु 75 वर्ष के आसपास थी और उस दिन वे इस दुनिया से विदा लेने की तैयारी में थे। कुछ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था तो कुछ उस समय वहाँ मौजूद थे। स्वामी जी उनके सम्मुख खड़े होकर कहने लगेः "राम अवतारजी ! मैं इस विचार से आया हूँ कि आपके मुखारविंद से श्रीमद् भगवदगीता सुनूँ।"
उनकी नाजुक हालत देखकर स्वामी जी ने उनके परिवारवालों से कहाः "इन्हें एक गिलास पानी में नींबू का रस व शहद मिलाकर पिलाओ, ठीक हो जायेंगे।"
वहाँ पर खड़े डॉक्टरों ने कहाः "इनका अंतिम समय आ चुका है, नींबू शहद का पानी पीने से तो ये और जल्दी दुनिया से चले जायेंगे।"
राम अवतार जी ने धीरे से कहाः
"ठीक है, पिलाओ।"
लीलाशाहजी महाराज ने कमण्डलु से थोड़ा जल हाथ में लिया, उसमें निराहार संकल्प करके दे दिया। पानी में नींबू-शहद मिलाकर पिलाया गया। स्वामी जी ने चलते चलते राम अवतार जी से कहाः "परसों सुबह मेरे पास आना।" और आश्चर्य ! वे कुछ ही घंटों में एकदम ठीक हो गये।
संत जब अपने ब्रह्मस्वभाव में स्थित होकर कुछ कह दें तो वह बाह्यदृष्टि से विपरीत परिणामवाला होने पर भी श्रद्धावान के लिए अनुकूल हो जाता है। आज्ञानुसार राम अवतारजी श्रीचरणों में पहुँचे और स्वामी जदी को अष्टांग प्रणाम करके गीता पर व्याख्यान किया। उस दिन से राम अवतार जी प्रतिदिन नियम से पूज्यपाद स्वामी श्रीलीलाशाहजी महाराज को श्रीमद भगवदगीता सुनाने आते थे।
ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करने के बाद संतों को शास्त्र पढ़ने-सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे जो बोलते हैं, वह शास्त्र बन जाता है। फिर भी दूसरों के कल्याण के निमित्त जो घटना घटती है
 , वह उनकी लीला होती है। फिर चाहे वह लीला सत्संग सुनने की हो या सुनाने की हो, मौज है उनकी ! माता पिता की तरह कदम-कदम पर हमारी सँभाल रखने वाले, सर्वहितचिंतक, समता के सिंहासन पर बैठाने वाले ऐसे परम दयालु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को कोटि-कोटि वंदन....
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,17 अंक 214
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