8.9.10

भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली हवा का स्वास्थ्य पर प्रभाव



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अपान मुद्रा
*विधिः* अँगूठे के अग्रभाग से मध्यमा और अनामिका (छोटी उँगली के पासवाली उँगली)
के अग्रभागों को स्पर्श करें। बाकी की दो उँगलियाँ सहजावस्था में सीधी रखें।

*अवधिः* इस मुद्रा का अभ्यास किसी भी समय, कितनी भी अवधि के लिए कर सकते हैं
परंतु प्रतिदिन नियमित रूप से करें।

*लाभः* इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर की अंदरूनी सफाई में मदद मिलती है। आँतों
में फँसे मल और विषैले पदार्थों को आसानी से बाहर निकालने में यह मुद्रा काफी
असरदार है। इसके फलस्वरूप शारीरिक व मानसिक पवित्रता में वृद्धि होती है और
अभ्यासकर्ता में सात्त्विक गुणों का समावेश होने लगता है। मूत्र-उत्सर्जन में
कठिनाई, वायुदोष, अम्लदोष (पित्तदोष), पेटदर्द, कब्जियत और मधुमेह जैसी
बीमारियों में भी यह मुद्रा काफी लाभदायक सिद्ध हुई है। जिन्हें पसीना न आने के
कारण परेशानी होती हो, वे इस मुद्रा के अभ्यास से जल्द ही उससे छुटकारा
पा सकते हैं।
यदि छाती और गले में कफ जम गया हो तो इस मुद्रा के अभ्यास से ऐसे उपद्रवी कफ को
भी सहज ही शरीर से बाहर किया जा सकता है। इसका नियमित अभ्यास कैंसर जैसी भयानक
बीमारी की भी रोकथाम करने में सहायक है।

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भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली हवा का स्वास्थ्य पर प्रभाव

*पूर्व दिशा की हवाः *भारी, गर्म, स्निग्ध, दाहकारक, रक्त तथा पित्त को दूषित
करने वाली होती है। परिश्रमी, कफ के रोगों से पीड़ित तथा कृश व दुर्बल लोगों के
लिए हितकर है। यह हवा चर्मरोग, बवासीर, कृमिरोग, मधुमेह, आमवात, संधिवात
इत्यादि को बढ़ाती है।

*दक्षिण दिशा की हवाः *खाद्य पदार्थों में मधुरता बढ़ाती है। पित्त व रक्त के
विकारों में लाभप्रद है। वीर्यवान, बलप्रद व आँखों के लिए हितकर है।

*पश्चिम दिशा की हवाः *तीक्ष्ण, शोषक व हलकी होती है। यह कफ, पित्त, चर्बी एवं
बल को घटाती है व वायु की वृद्धि करती है।

*उत्तर दिशा की हवाः *शीत, स्निग्ध, दोषों को अत्यन्त कुपित करने वाली,
स्निग्धकारक
व शरीर में लचीलापन लाने वाली है। स्वस्थ मनुष्य के लिए लाभप्रद व मधुर है।

अग्नि कोण की हवा दाहकारक एवं रूक्ष है। नैऋत्य कोण की हवा रूक्ष है परंतु जलन
पैदा नहीं करती। वायव्य कोण की हवा कटु और ईशान कोण की हवा तिक्त है।

*ब्राह्म मुहूर्त (सूर्योदय से सवा दो घंटे पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय)
में सभी दिशाओं की हवा सब प्रकार के दोषों से रहित होती है। अतः इस वेला में
वायुसेवन बहुत ही हितकर होता है। *

खस, मोर के पंखों तथा बेंत के पंखों की हवा स्निग्ध एवं हृदय को आनन्द देने
वाली होती है।

जो लोग अन्य किसी भी प्रकार की कोई कसरत नहीं कर सकते, उनके लिए टहलने की कसरत
बहुत जरूरी है। इससे सिर से लेकर पैरों तक की करीब 200 मांसपेशियों की
स्वाभाविक ही हलकी-हलकी कसरत हो जाती है। टहलते समय हृदय की धड़कन की गति 1
मिनट में 72 बार से बढ़कर 82 बार हो जाती है और श्वास भी तेजी से चलने लगता है,
जिससे अधिक आक्सीजन रक्त में पहुँचकर उसे साफ करता है।
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चतुर्मास में जीवनशक्ति बढ़ाने के उपायः

- साधारणतया चतुर्मास में पाचनशक्ति मंद रहती है। अतः आहार कम करना चाहिए।
पन्द्रह दिन में एक दिन उपवास करना चाहिए।
- चतुर्मास में जामुन, कश्मीरी सेब आदि फल होते हैं। उनका यथोचित सेवन करें।
- हरी घास पर खूब चलें। इससे घास और पैरों की नसों के बीच विशेष प्रकार का
आदान-प्रदान होता है, जिससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
- गर्मियों में शरीर के सभी अवयव शरीर शुद्धि का कार्य करते हैं, मगर
चतुर्मास शुद्धि का कार्य केवल आँतों, गुर्दों एवं फेफड़ों को ही करना होता
है। इसलिए सुबह उठने पर, घूमते समय और सुबह-शाम नहाते समय गहरे श्वास लेने
चाहिए। चतुर्मास में दो बार स्नान करना बहुत ही हितकर है। इस ऋतु में रात्रि
में जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना बहुत आवश्यक है।

ऋषि प्रसाद,अगस्त 2010

7.9.10

स्वार्थ त्यागें, महान बनें


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

मनुष्य को कभी भी स्वार्थ में आबद्ध नहीं होना चाहिए। व्यावहारिक वासनाओं को पोसने का स्वार्थ सुख का अभिलाषी है वह सच्ची सेवा नहीं कर सकता। जो संसारी वासनाओं का गुलाम है वह अपना ठीक से विकास नहीं कर सकता। जो अपने स्वार्थ का गुलाम है वह अपना कल्याण नहीं कर सकता। व्यक्तिगत स्वार्थ कुटुम्ब में कलह पैदा कर देगा, कुटुम्ब का स्वार्थ पड़ोस में कलह पैदा कर देगा, पड़ोस का स्वार्थ गाँव में कलह पैदा कर देगा, गाँव का स्वार्थ तहसील में कलह पैदा करेगा, तहसील का स्वार्थ जिले में कलह पैदा कर देगा, जिले का स्वार्थ राज्य में कलह पैदा कर देगा और राज्य प्रांतीयता का स्वार्थ राष्ट्र में कलह पैदा कर देगा, राष्ट्रीयता का स्वार्थ विश्व में कलह करेगा और वैश्विकता का स्वार्थ विश्वेश्वर के दूर पटक देगा। स्वार्थ में आकर मूर्खतावश जो कुप्रचार करते हैं, करवाते हैं मेरे दिल में उनके प्रति नफरत नहीं होती।

दूसरे लोग फोन पर फोन करते हैं 'बापू जी की सहनशक्ति कैसी है ! इतना कुप्रचार, इतना जुल्म पर जुल्म हो रहा है और बापू जी को देखो तो कोई दुःख नहीं ! जब देखो मुस्कराते रहते हैं। हमको तो बड़ा दुःख होता है।'

बेटा ! तुम जहाँ बैठकर देखते हो वहाँ तुम ठीक हो लेकिन वास्तविकता कुछ और है। जो अखण्ड भारत को तोड़ना चाहते हैं उनकी मुरादें हैं कि हम आपस में लड़ें-भिड़ें, झगड़े परन्तु हमारा ज्ञान कहता है किः

जो हम आपस में न झगड़ते।

बने हुए क्यों खेल बिगड़ते।।

लोग यह मानते हैं कि संघर्ष के बिना विकास नहीं होता, संघर्ष के बिना अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती। भाई साहब ! विदेशी लोग तो ऐसी बड़ी भारी गलती में पड़े हैं कि लड़ाओ और राज करो ()। हिन्दू हिन्दुओं को लड़ाओ, हिन्दूवादी सरकार को बदनाम करो, हिन्दू संस्थाओं को बदनाम करो। हिन्दुओँ को आपस में लड़ाकर उन पर राज करने की मुराद वालों ने, धर्मांतरण कराने वालों ने हिन्दू साधुओं और पुलिस के बीच में, हिन्दू संस्थाओं और मीडिया के बीच में एक खाई खड़ी कर दी। ये लोग सफल भी हो पाते हैं जब हम स्वार्थ के वशीभूत होकर आपस में लड़ने लग जाते हैं। हमें आपस में लड़ना नहीं चाहिए। लड़ाई-झगड़े से जो भी मिलेगा वह सुखद नहीं होगा और सात्त्विक ज्ञान, आत्मज्ञान, गीताज्ञान से जो मिलेगा वह कभी दुःखद नहीं होगा। संघर्ष से आपको कुछ मिल गया तो आप भोगी बन जाओगे, और अधिक संघर्ष करोगे, अपने से कमजोर लोगों का शोषण करने लग जाओगे।

संघर्ष से अपनी इच्छापूर्ति करो – यह स्वार्थियों की, संकीर्ण मानसिकतावालों की मान्यता बहुत छोटी जगह पर बैठकर होती है। वास्तव में संघर्ष करके अपनी इच्छापूर्ति करने के बाद भी दुःख नहीं मिटता, चिंता नहीं मिटती, विकार नहीं मिटते, अशांति नहीं मिटती। उस अशांति, विकार तथा बदले की भावना से मरने के बाद भी न जाने किस-किस रूप में एक-दूसरे से प्रतिशोध लेने के लिए न जाने किन किन योनियों में भटकते हैं, मारकाट करते रहते हैं, तपते-तपाते रहते हैं कुत्तों की नाईं।

स्वार्थी, नासमझ आपस में कुत्तों की नाईं लड़ मरते हैं परंतु समझदार मनुष्य तो बहुत ऊँचे ज्ञान के धनी होते हैं, दूरदृष्टिवाले होते हैं। लोग कहते हैं- 'बापू के करोड़ो शिष्य हैं। बापू जी आज्ञा करें तो देश को हिला देंगे, यह कर देंगे – वह कर देंगे।' मैंने कहाः 'नहीं बाबा ! देश को हिलाओगे तो भी अपने की ही घाटा है।'

षड्यंत्रकारियों के बहकावे में आकर समझदारी की कमीवाले कुछ की कुछ साजिशें करते हैं। जो षड्यंत्र करके दूसरें का बुरा सोचता है, बुरा चाहता है, बुरा करता है उसका तो अपनी ही बुरा हो जाता है। आप किसी का बुरा चाहोगे तो पहले अपने दिल में बुराई लायेंगे, इससे कुछ-न-कुछ आपकी बुद्धि मारी जायेगी। बुद्धि मारी जाती है तब लाखों करोड़ों की नजरों में आदरणीय व्यक्ति के लिए भी हलकी भाषा बोलते है। फिर उनको लोगों की बददुआएँ मिलती हैं। शास्त्र में आता है कि

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम्।।

(शिव पुराण, रूद्र. सती. 35.9)

जहाँ पूजनीय माता-पिता, सदगुरुओं का आदर नहीं होता और अपूजनीय लोगों का आदर-सत्कार होता है, वहाँ भय, दरिद्रता और मृत्यु का तांडव होने लगता है। गलत निर्णय होने लगते हैं। अशांति के कारण अकाल मृत्यु हो जाती है, हार्टअटैक आ जाता है, एक्सीडेंट होने लगते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त है – अफगानिस्तान में महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ी गयीं, महापुरुषों के प्रति नफरत जगायी गयी तो वहाँ कितना कितना कहर हो रहा है !

स्वार्थ आदमी को गुमराह कर देता है। वे लोग सचमुच मूर्ख हैं जो अपनी ही संस्कृति की जड़ों को काटने में लगे रहते हैं। ये फिर भटक जाते हैं, स्वार्थ में अंधे होकर किसी भी तरीके से पैसा इकट्ठा करने लग जाते हैं। ऐसे लोग मरने के बाद नीच योनियों में जाते हैं।

लोगों में सुख शांति का प्रसाद बाँटने वाले संतों-महापुरुषों के प्रति जिनको वैरभाव है, समझ लो उनकी तो तौबा है ! वे न जाने कुत्ता बनकर कितने जन्मों तक दुष्कर्मों का फल भोगेंगे, मेंढक बनेंगे। रामायण में आता हैः

हर गुर निंदक दादुर होई।

जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

एक बार नही, हजार जन्मों तक उनको मेंढक बनना पड़ता है, फिर ऊँट बनते हैं, बैल बनते हैं। लोग बोलते हैं- 'इनको दंड मिलना चाहिए।' अरे ! आप हम क्या दंड देंगे ! वे स्वयं दंड ले रहे हैं। अशांति का दंड ले रहे हैं और कई जन्मों में दंड भोगने वाला मन बना रहे हैं। अब उनको हम आप क्या दंड देंगे।

बहुत गयी थोड़ी रही व्याकुल मन मत हो।

धीरज सबका मित्र है करी कमाई मत खो।।

अगर कोई शुभकामना करनी है तो दो-दो माला भगवन्नाम का जप कर लो। स्वार्थ में अँधे बनकर आपस में लड़ाकर मारने वाले इन षड्यंत्रकारियों से बचकर अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सदैव सावधान रहो। अपनी दृष्टि को व्यापक बनाने का अभ्यास करो। महापुरुषों का सत्संग सुनो।

भगवदसुमरिन का, परिस्थितियों में सम रहने की सजगता का, परमात्म-विश्रान्ति का, आकाश में एकटक निहारने का, श्वासोच्छवास में सोऽहं जप द्वारा समाधि-सुख में जाने का आदरसहित अभ्यास करना। कभी-कभी एकांत में समय गुजारना, विचार करना कि इतना मिल गया आखिर क्या ? अपने को स्वार्थ से बचाना। स्वार्थरहित कार्य ईश्वर को कर्जदार बना देता है और स्वार्थसहित कार्य इन्सान को गद्दार बना देता है। निष्काम कर्म, संस्कृति की सेवा, भगवान का सुमिरन और एकांत में आत्मविचार करके आत्मा के आनंद में आने वाला महान हो जाता है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 210

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सत्संग यही सिखाता है


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )


'लोग बोलते हैं कि इच्छा छूटती नहीं, इच्छा छोड़ना कठिन है' लेकिन संत बोलते हैं कि 'इच्छा पूरी करना असंभव है।' इच्छा पूरी नहीं होती, इच्छा गहरी होती जाती है। जो कठिन काम है वो तो हो सकता है लेकिन जो काम असम्भव है तब नहीं हो सकता है। हमें इच्छाएँ खींचती हैं इसलिए हम सत् वस्तु (परमात्मा) से दूर हो जाते हैं। किस विषय की इच्छाएँ खींचती हैं ? या तो देखने की या तो सुनने की या सूँघने की या चखने की या स्पर्श करने की। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध.... इन पाँच प्रकार के विषयों की इच्छाएँ हमें घसीटती हैं। अब आज हमारी जो स्थिति है, जो अवस्था है, इसके जवादार हम हैं। हमारी इच्छाएँ घूम-फिरकर देर-सवेर अवस्था का रूप धारण कर लेती हैं। इच्छाएँ आकर अवस्था दे जाती हैं, मिटती नहीं और दूसरी बन जाती है।

विषम इच्छाएँ होती हैं इसीलिए हम दुःखी होते हैं। सजातीय इच्छा हुई और वह पूरी हुई तो गहरी चली जायेगी। इच्छा थोड़ी देर के लिए पूरी हुई, थोड़ी देर का हर्ष हुआ परंतु जिस वस्तु से सुख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर राग की एक गहरी लकीर खींच दी और जिस वस्तु से दुःख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर भय की लकीर खींच दी। इच्छाएँ पूरी नहीं हुई बल्कि उन्होंने हमारे चित्त को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अब क्या करना चाहिए ?

एक तो होती है सत् वस्तु और दूसरी होती है असत् वस्तु। तो मन के फुरने, कल्पनाएँ जो हैं कि 'यह करूँ तो सुखी होऊँगा, यह करूँ तो सुखी होऊँगा...' इन कल्पनाओं के द्वारा असत् वस्तु को पाने की इच्छा हमारे जीवन को टुकड़े-टुकड़े कर देती है और सत्संग के द्वारा सत्त्वगुण बढ़ायें तो हम सत् वस्तु अपने सत्स्वरूप को पा लेते हैं।

दो चीजें होती हैं। एक होती है – नित्य और दूसरी होती है – अनित्य। बुद्धिमान आदमी अपने लिए अनित्य वस्तु पसंद करने के बजाय नित्य वस्तु पसंद करेगा, असत् वस्तु पसंद करने के बजाय सत् वस्तु पसंद करेगा। जो नित्य है, आप उसको पसंद करना और जो अनित्य है, उसका उपयोग करना।

देह अनित्य है – पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है। जो वस्तु अभी मिली है, वह पहले हमारे पास नहीं थी और मिली है तो उसको छोड़ना पड़ेगा। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मिली हुई और आप सदा रख सकें। या तो मिली हुई वह वस्तु आपको छोड़नी पड़ेगी या वस्तु आपको छोड़कर चली जायेगी। फिर चाहे वह नौकरी हो, चाहे मकान हो, चाहे परिवार हो, चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, चाहे गाड़ी हो, चाहे देह हो। देह आपको मिली है तो उसे छोड़ना पड़ेगा। बचपन आपको मिला था तो छूट गया। जवानी मिली थी, छूट गयी। बुढ़ापा मिला है, छूट जायेगा। मौत मिलेगी, वह भी छूट जायेगी किंतु आप नहीं छूटोगे क्योंकि आप अछूट आत्मा हो, स्वतः सिद्ध हो, सच्चिदानंदघन हो। जो मिली हुई चीज है उसको आप रख नहीं सकते और अपने-आपको छोड़ नहीं सकते। कितना सरल सत्य है, कितना सनातन सत्य है, कितना स्वाभाविक है !

लोग बोलते हैं, संसार को छोड़ना कठिन है लेकिन संतों का यह अनुभव है, सत्संग से हमने यह जाना है कि संसार को छोड़न कठिन नहीं, संसार को रखना असम्भव है। कठिन नहीं, असम्भव ! परमात्मा को छोड़ना असम्भव है। ईश्वर को आप छोड़ नहीं सकते और जगत को आप रख नहीं सकते। देखो, कितना सरल सौदा है !

बचपन छोड़ने की आपने मेहनत की क्या ? अपने आप छूट गया। बचपन छोडूँ, बचपन छोडूँ.... कोई रट लगायी थी ? जवानी छोड़ूँ, जवानी छोड़ूँ... कोई चिन्ता की थी ? छूट गयी। आप रखना चाहें तो भी छूट जायेगी। ऐसे ही अपमान छोड़ूँ, निंदा छोड़ूँ या स्तुति छोड़ूँ... नहीं ये अपने आप छूटते जा रहे हैं। एक साल पहले जो आपकी निंदा या स्तुति का प्रसंग था, वह अभी पुराना हो गया, तुच्छ हो गया। जो निंदा हुई वह पहले दिन बड़ी भयानक लगी, जो स्तुति हुई वह पहले दिन बड़ी मीठी लगी लेकिन अब देखो, सब पुराना हो गया। संसार की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है, कोई स्थिति नहीं है कि जिसको आप रख सकें। आपको छोड़ना नहीं पड़ता है महाराज ! छूटता चला जा रहा है।

संसार को थामना असम्भव है और अपने को हटाना असम्भव है। जिसको आप हटा नहीं सकते वह है सत् वस्तु और जिसको आप रख नहीं सकते वह है असत् वस्तु। सत्संग सत् वस्तु का बोध कराने के लिए होता है और जब तक सत् वस्तु का बोध नहीं हुआ तब तक आदमी कहीं टिक नहीं सकता क्योंकि असत् शाश्वत नहीं है। तो असत् का उपयोग करो और सत् का साक्षात्कार करो। बस, सत्संग यही सिखाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 210

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सबसे बड़ा सहयोगी



(परमपूज्य आसाराम बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

जैसे जुआरी होना है तो दूसरा जुआरी आपको सहयोग करेगा, भँगेड़ी होना है तो दूसरा भँगेड़ी आपको सहयोग करेगा, ऐसे ही मुक्तात्मा बनना है तो भगवान ही आपका साथ देते हैं। कितना बड़ा सहयोग है भगवान का ! भगवान मुक्तात्मा हैं. आपका मुक्तात्मा बनने का इरादा हो गया तो वे खुश हो जाते हैं कि हमारी जमात में आ रहा है। जैसे कोई अच्छा आदमी किसी पार्टी में आता है तो पार्टी वाले खुश होते हैं। पार्टीवाले तो चमचे को अच्छा बोलेंगे और सच बोलने वाले को बुरा बोलेंगे परंतु भगवान की नजर में कोई बुरा नहीं है। भगवान तो सच बोलने वाले को ही अच्छा मानते हैं, चमचागिरी से भगवान राजी नहीं होते हैं।

मूर्ख लोग बोलते हैं- 'अरे भाई ! प्रशंसा से, फूल चढ़ाने से, भोग लगाने से तो भगवान भी राजी हो जाते हैं और हमको दुःखों से बचाते हैं।'

अरे मूर्ख ! भगवान की प्रशंसा से भगवान राजी हो जाते हैं – यह तू कहाँ से सुनकर आया, कहाँ से देखकर आया ? यह वहम घुस गया है। तुम भगवान के कितने गुण गाओगे ? अरब-खरबपति को बोलो कि 'सेठजी ! आप तो हजारपति हो, आप तो लखपति हो..... आपके पास तो बहुत पैसा है, 12,14,15 लाख हैं....।'

खरबपति को बोलो कि आपके पास 15 लाख हैं तो उसको तो गाली दी तुमने ! ऐसे ही अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड जिसके एक-एक रोम में हैं, ऐसे भगवान की व्याख्या हम क्या करेंगे और उनकी प्रशंसा क्या करेंगे ! हम भगवान की प्रशंसा करके उनका अपमान ही तो कर रहे हैं ! फिर भी भगवान समझते हैं कि 'बच्चे हैं, इस बहाने बेचारे अपनी वाणी पवित्र कर रहे हैं।'

भगवान प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं – यह वहम निकाल देना चाहिए। भगवान की प्रशंसा नहीं, गुणगान करने से हमारी दोषमयी मति थोड़ी निर्दोष हो जाती है। बाकी तो भगवान का कुछ भी गुणगान करोगे तो एक प्रकार का बचकानापन ही है क्योंकि भगवान असीम हैं। आपकी बुद्धि सीमित है और आपकी कल्पना भी सीमित है तो आप भगवान की क्या महिमा गाओगे ! फिर भी भगवान कहते हैं- 'मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों से तर जायेगा। यदि तू अहंकार के कारण मेरी बा नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा।'

फिर न जाने कीट, पतंग आदि किन-किन योनियों में भटकना पड़ेगा।

जैसे किसी मनुष्य को मस्का मारकर उससे काम लिया जाता है, ऐसे ही भगवान को मस्का मारकर आप अपना कुछ भला नहीं कर सकते। भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते हैं, कुछ देते हैं तो उन चीजों की आसक्ति छूटती है और भगवान के लिए आदर होने से आपका हृदय पवित्र होता है। बाकी भगवान खुशामद से राजी हो जायें, ऐसे वे भोले नहीं हैं। जैसे किसी नेता को, किसी और व्यक्ति को कोई चीज देकर, खुशामद करके आप राजी पा लेते हैं, वैसे भगवान खुशामद से राजी नहीं होते हैं। भजतां प्रीतिपूर्वकम्..... भगवान प्रेम से राजी होते हैं। भगवान को स्नेह करो। कुछ भी न करो, एक नये पैसे की चीज भगवान को अर्पण नहीं करो तो भी चल जायेगा लेकिन प्रीतिपूर्वक भगवान को अपना मानो और अपने को भगवान का मानो।

भगवान ऐसा सहयोग करते है, ऐसी मदद करते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हम दस हजार जन्म लेकर भी यहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे जहाँ गुरु, भगवान ने पहुँचा दिया। अपनी तपस्या से, अपने बल से हम नहीं पहुँच सकते थे। भगवान में प्रीति थी तो गुरु में प्रीति हो गयी। गुरु भगवत्स्वरूप हैं। संत कबीरजी ने कहा हैः 'भगवान निराकार है। अगर साकार रूप में चाहते हो तो साधु प्रत्यक्ष देव।' गुरु को भगवत्स्वरूप मानने से गुरु के हृदय से वही परब्रह्म परमात्मा छलके।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।......

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 210

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हृदयकोष की रक्षा करो

(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

काम, क्रोध, लोभ, मोह के जो आवेग आते हैं, उनसे बचने के लिए सोचो कि 'इन आवेगों के अनुसार कौन-सा काम करें, कौन सा न करें ?' इसमें तुम्हारी पुण्याई चाहिए। पहले जानो। जानाति, इच्छति, करोति। जानो, फिर शास्त्र अनुरूप इच्छा करो, फिर कर्म करो। आप क्या करते हैं कि पहल कर्म करते हैं। इन्द्रियाँ कर्म में लगती हैं, मन उसके पीछे लगता है और बुद्धि को घसीट के ले जाता है तो धीरे-धीरे बुद्धि राग-द्वेषमयी हो जाती है।

इच्छा हुई तो सोचो कि 'इच्छा के अनुसार कर्म करें या बुद्धि से सोच के कर्म करें ?' इच्छा हुई, फिर मन से उसको सहमति दी और इच्छा के अनुरूप मन करना चाहता है तो धीरे-धीरे बुद्धि दब जायेगी। बुद्धि का राग-द्वेष का भाग उभरता जायेगा, समता मिटती जायेगी। अगर शास्त्र, गुरु और धर्म का विचार करके बुद्धि को बलवान बनायेंगे और समता बढ़ाने वाला, मुक्तिदायी जो काम है वह करेंगे तो बुद्धि और समता बढ़ेगी लेकिन मन का चाहा हुआ काम करेंगे तो बुद्धि और समता का नाश होता जायेगा। कुत्ते, गधे, घोड़े, बिल्ले, पेट से रेंगने वाले तुच्छ प्राणी और मनुष्य में क्या फर्क है ?

वसिष्ठजी कहते हैं- हे रामजी ! कभी ये मनुष्य थे लेकिन जैसी इच्छा हुई ऐसा मन को घसीटा और बुद्धि उसी तरफ चली गयी तो धीरे धीरे दुर्बुद्धि होकर केँचुए, साँप और पेट से रेंगने वाले प्राणियों की योनियों में पड़े हैं।

जो बहुत द्वेषी होता है वह साँप की योनि में जाता है। इसी प्रकार की और भी कई योनियाँ हैं। यह चार दिन की जिंदगी है, अगर इसको सँभाला नहीं तो चौरासी लाख जन्में की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हें।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।

यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

'जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष है हृदय। उसकी रक्षा करो, रक्षा करो।'

खरीदारी करके कमीशन खाना, चोरी करना, बेईमानी करना.... ले क्या जायेंगे, कहाँ ले जायेंगे ! प्रारब्ध में जो होगा वह नहीं माँगने पर भी मिलेगा और कितनी भी बेईमानी करो, देर-सवेर उसका फल बेईमान को दुःखद योनियों में ले जायेगा। यदि तुम दगाखोर और कपटी हुए तो उसका फल तुमको भी दुःखद योनियों में ले जायेगा। ऐसे कपटी, बगला भगत को फिर बगुले, बिलार वाली, कपट करके पेट भरने वाली योनियों में जाना पड़ता है। तो बुद्धि में लोभ का आवेग आया, काम का आवेग आया, क्रोध का आवेग आया इंद्रियों में शरीर में तो शास्त्र के अनुरूप परिणाम का ख्याल करके बुद्धि को बलवान बनायें और आवेग को सहन करें। लोभ के आवेग को सहन करें। सोचें, 'अनीति का धन क्या करना, अनीति का भोग क्या करना ?' पहले शास्त्र के ढंग से बुद्धि में औचित्य-अनौचित्य समझ लो। वासना कहती है यह कर्म करो, इच्छा बोलती है करो लेकिन बुद्धि बोलती है उचित तो नहीं है, तो धीरे-धीरे थोड़ा समय निकाल दो और मन को थोड़ा समझाओ अथवा दूसरे काम में लगाओ तो वासना और द्वेष की लहर शांत हो जायेगी। अगर करने का आवेगा है, मन भी कहता है करो, बुद्धि भी कहती है करो और करने का औचित्य भी है तो उसे कर डालो।

एक तरफ इच्छा खींचती है और दूसरी तरफ बुद्धि और शास्त्र सहमति नहीं देते हैं तो वह कर्म अधर्म है। ऐसी स्थिति में थोड़ा समय गुजरने दो। जैसे समुद्र की लहर आयी और आप बैठ गये, समय गया तो लहर उतर गयी। ऐसे ही ये आवेग हैं। आवेग के समय थोड़ा शांत हो जायें, थोड़ा धैर्य रखें तो आवेग उतर जाता है। नहीं तो आवेग-आवेग में आदमी अंधा हो जाता है। आवेग-आवेग में अपनी खुशामद करने वाले चमचे अच्छे लगेंगे।

तो राग-द्वेष से बचें। आवेगों से बचें और भगवान में श्रद्धा करें। भगवान में सर्वसमर्थता, अंतर्यामीपना आदि दिव्य गुण हैं। आर्त्तभाव से प्रार्थना करे कि 'प्रभु ! हमें अपने प्रसाद से पावन करो। हम तो आपके रस में नहीं आ रहे, आप ही हमें जबरदस्ती अपने रस में डुबा दो।'

आप चाहे कैसे भी हो, आर्त्तभाव से भगवान को प्रार्थना करते हो तो भगवान तुरंत आपको दोषों को झाड़ देते हैं और भगवदरस मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 210

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राक्षस भी जिसे पसन्द नहीं करते

(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला व्यक्ति कृतघ्न कहलाता है। 'महाभारत' में पितामह भीष्म धर्मराज से कहते हैं- "कृतघ्न, मित्रद्रोही, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।"

गौतम नाम का ब्राह्मण था। ब्राह्मण तो वह केवल जाति से था, वैसे एकदम निरक्षर और म्लेच्छप्राय था। पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करते हुए जब म्लेच्छों के नगर में पहुँचा तो वहीं एक विधवा स्त्री को पत्नी बना कर बस गया। म्लेच्छों के संग से उसका स्वभाव भी उन्हीं के समान हो गया। वन में पशु-पक्षियों का शिकार करना ही उसकी जीविका हो गयी।

एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण जंगल से गुजरे यज्ञोपवीतधारी गौतम को व्याध के समान पक्षियों को मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने उसको समझाया कि यह पापकर्म छोड़ दे। गौतम के चित्त पर उनके उपदेश का प्रभाव पड़ा और वह धन कमाने का दूसरा साधन ढूँढने निकल पड़ा। वह व्यापारियों के एक दल में शामिल हो गया किंतु वन में मतवाले हाथियों ने उस दल पर आक्रमण कर दिया, जिससे कुछ व्यापारी मारे गये। गौतम अपने प्राण बचाने के लिए भागा और रास्ता भटक गया। वह भटकते-भटकते दूसरे जंगल में जा पहुँचा, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। उस वन में महर्षि कश्यप का पुत्र राजधर्मा नामक बगुला रहता था। गौतम संयोगवश उसी वटवृक्ष के नीचे जा बैठा, जिस पर राजधर्मा का विश्राम-स्थान था।

संध्या के समय जब राजधर्मा ब्रह्मलोक से लौटे तो देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य की भाषा में गौतम को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतम को भोजन करा के कोमल पत्तों की शय्या बना दी। जब वह लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखों से उसे हवा करने लगे।

परोपकारी राजधर्मा ने पूछाः "ब्राह्मणदेव ! आप कहाँ जा रहे हैं तथा किस प्रयोजन से यहाँ आना हुआ ?"

गौतमः मैं बहुत गरीब हूँ और धन पाने के लिए यात्रा कर रहे था। मेरे कुछ साथियों को हाथियों ने मार डाला। मैं अपने प्राण बचाने के लिए इधर आ गया हूँ।"

राजधर्माः "आप मेरे मित्र राक्षसराज विरूपाक्ष के यहाँ चले जाइये, वे आपकी मदद करेंगे।"

प्रातःकाल ब्राह्मण वहाँ से चल पड़ा। जब विरूपाक्ष ने सुना कि उनके मित्र ने गौतम को भेजा है, तब उन्होंने उसका बड़ा सत्कार किया और उसे खूब धन देकर विदा किया।

गौतम जब लौटकर आया तो राजधर्मा ने फिर सत्कार किया। रात्रि में राजधर्मा भी भूमि पर ही सो गये। उन्होंने पास में अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रि में ब्राह्मण पर आक्रमण न करें। परंतु रात्रि में जब उस लालची, कृतघ्न गौतम की नींद खुली तो वह सोचने लगा, 'मेरा घर यहाँ से बहुत दूर है। मेरे पास धन तो पर्याप्त है पर मार्ग में भोजन के लिए तुच्छ नहीं है। क्यों न इस मोटे बगुले को मारकर साथ ले लूँ तो रास्ते का मेरा काम चल जायेगा।' ऐसा सोचकर उस क्रूर ने सोते हुए राजधर्मा को मार डाला। उनके पंख नोच दिये, अग्नि में उनका शरीर भून लिया और धन की गठरी लेकर वहाँ से चल पड़ा।

इधर विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहाः "बेटा ! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजी को प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना घर नहीं जाते। आज दो दिन बीत गये, वे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मण के लक्षण अच्छे नहीं लगते। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम जाओ, पता लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्था में है।"

राक्षसकुमार दूसरे राक्षसों के साथ जब राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के पंख खून से लथपथ बिखरे पड़े हैं। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। क्रोध के मारे उसने गौतम को ढूँढना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देर मे राक्षसों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर राक्षसराज को सौंप दिया।

अपने मित्र का आग में झुलसा शरीर देखकर राक्षसराज शोक से मूर्च्छित हो गये। मूर्च्छा दूर होने पर उन्होंने कहाः "राक्षसो ! इस दुष्ट के टुकड़े-टुकड़े कर दो और अपनी भूख मिटाओ।"

राक्षसगण हाथ जोड़कर बोलेः "राजन् ! इस पापी को हम लोग नहीं खाना चाहते। आप इसे चाण्डालों को दे दें।"

राक्षसराज ने गौतम के टुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालों को देना चाहा तो वे भी उसे लेने को तैयार नहीं हुए। वे बोलेः "यह तो कृतघ्न का मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़े तक नहीं खाना चाहेंगे तो हम इसे कैसे खा सकते हैं !" फलतः वह मांस एक खाई में फेंक दिया गया।

राक्षसराज ने सुगंधित चंदन की चिता बनवायी और उस पर बड़े सम्मान से अपने मित्र राजधर्मा का शरीर रखा। उसी समय देवराज इन्द्र के साथ कामधेनु उस परोपकारी महात्मा के दर्शन करने आकाशमार्ग से आयीं। कामधेनु के मुख से अमृतमय झाग राजधर्मा के मृत शरीर पर गिर गया और राजधर्मा जीवित हो गये।

इस प्रकार परोपकारी, धर्मनिष्ठ राजधर्मा की तो जयजयकार हुई और कृतघ्न गौतम को प्राप्त हुई – मौत अपकीर्ति और नरकों की यातनापूर्ण यात्रा !

ऐसे अनेक कृतघ्नों की दुर्दशा का वर्णन इतिहास में मिलता है। जैसे – महावीरजी से गोशालक ने तेजोलेश्या विद्या की शिक्षा ली और उस विद्या का प्रयोग उन्हीं के ऊपर कर दिया तो महावीर जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटा वह दुष्ट ही उस विद्या के तेज से झुलसकर मर गया।

महापुरुष तो अपनी समता में रहते हैं, उनके मन में किसी के प्रति नफरत नहीं होती पर प्रकृति उन कृतघ्नों को धोबी के कपड़ों की तरह पीट-पीटकर मारती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 210

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निंदकों, कुप्रचारकों की खुल गयी पोल

निंदकों, कुप्रचारकों की खुल गयी पोल

महेन्द्र चावला के आरोपों की हकीकत

विदेशी षड्यंत्रकारियों का हत्था बनकर मीडिया में आश्रम के खिलाफ मनगढंत आरोपों की झड़ी प्रचारित करने वाले महेन्द्र चावला की न्यायाधीश श्री डी.के.त्रिवेदी जाँच आयोग के समक्ष पोल खुल गयी। चालबाज महेन्द्र ने वास्तविकता को स्वीकारते हुए उसने कहा कि मैं अहमदाबाद आश्रम में जब-जब आया और जितना समय निवास किया, तब मैंने आश्रम में कोई तंत्रविद्या होते हुए देखा नहीं।

आश्रम में छुपे भोंयरे (गुप्त सुरंग) होने का झूठा आरोप लगाने वाले महेन्द्र ने सच्चाई को स्वीकारते हुए माना कि यह बात सत्य है कि जिस जगह आश्रम का सामान रहता है अर्थात् स्टोर रूम है, उसे मैं भोंयरा कहता था।

श्री नारायण साँई के नाम के नकली दस्तावेज बनाने वाले महेन्द्र ने स्वीकार किया कि यह बात सत्य हे कि कम्पयूटर द्वारा किसी भी नाम का, किसी भी प्रकार का, किसी भी संस्था का तथा किसी भी साइज का लेटर हेड तैयार हो सकता है। बनावटी हस्ताक्षर किये गये हों, ऐसा मैं जानता हूँ।

महेन्द्र ने स्वीकार किया कि वह दिल्ली से दिनांक 5.8.2008 को हवाई जहाज द्वारा अहमदाबाद आया, जहाँ अविन वर्मा, वीणा चौहान व राजेश सोलंकी पहले से ही आमंत्रित थे। इन्होंने प्रेस कान्फ्रेन्स द्वारा आश्रम के विरोध के झूठे आरोपों की झड़ी लगा दी थी। साधारण आर्थिक स्थितिवाला महेन्द्र अचानक हवाई जहाजों में कैसे उड़ने लगा ? यह बात षड्यंत्रकारी के बड़े गिरोह से उसके जुड़े होने की पुष्टि करती है।

महेन्द्र के भाइयों ने पत्रकारों को दिये इंटरव्यू में बतायाः "आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बावजूद हमने उसकी पढ़ाई के लिए पानीपत में अलग कमरे की व्यवस्था की थी। उसकी आदतें बिगड़ गयी। वह चोरियाँ भी करने लगा। एक बार वह घर से 7000 रूपये लेकर भाग गया था। उसने खुद के अपहरण का भी नाटक किया था और बाद में इस झूठ को स्वीकार कर लिया था।

इसके बाद वह आश्रम में गया। हमने सोचा वहाँ जाकर सुधर जायेगा लेकिन उसने अपना स्वभाव नहीं छोड़ा। और अब तो धर्मांतरणवालों का हथकंडा बन गया है और कुछ का कुछ बक रहा है। उसे जरूर 10-15 लाख रूपये मिले होंगे। नारायण साँई के बारे में उसने जो अनर्गल बातें बोली हैं वे बिल्कुल झूठी व मनगढंत है।"

महेन्द्र के भाइयों ने यह भी बतायाः "आश्रम से आने के बाद किसी के पैसे दबाने के मामले में महेन्द्र के खिलाफ एफ.आई.आर. भी दर्ज हुई थी। मार-पिटाई व झगड़ाखोरी उसका स्वभाव है। वास्तव में महेन्द्र के साथ और भी लोगों का गैंग है और ये लोग ही 'मैं नारायण साँई बोल रहा हूँ, मैं फलाना बोल रहा हूँ..... मैं यह कर दूँगा, वह कर दूँगा.....' इस प्रकार दूसरों की आवाजें निकाल के पता नहीं क्या-क्या साजिशें रच रहे हैं।"

अंततः महेन्द्र चावला की भी काली करतूतों का पर्दाफाश हो ही गया। इस चालबाज साजिशकर्ता को उसक घर परिवार के लोगों ने तो त्याग ही दिया है, साथ ही समाज के प्रबुद्धजनों की दुत्कार का भी सामना करना पड़ रहा है। भगवान सबको सदबुद्धि दें, सुधर जायें तो अच्छा है।

ऐसे विदेशियों के हथकंडे साबित हो ही रहे हैं। कोई जेल में है तो किसी को परेशानी ने घेर रखा है तो कोई प्रकृति के कोप का शिकार बन गये हैं। और उनके सूत्रधारों के खिलाफ उन्हीं का समुदाय हो गया है। यह कुदरत की अनुपम लीला है। कई देशों में तथाकथित धर्म के ठेकेदारों द्वारा सैंकड़ों बच्चों का यौन-शोषण कई वर्षों तक किया गया। गूगे-बहरे, विकलांग बालकों का यौन-शोषण और वह भी इतने व्यापक पैमाने पर हुआ। उसका रहस्य प्रकृति के खोल के रख दिया है (जिसका विवरण ऋषि प्रसाद के पिछले अंक में प्रकाशित हुआ है)। ऐसी नौबत आयी कि साम, दाम, दंड, भेद आदि से भी विरोध न रूका। आखिरकार इन सूत्रधारों को जाहिर में माफी माँगनी पड़ी। पूरे यूरोप का वकील-समुदाय बालकों किशोरों का यौन-शोषण करने वालों के खिलाफ खड़ा हो गया। भारत को तोड़ने की साजिशें रचने वाले अपने कारनामों की वजह से खुद ही टूट रहे हैं। पैसों के बल से न जाने क्या-क्या कुप्रचार करवाते हैं परंतु सूर्य को बादलों की कालिमा क्या ढकेगी और कब तक ढकेगी ? स्वामी रामतीर्थ, स्वामी रामसुखदासजी आदि के खिलाफ इनकी साजिशें नाकामयाब रहीं। ऐसे ही अब भी नाकामायाबी के साथ कुदरत का कोप भी इनके सिर पर कहर बरसाने के लिए उद्यत हुआ है।

डॉ. प्रे. खो. मकवाना (एम.बी.बी.एस.)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 5,6, अंक 210

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हर परिस्थिति का सदुपयोग



(परमपूज्य आसाराम बापूजी की सर्वहितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन का मुख्य कार्य प्रभुप्राप्ति ही है। शरीर से संसार में रहो किंतु मन को हमेशा भगवान में लगाये रखो। समय बड़ा कीमती है, फालतू गप्पे मारने में अथवा व्यर्थ कि चेष्टाओं में समय बर्बाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए। भगवदस्मरण, भगवदगुणगान और भगवदचिंतन में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है। आपका हर कार्य भगवदभाव युक्त हो, भगवान की प्रसन्नता के लिए हो इसका ध्यान रखें।

आपके पास क्या है, क्या नहीं है इसका महत्त्व नहीं है, जो है, जितना है उसका उपयोग किसलिए कर रहे हो इसका महत्त्व है। धन है, मान है और धन की हेकड़ी दिखा रहे होः "मैं बड़ा हूँ अथवा मेरे कुटुम्बी ऐसे हैं, वैसे हैं....।" धन का दिखावा करके दूसरों को प्रभावित करते हो और ईश्वर को भूलते हो तो धन का यह दुरुपयोग आपको दुःख में गिरा देगा। धन है, भगवान के रास्ते जाने में उसका सदुपयोग करते हो, जिसका है उसी की प्रीति के लिए लगाते हो तो धन आपका कल्याण कर देगा।

गरीब हो, मजदूरी करते हो, कमियाँ हैं इसकी परवाह न करो। इनका सदुपयोग करने से आपका मंगल हो जायेगा। आपके पास कैसी भी परिस्थिति आये – बीमारी की हो या तंदरुस्ती की, निंदा की हो या वाहवाही की, सबका सदुपयोग करो। आपके पास क्या है इसका मूल्य नहीं है, आप उसका उपयोग सत् के लिए, प्रभु को पाने के लिए करो तो आपका कल्याण हो जायेगा। शबरी भीलन अनपढ़ थी, नासमझ थी लेकिन मैं भगवान की हूँ, गुरु की हूँ..... ऐसा सोचकर गुरुआज्ञा में चली तो महान हो गयी। राजा जनक विद्वान थे, धनवान थे, धन को, विद्या को समाज के हित में लगा दिया तो महान हो गये।

बीमारी आयी। किस कारण आयी यह समझकर सावधान हो गये कि दुबारा वह गलती नहीं करेंगे। बीमारी आयी तो तपस्या हो गयी, वाह प्रभु ! ऐसे प्रसन्न हुए तो यह बीमारी का सदुपयोग हुआ। जरा सी बीमारी आयी और परेशान हो गये... तुरंत इंजेक्शन ले लिया, बिना विचार किये ऑपरेशन करा लिया और असमय बूढ़े हो गये। पैसे भी लुटवाये और शरीर भी खराब करा लिया तो यह बीमारी का दुरुपयोग हुआ।

लोग आपका मजाक उड़ाते हैं तो सावधान हो जाओ कि 'मरने वाले शरीर का मजाक उड़ा रहे हैं, मसखरी कर रहे हैं। मैं इसको जानने वाला हूँ। ॐआनन्द... तो यह उस परिस्थिति का सदुपयोग हो गया।

कैसी भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करके अपने-आपको जानने की, भगवान को पाने की कला सीख लो।

बोलेः महाराज ! हमको भगवान पाने की इच्छा तो है लेकिन हमारे पतिदेव मर गये न, उनकी याद आ रही है। पति में बड़ा मोह था हमारा।

कोई बात नहीं, मोह को रहने दो, मोह को तोड़ो मत। पतिदेव चले गये तो चले गये, भगवान की तरफ गये। मेरे पति को भगवान ने अपने-आपमें समा लिया। अब पति की आकृति में ममता और विकार सब चला गया, भगवान रह गये। हम उस भगवान के रो रहे हैं- 'हे प्रभु ! कब मिलेंगे....' यह ममता का, रुदन का सदुपयोग हो गया।

"बाबा ! झूठ बोलने की आदत है। क्या करें?"

ठीक है, खूब झूठ बोलो किंतु उसका सदुपयोग करो, भगवान खुश हो जायेंगे। आप मन ही मन ठाकुरजी के लिए सिंहासन सजाओ और भगवान से झूठ बोलो कि 'प्रभु ! आओ, आपके लिए सोने का सिंहासन बनाया है, बहुत नौकर-चाकर लगा रखे हैं, मक्खन मिश्री रखी है....' इस प्रकार मन में जो भी भाव आये ठाकुर जी को प्रसन्न करने के लिए बंडल पर बंडल मारते जाओ। झूठ बोलने की आदत है, कोई बात नहीं, उसको दबाओ मत और कर्मों में फँसाने वाला झूठ कभी बोलो मत। ठाकुर जी को रिझाने वाला झूठ रोज बोलो, धीरे-धीरे झूठ चला जायेगा। ठाकुर जी की प्रीति, ठाकुर जी की निगाहें और ठाकुर जी का माधुर्य आपके हृदय रति, प्रीति और तृप्ति के रूप में प्रगट होगा। कैसी है सनातन धर्म की व्यवस्था !

मिले हुए का आदर, जाने हुए में दृढ़ता और प्रभु में विकल्परहित विश्वास से आपका कर्मयोग हो जायेगा, भक्तियोग हो जायेगा, ज्ञानयोग हो जायेगा।

गरीबी से भी निर्दुःखता नहीं आती, अमीरी से भी निर्दुःखत नहीं आती बल्कि गरीबी व अमीरी का सदुपयोग करने से निर्दुःखता आती है और हृदय में परमात्मा का प्रागट्य हो जाता है। आपके पास गरीबी है तो डरो मत, उसका सदुपयोग करो, इससे आपके पास वह प्रगट होगा जिसके लिए दुनिया तरसती है। आप पठित हो या अनपढ़ हो, विद्वान हो या मूर्ख हो, बीमार हो या स्वस्थ हो, जैसे भी हो उसका सदुपयोग करे, भाई है तो भाईपने का सदुपयोग करे। मुख्य सम्पादक है तो सम्पादकपने का सदुपयोग करे। पत्रकार हो तो पत्रकारिता का सदुपयोग करे। सदुपयोग में इतनी शक्ति है कि उसके सहारे भगवान मिल जाते हैं।

'बाबा ! दुर्घटना हो जाय, दुःख आये उसका सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' हाँ ! मर्खता का विद्वता का, धन-धान्य का सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' हाँ बिल्कुल मिल जायेंगे। कुछ भी नहीं है, निपट-निराले एकदम कंगाल हैं, इस परिस्थिति का भी सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?' बोलेः हाँ !

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः।।

'हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख या दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।'

(भगवदगीताः 6.32)

परिस्थिति कैसी भी आयें, उनमें डूबो मत। उनका उपयोग करो। समझदार लोग संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान व प्रकाश फैलाने में भागीदार होते हैं और मूर्ख लोग सुख आता है तो अहंकार में तथा दुःख आता है तो विषाद में डूब के स्वयं का तो सुख, ज्ञान और शांति नष्ट कर लेते हैं, औरों को भी परेशान करके संसार से हारकर चले जाते हैं।

संसार से जाना तो सभी को है, हमको भी जाना है, आपको भी जाना है, यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध-महावीर सब आये और चले गये, हमारे दादे-परदादे सब चले गये तो हम कब तक ? यह शरीर तो जाने वाला है। जो जाने वाला है उसके जाने का सदुपयोग करो और जो रहने वाला है उसको सत्संग के द्वारा पहचान कर अभी आप निहाल हो जाओ, खुशहाल हो जाओ, पूर्ण हो जाओ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।.....

तो अब करना क्या है ? गरीब होना है ? अमीर होना है ? यहाँ रहना है ? परदेश जाना है ? क्या करना है ?

कुछ करना नहीं है, कोई परिवर्तन की इच्छा नहीं करनी है, जो कुछ हो रहा है उसका सदुपयोग करना है। 'ऐसा हो जाय, वैसा हो जाय, ऐसा बन जाऊँ....' इस चक्कर में मत पड़ो।

प्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।

तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।

पुरुषार्थ अपनी जगह पर है, प्रारब्ध अपनी जगह पर है, दोनों का सदुपयोग करने वाला धन्य हो जाता है।

परिस्थिति कैसी भी आये, अपने चित्त में दुःखाकार या सुखाकार वृत्ति पैदा होगी लेकिन उस वृत्ति को बदलकर भगवदाकार करना, यह है परिस्थिति का सदुपयोग। धन आया, सत्ता आयी, योग्यता आयी और अहंकार बढ़ाया तो आपने इनका दुरुपयोग किया। यदि धन से 'बहुजन हिताय-बहुजनसुखाय' का नजरिया बना और मिली हुई योग्यता का सत्यस्वरूप ईश्वर के ज्ञान में, शांति में, ईश्वरप्रसादजा बुद्धि बनाने में सदुपयोग किया तो आप और ऊपर उठते जायेंगे, अनासक्त भाव से और ऊँचाइयों को छूते जायेंगे। बाहर की ऊँचाई दिखे चाहे न दिखे लेकिन अंतरात्मा की संतुष्टि, प्रीति और तृप्ति आपके हृदय में आयेगी।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 210

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ज्ञान का अंजन मिला तो आँख खुल गयी



(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )


कबीर दास जी के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कमाली जब सोलह सत्रह वर्ष की थी तब की एक घटना है। कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी। उसका स्वभाव मधुर और हिलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है। उसकी निगाहें नासाग्र रहतीं. वह इधर उधर नहीं देखती थी। युवती तो थी, उम्रलायक थी लेकिन कबीर जी की मधुर छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा-सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था।

एक बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी। कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली, इतने में एक ब्राह्मण आया और बोलाः "मैं बहुत प्यासा हूँ।" कमाली ने गागर दे दी। वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया और लम्बी साँस ली। कमाली ने पूछाः "भाई ! इतना सारा पानी पी गये, क्या बात है ?"

ब्राह्मण ने कहाः "मैं कश्मीर गया था पढ़ने के लिए। अब पढ़ाई पूरी हो गयी तो अपने घर जा रहा था। रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं, सुबह का प्यासा था। पानी नहीं मानो यह तो अमृत था, बहुत देर के बाद मिला है तो इसकी कद्र हो रही है। अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ?"

कमाली बोलीः "कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते।"

ब्राह्मणः "मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं, प्यास बहुत जोरों की लगी थी। बताओ, जाति की कौन हो तुम ?"

कमालीः "हमारे पिता संत कबीर जी ताना-बुनी करते हैं। हम जाति के बुनकर हैं।"

उस विद्वान का नाम था हरदेव पंडित। 'बुनकर' सुनते ही वह आगबबूला हो गया, बोलाः "कबीर तो ब्राह्मणों को धर्मभ्रष्ट करते हैं और तुम भी उसमें सहयोगी हो ! मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी। तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?"

कमालीः "ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं और मैंने धर्मभ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है। मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है और पानी माँगता है इसलिए पानी पिलाया है। तुमने पानी जैसी चीज माँगी तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति-पाँति के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा, पथिक प्यासा है, वैसे तो करोड़ों-करोड़ों लोग प्यासे ही हैं, उनकी प्यास तो मेरे पिता जी ही बुझा सकते हैं लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ। जिसकी प्यास आत्मा-परमात्मानुसंधान से बुझती है उसकी प्यास तो मेरे पिता जी बुझा सकते हैं।"

हरदेव पंडितः "वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में वैसी तू भी चतुर है। अपनी जाति नहीं बतायी और लगी है ज्ञान छाँटने।"

कमालीः "पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है। ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए, रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए। कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है, यह ज्ञान था तभी तो तुम पढ़ने गये। पढ़ाई पूरी हुई, यह ज्ञान हुआ तभी अपने वतन में आये हो। प्यास का ज्ञान हुआ तभी तुमने पानी माँगा। ज्ञान तो सतत चाहिए लेकिन वह ज्ञान अज्ञानसंयुक्त शरीर को पोसने में लगता है इसलिए दुःखकारी हो जाता है। यदि वह ज्ञानस्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है तो पूजनीय हो जाता है, वंदनीय हो जाता है।"

हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है। वह बोलाः "चुप रह, ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है !"

कमालीः "पंडित जी ! ब्राह्मण कौन और बुनकर कौन ?"

हरदेवः "जो जुलाहे लोग हैं वे बुनकर होते हैं और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं वे ब्राह्मण होते हैं।"

कमालीः "नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण होता है और जो राग-द्वेष में झूलता रहता है वह जुलाहा होता है।"

हरदेवः "तुम्हारे पिता जी भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं, पंडित बदे सो झूठा और तुमने हमारे साथ ऐसा किया ! लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं। चलो तुम्हारे पिता के पास, वहीं खुलासा होगा।"

कमालीः "हाँ, चलिये पिता जी के पास।"

कबीर जी तो अपने सततस्वरूप में रमण करने वाले थे। उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है। कबीर जी ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा और पूरी बात जान ली।

पंडित बोलाः "तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया। मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया।"

जिनको अपने सततस्वरूप का स्मरण होता है, वे छोटी-मोटी बातों में उलझते नहीं। भले बाहर से कभी आँख दिखाके भी बात करें लेकिन भीतर से उलझते नही। वे समझते है कि संसार एक नाटक है।

कबीर जी हँसने लगे, बोलेः "पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया ! लेकिन कुएँ के अंदर क्या-क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं उनका मलमूत्र आदि उसी में होता है। कछुए आदि और भी जीव-जंतु रहते हैं, उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती है। घड़ा जिस मिट्टी से बना है उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है, कई जीव-जंतु मरते हैं तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं। उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं, फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय, चाहे बुनकर के घर। पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये और मरे। ऐसी कौन सी मिट्टी होगी, ऐसा कौन सा एक कण होगा जिसमे मुर्दे का अंश न हो। पंडित ! कुआँ तो गाँव का है, उसमें से तो सभी लोग पानी भरते है, कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी। बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी, उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं और तुम पवित्रता-अपवित्रता कि विचार करते हो, तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है। शूद्र वह है जो हाड़-मांस की देह को 'मैं' मानता है और ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता है अथवा जानने के रास्ते चलता है।"

कबीर जी की युक्तियुक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ। कबीर जी के दिल में सततस्वरूप का अनुसंधान था। वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे। पंडित का गुस्सा शांत हुआ। कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया और कहाः "हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया। आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा। तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया, मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी। अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा।"

जो देह को में मानते हैं वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते है व बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं। इसलिए सतत चिंतन किया जाय कि जहाँ से मन फुरता है, बुद्धि को सत्ता मिलती है, चित्त को चेतना मिलती है, जहाँ से मन भूख-प्यास का पता लगाता है और मन को पता लगाने का जहाँ से सामर्थ्य मिलता है, उस चैतन्य आत्मा की स्मृति ही परमात्मा की सतत् स्मृति है। उस चैतन्य को 'मैं' मानना समझो सारे दुःख, क्लेश, पाप से परे हो जाना है और उस चैतन्य की विस्मृति, करके देह को 'मैं' मानना मानो सारे दुःख, क्लेश और पापों को आमेंत्रित करना है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 25,26,27 अंक 210

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भगवान की विशेष कृपाएँ


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

ईश्वर की चार विशेष कृपाएँ हैं जिन्हें नास्तिक आदमी भी स्वीकार करेगा। ईश्वर की पहली कृपा है कि हमको मनुष्य शरीर दिया। 'रामायण' में आता हैः

बड़ें भाग मानुष तन पावा।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

'बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर (भारत में जन्म) देवताओं को भी दुर्लभ है।'

(रामचरित. उ.कां. 42.4)

हमारे जन्मते ही माँ के भोजन से हमारे लिए दूध बन गया। किसी वैज्ञानिक के बाप की ताकत नहीं कि रोटी सब्जी से दूध बनाके दिखाये। यह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। जब बच्चा खाने पीने के लायक नहीं होता है तो दूध बंद हो जाता है और जब दूसरा बच्चा आता है तो फिर दूध चालू हो जाता है। यह जड़ का काम नहीं है, इसमें समझदारी, शक्ति चेतन परमात्मा की है।

ईश्वर की दूसरी कृपा है हमको बुद्धि दी, शास्त्र का ज्ञान, भगवान की उपासना की पद्धति और श्रद्धा दी।

श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्व श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

"श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्री हरि संतुष्ट होते हैं।'

(नारद पुराण, पूर्व भागः 4.1)

श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। यदि मनुष्य को ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों में दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो फिर उसके लिए मुक्ति पाना सहज हो जाता है। श्रद्धा ही श्रेष्ठ धन है। श्रद्धा ऐसा अनुपम सदगुण है कि जिसके हृदय में वह रहता है, उसका चित्त श्रद्धेय के सदगुणों को पा लेता है। श्रद्धा में ऐसी शक्ति है कि वह दुःख में सुख बना देती है और सुख में सुखानंद्स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करा देती है। जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है वह भले ही बड़े पद पर है लेकिन अशांति की आग उसके चित्त को और वैरवृत्ति की आग उसके कर्मों को धूमिल कर देगी।

तीसरी कृपा है भगवान क्या है, हम क्या हैं और भगवान को कैसे प्राप्त करें, ऐसी जिज्ञासा दी। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्म-ज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

सारी कृपाओं में आखिरी कृपा है कि उसने हमें किसी जाग्रत, हयात, आत्मारामी महापुरुष तक पहुँचाया। वे संसार के सर्वोत्तम केवट हैं। जो उनकी भवतरण-नौका में सवार हो जाते हैं, वे निश्चित ही समस्त दुःखों-आपदाओं से पार हो जाते हैं।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

महापुरुषों का मिलना वह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। अगर मुझे सदगुरु लीलाशाहजी महाराज नहीं मिलते तो मैं दस जन्म तो क्या दस हजार जन्मों में भी इस ऊँचाई को नहीं छू सकता था, जो मुझे मेरे सदगुरु के सान्निध्य और कृपा से मिली। ऐसे ही एक महापुरुष हो गये है, लोग उनको मोकलपुर के बाबा बोलते थे। वे बड़े उच्चकोटि के संत थे। गंगाजी ने उनको अपने मध्य में ही रहने को जगह दे दी थी। गंगा जी की दो धाराएँ बन गयीं और बीच के टापू पर मोकलपुर के बाबा का निवास, आश्रम बना। बाद में फिर धीरे-धीरे गाँव भी बस गया।

मोकलपुर के बाबा बड़े अच्छे, आत्मारामी संत थे। उनके पास एक सज्जन आये और बोलेः "बाबा ! मुझे ईश्वर के दर्शन करा दीजिए। हमने आपके सत्संग में सुना है कि ईश्वर हमारे आत्मा हैं और ईश्वर के लिए सच्ची तड़प हो तो वे जरूर दर्शन देते हैं पर महापुरुषों की कृपा होनी चाहिए। मुझ पर कृपा करो बाबा ! मुझे दर्शन करा दो।"

"बाबा ! जब तक मुझे दर्शन नहीं होगा, मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं, अन्न नहीं खाऊँगा, जल नहीं पीऊँगा, उपवास करूँगा।" बाबा ने फिर अनसुना कर दिया। 12 घंटे हो गये, 24 घंटे हो गये, 36 घंटे हो गये, 48 घंटे हो गये।

बड़े अलबेले होते हैं महापुरुष ! सुबह को बाबा डंडा लेकर सामने खड़े हो गयेः "क्यों रे ! ईश्वर का दर्शन चाहता है, कैसा बेवकूफ है ! यह जो दिख रहा है वह क्या है !

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

मैं जल में रस हूँ, सूरज और चंदा में मैं ही प्रभा के रूप में हूँ। वृक्षों में पीपल मैं हूँ। जब सर्वत्र नहीं देख सकता तो ईश्वर विशेषरूप से जहाँ प्रकट हुआ है वहाँ तो देख।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।

"मैं सम्पूर्ण वेदों में ॐकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।"

ईश्वर ही ईश्वर तो है, और नया कौन सा ईश्वर बुलायेगा ! कैसा बेवकूफ है !" बाबा जी ने मार दिया डंडा। डंडा तो बाहर लगा पर अंदर से ईश्वर और उसके बीच की जो खाई थी वह भर गयी और वह आदमी समाधिस्थ हो गया।

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।

गुरु शिष्य की कमी को निकालने के लिए बाहर से चोट करते दिखते हैं पर अंदर अपनी कृपा का सहारा देकर रखते हैं। डंडा मारते ही बाबा ने अपना संकल्प बरसाया और शिष्य को परमात्म-विश्रान्ति मिल गयी। आप लोग ऐसी इच्छा मत करना कि बापू भी कभी हमें डंडा मारे। यह मेरी प्रक्रिया नहीं है, मेरी प्रक्रिया दूसरी है।

हमको हयात महापुरुष में दृढ़ श्रद्धा दे दी, यह ईश्वर की कृपा नहीं तो क्या है ! ऐसा सदभाव दिया कि सदगुरु ईश्वर का दर्शन करा सकते हैं। यह भाव आना ईश्वर की कृपा की पराकाष्ठा नहीं है तो क्या है ! अगर मुझमें मेरे गुरुदेव के प्रति दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, गुरुजी मुझे ईश्वर से मिला देंगे ऐसा दृढ़ विश्वास नहीं होता तो जैसे दूसरे लोग भाग गये 5 – 25 प्रतिशत फायदा लेकर, ऐसे ही मैं भी तो भाग जाता। मेरी भी कई कसौटियाँ हुई पर मैं भागा नहीं।

मैं जब मेरे गुरुदेव के श्रीचरणों में रहता था, तब एक दिन गुरुदेव ने एक सेवक को 'पंचदशी' ग्रंथ पढ़ने को दिया। वह उसके सातवें प्रकरण का पहला श्लोक पढ़ रहा था।

आत्मानं चेद्धिजानीयादयमस्मीति पुरुषः।

किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत्।।

'यदि पुरुष यह आत्मा है, मैं हूँ – इस प्रकार आत्मा को जान ले तो किस विषय की इच्छा करता हुआ और किस विषय के लिए आत्मा को तपायमान करे अर्थात् आत्मज्ञान से ही सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं।'

शरीर छूट जाने वाला है और आत्मा अमर है, इसको जानने के बाद वह पुरुष शरीर की वाहवाही अथवा शरीर के भोग के लिए क्यों अपने को पचायेगा ! यह चल रहा था और गुरुजी ने जरा सी कृपा-दृष्टि डाली और अपने घर में घर दिखला दिया। तरंग ने अपने को सागर जान लिया, घड़े के आकाश ने अपने को महाकाश के रूप में देख लिया। जीव की कल्पना हटी और ब्रह्म हो गया।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे न शेष।

धनभागी हैं वे, जो संत-दर्शन की महत्ता जानते हैं, उनके दर्शन-सत्संग का लाभ लेते हैं, उनके द्वार पर जा पाते हैं, उनकी सेवा कर पाते हैं और धन्य है यह भारतभूमि, जहाँ ऐसे आत्मारामी संत अवतरित होते रहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 210

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एक भरोसा, एक आस, एक विश्वास....


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )




सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।

जो सत् है, चित् है, जो आनन्दस्वरूप है उस पूर्ण परमात्मा का भरोसा, उसी की आस, उसी का विश्वास .....! पूर्ण की आस पूर्ण कर देगी, पूर्ण का भरोसा पूर्णता में ला देगा, पूर्ण का विश्वास पूर्णता प्रदान कर देगा। नश्वर की आस, नश्वर का भरोसा, नश्वर का विश्वास नाश करता रहता है।

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि एक भगवान का ही भरोसा, भगवान को पाने की ही आस और परम मंगलमय भगवान ही हमारे हितकारी हैं, ऐसा विश्वास हमें निर्दुःख, निश्चिंत, निर्भीक बना देता है। जगत का भरोसा, जगत की आस, जगत का विश्वास हमें जगत में उलझा देता है। भरोसा, आस और विश्वास मिटता नहीं, यह तो रहता है लेकिन जो इसे नश्वर से हटाकर शाश्वत में ला देता है वह धनभागी हो जाता है।

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु,

रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।

यह बिनती रघुबीर गुसाई।

और आस-बिस्वास-भरोसो,

हरो जीव-जड़ताई।।

नश्वर चीजों की आस, नश्वर चीजों का भरोसा, नश्वर चीजों का विश्वास यह जीवात्मा की जड़ता है। हे प्रभु ! आप शाश्वत हैं, हमारा आत्मा होकर बैठे हैं। आप पर विश्वास, आपका भरोसा और आपकी आस छोड़कर जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, संबंध, सम्पदा पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है उन्हीं की आस, विश्वास और भरोसा करना यह हमारी जड़ता है। इस जड़ता को हर लो महाराज, बस।

नश्वर चीजों की आशा है – पेंशन आयेगी फिर आराम से भजन करूँगा। हे भैया ! आराम तो अपने राम में है। सुविधाजन्य भजन तेरे को खोखला बना देगा। पेंशन का आधार, मित्र का आधार, कुटिया का आधार, वातावरण का आधार तेरे को खोखला बना देगा।

मैंने भी यह गलती की थी। गुरुजी ने आज्ञा दी की 'डीसा में जाकर रहो'। जहाँ कुटिया थी उसके आसपास में झोंपड़पट्टी थी। एक दिन भी रहने की इच्छा नहीं होती थी। कुछ दिन रहा, फिर गुरुजी को चिट्ठी लिखी कि 'कृपा करके आज्ञा प्रदान करें कि मैं नर्मदा किनारे मेरे मित्र संत की गुफा है, वहाँ स्वतन्त्रता से रहके अनुष्ठान आदि आराम से कर सकता हूँ, मैं वहाँ रहूँ ?"

गुरुजी ने उत्तर भेजा कि 'वहें रहो।' महीना-दो महीना खींचा, मन को सँभाल के फिर चिट्ठी लिखीः 'हे गुरुदेव ! आपको न कहूँगा तो किसको कहूँगा। मेरे मन में आता है कि कुटिया को और बाउण्ड्री को ताला लगाकार चाबियाँ बाउण्ड्री में फेंककर नर्मदा किनारे भाग जाऊँ। वहाँ शांति है, एकांत है और तपस्या भूमि है। यहाँ झोंपड़पट्टी के बच्चे दिन-रात चिल्लाते रहते हैं, आपस में गालियाँ बोलते और दीवालों पर भी लिखते रहते हैं।' गुरुजी ने कहाः 'गालियाँ निकालते हैं तो वे तो आकाश में चली गई, रात को कुत्ते भौंकते हैं तो ॐ ॐ बोलते हैं – ऐसी भावना क्यों नहीं करते ! बैठे रहो वहीं !'

सात साल वहाँ निकाले और गुरुदेव ने ऐसा पक्का, मजबूत बना दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इतनी भीड़, बाहर की इतनी प्रवृत्ति के अंदर भी निर्लेप नारायण की आस, भरोसा, विश्वास पर मौज ही मौज, आनन्द ही आनन्द है।

हम अपनी मान्यता की आशा रखते हैं, अपनी चीज वस्तु, बुद्धिमत्ता का भरोसा रखते हैं लेकिन ये सब बेचारे, बेचारे ही हैं। एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास परमात्मा को देखो।

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि और देवियों की पूजा करो तो खुश होती हैं लेकिन आशा देवी का भरोसा छोड़ने से आप पूर्ण सुखी हो जाते हैं।

आशा देवी की पूजा छोड़ दो, आशा देवी का भरोसा छोड़ दो, आशा का विश्वास न करो, आशाओं के दास न बनो, आशा के राम बन जाओ बस !

आशा तो एक राम की, और आस निराश।

अगर मिले तो राम मिले, और मिला तो क्या मिला ! मिलकर बिछड़ जायेगा। यह जीव की जड़ता ही है कि आशा छोड़ नहीं सकता। कहीं न कहीं विश्वास तो रखना ही पड़ता है, किसी-न-किसी पर भरोसा रखना ही पड़ता है तो रखिये भरोसा प्रकृति से परे उस परमात्मा पर।

असंगो ह्यं पुरुषः।

आप उसी की आस, उसी का भरोसा और उसी में विश्वास करते हो तो जैसी आस, जैसा भरोसा, जैसा विश्वास रखते हैं और जैसा आपका भाव होता है, वह सत्-चित्-आनंदघन परमात्मा उसी रूप में आपके आगे लीला करके आपको संतुष्ट कर सकते हैं। परंतु आप अपना आग्रह छोड़िये की 'ठाकुरजी ! आप ऐसे रूप में मिलो, वैसे रूप में मिलो......।' नहीं, आप तो प्रार्थना करो। 'महाराज ! तुम कैसे हो यह हम नहीं जानते लेकिन हम कैसे हैं तुम जानते हो। मम हृदय भवन प्रभु तोरा। मेरा हृदय तो तेरा भवन है मेरे परमेश्वर ! तू सत् है, तू चित् है, तू आनन्दस्वरूप है यह हम जानते नहीं हैं, शास्त्र और महापुरुषों के वचनों से मानते हैं।

जगत की ऐसी वस्तु मिलेगी, ऐसा निवास मिलेगा, ऐसा एकांत मिलेगा, ऐसी साधना मिलेगी तब मैं भजन करूँगा – यह मेरी आशा हर लो महाराज ! आप सर्वत्र हो, हर हाल में हो।'

स्वामी रामतीर्थ ने उस परमेश्वर की महिमा को कुछ जानते हुए गुनगुनायाः

कोई हाल मस्त, कोई माल मस्त,

कोई तूती मैना सूए में।

कोई खान मस्त, पहरान मस्त,

कोई राग रागिनी दोहे में।।

'ऐसा हाल हो तब मैं सुखी होऊँगा' – यह भ्रम निकाल दो। इतनी माल मिल्कियत होगी तब सुखी होंगे' – यह आशा भटकाती है। इन तुच्छ अवस्थाओं की आशा, विश्वास और भरोसा करके हम फँस जाते हैं। इनके बिना भी हम अपने-आप में पूर्ण सुखी रह सकते हैं।

नानक जी कहते हैं-

पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ।

नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ।।

सुखमनी साहिब

कोई अवस्था अभी नहीं है, आयेगी तब हम सुखी होंगे तो आप नश्वर की आशा करते हैं, नश्वर पर भरोसा करते हैं, नश्वर पर विश्वास करते हैं।

एक बार दरिया में जोरों का तुफान उठा। पालवाली नाव तरंगो में उछलने लगी। समुद्री तुफान को देख यात्रियों के प्राण कंठ में आ गये। अब क्या करें, किसकी आशा करें, किसका भरोसा करें, किस पर विश्वास करें ? अब गये-अब गये, रोये चीखे चिल्लाये। यात्रियों में एक दूल्हा-दुल्हन भी थे। दुल्हन देख रही थी के मेरे पति आकाश की ओर शांत भाव से देख रहे हैं।

वह बोलीः "अजी ! ऐसी आँधी चल रही है, तुफान आ रहा है। अब क्या होगा, कोई पता नहीं। सब चीख रहे हैं, हे प्रभु ! बचाओ। और आप निश्चिंत हो !"

दूल्हे ने म्यान में तलवार निकाली और उसके गले पर रख दी। दुल्हन पति के सामने देखने लगी।

पति बोलाः तुझे डर नहीं लगता ? मौत तेरे सिर पर आ गयी है।"

"मैं क्यों डरूँगी ! तलवार है तो मेरी गर्दन पर लेकिन मेरे स्वामी के हाथ में है। यह तलवार मेरा क्या बिगाड़ेगी !"

"तेरा अपने स्वामी पर भरोसा है तो तू निश्चिंत है, तो मेरा भी मेरे स्वामी पर भरोसा है इसलिए मैं निश्चिंत हूँ। मेरे स्वामी पर मेरा विश्वास है कि जो करेंगे भले के लिए करेंगे। अगर यह नाव डुबाते हैं तो नया शरीर देना चाहेंगे, उसमें भी मेरा भला है और इसी जीवन में सत्संग-साधना में आगे बढ़ाना चाहेंगे तो नाव किनारे लगायेंगे। हमारे हाथ की बात तो है नहीं कि आँधी, तूफान को रोक दें लेकिन आशा, विश्वास और भरोसा उन्हीं का है, उनको जो भी अच्छा लगेगा ये करेंगे।"

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।

एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।।

तुलसी दोहावलीः 277

जैसे चातक की नजर एक ही जगह पर होती है, ऐसे ही हे प्रभ ! हमारी दृष्टि तुम पर रख दो। भगवान पर भरोसा करोगे तो क्या शरीर बीमार नहीं होगा, बूढा नहीं होगा, मरेगा नहीं ? अरे भाई ! जब शरीर पर, परिस्थितियों पर भरोसा करोगे तो जल्दी बूढ़ा होगा, जल्दी अशांत होगा, अकाल भी मर सकता है। भगवान पर भरोसा करोगे तब भी बूढ़ा होगा, मरेगा लेकिन भरोसा जिसका है देर-सवेर उससे मिलकर मुक्त हो जाओगे और भरोसा नश्वर पर है तो बार-बार नाश होते जाओगे। ईश्वर की आशा है तो उसे पाओगे व और कोई आशा है तो वहाँ भटकोगे। पतंगे का आस-विश्वास-भरोसा दीपज्योति के मजे पर है तो उसे क्या मिलता है ? परिणाम क्या आता है ? जल मरता है ।

मत कर रे गुमान, गुलाबी रंग उड़ी जावेलो।

इस बाहर के सौंदर्य पर, बाहर के धन पर, बाहर के प्रमाणपत्रों पर आस, विश्वास, भरोसा न रख, उस अंतर्यामी परमात्मा पर आस, विश्वास भरोसा कर। तू तो तर जायेगा, तू तो 'उस' मय हो जायेगा और तेरे सम्पर्क में आने वाले भी तर जायेंगे।

एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास.... परमात्मा के ज्ञान में ही रहना और दूसरों को लगाना, आप प्रसन्न रहना और दूसरों को प्रसन्न करना – इस ईश्वरीय सिद्धान्त में रहे।

यह संसार तो ऐसा है, आप झूठ का मिथ्या आरोप का, कपट का आश्रय लेते हैं, उस पर विश्वास रखते हैं तो देर सवेर बेड़ा गर्क होता है परंतु सत्य का आश्रय लेते हैं, सत्यस्वरूप ईश्वर पर विश्वास रखते हैं, भरोसा रखते हैं तो आपकी नाव डोलेगी तो सही लेकिन डूबेगी नहीं। अगर वह डुबाकर भी पूरा वचन करना चाहता है तो आपको दिव्य जीवन देने की उसकी व्यवस्था होगी क्योंकि अपने उसका भरोसा किया है। उसकी आस, उस पर विश्वास किया है। एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास बस !

यह मत सोचो कि क्या खायेंगे, क्या होगा ? जब उसके लिए चल पड़े तो फिर क्या है !

अखण्डानंद जी चल पड़े थे, उड़िया बाबा चल पड़े थे। जहाँ किसी व्यक्ति की संभावना नहीं, वहाँ भी कोई न कोई आकर दे जाता, खिला जाता है। मार्ग भूलते हैं तो कोई रास्ता दिखा जाता है। कोई डूबने लगता है और उसी की आस, उसी का भरोसा रखकर पुकारता है तो उस जल में कौन सी ऐसी सत्ता है जो हाथ पकड़कर किनारे पर देती है ?

कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्।

उस परमात्मा की आस, भरोसा और विश्वास परम हितकारी, परम मंगलमय है। इसका मतलब यह नहीं कि अपना पुरुषार्थ छोड़ दें, चलो बैठे रहें। नहीं, पुरुषार्थ करें किंतु अपने अहं पर भरोसा करके पुरुषार्थ न करें, शाश्वत आत्मा-परमात्मा का भरोसा.... नश्वर का भरोसा, नश्वर की आस, नश्वर का विश्वास नाश की तरफ ले जाता है। शाश्वत आत्मा-परमात्मा का भरोसा, उसी को पाने की आस और उसी पर विश्वास उसी से मिला देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 2,3,4,8. अंक 210.

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3.9.10

सच्चे हितैषी हैं सदगुरू - संत रज्जबजी



इस सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी पुण्यकर्म करते हैं, वे सभी संतों का ज्ञानोपदेश सुन के ही करते हैं। अतः संसार में जो कुछ भी अच्छापन है वह सब संतों का ही उपकार है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर से परे अपने निजस्वरूप घर को प्राप्त करने का विचार गुरू बिना नहीं मिलता। गुरू बिना परमेश्वर के ध्यान की युक्ति नहीं मिलती और हृदय में ब्रह्मज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकता। जैसे पथिक पंथ बिना किसी भी देश को नहीं जा सकता, वैसे ही साधक ब्रह्मज्ञान बिना संसार दशा रूप देश से ब्रह्म स्थिति रूप प्रदेश में नहीं जा सकता। सम्पूर्ण लोकों में घूमकर देखा है तथा तीनों भुवनों को विचार द्वारा भी देखा है, उनमें साधक के ब्रह्म-आत्म विषयक संशय को नष्ट कर सके ऐसा सदगुरू बिना कोई भी नहीं।

साधन-वृक्ष का बीज सदगुरू वचन ही है। उसे साधक निज अंतःकरणरूप पृथ्वी में बोये व विचार-जल से सींचे तथा कुविचार-पशुओं से बचाने रूप यत्न द्वारा सुरक्षित रखे तो उससे मनोवांछित (परम पद की प्राप्तिरूप) फल प्राप्त होगा।

जो गुरुवचनों को प्रेमपूर्वक हृदय में धारण करता है, वह अपने जीवनकाल में सदा सम्यक् प्रकार का सुख ही पाता है। सदगुरू का शब्द प्रदान करना अनंत दान है। वह अनंत युगों के कर्मों को नष्ट कर डालता है। सदगुरू के शब्दजन्य ज्ञान से होने वाले पुण्य से अधिक अन्य कोई भी धर्म नहीं दिखता। इस संसार में गुरू के शब्दों द्वारा ही जीवों का उद्धार होता है, सम्पूर्ण विकार हटकर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है।

जैसे सूर्य ओलों को गलाकर जल में मिला देता है ,ओले होकर भी जल अपने जलरूप को नहीं त्याग सकता, वैसे ही सदगुरू जीवात्मा के अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म से मिला देते हैं, जीवात्मा में अज्ञान आने पर भी वह अपने चेतन स्वरूप का त्याग नहीं कर सकता।

गुरूदेव की दया से सुंदर ज्ञानदृष्टि प्राप्त होती है, जिसके बल से साधक प्रकटरूप से भासने वाले मायिक संसार को मिथ्यारूप से पहचानता है और जिसे कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता उस गुप्त परब्रह्म को सत्य तथा अपना निजस्वरूप समझकर पहचानता है।

गुरु गोविन्द की सेवा करने से शिष्य सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से पूर्ण हो जाता है, उसकी सब प्रकार की कमी उसके हृदय से उठ जाती है। जन्मादिक दुःख नष्ट हो जाते हैं और आशारूपी दरिद्रता भी सम्यक् प्रकार से दूर हो जाती है।

सदगुरू आकाश के समान हैं और गुरू-आज्ञा में रहने वाले शिष्य बादल के समान हैं। नभ-स्थित बादल में जैसे अपाल जल होता है, वैसे ही गुरू आज्ञा में रहने वाले शिष्यों में अपार ज्ञान होता है, उन्हें कुछ भी कमी नहीं रहती है।

जिस प्रकार वनपंक्ति के पुष्पों में शहद छिपा रहता है, वैसे ही शरीराध्यास में मन रहता है। जैसे शहद को मधु-मक्षिका निकाल लाती है, वैसे ही गुरू मन को निकाल लाते हैं। वह जो मन की छिपी हुई स्थिति है उससे भी मन को गुरू निकाल लाते हैं, अतः मैं गुरूदेव की बलिहारी जाता हूँ।

ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया किंतु शरीर के राग में बाँध दिया, इससे वह दुःखी ही रहा। फिर गुरूदेव ने ज्ञानोपदेश द्वारा राग के मूल कारण अज्ञान को नष्ट करके राग-बंधन से मुक्त किया है और परब्रह्म से मिलाया है। अतः इस संसार में गुरू के समान जीव का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है।

संत रज्जबजी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 211

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शिष्य की मनमुखता और गुरु का धैर्य



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

गुरु अपने शिष्य की सौ-सौ बातें मानते हैं, सौ-सौ नखरे और सौ-सौ बेवकूफियाँ स्वीकार करते हैं ताकि कभी-न-कभी, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में यह जीव पूर्णता को पा ले। बाकी तो गुरु को क्या लेना है ! अगर गुरु को कुछ लेना है तभी गुरु बने हैं तो वे सचमुच में सदगुरु भी नहीं हैं। सदगुरु को तो देना-ही-देना है। सारा संसार मिलकर भी सदगुरु की सहायता नहीं कर सकता है पर सदगुरु अकेले पूरे संसार की सहायता कर सकते हैं। मगर संसार उनको सदगुरु के रूप में समझे, माने, मार्गदर्शन ले तब न ! ऐसा तो है नहीं इसलिए लोग बेचारे पच रहे हैं।

सब एक दूसरे को नीचा दिखाकर, एक दूसरे का अधिकार छीनकर सुखी होने में लगे हैं। सब-के-सब दुःखी हैं, सब के सब पच रहे हैं, नहीं तो ईश्वर के तो खूब-खूब उपहार हैं – जल है, तेज है, वायु है, अन्न है, फल हैं, धरती है और इसी धरती पर ब्रह्मज्ञानी सदगुरु भी हैं तो आनंद से जी सकते हैं, मुक्तात्मा हो सकते हैं। लेकिन राग में, द्वेष में, स्वार्थ में, अधिक खाने में, अधिक विकार भोगने में, सुखी होने में, मनमुखता में लगे हैं। गुरु आज्ञा-पालन में रूचि नहीं इसलिए ज्ञान में गति नहीं, पर जो आज्ञा-पालन में रुचि रखते हैं उनको गुरु-ज्ञान नित्य नवीन रस, नित्य नवीन प्रकाश देता है, वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं। वे परम सुख में विराजते हैं, परमानंद में, परम ज्ञान में, परम तत्त्व में एकाकार रहते हैं। परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति यह बहुत ऊँची स्थिति है, मानवता के विकास की पराकाष्ठा है। स्वर्ग मिल गया तो कुछ नहीं मिला। स्वर्ग से बढ़कर तो धरती पर कुछ नहीं है। तत्त्वज्ञानी की नजर में स्वर्ग भी कुछ नहीं है। स्वर्ग के आगे पृथ्वी का राज्य कुछ नहीं है। क्लर्क का पद प्रधानमंत्री पद के आगे छोटा है, तुच्छ है। ऐसे ही प्रधानमंत्री पद स्वर्ग के इन्द्रपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है। जो सदगुरु की कृपा को सतत पचाने में लगेगा, उसको ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है। अतः अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ायें। तड़प और प्यास बढ़ने से अंतःकरण की वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तपकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। जैसे गेहूँ को भून दिया फिर वे बीज बोने के काम में नहीं आयेंगे, चने या मूँगफली को भून दिया तो फिर उसका विस्तार नहीं होगा, ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वासनाएँ भून डालो तो फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी। ईश्वर की तड़प जितनी ज्यादा है उतना ही शिष्य गुरु की आज्ञा ईमानदारी से मानेगा। गुरु की समझ और धैर्य गजब का है और शिष्य की अपनी मनमुखता भी गजब की है, फिर भी दोनों की गाड़ी चल रही है तो गुरु की करूणा और शिष्य की श्रद्धा से। गुरु अपनी करुणा हटा लें तो शिष्य गिर जायेगा अथवा तो शिष्य अपनी श्रद्धा हटा ले तो भी गिर जायेगा। गुरु की दया और शिष्य की श्रद्धा का मेल.....। नहीं तो गुरु कहाँ और शिष्य कहाँ ! गुरु सत्स्वरूप में जीते हैं और शिष्य असत् में जीता है, दोनों का मेल होना सम्भव ही नहीं है। अमावस्या की काली रात और दोपहर का सूर्य कभी मिल सकते हैं क्या ? लेकिन यहाँ मिलन है। गुरु अपनी ऊँचाइयों से थोड़ा नीचे आ जाते हैं जहाँ शिष्य है और शिष्य अपनी नीची वासना से थोड़ा ऊपर श्रद्धा के बल से चलने को तैयार हो जाता है। जहाँ गुरु हैं वहाँ पहुँचने की भावना तो बनती है बेचारे की। चलो, आज नहीं कल पहुँचेगा।

भगवान का चित्र तो काल्पनिक है, किसी ने बनाया है परंतु भगवान जहाँ अपनी महिमा में प्रकट हुए हैं, ऐसे महापुरुष तो साक्षात् हमारे पास हैं। वे महापुरुष पूजने व उपासना करने योग्य हैं। 'मुण्डकोपनिषद' में आता है कि 'जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए वह भी ज्ञानवान का पूजन करे और मरने के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी ज्ञानवान की पूजा करे।'

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।

'वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।'

(मुण्डकोपनिषद् 3.1.10)

वे ज्ञानी अपने शिष्य या भक्त के लिए मन से जिस-जिस लोक की भावना करके संकल्प कर देते हैं, उनका शिष्य उसी-उसी लोक में जाता है। तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः। अपनी कामना पूर्ण करने के लिए आत्मज्ञानी महापुरुष का पूजन-अर्चन करें, उपासना करें। हम तो कहते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुष का पूजन-अर्चन करो यह तो ठीक लेकिन आप ही आत्मज्ञानी हो जाओ मेरा ध्यान उधर ज्यादा है। घुमा-फिराकर मेरा प्रयत्न उधर की ओर ही रहता है।

आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे उत्तम पद में पहुँचे होते हैं, उनकी चेतना इतनी व्यापक, इतनी ऊँचाई में व्याप्त रहती है कि चन्द्र, सूर्य और आकाशगंगाओं से पार अनेकों ब्रह्माण्ड भी उनके अंतर्गत होते हैं। साधारण आदमी को यह बात समझ में नहीं आयेगी। जो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते थे ऐसे सत्यनिष्ठ रामजी को वसिष्ठ जी ने यह बात बतायी थी। रामजी के आगे उपदेश देना कोई साधारण गुरु का काम नहीं है और राम जी किसी ऐरे-गैरे को गुरु को नहीं बनाते हैं, अपने से कई गुना ऊँचे होते हैं वहीं माथा झुकता है। गुरु का स्थान कोई ऐरा-गैरा नहीं ले सकता है। कितनी भी सत्ता हो, कितनी भी चतुराई का ढोल पीटे फिर भी गुरु के लिए हृदय में जो जगह है उस जगह पर, गुरु के सिंहासन पर ऐसे किसी को भी थोड़े ही बिठाया जाता है, कोई बैठ ही नहीं सकता। हमारे जीवन में कई ऊँचे-ऊँचे साधु-संत आये परंतु सब मित्रभाव से आये, सदगुरु तो हमारे पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाह जी महाराज ही हैं। कई नेता आये, कई भक्त आये किंतु मेरे गुरुदेव के लिए मेरे हृदय में जो जगह है, उस जगह पर आज तक कोई बैठा नहीं है क्या ! अदृश्य होने वाले, हवा पीकर पेड़ पर रहने वाले योगियों से भी हमारा परिचय हुआ परंतु गुरुकृपा से जो आत्मज्ञान का सुख मिला उसके आगे बाकी सब नन्हा, बचकाना है। तो गुरु की जगह तो गुरु की है, उस जगह पर और कोई बैठ ही नहीं सकता। वह बहुत ऊँचा स्थान है। गुरु-गोविन्द दोनों एक साथ आ जायें तो क्या करोगे ?

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

उस ईश्वरस्वरूप आत्मा-ब्रह्मवेत्ता को कौन तौल सकता है ? किससे तौलोगे ? उसके समान कोई बाट हो तभी तो तौलोगे !

किसी को परेशान होना हो, अशांत होना हो तो आत्मज्ञानी गुरु के लिए फरियाद करे कि 'हमारा तो कुछ नहीं हुआ, हमको तो कोई लाभ नहीं हुआ।' निषेधात्मक विचार करेगा तो निषेध ही हो जायगा। जो उनके प्रति आदरभाव और विधेयात्मक विचार करेगा, उसकी बहुत प्रगति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,22 अंक 211

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सितारों से जहाँ कुछ और भी है......



(पूज्य बापू जी का सत्संग-गंगा से)

एक महात्मा हो गये स्वामी राम। स्वामी रामतीर्थ नहीं, दूसरे स्वामी राम। अभी उनका शरीर तो नहीं है पर देहरादून में संस्था है। देश-विदेश में उनके बहुत अनुयायी थे। स्वामी राम के गुरु बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे एकांतप्रिय थे, जिस किसी से ज्यादा बात करना या मिलना उन्हें पसंद नहीं था।

स्वामी राम ने अपनी बाल्यावस्था में लिखा है कि भुवाल नाम के एक संन्यासी थे, जो संन्यास-दीक्षा के पहले बंगाल की 'भवाल' रियासत के राजकुमार थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी के साथ दार्जिलिंग में रहते थे। उनकी पत्नी पहले से ही किसी डॉक्टर से प्रेम करती थी लेकिन शादी हो गयी इस राजकुमार से। फिर भी वह डॉक्टर उससे मिलने आता-जाता रहा। उनकी पत्नी और डॉक्टर ने मिलकर राजकुमार को साँप से विष के इंजेक्शन (सुई) लगाने शुरू कर दिये। राजकुमार समझते रहे कि यह विटामिन सी सुई लग रही है। डॉक्टर ने धीरे-धीरे वि, की मात्रा बढ़ायी और कुछ महीनों बाद विष ने अपना प्रभाव दिखाया, राजकुमार की मृत्यु हो गयी। दिखावा किया कि स्वाभाविक ढंग से मृत्यु हुई है।

राजकुमार की शव यात्रा में हजारों लोग एकत्रित हो गये। जलाने के लिए शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी नाले के किनारे श्मशानघाट में ले गये। चिता तैयार की गयी लेकिन देव की लीला तो देखो ! एकाएक उस पहाड़ी इलाके में बहुत तेज बरसात आयी, दार्जिलिंग में तो वैसे ही कभी भी बरसात आ जाय। उस पहाड़ी इलाके में बरसात भी तेज आयी। ऐसी मूसलाधार बरसात आयी कि सारे लोग भाग गये। चिता को अग्नि लगी ही थी, शव का कफन थोड़ा-बहुत जला-न जला और बरसात ने सब तहस-नहस कर दिया। बरसात के कारण पहाड़ी नाले में भयंकर बाढ़ आ गयी और वह शव उसमें बह गया।

श्मशानघाट से तीन मील दूर स्वामी राम के गुरु अपने शिष्यों के साथ एक गुफा में ठहरे थे। उन्होंने उस कफन में लिपटे तथा बाँसों में बँधे शव को नाले में बहते देखा तो अपने शिष्यों को बोलेः "इस शव को ले आओ।" शव को नाले से निकालकर अर्थी की लकड़ी आदि जो बाँधी थी रस्सी-वस्सी से, वह खोली। लाश को उठाकर लाया गया। गुरुजी बोलेः "देखो, इसमें प्राण हैं, अभी यह मरा नहीं है। यह पूर्वजन्म का मेरा शिष्य है।" थोड़ा उपचार करके राजकुमार को उठाया लेकिन वे मौत की यह घटना, पूर्व का जीवन सब कुछ भूल गये थे। उनको गुरु ने पुनः दीक्षा दी और अपने साथ रख लिया। वे साधु बन गये। सात वर्ष तक साथ में रहे फिर गुरु जी बोलेः "जाओ बेटा ! देशाटन करो, विचरण करते-करते आगे बढ़ो। कहीं अटकना नहीं, अनुकूलता में रुकना नहीं और प्रतिकूलता को भी सत्य मत मानना। रोज अपना नित्य नियम और भगवद् ध्यान आदि करते रहना। समय पाते सब ठीक हो जायेगा।"

'जो आज्ञा' कहकर वे तो रवाना हुए। गुरुजी ने अपने शिष्यों से कहाः "इसकी बहन इसे पहचान लेगी और जब यह अपनी बहन से मिलेगा तब इसकी खोयी हुई स्मृति पुनः लौट आयेगी।"

राजकुमार परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते हुए अनजाने में अपनी बहन के द्वार पर जा पहुँचे। बहन ने भैया को पहचान लिया और भैया का नाम लेकर पुकारा। भैया की खोयी हुई स्मृति जागृत हो गयी, उन्होंने अपनी पूरी कहानी बतायी। बात बिजली की नाईं गाँव में फैल गयी। लोग आपस में बोलने लगे कि 'राजकुमार तो मर गये थे, हम तो श्मशान में छोड़कर आये थे !'

राजकुमार के संबंधियों ने न्यायालय की शरण ली। बाबाजी ने अपने दो शिष्यों को राजकुमार की मदद में भेज दिया। शिष्यों ने भी जब सच्चाईपूर्वक बात कही तो हजारों आदमी उनके पक्ष में हो गये और कौतूहलवश हजारों आदमी दूसरे पक्ष में भी हो गये। दार्जिलिंग के न्यायालय में इतनी भीड़ कभी नहीं हुई थी जितनी इसके निमित्त हुई। लोग उत्सुक थे कि सच्चाई क्या है ?

राजकुमार योग-साधना करते थे, अपनी स्मृति के बल से स्मरण करके न्यायालय में अपना पूरा वृत्तान्त बताया कि 'ऐसे-ऐसे साँप के जहर के इंजेक्शन मुझे देते थे। मैं समझता था कि विटामिन मिल रहा है। इस तरह से मेरी मृत्यु हुई, ऐसी शवयात्रा हुई। मूसलाधार वर्षा हुई, शव बह गया और इस तरह से गुरुजी ने मुझे बचाया।'

आखिर न्यायालय में यह सिद्ध हो गया कि राजकुमार की पत्नी ने अपने प्रेमी डॉक्टर से मिलकर उनको साँप के जहर के इंजेक्शन दिये थे तथा स्वामी जी ने उनको अपना पूर्व-साधक समझकर मदद की और शेष जिंदगी बचायी है।

राजकुमार की जीत हुई और वे पुनः अपने भवाल नामक राज्य में लौट पड़े। उनके गुरुजी की यही आज्ञा थी। वे एक साल तक रहे फिर शरीर छोड़ दिया।

इन कथाओं से यह बात सामने आती है कि तुमको जितना दिखता है, सुनाई पड़ता है उतना ही जगत नहीं है, जगत और कुछ, बहुत सारा है लेकिन यह अष्टधा प्रकृति के अंदर हैं। जब तक प्रकृति को 'मैं' मानते रहेंगे, प्रकृति के शरीर को 'मैं' मानते रहेंगे व वस्तुओं को 'मेरा' मानते रहेंगे, तब तक असली 'मैं' स्वरूप जो परमात्मा है वह छुपा रहता है और जन्म मृत्यु, जरा व्याधि की यातनाओं के कष्ट और शोक तथा राग द्वेष, तपन में जीव तपते रहते हैं। ऐसा भी कोई है जो इन सबसे परे राग-द्वेष, कष्ट, शोक को जान रहा है। जिन्होंने अपने उस चिदानंदस्वरूप को, सत्स्वरूप को 'मैं' के रूप में जान लिया वे धन्य हैं ! उनके दर्शन करने वाले भी धन्य हैं ! ब्रह्म गिआनी का दरसु1 बडभागी पाईऐ।(गुरुवाणी) 1 दर्शन.

वह लक्ष्य रखो, ऊँचा उद्देश्य, ऊँचा लक्ष्य रखो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 211

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वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य-सुरक्षा



ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक दुर्बलता को प्राप्त हुए शरीर को वर्षा ऋतु में धीरे-धीरे बल प्राप्त होने लगता है। आर्द्र (नमीयुक्त) वातावरण जठराग्नि को मंद कर देता है। शरीर में पित्त का संचय व वायु का प्रकोप हो जाता है। परिणामतः वात-पित्तजनित व अजीर्णजन्य रोगों का प्रादुर्भाव होता है। अतः इन दिनों में जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, सुपाच्य व वात-पित्तशामक आहार लेना चाहिए।

सावधानियाँ

भोजन में अदरक व नींबू का प्रयोग करें। नींबू वर्षाजन्य रोगों में बहुत लाभदायी है।

गुनगुने पानी में शहद व नींबू का रस मिलाकर सुबह खाली पेट लें। यह प्रयोग सप्ताह में 3-4 दिन करें।

प्रातःकाल में सूर्य की किरणें नाभि पर पड़ें इस प्रकार वज्रासन में बैठ के श्वास बाहर निकालकर पेट को अंदर-बाहर करते हुए 'रं' बीजमंत्र का जप करें। इससे जठराग्नि तीव्र होगी।

भोजन के बीच गुनगुना पानी पीयें।

सप्ताह में एक दिन उपवास रखें। निराहार रहें तो उत्तम, अन्यथा दिन में एक बार अल्पाहार लें।

सूखा मेवा, मिठाई, तले हुए पदार्थ, नया अनाज, आलू, सेम, अरबी, मटर, राजमा, अरहर, मक्का, नदी का पानी आदि त्याज्य हैं।

देशी आम, जामुन, पपीता, पुराने गेहूँ व चावल, तिल अथवा मूँगफली का तेल, सहजन, सूरन, परवल, पका पेठा, टिंडा, शलजम, कोमल मूली व बैंगन, भिंडी, मेथीदाना, धनिया, हींग, जीरा, लहसुन, सोंठ, अजवायन सेवन करने योग्य हैं।

श्रावण मास में पत्तेवाली हरी सब्जियाँ व दूध तथा भाद्रपद में दही व छाछ का सेवन न करें।

दिन में सोने से जठराग्नि मंद व त्रिदोष प्रकुपित हो जाते हैं। अतः दिन में न सोयें। नदी में स्नान न करें। बारिश में न भीगें। रात को छत पर अथवा खुले आँगन में न सोयें।

औषधि प्रयोगः

वर्षा ऋतु में रसायन के रूप में 100 ग्राम हरड़ चूर्ण में 10-15 ग्राम सेंधा नमक मिला के रख लें। दो ढाई ग्राम रोज सुबह ताजे जल के साथ लेना हितकर है।

हरड़ चूर्ण में दो गुना पुराना गुड़ मिलाकर चने के दाने के बराबर गोलियाँ बना लें। 2-2 गोलियाँ दिन में 1-2 बार चूसें। यह प्रयोग वर्षाजन्य सभी तकलीफों में लाभदायी है।

वर्षाजन्य सर्दी, खाँसी, जुकाम, ज्वर आदि में अदरक व तुलसी के रस में शहद मिलाकर लेने से व उपवास रखने से आराम मिलता है। एंटीबायोटिक्स लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 30, अंक 211

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आरम्भ सँवारा तो सँवरता है जीवन



जीवन का आरम्भिक समय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जीवन का पतन और उत्थान बाल्यावस्था के संस्कारों पर ही निर्भर है। बाल्यावस्था व युवावस्था से ही जो व्यक्ति सदगुणों का संग्राहक है, दयालु है, उदार है, कष्टसहिष्णु है, कर्तव्यपरायण तथा प्रेमी है, आगे चलकर वही समाज में एक अच्छा मानव हो सकता है। युवावस्था में ही जो नशीले पदार्थों का व्यसनी हो जाता है तथा जिसमें क्रोध, अभिमान, इन्द्रिय-लोलुपता की प्रधानता है एवं जो काम, क्रोध और रसना के स्वाद के वेग को नहीं रोक पाता, वही आगे चलकर समाज में मानवता को कलंकित करता है। सौभाग्यशाली युवक उसी को समझना चाहिए जो अपने जीवन में आरम्भ से ही सज्जन एवं साधु-महात्माओं के सुसंग से दैवी सम्पत्ति को बढ़ाता है और कुसंग से बचता है।

अपने कर्तव्यकर्मों में सावधान रहना, प्रसन्न रहना, उन्हें विधि के साथ पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प लेना – यह सब सफलता का शुभ मुहूर्त है। इसके विपरीत अपने कर्तव्य में आरम्भ से आलस्य करना, खिन्न उदास रहकर बिना मन के कार्य आरम्भ करना – ये सफलता के पथ में अशुभ संकेत हैं, अपशकुन हैं।

सभी का यह अनुभव है कि जिस दिन प्रातः उठने में आलस्यवश देरी हो जाती है, उस दिन शौच, स्नान आदि नित्यकर्म समयानुसार नहीं होते, उस दिन सभी कार्यों में गड़बड़ी, अस्त-व्यस्तता रहती है और जिस दिन समय पर उठने में एवं नित्यनियम पूर्ण करने में आलस्य नहीं रहता, उस दिन सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से पूरे होते हैं। वह दिन हँसता हुआ सा प्रतीत होता है।

जिसका आरम्भ सुन्दर, धर्म, नीति और मर्यादा से सुसंबद्ध होकर विधिवत चलता है, उसका भविष्य भला क्यों न सुंदर, पवित्र, सुखमय और मंगलमय होगा ? अवश्य होगा !

जिन व्यक्तियों के हृदय में आरम्भ से केवल शरीर की सुंदरता का तथा शरीर को सुंदर बनाने के लिए वस्त्राभूषणों का और वस्त्राभूषणों के लिए धन का महत्त्व प्रतीत होता है, वे जीवन को सुंदर नहीं बना पाते। ऐसे लोग वस्तुओं एवं व्यक्तियों की दासत में बँधे रहते हैं। यदि बाल्यावस्था एवं युवावस्था के आरम्भ में आलस्य, विलासित, दुर्व्यसन अथवा भोग-कामनाओं को स्थान मिल जाता है, तब उस जीवन का मध्य और अंत भी प्रायः अशुभ एवं असुंदर ही सिद्ध होता है।

मनुष्य का भविष्य प्रकाशपूर्ण होगा या अंधकारपूर्ण, इसका परिचय आरम्भ की गतिविधियों से ही मिल जाता है। आरम्भ में साथ लगा हुआ थोड़ा सा दोष, थोड़ा सा कोई दुर्व्यन, थोड़ी सी चोरी की आदत, थोड़ा झूठ बोलने का स्वभाव, थोड़ी सी कुटेव अथवा कोई भी अनुचित कुचेष्टा आगे चलकर थोड़ी न रह जायेगी। वह उसी प्रकार अपना बड़ा आकार धारण करेगी, जिस प्रकार आरम्भ में थोड़ी सी अग्नि की चिनगारी ईंधन का संयोग पाकर भयानक रूप धारण करती है।

यह समझने की बात है कि आरम्भ में जो कुछ थोड़ा दिखता है, वह आगे कभी थोड़ा नहीं रह जाता। वह चाहे थोड़ा सा दोष हो या साथ चलने वाली कोई थोड़ी सी भूल हो अथवा कोई थोड़ा गुण हो या सुंदर भाव अथवा सदविचार हो या दुर्विचार।

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए की सावधान होकर जो कुछ भी अशुभ, असुंदर, अपवित्र, अनावश्यक एवं अहितकर हो, उसे थोड़े से ही त्याग कर दे। जो थोड़े का त्याग नहीं कर सकता, वह अधिक का त्याग किस प्रकार करेगा ! अतः अधिक होने पर जिसका त्याग अति कष्टकर है उसका थोड़े से ही त्याग करना सुगम है।

जो प्रत्येक कार्य के आरम्भ में आवश्यक एवं हितकर का स्वीकार करना और अहितकर का त्याग करना जानता है, उसी का जीवन आगे चलकर सुंदर और पुण्यशाली होता है।

वैसे तो बाल्यावस्था और युवावस्था का आरम्भ अपने संरक्षकों अर्थात् माता-पिता, भाई, गुरुजनों के अधिकार में रहता है, फिर भी कुछ सयाने बालक अथवा युवक आरम्भ से ही अच्छी बुद्धि से युक्त होते हैं कि जिन्हें स्वयं ही अशुभ, असुंदर, अपवित्र बातों से घृणा होती है और शुभ, सुंदर, पवित्र बातों में अनायास ही प्रीति होती है।

माता-पिता, बड़े भ्राता तथा गुरु का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान का आरम्भ से ही किसी प्रकार की अशुद्ध, असुंदर, अपवित्र बातों से संसर्ग न होने दें। बालकों के हृदय एवं मस्तिष्क में आरम्भ से विद्याध्ययन तथा बड़ों के प्रति शिष्टाचार, सदाचार, धर्म एवं ईश्वर का महत्त्व भरना चाहिए।

आरम्भ को सुंदर बनाना, कुसंग तथा कुसंस्कार से दूषित न होने देना, शुभ कर्मों में ही शक्ति का सदुपयोग करना, धर्मतत्त्व, ईश्वरतत्त्व को जानने की अभिलाषा को प्रबल बनाना – ये सौभाग्यवानों में ही देख जाते हैं।

मनुष्य की जीवनगति प्रकाश की ओर है या अंधकार की ओर – इसका ज्ञान दूरदर्शी एवं बुद्धिमान को आरम्भ के दर्शन से ही हो जाता है।

किसी प्रकार के आरम्भ को आलस्य और प्रमाद से बचाकर सुंदर संग से विधिवत् सँभालना ही भविष्य को सुंदर बनाना है।

प्रातःकाल नींद खुलते ही आरम्भ में ही उस परमात्मा का स्मरण कर लो, जिसकी सत्ता से तुम जी रहे हो और सब प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति का रस ले रहे हो।

दिन में कार्य आरम्भ करने की विधि को, उसकी मर्यादित गति को और दिन भर के कार्यक्रम को समझ लो। स्मरण न रहे तो आरम्भ में ही सब कार्य लिख लो।

किसी से मिलो तो आरम्भ में सरल भाव से, प्रसन्नचित्त से, गम्भीरतापूर्वक, सुंदर शब्दों में बात करो अधिक बनावटीपन न आने दो और भद्दापन भी मिश्रित न होने दो। किसी से प्रीति का संबंध जोड़ो तो आरम्भ में ही अपनी चाह, अपना स्वभाव या त्रुटि उसके सामने रख दो, उसे आरम्भ में ही तैयार कर लो कि वह तुमसे यदि प्रेम करता है तो तुम्हारी त्रुटियों के साथ, भूलों के साथ, दोषों के साथ किस प्रकार निर्वाह करना होगा। उसे धोखा न दो ताकि विश्वासघात न हो।

जो कार्य आरम्भ करो, प्रारम्भ में ही उसकी पूर्ति के साधन जुटा लो, जो कुछ प्रतिकूलताएँ आ सकती हों, उनका सामना करने के लिए, अपने को सावधान करने के लिए जिन-जिन बातों की आवश्यकता पड़ती हो, उनको साथ लिये रहो। इससे साधन के सिद्ध होने में चूक नहीं होगी। यह तो हुई व्यवहार-जगत की बात, साधना-जगत में तो इससे भी अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 211

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गुरू आज्ञा सम पथ्य नहीं

(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

उज्जयिनी (वर्तमान में उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते थे।

एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः "देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।" शिष्यों ने कहाः "गुरूजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !"

गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः "भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।" राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।

गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः "जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।" चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये। भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न होंठ फड़के।

गुरू जी ने चेलों से कहाः "देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।"

शिष्य बोलेः "गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।"

थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः "अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।"

शिष्यों ने कहाः "गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।"

गोरखनाथजी ने कहाः "अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।"

भर्तृहरिः "जो आज्ञा गुरूदेव !"

भर्तृहरि चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप... मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन..... यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।

गोरखनाथ जी बोलेः "देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।"

अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो !

'मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।' – कूदकर दूर हट गये।

गुरु जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।' गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।

शिष्य बोलेः "गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।"

गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः "जरा छाया का उपयोग कर लो।"

भर्तृहरिः "नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।"

गोरखनाथ जी ने सोचा, 'अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।' थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने 'आह' तक नहीं की।

तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी।

तैसा मानु तैसा अभिमानु।

हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।

1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक

भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, 'यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है'।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ?

उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोलेः "शाबाश भर्तृहरि ! वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।"

भर्तृहरिः "गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।"

भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'

"गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।"

"नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।"

इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः "गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।"

गोरखनाथजी और खुश हुए कि 'हद हो गयी ! कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।'

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।

'जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।'

(गीताः 12.16)

'कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।'

अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।

कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।

एक बार नैनीताल में मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहाः "जाओ, इन लोगों को 'चाइना पीक' (वर्तमान नाम – नैना पीक, यह हिमालय पर्वत का एक प्रसिद्ध शिखर है) दिखा के आओ।"

चलने वाले आनाकानी कर रहे थे, बार-बार इनकार कर रहे थे। हम हाथा-जोड़ी करके उनको 'चाइना पीक' ले गये। वहाँ मौसम साफ हो गया। सूर्य उदय नहीं हुआ था हम लोग तब चले थे पैदल और शाम को सूर्य ढल गया तब आश्रम में पहुँचे।

गुरुजी ने पूछाः "ऐसा खराब मौसम था, ओले पड़ रहे थे, कैसे पहुँचे ?"

हमारे साथ जो लोग गये थे, वे बोलेः "आसाराम ने कहा कि 'बापूजी ने आज्ञा दी है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा, आप चलो।' हम नहीं जाना चाहते थे तो हमको हाथा-जोड़ी करे, कभी हमको समझाये, कभी सत्संग सुनाये। कैसे भी करके दो बजे हमको 'चाइना पीक' पहुँचा दिया, जहाँ कोई सैलानी नहीं थे, सब वापस भाग गये थे।"

गुरुजी खुश हुए, बोलेः "पीऊऽऽऽ ! जो गुरु की आज्ञा मानता है, प्रकृति उसकी आज्ञा मानेगी।" हमको तो वरदान मिल गया !

सर्प विषैले प्यार से वश में बाबा तेरे आगे।

बादल भी बरसात से पहले तेरी ही आज्ञा माँगें।।

हमने गुरु की आज्ञा मानी तो हमारी तो हजारों लोग आज्ञा मानते हैं। गुरु की आज्ञा मानने से मुझे तो बहुत फायदा हुआ। गुरु की आज्ञा मानने में जो दृढ़ रहता है, बस उसने तो काम कर लिया अपना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 11, 12, 13 अंक 211

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गुरु की आवश्यकता क्यों ?

बात दो टूक, पर है सच्ची !

-स्वामी श्रीअखंडानंदजी सरस्वती

गुरु की आवश्यकता क्यों ?

यूँ तो प्रत्येक ज्ञान में गुरु की अनिवार्य उपयोगिता है परंतु ब्रह्मज्ञान के लिए तो दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। गुरु के बिना उपासना-मार्ग के रहस्य मालूम नहीं होते और न उसकी अड़चनें दूर होती है। जो उपासना करना चाहता है, वह गुरु के बिना एक पग भी नहीं बढ़ सकता। गुरु के संतोष में ही शिष्य की पूर्णता है। एक दृष्टांत कहता हूँ – मेरे बचपन का एक मित्र था। हम दोनों वर्षों से मिले नहीं किंतु पत्र-व्यवहार चलता था। एक बार मैं उसके घर गया पर उसने पहचाना नहीं। मैंने अपना नाम नहीं बताया और उसके साथ खुला व्यवहार करने लगा। वह तो हैरान हो गया। इतने में किसी ने मेरा नाम ले दिया तो आकर गले से लिपट गया। अब देखो कि मैं उसके सामने प्रत्यक्ष था परंतु नेत्रों के सामने होना एक बात है और पहचानना दूसरी वस्तु है।

हमारा आत्मा जो ब्रह्म है, हमसे कहीं दूर नहीं है। सदा सोते-जागते, उठते-बैठते अपने साथ है। यह नित्य प्राप्त है। इसमें वियोग की सम्भावना नहीं है। परंतु ऐसे नित्य प्राप्त आत्मा को हम पहचान नहीं रहे हैं। यदि इसमें स्थित होने से इसकी पहचान होती तो सुषुप्ति में, समाधि में हो जाती। पास रहते हम इसे पहचान नहीं रहे हैं तो बताने वाले की आवश्यकता है। जब तक कोई बतायेगा नहीं कि 'वह ब्रह्म तो तू ही है' तब तक उसका ज्ञान नहीं होगा।

उस ब्रह्म को आत्मरूप से जानने के लिए साधन-सम्पन्न जिज्ञासु हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु की शरण में जाय।

सदगुरु प्राप्त हो जायें तब क्या करें ?

तब उनकी विनय से सेवा करें और उसके प्रति प्रेम करें। उनमें दोष बुद्धि न करें और उनके महत्त्व को हृदयंगम करके उनसे ही अपने कल्याण की आशा करें। इस प्रकार सेवा और भक्ति से सदगुरु को अपने अनुकूल बनायें।

जब तक हम सदगुरु को भगवान के रूप में नहीं देख पाते, उनसे प्रवाहित होने वाले भगवदज्ञान को स्वीकार नहीं करते और उनकी प्रत्येक क्रिया हमें लीला के रूप में नहीं मालूम होने लगती, तब तक गुरुकरण नहीं हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। सदगुरु मानने के पश्चात उन्हें भगवान से नीचे कुछ भी समझना पतन का हेतु है। इस भगवदस्वरूप में वे ही एक हैं, जगत के और जितने भी गुरु हैं वे मेरे गुरु के लीलाविग्रह हैं। सर्वत्र उन्हीं का ज्ञान और उन्हीं का अनुग्रह प्रकट हो रहा है।

मंत्रदान के पश्चात गुरु की मनुष्यरूप में प्रतीती होना, यह तो शिष्य की कल्पना है। वास्तव में गुरु परमात्मा ही हैं। इन गुरु की शरण और इनके करकमलों की छत्रछाया पाकर शष्य धन्य-धन्य हो जाता है।

सदगुरु के प्रति शिष्य के हृदय में जितनी श्रद्धा, प्रेम और उनके महत्त्व का ज्ञान होता है, उसी के अनुसार उनसे शिष्य का व्यवहार होता है। जिह्वा पर 'गुरू' शब्द के आते ही शिष्य गदगद हो जाता है। गुरु का स्मरण कराने वाली वस्तु को देखकर लोट-पोट होने लगता है। गुरू सबसे श्रेष्ठ हैं, गुरु साक्षात् भगवान हैं, गुरु की पूजा ही भगवत्पूजा है। गुरु, गुरुमंत्र और इष्टदेवता ये तीन नहीं एक हैं। शिष्य अधिकारहीन होने पर भी यदि सदगुरू की शरण में पहुँच जाय तो वे उसे अधिकारी बना लेते हैं। पारस तो लोहे को ही सोना बनाता है अन्य धातु को नहीं, पर सदगुरू अधिकारहीन को भी अधिकारी बनाकर परम पद दे देते हैं।

जिस शरीर से सदगुरु की प्राप्ति हुई है, उस शरीर के प्रति अपनी कृतज्ञता कैसे प्रकट की जाय ?

उस शरीर को परमात्मा की, सदगुरु की सेवा में लगा दिया जाय – यही कृतज्ञता है। सेवा क्या है ? पाँव दबाने का नाम सेवा नही है, न पानी भरने का, उनके विचार में अपना विचार, उनके संकल्प में अपना संकल्प, उनकी पसंदगी में अपनी पसंदगी मिला देने का नाम सेवा है, यह सच्ची सेवा है। सेवा अपने मन की पसंद नहीं है, जिसकी सेवा की जाती है उसकी पसंद है। सदगुरु के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर देना ही कृतज्ञता है और यही भगवान की भी सेवा है।

गुरू और इष्ट एक ही हैं – यह बुद्धि कैसे हो ?

आत्मा और परमात्मा एकी है, ज्यों-ज्यों इस बुद्धि के निकट पहुँचते जायेंगे त्यों-त्यों गुरू और परमात्मा की एकता समझ में आती जायेगी। ईमानदारी से देखो कि आप कितनी गहराई के साथ शालग्राम की शिला को परमात्मा समझते हो। जयपुर से या वृंदावन से गढ़ी हुई जो मूर्तियाँ निकलती हैं, उनको आप कितनी ईमानदारी, कितनी गहराई से साक्षात् भगवान समझते हैं। जब हम अपने आत्मा को सच्चाई और ईमानदारी से हड्डी, मांस के शरीर से अलग, क्रिया-प्रक्रिया से अलग, इच्छाओं एवं भिन्न-भिन्न विचारों से अलग और जाग्रत, स्वप्न, सुषप्ति से भी अलग जितनी सूक्ष्मता से समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में गुरु को समझेंगे। और जितनी सूक्ष्मता में अपने को और गुरु को समझेंगे, उतनी ही सूक्ष्मता में परमात्मा को समझेंगे।

संत ज्ञानेश्वरजी ने 'ज्ञानेश्वरी गीता' में आचार्योपासना की व्याख्या में कहा है- "आचार्य के 'उप' माने पास आसन लगाना। जहाँ तुम्हारे गुरु बैठते हैं वहाँ तुम बैठो। तुम्हारे गुरू ईश्वर से एकता का अनुभव करते हैं तो तुम भी वैसा ही अनुभव करो। जितनी गहराई में तुम्हारे गुरू बैठते हैं, उतनी ही गहराई में तुम भी अपना आसन लगाओ।"

बाहर जाकर ईश्वर के पास नहीं बैठा जाता है, बाहर से लौटकर भीतर, हृदय के भी हृदय में, अंतर्देश के भी अंतर्देश में, अपने-आपमें जब हम बैठते हैं, उतने ही हम गुरु के पास बैठते हैं। असल में गुरू और ईश्वर दो अलग-अलग अपने स्वार्थ के कारण ही मालूम पड़ते हैं। बात जरा दो टूक है, पर है सच्ची !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 4, 5, 8 अंक 211

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।।गूरूपूर्णिमा।।



गुरुदेव कह रहे हैं- "हे जीव ! हे वत्स ! अब तू तेरे निज शिव-स्वभाव की ओर जा। अब तू प्रगति कर। ऊपर उठ। कब तक प्रकृति, जन्म-मृत्यु और दुःखों की गुलामी करता रहेगा !

गुरुपूर्णिमा का यह उत्सव उत्थान के लिए आयोजित किया गया है। तू विलम्ब किये बिना इस उत्सव में आकर अत्यन्त आनंदपूर्वक भाग ले। आ जा.... आ जा.... तू तेरे अपने सिंहासन पर आकर बैठ जा। साधक कोई डरपोक सियार या गरीब बकरी नहीं है, साधक तो सिंह है सिंह ! आध्यात्मिक सत्संग में उमंगपूर्वक आने वाले साधक के लिए तो गुरु का हृदय ही सिंहासन है। उस सिंहासन पर तू आरूढ़ हो। तू अपनी महिमा में आ जा। तू आ जा अपने आत्मस्वभाव में....

वत्स ! तू तेरे उत्कृष्ट जीवन में ऊपर उठता जा। प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा। दृढ़ निश्चय कर कि अब अपना जीवन दिव्यता की तरफ लाऊँगा।"

दया के सागर, कृपासिंधु वेदव्यासजी को हम नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को हम व्यास कहते हैं। उन्होंने मानव-जाति का परम हित करने के लिए ऐश-आराम, ऐन्द्रिक आकर्षण का, सबका त्याग करके जीवनदाता के साथ एकत्व साधा और जीवन के सभी पहलुओं को देख लिया। उन्होंने जीवन का उज्जवल पक्ष भी देखा और अंधकारमय पक्ष भी देखा। आसुरी भावों को भी देखा, सात्त्विक भावों को भी देखा और इन दोनों भावों को सत्ता देने वाले भावातीत, गुणातीत तत्त्व का भी साक्षात्कार किया। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों से लाभ लेने का पर्व, उनके और निकट जाने का पर्व है गुरूपूर्णिमा।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं किंतु गुरूपूर्णिमा का पर्व हमारे उत्कर्ष के लिए मनाता है।

गुरूदेव कहते हैं- "हे बंधु ! हे साधक ! तू कब तक संसार के गंदे खेलों को खेलता रहेगा ! कब तक इन्द्रियों की गुलामी करता रहेगा ! कब तक तू इस संसार का बोझ वहन करता रहेगा ! कब तक अपने अनमोल जीवन को मेरे तेरे के कचरे में नष्ट करता रहेगा ! जाग... जाग.... जाग... अब तो जाग.... अहंकार को लगा दे आग और निजस्वरूप में जाग... लगा दे विषय-विकारों को आग और निजस्वरूप में जाग ! लगा दे जीवत्व को आग और शिवस्वरूप में जाग !

तू अभी जहाँ है वहीं से प्रगति कर। उठ, ऊपर उठ। जैसे वायुयान पृथ्वी को छोड़कर गगन में विहार करता है, ऐसे ही तू मन से देहाध्यास छोड़कर ब्रह्मानंद के विराट गगन में प्रवेश करता जा। ऊपर उठता जा। विशालता की तरफ आगे बढ़ता जा।

अरे ! कब तक इन जंजीरों में जकड़ा रहेगा ! जंजीर लोहे की हो या ताँबे की या फिर भले सोने की हो परंतु जंजीर तो जंजीर है। स्वतन्त्रता से वंचित रखने वाली पराधीनता की बेड़ी ही है।

हे वत्स ! दीन-हीन बनकर कब तक गुलामी की जंजीरी में जकड़ता रहेगा ! गुलाम को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। कल्पनाओं की जंजीरें खींचने से न टूटती हो तो ॐ की शक्तिशाली गदा मारकर इन्हें तोड़ डाल। ॐ..... ॐ.....

अब तक जन्म-मरण के चक्कर को काट डाल। चौरासी लाख शीर्षासनों की परम्परा को तोड़ दे। तुझमें असीम बल है, असीम शक्ति है, अनंत वेग है, असीम सामर्थ्य है। ॐ... ॐ.... ऊपर उठता जा, आगे बढ़ता जा।"

गुरुतत्त्व की प्रेरक सत्ता में निमग्न होने वाले साधक, सत्शिष्य के अंदर गुरुवाणी का गुंजन होने लगा। अंदर से गुरुवाणी का प्रकाश प्रकट होने लगा और गुरु ने प्रेरणा दी कि 'हे वत्स ! तू जाग.... लगा दे अपने बंधनों को आग ! निजस्वरूप में जाग ! सब चिंताओं एवं शंकाओं को छोड़ दे। इसलिए तो तुझे यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

यह सचमुच में पावन उत्सव है, सुहावना उत्सव है, हमारे परम कल्याण का सामर्थ्य रखने वाला उत्सव है। अन्य देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद भी कोई पूजा बाकी रह जाती है, किंतु उन आत्मारामी महापुरुष की पूजा के बाद फिर कोई पूजा बाकी नहीं रहती।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।।

दुनिया भर के काम करने के बाद भी कई काम करने बाकी रहे जाते हैं। सदियों तक भी वे पूरे नहीं होते। किंतु जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा बताया गया काम उत्साह से करता है, उसके सब काम पूरे हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्वं तीर्थदातं तेन सर्व दानम्।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने एक क्षण के लिए भी ब्रह्मवेत्ताओं के अनुभव में अपने मन को लगा दिया, उसने समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सब दान दे दिये, सब यज्ञ कर लिये, सब पितरों का तर्पण कर लिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 2,5 अंक 211

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हृदयमंदिर की यात्रा कब करोगे ?



(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)

कलकत्ता में दो भाई रहते थे। दोनों के पास खूब धन-सम्पदा थी। उनके बीच इकलौता बैटा था प्राणकृष्ण सिंह। ये दोनों भाइयों की सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी थे। उनके यहाँ भी एक ही लड़का था। उसका नाम था कृष्णचंद्र सिंह। उनके दादा जी, पिता उन्हें प्यार से 'लाला' कहकर पुकारते और नौकर-चाकर 'लालाबाबू' कहते थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद लालाबाबू की वर्धमान कलेक्टरी के सेरेस्तादार पद पर नियुक्ति हो गयी। बाद में उड़ीसा के सर्वोच्च दीवान के पद पर भी उन्हें नियुक्त किया गया।

समय बीता, लालाबाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया। पिता की जमींदारी और सारी सम्पदा की देखभाल का भार इनके ऊपर आ गया। इनके दादाजी अंग्रेज शासन काल में दीवान थे और बड़ी धन-सम्पदा के मालिक थे।

लालाबाबू कलकत्ता में अपने कामकाज से समय निकाल कर शाम को गंगाजी के किनारे घूमने निकल जाते। पाँच-पचीस मुनीम, मैनेजर और खुशामदखोर साथ चलते। नौकर-चाकर आरामदायक कुर्सी लगा देते, चाँदी का हुक्का रख देते। लालाबाबू आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते और गंगाजी की लहरों का आनन्द लेते।

एक शाम को लालाबाबू गंगा किनारे बैठे थे। कोई माई अपने कुटुम्बी को जगा रही थीः "लाला ! शाम हो गयी, कब तक सोओगे, जागो। दे ह्वै गयी, दिन बीतो जाय रियो है। लालाबाबू ! देर ह्वै गयी, जागो !"

पुण्यात्मा लालाबाबू ने सोचा कि 'सच है, देर हो रही है। जिंदगी का उत्तरकाल शुरु हो रहा है, बाल सफेद हो रहे हैं, अब जागना चाहिए। समाज की चीज धन-दौलत, वाहवाही.... ये कब तक !"

घर आये और कुटुम्बियों से कहाः "अब मैं वृंदावन जाऊँगा। जीवन की साँझ हो रही है, देर हो रही है। मेरे को जागना है।"

सब छोड़-छाड़कर वृंदावन में आ गये। भिक्षुक लोग जैसे भिक्षा माँगते हैं, ऐसे अन्नक्षेत्रों से टुकड़ा माँगकर खाते और 'राधे-राधे, राधे-कृष्ण, राधे-राधे-राधे.....' का जप कीर्तन करते। देखा कि 'अब मैं टुकड़ा माँगकर खाता हूँ पर और साधु-संत भी भिक्षा माँग रहे हैं। घर पर खूब सम्पदा है, वहाँ से धन मँगाकर साधु-संतों के लिए अन्नक्षेत्र और उनके निवास के लिए कुछ आश्रम-वाश्रम बनवायें।'

रंगजी के मंदिर में दर्शन करने गये तो मन में हुआ कि 'सेठ लक्ष्मीचंद ने यह मंदिर बनवाया है, मैं खूब धन लगाकर इससे भी बढ़िया मंदिर बनवाऊँ।'

घर से कुछ सम्पदा मँगाकर लालाबाबू ने बाँके बिहारी जी का मंदिर बनवाया। अब भगवान को पाने की तड़प ने लालाबाबू की जिज्ञासा जगायी कि अगर ठाकुरजी की प्राण प्रतिष्ठा विधिपूर्वक हुई है तो मूर्ति में प्राण चलने चाहिए।

सर्दियों के दिन थे। लालाबाबू ने पूजारी को मक्खन की एक टिक्की दी और बोलेः "ठाकुर जी के सिर पर रखो। यदि प्राण चलते हैं तो शरीर में गर्मी होती है, मस्तक की गर्मी से मक्खन पिघलेगा।"

उनकी सदभावना से ठाकुरजी के सिर पर रखा हुआ मक्खन पिघलने लगा। वे बड़े भाव विभोर हो गये और जोर जोर से पुकारने लगेः "जय हो प्रभु ! जय हो !! राधे गोविन्द, राधे-राधे, राधे-गोविन्द-राधे, कृष्ण-कण्हैया लाल की जय !" दण्डवत प्रणाम करके ठाकुरजी के चरणों में गिर पड़े। जैसे तुलसीदास जी के कहने से भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी छोड़ दी और धनुष उठाया था, ऐसे ही बाँके बिहारी ने प्रार्थना सुन ली। बाँके बिहारी की मूर्ति से शरीर की गर्मी का प्रमाण मिल गया। मन में संतोष हुआ कि ठाकुर जी में प्राण प्रतिष्ठा हुई है, मूर्ति में चैतन्य जागृत हो गया है।

कुछ दिनों बाद फिर परीक्षा का विचार आया। पुजारी को पतली सी रूई दी और बोलेः "ठाकुर जी की नासिका पर रखो। अगर प्राण-प्रतिष्ठा हुई है तो शरीर में प्राण भी चलने चाहिए। देखें, ठाकुर जी श्वास लेते हैं कि नहीं।"

पुजारी ने रूई रखी तो देखते हैं कि ठाकुरजी की मूर्ति के निःश्वास से रूई हिल रही है ! लालाबाबू अहोभाव से भर गये। लेकिन कुछ समय के बाद देखा कि 'अब भी ठाकुरजी के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। मेरे सदभाव से, संकल्प से, शुद्ध पूजा से ठाकुरजी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का तो मैं एहसास करता हूँ परंतु मेरे प्राण, मन ठाकुर जी में रमण करें तब तो बात बने।'

उस समय कृष्णदासजी महाराज प्रसिद्ध थे वृंदावन में। लालाबाबू उनके पास गये और प्रार्थना कीः "महाराज ! मुझे भगवान से मिलाओ, भगवान के दर्शन कराओ, भगवान के स्वरूप का ज्ञान, भगवान की प्रीति का दान दे दो।"

कृष्णदास जी महाराज बोलेः "अभी समय नहीं हुआ है, समय होगा तो मैं तुम्हें खुद आकर दीक्षा दे दूँगा।"

लालाबाबू सोचने लगे कि 'सब कुछ छोड़कर आया हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, सदभाव से ठाकुरजी मममें प्राण-प्रतिष्ठा का एहसास भी मुझे हो गया किंतु गुरु जी मुझे बोलते हैं कि अभी समय नहीं हुआ है, मैं दीक्षा के योग्य नहीं हुआ हूँ। क्या कमी है ?'

अपनी कमी खोजने जाओ ईमानदारी से तो जल्दी मिल जायेगी। हम अपनी कमी जितनी जानते हैं उतना हमारे कुटुम्बी नहीं जानते, पड़ोसी नहीं जानते, दूसरे नहीं जानते। अपनी कमी पर चादर रखने से हमारी मति-गति और जिज्ञासा दब जाती है। अगर अपनी कमी निकालकर फेंक दें तो हमारे हृदय में परमेश्वर यूँ छलकते हुए प्रकटते हो जायें ! जैसे बोर करने से मिट्टी, कंकड़ हट जाते हैं तो पानी के झरने अंदर मिल जाते हैं और खूब नित्य नवीन जलधारा मिलती रहती है, ऐसे ही अपनी कमी निकालें तो नित्य नवीन सुख, नित्य नवीन प्रेमरस, ज्ञानरस और आरोग्य रस मिलता रहता है। लेकिन हमने वासनाओं से पर्दे से, इच्छाओं के कंकड़ और मिट्टी से उसे दबाकर रखा है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए औषधि लेनी पड़ती है, ज्ञान के लिए पोथे रटने पड़ते हैं, प्रसन्नता के लिए क्लबों में भटकना पड़ता है। जिसके जीवन में भगवदरस आ गया उसको प्रसन्नता के लिए क्लबों में नहीं जाना पड़ता, वह निगाह डाल दे तो लोगों में प्रसन्नता छा जाय।

लालाबाबू कमी खोजते गये तो पाया कि 'मेरे में कमी तो है। लक्ष्मीचंद सेठ ने रंगजी का मंदिर बनवाया और मैंने उनके प्रति प्रतिस्पर्धी भाव रखा। उनके साथ मुकद्दमेबाजी भी की। मुकद्दमे में जीत गया, मेरे में यह अहं भी है।'

जब तक अहं रहता है तब तक ठाकुरजी की प्राप्ति नहीं होती।

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा तुझसे पूछे कि बंदे ! तरी रजा क्या है ?

अभी खुदी अहंवाली है, खुदी ईश्वर में नहीं खोयी।

रंगजी के मंदिर के बाहर अन्न क्षेत्र में गरीब गुरबों को भोजन मिलता था। जहाँ सब याचक लोग कतार में खड़े रहते थे, वहाँ जाकर वे खड़े रह गये। नौकर ने सेठ लक्ष्मीचंद को बताया कि "लालाबाबू जिन्होंने रंगजी के मंदिर जैसे ही भव्य मंदिर बनवाया, साधु-संतों के लिए सदावर्त खोला, वे स्वयं भिक्षा माँगने के लिए अपने यहाँ खड़े हैं।"

सेठ लक्ष्मी चंद कच्चा सीधा, पक्की रसोई और सौ अशर्फियाँ लेकर हाजिर हो गये कि "महाराज ! स्वीकार करें।"

लालाबाबू बोलेः "यह आप मुझ भिक्षुक के लिए लाये हैं ! भिक्षुक को यह शोभा नहीं देता। आप इतना सारा सामान उठाकर लाये हैं, यह आप मेरी सम्पदा का स्वागत कर रहे हैं। इसका मैं अधिकारी नहीं हूँ। मैंने तो आपसे मुकद्दमेबाजी की थी, अब आप मुझे क्षमा कीजिए। एक भिक्षुक, तुच्छ भिक्षुक, आपके द्वार का भिखारी मानकर मुट्ठी भर अन्न दे दीजिए। मैं उसी से निर्वाह कर लूँगा।"

ये नम्रता के, अहंशून्यता के वचन सुनकर लक्ष्मीचंद सेठ के हृदय में छुपे हुए हृदयेश्वर का, परमात्म-सत्ता का भक्तिभाव छलका। आँखों में आँसू, हृदय में प्यार...

लक्ष्मीचंद बोलेः "यह क्या कह रहे हो लालाबाबू !"

लालाबाबू ने कहाः "लक्ष्मीचंद ! क्षमा करो, मैं आपका गुनहगार हूँ।"

दो और दो चार आँखें लेकिन प्रेमस्वरूप परमात्मा दोनों के द्वारा रसमय होकर छलक रहा है, द्रवीभूत हो रहा है। दोनों गले लगे और दोनों एक दूसरे के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। इतने में कृष्णदास महाराज आये और बोलेः "लालाबाबू ! आ जाओ, दीक्षा का समय हो गया है।"

कृष्णदास जी ने लालाबाबू को दीक्षा दी और कहाः "भगवान को प्राप्त करना है तो किसी से मिलो मत, जब तक ईश्वरप्राप्ति न हो तब तक इसी गुफा में रहो। भिक्षा तुम्हें हम यहीं भिजवा देंगे।"

अमीरी की तो ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, कृष्णदास की गुफा में आ बैठे।।

सातत्य.... भक्ति में सातत्य ! हम लोग थोड़ी भक्ति करते हैं, थोड़ा साधन करते हैं और बहुत सा असाधन करते हैं इसलिए ईश्वरप्राप्ति का रास्ता लम्बा हो जाता है, नहीं तो ईश्वर तो हमारा आत्मा है। जिसको हम कभी छोड़ नहीं सकते वह परमात्मा है और जिसको सदा न रख सकें उसी का नाम संसार है।

तो लालाबाबू ने अपना कल्याण कर लिया। ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में पहुँच गये और हृदय मंदिर की यात्रा की। पुत्रों और पत्नी के मोहपाश में न पड़े, प्रभुप्रेम में पावन हुए। लालाबाबू ने तो अपना काम बना लिया। अब हम इस माया से निपटकर किस दिन कल्याण के मार्ग पर चलेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21,22 अंक 211

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