10.8.11

पतितों को भी पावन कर देती है मंत्रदीक्षा




मूढ़ व्यक्ति परिस्थितियों से तृप्ति चाहता है और बुद्धिमान अपने आत्मा से तृप्त रहता है। जो ईश्वरप्राप्ति के रास्ते चलता है वह खुद भी उन्नत होता है, खुद भी मुक्त होता है और दूसरों को भी मुक्त करता है। आप भी इसी जन्म में ईश्वरप्राप्ति का पक्का इरादा करके दृढ़तापूर्वक चल पड़ो। अपनी मेहनत के बल से नहीं, भगवान की, गुरु की कृपा से भगवान सरलता से मिल जाते हैं। अपना ईमानदारी का प्रयत्न और भगवत्कृपा... अपनी तत्परता में ईश्वरकृपा मिला दो। जैसे बच्चे का हाथ पकड़कर माँ या बाप उसकी यात्रा करवा देते हैं, ऐसे भगवान और संत भी भगवत्प्राप्ति की यात्रा करवा देते हैं। मेरे गुरुजी ने मेरा हाथ पकड़कर यात्रा करवा दी, मैंने क्या मेहनत की !
तीन प्रकार के लोग होते हैं। एक, भगवान की भक्ति कर संसार की चीज चाहते हैं। दूसरे, भगवान की भक्ति से भगवान को ही चाहते हैं। तीसरे, प्रीतिपूर्वक भजन कर गुरुकृपा और भगवत्कृपा से भगवान को चाहते हैं। उन लोगों की बाजी ऐसी लगती है जैसे कोई कंगाल आदमी करोड़पति की गोद चले जाने से बिना परिश्रम किये ही करोड़पति बन जाता है। जैसे – सौराष्ट्र के हालार प्रांत में जामखम्भालिया गाँव के लोहार पंचाल जाति की एक कुप्रसिद्ध सुंदर कन्या वहाँ के सुप्रसिद्ध गुरु की गोद चली गयी और उसका जीवन बदल गया। उसका नाम लोयण था।
पहले एक राजपूत (लाखा) से उसका गलत संबंध हो गया था। एक दिन नगर में संत सैलनसी बाबा का आगमन हुआ। पनघट पर कुछ माइयाँ आपस में बात कर रही थीं कि 'जल्दी-जल्दी पानी भरो, संत के दर्शन करने जायेंगे, जल्दी करो।'
लोयण बोलीः "मैं भी चलूँगी।"
"लोयण ! तुम सत्संग में नहीं जा सकती।"
"जाना चाहूँ तो कौन रोक सकता है ?"
माइयाँ मसखरी करते हुए बोलीं- "लाखा.....! तुमको तो लाखा से पूछना पड़ेगा !"
लोयण को चोट लग गयी। वह सोचती है, 'क्या मैं इतनी नीच हूँ कि संत के सत्संग में नहीं जा सकती ! मैं घर नहीं जाऊँगी, पहले मैं उन महापुरुष के पास ही जाऊँगी।'
सिर पर पानी का मटका लिये वह पहुँची। देखा तो संतश्री अभी आ ही रहे थे। तुच्छ समझकर उसकी ऐसी-वैसी बातों की फरियाद करके लोगों ने उसे बाबा के पास जाने से रोकना चाहा।
बाबा बोलेः "नहीं, नहीं.... यह तो मेरी बेटी है... आने दो। क्यों बेटी ! पानी ले आयी है न अपने बाबा के लिए ?"
अब देखो भगवान की कैसी लीला है ! जिसको लोग तुच्छ मानते थे, जो लोगों की नजरों में हीन कन्या, कामिनी कन्या थी, उसको संत के हृदय के द्वारा बुलवाते हैं कि 'बेटी ! तू मेरे लिए पानी लाया है न ?'
लोयण बोलीः "बाबा ! सारा गाँव मुझे दुत्कारता है। मुझ पापिन के हाथ का पानी आप पियेंगे क्या ?"
"तू अपने को पापिन मत मान। तू तो मेरी बेटी लगती है, ला पानी।"
लोग दाँतों तले उँगली दबाते रह गये। बाबा ने उसका जल पी लिया और कहाः "तू सत्संग में आना। आयेगी न ?"
"हाँ बाबा ! आऊँगी।"
कभी-कभी अपराधी प्रवृत्ति के लोग और दो नम्बरी लोग वचन के ऐसे पक्के होते हैं किक एक नम्बरी देखते रह जायें।
लोयण गयी। संत सैलनसी का सत्संग सुना, उसका हृदय ग्लानि से भर गया। पश्चाताप की आग ने पुरानी वासनाओं और पापों को झकझोर दिया। उसका हृदय अब धीरे-धीरे भगवत्प्रेम से, भगवद् भक्ति से भर गया।
ग्लानि से भरी हुई लोयण सत्संग के बाद बाबा के पास जाकर आँसू बरसाते हुए कहती है कि "बाबा ! आप मुझे मंत्रदीक्षा देकर स्वीकार करेंगे ?"
बाबा ने उसको दीक्षा दी। जप, ध्यान, प्राणायाम, त्राटक आदि करने की विधि बतायी और साथ में एक तानपूरा (वीणा) देते हुए कहाः "ले इसे बजा। आज से प्रभु के गीत गाना, आनंदित रहना। दीक्षा मिली है.... जप करना, शास्त्र पढ़ती रहना, भजन गाते-गाते शांत होती जाना, भगवन्नाम जपते हुए शांत.... भगवन्नाम का ऊँचा उच्चारण करके शांत....। रात्रि को सोते समय श्वासोच्छवास को गिनना, सुबह उठते समय भगवान से, गुरु से एकाकार हो जाना। अब तू काम के कीचड़ में नहीं गिरेगी, तू रामरस में चमकेगी।"
सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। सैलनसी बाबा की आज्ञा के अनुसार लोयण ने अपनी पूरी दिनचर्या बदल ली। महाराज ! आस-पड़ोस में जो लोग उसे हीन दृष्टि से देखथे थे, नफरत करते थे, वे आदर की दृष्टि से देखने लगे, सम्मान करने लगे। अब लोयण कामिनी नहीं, लोयण वेश्या नहीं, धीरे-धीरे लोयण देवी बन गयी।
लाखा डकैती करके दो-चार महीनों के बाद गाँव में पहुँचा। लोगों ने बताया कि 'लोयण भक्ताणी बन गयी है।'
लाखा ने देखा कि लोयण की वेशभूषा बदल गई है और हाथों  तान-तम्बूरा है।
"लोयण ! तूने यह क्या कर लिया है ?"
लोयण बोलीः "वह भूतकाल हो गया लाखा ! सदा कीड़ा दलदल में रहे, कोई जरूरी नहीं है, कोई महापुरुष उसे उठाकर ऊँची जगह पर भी पहुँचा सकते हैं न !"
"लोयण ! तू यह तान-तम्बूरा छोड़ दे, नहीं तो मैं तेरा तम्बूरा उठा के फेंक दूँगा।"
"लाखा ! दुबारा मत बोलना। यह मेरे गुरुजी की प्रसादी है, कुछ का कुछ हो सकता है।"
लाखा ने लोयण को बलपूर्वक गले लगाने का प्रयास किया, तभी लोयण ने पुकार लगायीः "हे प्रभु ! बचाओ।' लाखा के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गयी और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। जब वह मूर्च्छा से जगा तो देखा कि सारे शरीर में कोढ़ फूट निकला है। घर गया, कोई दवाई करो तो कुछ काम नहीं आती। ज्यों-ज्यों इलाज किया, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया। बारह साल लाखा बिस्तर पर पड़ा रहा और लोयण बारह साल की साधना में इतनी आगे बढ़ी कि पूरे सौराष्ट्र को लोयण देवी के भजनों ने, तान-तम्बूरों ने डोलाना शुरु कर दिया। लोयण अब भोग्या नहीं, भगवान का प्रसाद बाँटने वाली देवी हो गयी। गुरुजी आये। लोयण की साधना में ऊँचाई देखकर उन्हें संतोष हुआ।
"बाबा ! मैं लाखा का भला चाहती हूँ। आप उसका भी मंगल कर सकते हो न !"
बाबा बोलेः "हाँ लोयण ! अब उसके कर्म कट गये हैं। चलो, हम चलते हैं लाखा के घर।"
लोयण बाबा के साथ लाखा के घर गयी। लाखा कोढ़ की बीमारी से रिबा रहा था, मूर्च्छित-सा पड़ा था।
लोयण ने कहाः "लाखा ! मैं लोयण आयी हूँ।"
लोयण का नाम सुनते ही मानों उसके प्राणों में नयी चेतना का संचार हो गया। उसने आँखें खोलीं। आँखों में अब वह काम-विकार नहीं था, पश्चाताप के आँसू बह रहे थे। वह हाथ जोड़कर बोलाः "लोयण ! तू मुझे  माफ कर दे। तू धरती की देवी, प्रभु का प्रेमावतार है।"
लोयण बोलीः "लाखा ! मेरे गुरुदेव आये हैं।"
लाखा ने हाथ जोड़कर बाबा को प्रणाम किया, बोलाः "बाबा ! लोयण को आपने दिव्य देवी बना दिया, अब मुझ पापी पर भी दया करो। बाबा ! लोयण को आपने जो मंत्रदीक्षा का दान दिया, वह मुझे भी दे दो। मेरे पाप का दण्ड मुझे मिल गया।"
बाबा मुस्कराये, अपना कृपादृष्टिवाला जल पिला दिया और थोड़ा-सा उसके ऊपर छाँट दिया। उसे भी भगवन्नाम की दीक्षा दे दी।
लाखा, लोयण ऐसे भक्त हो गये, ऐसे पवित्र हो गये कि उनके भजन सुनकर और उनके सम्पर्क में, सत्संग में आकर कितने तर गये उसका हिसाब मैं नहीं बता सकता। मेरे सत्संग से कितने लोगों को लाभ हुआ, मैं नहीं बता सकता हूँ, भगवान ही जानें। संत के दर्शन-सत्संग और उनसे प्राप्त मंत्रदीक्षा का कैसा दिव्य प्रभाव है !
चौरासी लाख योनियों के बंधनों में बँधा जीव 'यह मिले तो सुखी.. वह मिले तो सुखी... यह भोगूँ तो सुखी...' ऐसा सोचते-सोचते सुखी होने के चक्कर में दुःख, पीड़ा, वासना, विकार में ही मर जाता है, निर्विकार नारायण के ज्ञान और आनंद से अछूता रह जाता है।
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना, चौरासी में आना-जाना.... हाय रे हाय !
केवल सदगुरू ही तारणहार है, जो जीव को चौरासी लाख योनियों के बंधनों से मुक्त कराते हैं। सदगुरू जब शिष्य को मंत्रदीक्षा देते हैं तो उसकी सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, उसके अंदर के रहस्य खुलते हैं। नाम-कमाई कर वह भवसागर से पार हो जाता है, स्वयं सुखस्वरूप हो जाता है। फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
                                                                                -पूज्य बापू जी

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स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 12,13,14 अंक 223
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हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार....



1703 ईसवी में अलवर शहर से 8 कि.मी. के अंतर पर डेहरा गाँव में एक दिव्य आत्मा का अवतरण हुआ, नाम रखा गया – रणजीत। संसाररूपी रण को सचमुच जीतने वाला वह होनहार बालक रणजीत हीरा था। उनके चित्त में विवेक जगता कि 'खाना-पीना, रहना-सोना, मिलना-जुलना, आखिर बूढ़े होना और मर जाना.... बस, इसके लिए मनुष्य-जीवन नहीं मिला। मनुष्य जीवन किसी ऊँची अनुभूति के लिए मिला है।' अब सदगुरू तो थे नहीं उनके, फिर भी वे सुना सुनाया राम-राम रटते थे। इससे पाँच वर्ष की उम्र में उनकी ऐसी मति गति हो गयी कि मन में भगवत्प्रेम और बुद्धि में भगवत्प्रकाश छाने लगा।
एक दिन जब वे रामनाम-कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी-तपस्वी वेदव्यासनंदन शुकदेवजी ने उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया। इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। छः वर्ष की उम्र में उनकी पढ़ाई शुरू करवा दी गयी। मुल्ला-मौलवियों ने बहुत प्रयास किया लेकिन बालक रणजीत उन मुल्ला-मौलवियों और पढ़ाने वाले उस्तादों के सामने देखता रहे, कुछ पढ़े ही नहीं। उस्तादों ने खूब समझाया, बदले में उन्होंने उनको एक ही बात सुनायी-
आल जाल तू कहा पढ़ावे।
कृष्णनाम लिख क्यों न सिखावे।।
जो सबको कर्षित-आकर्षित, आनंदित करता है, सबका अंतरात्मा होकर बैठा है उस परमात्मा का नाम आप मुझे क्यों नहीं पढ़ाते ?
जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।
तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।
जो भगवान की भक्ति पढ़ा सकते हो तो मुझे बुलाना, नहीं तो यह आल-जाल मेरे को मत पढ़ाओ। जोर मारने वाले थक गये।
आठ वर्ष की उम्र में इनके पिता मुरलीधर अचानक लापता हो गये, फिर उनका पता न चल सका। माता कुंजी देवी पतिपरायण थीं। उनके चित्त को बहुत क्षोभ हुआ। ये आठ वर्ष के बालक माँ को ढाँढस बँधाते कि 'मैया ! यह सब पति-पत्नी, लेना-देना – यह संसार का खिलवाड़ है, आत्मा अमर है।' वे उस रामस्वरूप परमात्मा की भक्ति की बात करते।
पति एवं सास-ससुर के चले जाने के बाद कुंजी देवी के लिए डेहरा में रहना असहनीय हो गया। जिससे वे पति के चाचा से अनुमति लेकर बालक रणजीत के साथ दिल्ली अपने मायके चली गयी। दिल्ली जाते समय वे रास्ते में 'कोट कासिम' में बालक रणजीत के पिता की बुआ के घर पर रूके।
बालक रणजीत को देखकर बुआजी बड़ी प्रसन्न हुई और बालक के स्नेहपाश में ऐसी बँध गयीं कि कुंजी देवी को समझाकर रणजीत को अपने घर रख लिया। थोड़े दिन वहाँ रहने के बाद बालक अपनी माँ के पास दिल्ली आ गया।
यहाँ भी मुल्ला-मौलवी और फारसी तथा संस्कृत के विद्वानों को रखा गया कि बालक कुछ पढ़ ले। परंतु बालक रणजीत ने तो ऐसी विश्रांति पढ़ी थी और भगवान के नाम में ऐसे रत रहते थे कि सारी पढ़ाइयाँ जहाँ से सीखी जाती हैं, उस परम पद में अनजाने में ध्यानस्थ हो जाते थे। एक दिन रणजीत ने कहाः
हमें आज से पढ़ना नाँहीं।
जिकर न होय फिकर के माँही।।
यह सुनकर मुल्ला-मौलवी हैरत में आ गये।
सुन मुल्ला हैरत में आया।
इस लड़के पर रब की छाया।।
बहुत प्रयत्न करने के बाद आखिर मुल्ला-मौलवियों को कहना पड़ा कि "इस पर तो अल्लाह की, रब की छाया है। अल्लाह के सिवाय इसको कोई सार नहीं लगता। यह सारों के सार में संतुष्ट है। यह तो 'भगवान की पढ़ाई के बिना की और सारी पढ़ाई झूठी है, झूठी माया में फँसाने वाली है।' – ऐसी बात कहता है। हमारे दिल को भी इस बालक की बात सुनकर, इसके दीदार करके बड़ा आराम मिलता है।"
इस प्रकार 12 वर्ष की उमर हुई। ज्ञान,ध्यान और प्रभुप्रेम की प्रसादी से उनकी निर्णयशक्ति और सूझबूझ तो ऐसी निखरी कि दिखने में तो 12 वर्ष का बालक लेकिन बड़े-बड़े विद्वान उनको देखकर नतमस्तक हो जाते थे !
रणजीत की आँखों से कभी तो भगवा की बात करते-करते आँसुओं की धारा बहे, कभी वे उनके प्रेम में, प्रेम समाधि में शांत हो जायें। इस प्रकार उनकी 16 से 19 वर्ष की उम्र भगवदविरह, भगवच्चर्चा और एकांत मौन में बीती। अंदर में होता कि 'जब तक गुरु  नहीं तब तक पूर्ण गति नहीं है।' तो सदगुरु के लिए तड़प पैदा हुई कि 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे साकार रूप में सदगुरु प्राप्त होंगे ?'
ऐसी विरह अगिन तन लागी।
गई भूख अरू निद्रा भागी।।
सतगुरु कू ढूंढन ही लागे।
ढूंढे विरकत तपसी नागे।।
अब भोजन रूचे नहीं और नींद आये नहीं। कभी साधु-संतों को देखें तो उनसे मिलने जायें। 19 वर्ष की उम्र हुई। ढूँढते-ढूँढते आखिर वह पावन दिन आया। मुजफ्फरनग (उ.प्र) के पास गंगा यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीसा नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंगे उठीं की उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है।
देखते ही देखते दिल खो गया।
जिसको खोजता था उसी का हो गया।।
वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। रणजीत ने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सदगुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका पारमार्थिक नाम श्याम चरनदास रख दिया। गुरु और शिष्य के बीच दीक्षा-शिक्षा पाँच प्रहर चली। शुकदेव जी महाराज उनको विभिन्न उपासनाएँ, विभिन्न दृष्टियाँ बताते रहे। अंत में विरक्त शुकदेव जी महाराज ने कहाः "अब तुम दिल्ली में दादा जी के पास जाओ, वहीं अभ्यास करो।" संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, मेरे-तेरे के वातावरण में यह युवक एक दिन भी रहना नहीं चाहता था। अपनी भावनाओं को दबाकर सदगुरु की आज्ञा मान के वे दिल्ली के लिए चल तो दिये परंतु उनकी दशा बहुत दयनीय थी। वे गुरु के वियोग में हर क्षण रोते रहते।
एक रात ध्यान में दर्शन देकर विरक्त-शिरोमणि शुकदेवजी ने कहाः "हम तो अरण्यों में कभी कहीं, कभी कहीं विचरण करते हैं। शरीर से हम तुमको साथ में नहीं रख सकते लेकिन आत्मभाव से मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। जब तुम तीव्रता से याद करोगे तो मैं तुम्हे दर्शन देने को प्रकट हो जाऊँगा।"
कहा कि जब जब ध्यान करैहो।
ऐसे ही तुम दर्शन पैहो।।
अरू हम तुम कभू जुदे जु नाही।
तुम मों में मैं तुम्हरे मांही।।
शुकदेव जी महाराज की यह उदारता भरी आशीष पाकर रणजीत को थोड़ा संतोष हुआ। दिल्ली में एक जगह पसंद करके वहाँ गुफा बना के वे धारणा-ध्यान करने लगे और पाँच-पाँच, सात-सात प्रहर ध्यान मग्न रहने लगे।
वे एक प्रहर लोगों के बीच सत्संग की सुवास फैलाते। दिल्ली की भिन्न-भिन्न जगहों में उन्होंने अपने भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों द्वारा लोक-जागृति की। इस प्रकार कुछ वर्ष बीते और इन महापुरुष के चित्त की शांति से त्रिकाल-ज्ञान प्रकट होने लगा। वे बार-बार कहते थे कि 'मैं तो बुरे से बुरा था पर मेरे सदगुरु शुकदेवजी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
वाणी उनकी ऐसी थी किः
पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरू गार1
मात सूँ हरि सौ गुना, जिन से सौ गुरुदेव।
प्यार करें औगुन हरैं, चरनदास सुकदेव।।
1. गाली.
पिता से माता सौ गुना अधिक बच्चे को प्यार करती है। मन से उसको चाहते हुए भी उसकी भलाई के लिए बाहर से डाँटती है, ऐसे ही माता से भी दस हजार गुना अधिक प्यार देने वाले सदगुरु मन से तो स्नेह करते हैं और बाहर से डाँटते हैं। इसलिए हे साधक ! उनकी डाँट तेरा हित करेगी। कभी भी अपने सदगुरु से कतराना नहीं, गुरु तो दूर जाना नहीं। गुरु के प्रसाद को पावन अंतःकरण में ठहराये बिना रुकना नहीं।
हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा फल चार।
तौ भी नहीं बराबरी, बेदन कियो बिचार।।
भगवान की सेवा सौ वर्ष करे और जाग्रत सदगुरु की सेवा केवल चार पल करे तो भी सदगुरु-सेवा के फल की बराबरी नहीं हो सकती, ऐसा वेदों ने विचार करके कहा है।
इस प्रकार का उनका सारगर्भित उपदेश लोगों के हृदय में लोकेश्वर की प्रीति और लोकेश्वर को पाये हुए महापुरुष के ज्ञान की प्यास जगा देता था।
जैसे शुकदेव जी महाराज उस ब्रह्म-परमात्मा में एकाकार होकर निमग्न रहते थे, वैसी ही अवस्था को चरनदासजी ने पाया और चरनदास जी के कई भक्तों ने भी पाया।
गुरु की सेवा साधु जाने,
गुरु सेवा कहाँ मूढ पिछानै।
यह चरनदास महाराज की कृति है।
गुरूकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
तो चरनदासजी को भी गुरुकृपा का महाप्रसाद प्राप्त हुआ। मुझे भी गुरुकृपा का प्रसाद प्राप्त हुआ है वरना मेरी औकात नहीं थी कि अपने मन से इतनी ऊँचाइयों का अनुभव कर लूँ। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- 'हे गुरूकृपा ! हे मातेश्वरी ! तू सदैव मेरे हृदय में निवास करना।'
गुरूसेवा परमातम दरशै,
त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।
सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन अवस्थाओं से परे चौथे परमार्थ-पद का दर्शन गुरूसेवा करा देती है। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है। उनकी शिष्या सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा कि
चरनदास पर तन मन वारूँ।
गुरू न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 15, 16, 17 अंक 223
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हर घर अमृत पहुँचाओ, हर दिल दीप जगाओ !



एक बार विद्वानों की सभा में चर्चा हो रही थी कि जीवन का अमृत कहाँ है ?
एक विद्वान ने कहाः "पूछने की क्या जरूरत है, अमृत तो स्वर्ग में है।"
दूसरे ने कहाः "स्वर्ग में अमृत है तो वहाँ से पतन नहीं होना चाहिए। हम स्वर्ग में वास्तविक अमृत नहीं समझते हैं।"
तीसरे ने कहाः "अमृत चंद्रमा में है।"
चौथे ने कहाः "अगर चन्द्रमा में अमृत है तो उसका क्षय क्यों होता है ?"
किसी ने कहाः "सागर में अमृत है।"
"अगर सागर में अमृत होता तो वह खारा क्यों होता !"
बहुत देर चर्चा चली पर कोई निर्णय नहीं हो पाया। इतने में महाकवि कालिदास जी वहाँ आये। सबने कालिदासजी को प्रणाम किया और कहाः "इस समस्या का हल अब आप ही बताइये।"
उन्होंने कहाः "कंठे सुधा वसति वै भगवज्जनानाम्।
भगवान के प्यारे संतों के कंठ में, उनकी आत्मिक वाणी से ही वास्तविक अमृत होता है। स्वर्ग का अमृत तो क्षोभ से, मंथन से निकला था, वह वास्तविक अमृत नहीं है। संत के हृदय से जो परमात्म-अनुभव, आत्मानंद और ईश्वरीय शांति से ओतप्रोत अमृतवाणी का झरना फूट निकलता है, वही सच्चा अमृत है।"
हमारे जितने भी शास्त्र बने हैं, वे इसी अमृत से बने हैं इसलिए उनमें हर प्रकार के जागतिक लाभ के साथ-साथ आत्मलाभ कराने की भी शक्ति है। उन्हें शास्त्र नहीं, 'सत्शास्त्र' कहा जाता है और उनकी पूजा होती है। जीवन-निर्माण के महत्कार्य में सत्साहित्य नींव का मजबूत पत्थर है, जो भले दिखता न हो पर उसी के आधार पर सफल जीवनरूपी इमारत खड़ी हो सकती है। जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन में चलते रहते हैं और उन्हीं विचारों से हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है। अतः हमें ऐसे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए जिससे हमारी शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक – सर्वांगीण उन्नति हो।
सत्साहित्य की महत्ता को उजागर करती हुई नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन की एक घटना है। क्लंग की घाटी पर युद्ध में 100 अंग्रेजों का सामना आजाद हिन्द फौज के केवल 3 सैनिक कर रहे थे। सुभाष जी के पास समाचार भेजकर पूछा गया कि क्या सैनिक पीछे हटा लिये जायें ? वे असमंजस में पड़ गये परंतु घबराये नही। उनके जीवन में सत्शास्त्रों का बहुत प्रभाव था। जब भी कठिन परिस्थितियाँ आती थीं तो वे उनकी शरण जाते थे। उस दिन उन्होंने एक सत्साहित्य पढ़ा, जिसमें एक स्थान पर लिखा था - 'सिर पर संकटों के बादल मँडरा रहे हों, तब भी धैर्य नहीं खोना चाहिए।' यह पढ़कर उन्होंने उन तीनों सैनिकों को संदेश भेजाः "भारत माता के वीर सपूतो ! जब तक शत्रु का सफाया नहीं होता डटे रहो। परमात्मा हमारे साथ है।"
इन शब्दों ने सैनिकों के शरीर में जैसे जान ही फूँक दी। वे ऐसे जी-जीन से लड़े कि अंग्रेज सैनिकों के छक्के छूटने लगे। उनके हौंसले पस्त हो गये और वे चौकी छोड़ के भाग गये। यह परिणाम सत्साहित्य के कारण ही आया। इसलिए सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है।
पूज्य बापू जी के गुरुदेव पूज्यपाद भगवत्प्राद श्री लीलाशाह जी महाराज का यह विश्वास था कि सत्साहित्य, धर्म एवं नीति के शास्त्र ही मानव-जीवन का निर्माण करने एवं जीवन को उन्नति के पथ पर ले जाने वाले हैं। साहित्य मनुष्य-जीवन, समाज एवं देश में नयी जागृति लाता है। लोगों को सच्ची राह बता के उन्नति के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते थे कि "सच्चा साहित्य वही है जिसमें 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' के गीत गूँजते हों।"
सत्यम् अर्थात् जो निज स्वरूप का मार्ग बताये, शिवम् अर्थात् जो कल्याणकारी हो, सुंदरम् अर्थात् जो सुंदर जीवन जीने की कला बतायें।
पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के कथनानुसार ऐसा साहित्य ही वास्तव में मानव-जीवन का अमूल्य खजाना है। इससे हमें बहुत अच्छा ज्ञान मिलता है, भगवान में प्रेम जागता है, आत्मकल्याण होता है। शरीर को निरोग बनाने, मन को प्रसन्न रखने और बुद्धि को दिव्य बनाने की अदभुत व्यवस्था हमारे सत्शास्त्रों में है। सत्साहित्य में महापुरुषों, गुरुभक्तों और भगवान के लाड़ले संतों की कथाओं व अनुभवों का वर्णन आता है, जिसका बार-बार पठन-मनन करके आप सचमुच महान बन जाओगे। जीवन में सत्साहित्य का महत्त्व बताते हुए युद्ध के मैदान में भगवान स्वयं कहते हैं-
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
'(मेरे ज्ञान का जो कोई संसार में प्रचार करेगा) उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।' (गीताः 18.61)
स्वामी विवेकानंद कहते थेः 'जिस घर में सत्साहित्य नहीं, वह घर नहीं वरन् श्मशान है।'
पूज्य बापू जी कहते हैं- "मेरे गुरुदेव अस्सी वर्ष की आयु में भी किताबों की गठरी बाँधकर नैनीताल की पहाड़ियों में जाते, सत्संग सुनाते, प्रसाद बाँटते और लोगों को सत्साहित्य पढ़ने को देते। उन्हीं महापुरुष के निष्काम कर्मयोग का फल आज हम लाखों लोगों को मिल रहा है। साधक दिन-रात एक करके सत्साहित्य को लोगों तक पहुँचाने की जो सेवा करते हैं, उससे उनके हृदय में निष्कामता का आनंद उभरने लगता है।"
पूज्य बापू जी के ओजपूर्ण पावन अमृतवचनों के संकलन से बनी पुस्तकें समाज के हर वर्ग के लोगों के सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ संजोये हुए हैं। अत्यंत कम कीमत में मिलने वाला यह सत्साहित्य वैचारिक प्रदूषण मिटाने में अत्यधिक कारगर सिद्ध हुआ है। इसके प्रचार-प्रसार से कितने ही घर बरबाद होने से बच गये, कितने ही लोगों की आलसी-प्रमादी और पलायनवादी लोग कर्मनिष्ठ बन गये, व्यसनी-दुराचारी लोग सदाचारी व समाजसेवी हो गये, नास्तिक आस्तिक हो गये, पतन की राह जाने वाले नैतिक, आध्यात्मिक उन्नति की ओर चल पड़े.... इससे समाज, राष्ट्र एवं समग्र विश्व को कितना लाभ हो रहा है, वह लाबयान है ! वे धनभागी हैं, जो सांसारिक कार्यों से समय निकाल के भगवत्प्रसन्नता पाने हेतु पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी को घर-घर पुण्यात्मा राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा का अमित पुण्य लाभ भी घर बैठे ही ले रहे हैं। पूज्य श्री का संदेश अब हमें हर घर में पहुँचाना है, हर दिल को जगाना है !
गुरुपूर्णिमा महापर्व पर हम सब संकल्प लें कि मानव-समाज को उन्नति के मार्ग पर ले जाने वाले आश्रम के सत्साहित्य को त्यौहार, जन्मोत्सव, शादी-विवाह आदि शुभ प्रसंगों पर अपने सगे-संबंधियों, मित्रों या अन्य लोगों में वितरित करेंगे। 'घर-घर सत्साहित्य पहुँचाओ' अभियान चलायेंगे और पूज्य श्री की अमृतवाणी से ओतप्रोत सत्साहित्य को घर-घर तक पहुँचाने के भगीरथ सेवाकार्य में अधिक-से-अधिक सहभागी बनेंगे।
(यह सत्साहित्य सभी आश्रमों व समितियों के सेवा-केन्द्रों पर उपलब्ध है।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 223
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