1.9.10

ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?



‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ में आता है कि- ‘ हे रामजी ! फूल पत्ती और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है |’

ईश्वरप्राप्ति का गणित बहुत सरल है | लोगों ने विषय विकारों को महत्त्व देकर ,किसी ने कल्पना और व्याख्या कर करके ईश्वरप्राप्ति के मार्ग को कोई लंबा चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया | ईश्वरप्राप्ति से सुगम कुछ है ही नहीं | मैं तो यह बात मानने को तैयार हूँ कि रोटी बनाना कठिन है लेकिन ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है | अगर आता गूँधना नहीं आये तो आते में गाँठ-गांठ हो जाती है | परमात्मप्राप्ति में न ओ हाथ जलने का दर है न ही आता खराब होने का दर है वह तो सहज है|

संसार की प्राप्ति में तो अपना पुरुषार्थ चाहिए, अपना प्रारब्ध चाहिए, वातावरण चाहिए तब संसार की चीजें मिलती है और मिल्मिलकर चली जाती है |भगवान की प्राप्ति में तो केवल तीव्र इच्छा हो जाए बस, फिर तो भगवान अपने आप अंदर कृपा करतें है – यह अनुभव वशिष्ठजी महाराज का है |

‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ में आता है कि- ‘ हे रामजी ! फूल पत्ती और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है |’

उपदेश्मात्र से मान तो लेते है कि परमात्मप्राप्ति ही सार है, सुनते सुनते, विचार करते करते, जगत के थप्पड़ खाते खाते लगता है कि तत्वज्ञान के बिना, परमात्मप्राप्ति के बिना जीवन व्यर्थ है किन्तु उसमे टिक नहीं पाते कोनकी टिकने की सात्विक बुद्धि, दृढ निश्चय, सजगता और तड़प नहीं है | आहार विहार पवित्र हो, बुद्धि सात्विक हो, सजगता हो तथा परमात्मप्राप्त महापुरुषों में और उनके वचनों में महत्व्बुद्धि हो, परमात्मप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो टिकना कोई कठिन बात नहीं है | शाश्वत में महत्व्बुद्धि के आभाव से ही सहज, सुलभ परमात्मा दुर्लभ हो रहा है |नश्वर में महत्व्बुद्धि होने का फल यह दुर्भाग्य है कि सब कुछ करते कराते भी दुःख, शोक, जन्म-मरण की यातनाएं मिटती नहीं |

सुबह नींद में से उठते ही थोड़ी देर चुप बैठो और विचारों कि ‘वह कौन है जो आँखों को देखने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता देता है ?’ उसीमे शांत हो जाओ, परमात्मप्राप्ति के नज़दीक आ जाओगे | दुःख आये उससे जुडो नहीं, सुख आए उससे मिलो नहीं | सुख को बंतो और दुःख में सम रहो तो उनका जो साक्षी है उस परमात्मा में टिकने लगोगे | वह इतना निकट है कि

सो साहिब सद सदा हजूरे |

अंधा जानत ता को दूरे ||

ज्ञानचक्षु नहीं है और भागने की आदत है इसीलिए वह कठिन लग रहा है, नहीं तो ईश्वरप्राप्ति जैसा कोई सुगम कार्य नहीं है |

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति |

भ्राम्यन्सर्वभूतानि यंत्ररुढानी मायया ||

‘ शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है |’

( गीता : १८.६१ )

जैसे गाडी में बैठने वालों को गाडी की गति प्राप्त होती है, जहाज में बैठने वाला जहाज की गति से भागता है, बस में बैठनेवाला बस की गति से भागता है, कार में बैठनेवाला कार की गति से भागता है ऐसे ही यह इन्द्रियों में बैठनेवाला, मन बुद्धि में बैठनेवाला इन्ही यंत्रों में उलझ गया है | जहाँ से बैठने की सत्ता आती है उसमें बैठो तो अभी ईश्वरप्राप्ति हो जाए, जैसे अर्जुन को भगवान की कृपा से बात समझ में आ गयी |

नषटो मोह: स्म्रितिर्लब्धा | ( गीता : १८.७३ )

अगर कठिन होता तो परीक्षित रजा को सात दिन में कैसे मिल जाता ! भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू की कृपा हम पर ४० दिन कैसे बरसती और कैसे मिल जाता !

एक वर्ष तक ॐकार का जप करे, नीच कर्मों का त्याग करे और ईश्वरप्राप्ति का ऊँचा उद्देश्य बना ले तो साधारण से साधारण आदमी को भी ईश्वरप्राप्ति सहज में हो जाए | लेकिन हमारी रूचि है – यह हो जाए, वह हो जाए …..| जो हो होकर बदल रहा है वही करने की रूचि रखतें है |

मान मिल जाए, बड़े हो जाये, बापूजी जैसे हो जाएँ ऐसा कुछ नहीं चाहिए | हर फूल अपनी जगह पर खिलता है, किसीकी नक़ल नहीं करनी है और बाहर से बापूजी जैसा हो जाने से ईश्वरप्राप्ति हो जाती है इस वहां में नहीं पड़ना | जो जहाँ है ईश्वरप्राप्ति का अधिकारी है और सोचे कि ‘ बाहर से बापूजी जैसा हो जाऊं’, तो माइयों को तो दाढ़ी आएगी नहीं, तो क्या ईश्वर नहीं मिलेगा ? जिनके सर पर बाल नहीं है काया उनको ईश्वर नहीं मिलेगा ? बाहर से नक़ल नहीं करनी है, केवल उस मिले मिलाए में प्रीती चाहिए |

भगवान से प्रीती करने की, भगवन कोपाने की महत्ता समझ में आ जाए तो मन पवित्र होने लगता है | जब तक भगवन को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते है | ईश्वर को पाने में ही सार है – ऐसा नहीं जानते, तभी तक चल कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते है | यदि यह समझ में आ जाए तो सारे चल कपट काम होते चले जाएँगे, सारी शिकायतें दूर होती चली जाएंगी | जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसको गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और जो-जो सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जाएगी | उसको पताही नहीं चलेगा कि मै अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ और उसका परमात्मप्राप्ति का मार्ग लंबा होता चला जाएगा |

तो ईश्वरप्राप्ति में रूचि हो जाए | और यह रूचि कैसे हो ? बार बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर का नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीती करो | और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो | वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते है, सहाय करते है, बिलकुल करतें है | ॐ नारायण…… ॐ गोविन्द….. ॐ अच्युत…. ॐ केशव…… ॐ परमेश्वर….. ॐ सर्वसुहृदाय नमः…… ॐ अंतर्यामी….. ॐ सर्वज्ञ…… ॐ दयानिध्ये नमः….. ॐ…….ॐ………..|

[ ऋषि प्रसाद ; अंक : २०८ ; माह : अप्रैल २०१० ]

परिप्रश्नेन


प्रश्न : पूज्य बापूजी ! मैंने ‘वासुदेवः सर्वम्’ इस मंत्र को आत्मसात् करने का लक्ष्य बनाया था | भले लोगों में तो वासुदेव का दर्शन संभव लगता है परन्तु बुरे लोगों में, बुरी वस्तुओं में नहीं लगता तो इस हेतु क्या किया जाए ?

पूज्य बापूजी : गुरूजी वसुदेवस्वरूप है, श्रीकृष्ण, गाएं आदि वसुदेवस्वरूप है – इस प्रकार की भावना तो बन सकती है परन्तु जो हमारे सामने ही बदमाशी कर रहा हो उसको वासुदेव कैसे मानें ? जो बदमाशी कर रहा है, तुम्हे ठग रहा है तो सावधान तो रहो लेकिन उसमें भी वासुदेव के स्वरुप की ही भावना करो | जैसे भगवान श्रीकृष्ण मक्खनचोरी की लीला तो करते थे, तब प्रभावती नामक गोपी सावधान तो रहती थी, लेकिन श्रीकृष्ण को देखकर आनंदित भी होती थी कि ‘वासुदेव कैसी कैसी अटखेलियाँ कर रहा है !’ ऐसे ही यदि कोई क्रूर आदमी हो तो समझो कि ‘वासुदेव नृसिंह अवतार की लीला कर रहें है’ और कोई युक्ति लडा़नेवाला हो तो समझ लो कि ‘वासुदेव श्रीकृष्ण ही लीला कर रहे है |’ कोई एकदम गुस्सेबाज़ हो तो समझना, ‘वासुदेव शिव के रूप में लीला कर रहें है |’ अच्छे–बुरे सबमें वासुदेव ही लीला कर रहें है, इस प्रकार का भाव बना लो |

वास्तव में तो सब वासुदेव ही हैं, भला बुरा तो ऊपर-ऊपर से दिखता है | जैसे वास्तव में तो पानी है परन्तु बोलतें है कि गन्दी तरंगों में पानी की भावना कैसे करें ? नाली में गंगाजल की भावना कैसे करें ? अरे, नाली का वाष्पीभूत पानी फिर गंगाजल बन जाता है और वही गंगाजल नाली में आ जाता है | ऐसे ही वासुदेव अनेक रूपों में दिखतें रहतें है |

प्रश्न : पूज्य बापूजी ! हमारा लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है परन्तु व्यवहार में हम यह भूल जातें है और भटक जातें है | कृपया व्यवहार में भी अपनें लक्ष्य को याद रखनें की युक्ति बताएं |

पूज्य बापूजी : कटहल की सब्जी बनानें के लिए जब उसे हम काटतें है, तब पहले हाथ में तेल लगा लेतें है ताकि उसका दूध चिपके नहीं | नहीं तो वह हाथ से उतरता नहीं है | ऐसे ही पहले भगवद् भक्ति, भगवद्पुकार, भगवन्नामजप, भगवद्ध्यान आदि की चिकनाहट हृदय में रगडकर फिर संसार का व्यवहार करोगे तो संसार भी नहीं चिपकेगा और तुम्हारा काम भी हो जायेगा |

प्रश्न : गुरुवार ! आत्मचिंतन कैसे करें ?

पूज्य बापूजी : जो लोग आत्मचिंतन नहीं करते वे सुख दुःख में डूबकर खप जातें है लेकिन आत्मचिंतन करनें वाले साधक तो दोनों का मज़ा लेते है | आत्मचिंतन अर्थात जहाँ से अपना ‘मैं’ उठता है, जो सत् चित आनंदरूप है, जो दुःख को देखता है सुख को जानता है वह कौन है ? ऐसा चिंतन |

‘हानि और लाभ आ-आकर चले जातें है परन्तु मै कौन हूँ ? ॐ ॐ… ऐसा करके शांत हो जाओ तो भीतर से उत्तर भी आएगा और अनुभव भी होगा कि ‘मैं इनको देखनें वाला दृष्टा, साक्षी, असंग हूँ |’

‘विचार चंद्रोदय, विचारसागर, श्री योगवशिष्ठ महारामायण’ इत्यादि आत्मचिंतन के ग्रंथों का अध्ययन अथवा जिनको ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उन्होंने जो ईश्वर तथा आत्मदेव के विषय में कहा है वह आश्रम की ‘श्री नारायण स्तुति’ पुस्तक में संकलित किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते शांत हो जाओ, हो गया आत्मचिंतन !


[ ऋषि प्रसाद ; अंक:१९९ - माह:जुलाई, २००९]

गुरु ज्ञान बांटो

"जिनको गुरूजी प्यारे लागतें है उनको चाहिए की गुरूजी को , गुरूजी के ज्ञान को उनके साहित्य के माध्यम से, सत्संग की कैसेटों के माध्यम से बाँटना शुरू कर दें तो वे गुरूजी के और प्यारे बन जाएँगे, और करीब पहुँच जाएँगे"


व्यक्ति की जहाँ जहाँ और जितनी जितनी अधिक ममता व लगाव होता है, वहां वहां और उतना उतना उसे सुख दुःख महसूस होता है | भगवान् के रस्ते चलने वालों के लिए ममता का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है जो चीज खाने में व भोगने में प्यारी लगती है उसको बाँटना चालु कर दो तो ममता हटेगी | वाह वाही प्यारी लगती है तो बड़ों के चरणों में बैठो | धन प्यारा लगता है तो कुछ हिस्सा दान करो बोले : ‘ हमको तो गुरूजी प्यारे लागतें है | ‘ तो तुम गुरूजी का दान करो, गुरूजी को बाँटो तुम बोलोगे की ‘ गुरूजी का दान नहीं करेंगे ‘ अरे ! जो दान किया जाता है वाह व्यापक हो जाता है | गुरूजी के ज्ञान का, प्रसाद का दान करने से गुरूजी और व्यापक हो जाएँगे |

ब्रह्मज्ञानी महापुरषों की वाणी उनके अनुभुतियुक्त अन्तः करण की वाणी होती है, जो महापुरषों के वात्सल्यमाय ह्रदय के समान कल्याण करने वाली होती है| जैसे ’गीता’ भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी है इसकी महिमा बताते हुए भगवान् ने कहा है : गीता मे हृदयं पार्थ ‘ गीता मेरा ह्रदय है ‘ गीता मेरा ह्रदय है |’

भगवान् का ह्रदय तो सतत भक्तों के कल्याण के लिए छलकता रहता है,ऐसे ही भगवतस्वरुप सदगुरुओं की वाणी तथा साहित्य सतत श्रद्धालुओं के मोक्षमार्ग का पथप्रदर्शक तथा सुरक्षा कवच बना रहता है|

तो जिनको गुरूजी प्यारे लागतें है उनको चाहिए की गुरूजी को , गुरूजी के ज्ञान को उनके साहित्य के माध्यम से, सत्संग की कैसेटों के माध्यम से बाँटना शुरू कर दें तो व गुरूजी के और प्यारे बन जाएँगे, और करीब पहुँच जाएँगे|

हमारे गुरूजी तो ८० वर्ष तक की उम्र में गाँव गाँव, गली गली जाकर सत्संग की पुस्तकें बांटते थे | विवेकानंदजी ने रामकृष्ण पराम्हंसजी के प्रसाद को देश विदेश में बांटा | भगवान् रामजी को वशिष्ठजी ने जो सत्संग अमृत का पान कराया था, उन अमृतवचनों से बना ‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ नामक ग्रन्थ आज भी जिज्ञासु भक्तों के लिए एक अति उत्तम ग्रन्थ साबित हो रहा है मई भी अपने गुरुदेव के प्रसाद को इतने दिनों से बाँट रहा हु तो क्या हमारे गुरूजी से हमारी दूरी बाद गई ? नहीं | गुरूजी का ज्ञान, गुरूजी का अनुभव मेरा अपना अनुभव हो गया और पहले तो गुरूजी कहीं चले जाते तो लगता था गुरूजी हमसे दूर हो गए है लेकिन जब गुरूजी का प्रसाद मिला तब मालूम हुआ की हमारे गुरूजी हमसे कभी भी दूर नहीं हो सकते है|

तो गुरु के ज्ञान का प्रसाद बाँटने से, गुरु के दैवी कार्य में लगे रहने से संसार तथा संसारी वस्तुओं से ममता मिट जाती है और शिष्य के ह्रदय में प्रेमाभक्ति का प्रसाद उत्त्पन्न होकर वाह जीवन्मुक्त पद पाने का अधिकारी बन जाता है |



[ ऋषि प्रसाद; अंक – 186 , जून 2008 ]

निद्रा संतुलित हो

निद्रा से शरीर को सर्वाधिक विश्राम मिलता है | विश्राम से पुनः बल की प्राप्ति होती है | शरीर को टिकाये रखने के लिए जो स्थान आहार का है, वही निद्रा का भी है “



त्रय उप्स्ताम्भा इत्याहार: स्वप्नों ब्रह्मचर्यमिति |

‘आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य शरीर के तीन उप्स्ताम्भ है अर्थात इनके आधार पर शरीर स्थित है |’

( चरक संहिता सूत्रस्थानं : ११.३५ )

इनके युक्तिपूर्वक सेवन से शरीर स्थिर होकर बल-वर्ण से संपन्न व पुष्ट होता है |

‘निद्रा’ की महत्ता का वर्णन करते हुए चर्काचार्याजी कहते है : ‘जब कार्य करते करते मन थक जाता है एवं इन्द्रियां भी थकने के कारण अपने अपने विषयों से हट जाती है, तब मन और इन्द्रियों के विश्रामार्थ मनुष्य सो जाता है| निद्रा से शरीर को सरवधिक विश्राम मिलता है | विश्राम से पुनः बल की प्राप्ति होती है |शरीर को टिकाये रखने के लिए जो स्थान आहार का है, वही निद्रा का भी है |

निद्रा के लाभ :

सुखपूर्वक निद्रा से शरीर की पुष्टि व आरोग्य, बल एवं शुक्र धातु की वृद्धि होती है| साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ सुचारू रूप से कार्य करती है तथ व्यक्ति को पूर्ण आयु लाभ प्राप्त होता है | निद्रा उचित समय पे उचित मात्र में लेनी चाहिए | असमय तथा अधिक मात्रा में शयन करने से अथवा निद्रा का बिलकुल त्याग कर देने से आरोग्य व आयुष्य का ह्रास होता है | दिन में शयन स्वस्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है परन्तु जो व्यक्ति अधिक अध्यन, अधिक श्रम करतें हैं, धातु क्षय से क्षीण हो गए हैं, रात्री जागरण अथवा मुसाफ़री से थके हुए है वे तथा बालक, वृद्ध, कृष, दुर्बल व्यक्ति दिन में शयन कर सकतें हैं |

ग्रीष्म ऋतू में रात छोटी होने के कारण व शरीर में वायु का संचय होने के कारणदोन में थोड़ी देर शयन करना हितावह है | घी व दूध का भरपूर सेवन करने वाले, स्थूल, कफ- प्रकृतिवाले व कफजन्य व्याधियों से पीड़ित व्यक्तियों को सभी ऋतुओं में दिन की निद्रा अत्यंत हानिकारक है |

दिन में सोने से होने वाली हानियाँ :

दिन में सोने से जठराग्नि मंद हो जाती है | अन्न का ठीक से पाचन न होकर अपाचित रस ( आम ) बन जाता है, जिससे शरीर में भारीपन, शरीर टूटना, जी मचलाना, सिरदर्द, ह्रदय में भारीपन, त्वचारोग आदि लक्षण उत्पन्न होते है | तमोगुण बदनें से स्मरणशक्ति व बुद्धि का नाश होता है

अतिनिद्रा दूर करने के उपाय :

उपवास, प्राणायाम व व्यायाम करने से तथा तामसी आहार ( लहसुन, प्याज, मूली, उड़द, बासी व टेल हुए पदार्थ आदि ) का त्याग करने से अतिनिद्रा का नाश होता है |

अनिद्रा :

कारण : वात पित्त व कफ का प्रकोप, धातुक्षय, मानसिक क्षोभ, चिंता व शोक के कारण सम्यक नींद नहीं आती |

लक्षण : शरीर मसल दिया हो ऐसी पीड़ा, शरीर व सर में भारीपन, चक्कर , जम्भाइया, अनुत्साह व अजीर्ण ये वायु सम्बन्धी लक्षण अनिद्रा से उत्पन्न होते है |

अनिद्रा को दूर करने के उपाय :

सिर पैर तेल की मालिश, पैर के तलुओं में घी के मालिश, कान में नियमित तेल डालना, संवहन ( अंग दबाना ), घी, दूध, ( विशेषता: भैंस का ), दही व भात का सेवन, सुक्कर शय्या व मनोनुकूल वातावरण से अनिद्रा दूर होकर शीघ्र निद्रा आ जाती है |

सहचर सिद्ध तेल ( जो आयुर्वेदिक औषधियों की दूकान पर प्राप्त हो सकेगा ) से सिर की मालिश करने से शांत व प्रगाढ़ नींद आती है |

कुछ ख़ास बातें :

* कफ व तमोगुण की वृद्धि से नींद अधिक आती है तथा वायु व सत्वगुण की वृद्धि से नींद कम होती है|

* रात्री जागरण से वात की वृद्धि होकर शरीर रुक्ष होता है दिन में सोने से कफ की वृद्धि होकर शरीर में स्निग्धता बढ जाती है परन्तु बैठे बैठे थोड़ी सी झपकी लेना रुक्षता व स्निग्धता दोनों की नहीं बढाता व शरीर को विश्राम भी देता है |

* सोते समय पूर्व या दक्षिण की तरफ ही सिर करके सोना चाहिए|

* हाथ पैरों को सिकोड़कर, पैरों के पंजों की आंटी ( क्रास ) करके, सिर के पीछे तथा ऊपर हाथ रखकर व पेट के बल नहीं सोना चाहिए |

* सूर्यास्त के दो ढाई घंटे बाद सो जाना व सूर्योदय से दो ढाई घंटे पूर्व उठ गाना उत्तम है|

* सोने से पहले शास्त्र अध्यन करके प्रणव ( ॐ ) का गीर्घ उच्चारण करते हुए सोने से नींद भी उपासना में बदल जाती है |

निद्रा लाने का मंत्र :

“ शुद्धे शुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहा | “

इस मंत्र का जप करते हुए सोने से प्रगाढ व शांत निद्रा आती है |

[ऋषि प्रसाद; अंक – १९३ - माह जनवरी २००९ ]

तीन महत्वपूर्ण प्रश्न



आज के मनुष्य को उसकी दुष्ट इच्छाओं- वासनाओं ने इतना त्रस्त कर रखा है की वह पद-पद पर चिंताओं, परेशानियों, समस्याओं एवं दुखों–कष्टों के थपेड़े खाता रहता है | वह सच्चा जीवन जीने का ढंग ही भूल चुका है | फरियादात्मक वृतियों ने उसके विकास को अवरुद्ध कर रखा है | जीने का सच्चा ढंग तो यही है की परमेश्वर जो दे, उसीमें हम संतुष्ट रहें | जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी, ऐशो आराम के सभी साधन थे, बड़े बड़े महल थे, वे भी पूर्ण सुखी नहीं हो पाए तो आप उन परिस्थितियों–वस्तुओं की याचना क्यों करते हो जिनसे आपका जीवन भी दुखमय बन सकता है ! आज आपके पास जो है, उसीमें संतुष्ट रहना सीखो | आपको जिसकी अत्यंत आवश्यकता है, उसकी पूर्ति स्वयं भगवान करेंगे इस नियम को अपने हृदय में बिठा दो |

जो सचमुच अपने जीवन का महत्त्व समझतें है वे जिससे अपना कल्याण हो ऐसा संग करतें है, ऐसा दिव्य विचार करतें है |

राजा सुषेण को विचार आया की ‘मै जीवन का रहस्य समझने वाले किसी महात्मा की शरण में जाऊँ | पंडित लोग मेरे मन का वहम दूर नहीं कर सकते |’

राजा सुषेण गांव के बाहर ठहरे हुए एक वेदान्ती महात्मा के पास पहुंचे | उस समय महात्मा अपनी वाटिका में सेवा कर रहे थे , पेड़ पौधे लगा रहे थे |

राजा बोले : “ बाबाजी ! मैं कुछ प्रश्नों का समाधान चाहता हूँ |”

बाबजी : “ मेरे पास अभी समय नहीं है | मुझे अपनी वाटिका बनानी है |”

राजा ने सोचा कि ‘बाबाजी अभी काम कर रहे है और हम चुप चाप बैठे यह ठीक नहीं |’ राजा ने भी कुदाली फावड़ा उठाया और काम करने लगे |

इतने में ही एक आदमी भागता भागता आया और आश्रम में शरण लेने को घुसा तथा गिरकर बेहोश हो गया | महात्मा ने उसे उठाया | उसके सर पर चोट लगी थी महात्मा ने घाव पोछा तथा जो कुछ औषधि थी, लगाई | राजा भी उसकी सेवा में लग गया | वह घायल आदमी जब होश में आया तो सामने राजा को देखकर चौंक उठा : “ राजासाहब ! आप मेरी चाकरी में ! मैं क्षमा मांगता हूँ … “ ऐसा कहकर वह रोने लगा | राजा ने पूछा : “क्यों, क्या बात है ?”

“ राजन ! आप राजदरबार में बाहर एकांत में गए हैं, ऐसा जानकार मैं आपकी हत्या करने के लिए आपके पीछे पडा हुआ था | किन्तु मेरी बात खुल गई और आपके सैनिकों ने मेरा पीछा किया | मै जानबचाकर भागा और इधर पहुंचा |”

महात्मा ने राजा से कहा : “ इसे क्षमा कर दो |”

राजा ने आज्ञा शिरोधार्य की | महात्मा ने उस आदमी को दूध पिलाकर रवाना कर दिया | फिर दोनों वार्तालाप करने बैठे | राजा बोले : “ महाराज ! मेरे तीन प्रश्न है : सबसे उत्तम समय कौन सा है ? सबसे बढ़िया काम कौन सा है और सबसे बढ़िया व्यक्ति कौन सा है ? ये तीनों प्रश्न मेरे दिमाग में वर्षों से घूम रहे है | आपके सिवाय इन प्रश्नों का समाधान करने की क्षमता किसीमे नहीं है | आप आत्मज्ञानी है, आप जीवन्मुक्त है, कृपा कर इनका समाधान कीजिये |

महात्मा बोले : “ तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मैंने प्रत्यक्ष दे दिया है | फिर भी सुनो : सबसे बढ़िया एवं महत्वपूर्ण समय है – वर्तमान, जिसमे तुम जी रहे हो | इससे भी बढ़िया समय आएगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते …. नहीं | अभी जो समय है, वही बढ़िया है |

सबसे बढ़िया काम क्या है | धर्मानुकूल जो कार्य कर रहे हो, उस कार्य को इश्वर की पूजा समझकर बढ़िया से बढ़िया ढंग से करो | उस वक्त वही बढ़िया काम है | उत्तम से उत्तम व्यक्ति कौन है ? जो तुम्हारे सामने हो, प्रत्यक्ष हो, वह सबसे उत्तम व्यक्ति है |”

राजा असमंजस में पड गए | बोले : “ बाबाजी मै समझा नहीं |” तब बाबाजी ने समझाया : “ राजन ! सबसे महत्वपूर्ण समय तो है वर्तमान | आज तुमने वर्तमान समय का सदुपयोग नहीं किया होता और तुम यहाँ से तुरंत वापस चल दिए होते तो कुछ अमंगल घटना घट जाती | यहाँ जो आदमी आया था उसका भाई युद्ध में मारा गया था | उसका बदला लेने के लिए वह तुम्हारे पीछे लगा था | मै काम में लगा था और तुम भी वर्तमान समय का सदुपयोग करते हुए मेरे साथ लग गए तो वह संकट की वेला बीत गई और तुम बच गए |

सबसे बढ़िया काम क्या है ? जो सामने आ जाए वाही बढ़िया काम है | आज तुम्हारे सामने बगीचे का काम आ गया और तुम भी लग गए, वर्तमान को सँवारकर उसका सदुपयोग किया |

सेवाभाव से कार्य करने से तुम्हारा दिल और स्वस्थ्य दोनों सँवरे | तुमने पुन्य भी अर्जित किया | इसी कर्म ने तुम्हे दुर्घटना से बचाया | बढ़िया से बढ़िया व्यक्ति वही है जो प्रत्यक्ष हो | उस आदमी के लिए अपने दिल में सद॒भाव लाकर तुमने सेवा की | प्रत्यक्ष उपस्थित व्यक्ति के साथ यथायोग्य सादव्यवहार किया तो उसका हृदय भी परिवर्तित हो गया, तुम्हारे प्रति उसका वैरभाव धुल गया |

इस प्रकार तुम्हारे सामने जो आ जाए वह व्यक्ति बढ़िया है, तुम्हारे सामने शास्त्रानुकूल जो कार्य आ जाए वही उत्तम है और जो वर्तमान समय है वही बढ़िया है |”

जिस समय आप जो काम करते हो, उसमे अपनी पूरी चेतना लगाओ, दिल लगाओ | टूटे हुए, हताश दिल से काम न करो | लापरवाही, पलायनवादिता से काम करना भूल है | हर कार्य को पूजा, ईश्वर की सेवा समझकर करो|

आज होता क्या है ? हम हर कार्य को टालने की वृत्ति से करते है, अनमने होकर करते है तभी तो मन में प्रसन्नता नहीं आती | नहीं तो मन से काम करें और हृदय न खिले, तो धिक्कार है ऐसे कतॅा को !

यदि कार्य करते-करते आप ईश्वर नाम जपतें जाएँ, प्रभु सुमिरन करतें जाएँ, उसीमे एकाकार होते जाएँ तो फिर सोने पर सुहागा मानो | मन्त्र जप से कार्य में कितना लाभ होगा, यह वाणी का विषय नहीं है | इससे आपका सतत सुमिरन, चिंतन और विश्रांति आरम्भ हो जाएगी और जिस क्षण आपका सतत सुमिरन, चिंतन और विश्रांति आरम्भ हो जाएगी, उसी क्षण आपके सारे कार्य पूर्ण हो जाएंगे क्योंकि यह स्वयं भगवान का वचन है :

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यश: |

तस्यहम सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||

‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमे अनन्यचित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य निरंतर मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मै सुलभ हूँ अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |’ ( गीता :८.१४ )

हनुमानजी, जाम्बवंत और अन्य वानर युद्ध करते थे तो रामजी की आराधना समझकर | आप जिस समय जो काम करो, उसमे रम जाओ, उसमे पूर्णरूप से एकाग्र हो जाओ | काम करने का भी आनंद आएगा और परिणाम भी बढ़िया होगा | कम से कम समय लगे और अधिक से अधिक सुन्दर परिणाम मिले, ऐसा कार्य करो | ये उत्तम करता के लक्षण है |

जिस समय जो व्यक्ति सामने आ जाए उस समय वह व्यक्ति श्रेष्ठ है, ऐसा समझकर उसके साथ व्यवहार करो क्योंकि श्रेष्ठ में श्रेष्ठ परमात्मा उसमे है | स्वार्थ की जगह पर स्नेह ले आओ, सहानुभूति और सच्चाई लाओ | फिर आपका सर्वांगीर्ण विकास होगा और आपमें सत्संग का प्रसाद स्थिर होने लगेगा | यही तो है व्यवहारिक वेदांत

जब करो जो भी करो, अर्पण करो भगवान को |

सर्व कर दो समर्पण, त्यागकर अभिमान को |

मुक्ति का आनंद अनुभव, सर्वदा क्यों खो रहे हो ?

अजन्मा है अमर आत्मा, भय में जीवन खो रहे हो ||


[ऋषि प्रसाद ; अंक २०८- अप्रैल २०१० ]