21.5.11

सृष्टि कैसे बनी ?



(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)
सृष्टि के विषय में विचार करते-करते बहुत उच्चकोटि के महापुरुषों ने तीन विकल्प खोजे।
पहला विकल्प था 'आरम्भवाद'। इसके अनुसार जैसे कुम्हार ने घड़ा बना दिया, सेठ ने कारखाना बना दिया, आरम्भ कर दिया, ऐसे ही ईश्वर ने दुनिया चलायी। कुम्हार का बनाया हुआ घड़ा कुम्हार से अलग होता है, सेठ का कारखाना उससे अलग होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर की बनायी हुई दुनिया उससे अलग है। लेकिन दुनिया में तो ईश्वर की चेतना दिखती हैं। तो दुनिया और ईश्वर अलग-अलग कहीं रहे?
दूसरा विकल्प खोजा 'परिणामवाद" अर्थात् जैसे दूध में से दही बनता है ऐसे ही ईश्वर ही दुनिया बन गये। दूध में से दही बन गया तो फिर वापस दूध नहीं बनता, ऐसे ही ईश्वर ही सारी दुनिया बन गये तो सृष्टि की नियामक ईश्वरीय सत्ता कहाँ रही? ईश्वर बनते बिगड़ते हैं तो ईश्वर का ईश्वरत्व एकरस कहाँ रहा?
खोजते-खोजते वेदान्त को जाननेवाले तत्त्वेता महापुरुष आखिर इस बात पर सहमत हुए कि यह सृष्टि ईश्वर का विवर्त है। 'विवर्तवाद' अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहें और उसमें यह सृष्टि प्रतीत होती रहे। जैसे तुम्हारा आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है और रात को उसमें सपना प्रतीत होता है – लोहे की रेलगाड़ी, उसकी पटरियाँ और घूमने वाले पहिये आदि।
तुम चेतन हो और जड़ पहिये बना देते हो, रेलगाड़ी बना देते हो, खेत-खलिहान बना देते हो। रेलवे स्टेशनों का माहौल बना देते हो। सपने में अजमेर का मीठा दूध पी ले भाई!... आबू की रबड़ी खा ले... मुंबई का हलुआ... नडियाड के पकौड़े खा ले...' – सारे हॉकर, पैसेंजर और टी.टी. भी तुम बना लेते हो। तुम हरिद्वार पहुँच जाते हो। 'गंगे हर' करके गोता मारते हो। फिर सोचते हो जेब में घड़ी भी पड़ी है, पैसे भी पड़े हैं। घड़ी और पैसे की भावना तो अंदर है और घड़ी व पैसे बाहर पड़े हैं। पुण्य प्राप्त होगा यह भावना अंदर है और गोता मारते हैं यह बाहर है। तो सपने में भी अंदर और बाहर होता है। तुम्हारे आत्मा के विवर्त में अंदर भी, बाहर भी बनता है, जड़ और चेतन भी बनता है फिर भी आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है।
ऐसे ही यह जगत परब्रह्म परमात्मा का विवर्त है। इसमें अंदर-बाहर, स्वर्ग-नरक, अपना-पराया सब दिखते हुए भी तत्त्व में देखो तो ज्यों-का-त्यों ! जैसे समुद्र की गहराई में शांत जल है और ऊपर से कई मटमैली तरंगे, कई बुलबुले, कई भँवर और किनारे के अलग-अलग रूप रंग दिखते हैं। उदधि की गहराई में पानी ज्यों-का-त्यों हैं, ऊपर दिखने वाली तरंगे विवर्त हैं। जैसे सागर में सागर के ही पानी से बने हुए बर्फ के टुकड़े डूबते उतराते हैं, ऐसे परब्रह्म परमात्मा ज्यों-का-त्यों है और यह जगत उस में लहरा रहा है। इस प्रकार वेदांत-दर्शन का यह 'विवर्तवाद' सर्वोपरि एवं अकाट्य है।
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चिंतनिका



परम पुरुषार्थ के मार्ग में कूद पड़ो। भूतकाल के लिए पश्चाताप और भविष्य की चिन्ता छोड़कर निकल पड़ो। परमात्मा के प्रति अनन्य भाव रखो। फिर देखो कि इस घोर कलियुग में भी तुम्हारे लिए अन्न, वस्त्र और निवास की कैसी व्यवस्था होती है।
जिस साधना में तुम्हारी रुचि होगी उस साधना में ईश्वर मधुरता भर देंगे। तुम्हारी भावना, तुम्हारी निष्ठा पक्की होना महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे परम इष्टदेव तुम पर खुश हो जायें तो अनिष्ट तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। परम इष्टदेव है तुम्हारा आत्मा, तुम्हारा निजस्वरूप। परमात्मा में तुम्हारी अनन्य भक्ति हो जाये तो परमात्मा तुम्हें कुछ देंगे नहीं, वे तुम्हें अपने में मिला लेंगे। अब बताओ, आपको कुछ देना शेष रहा क्या?
ईश्वर के सिवाय अन्य तमाम सुखों के इर्द गिर्द व्यर्थता के काँटे लगे ही रहते हैं। जरा सा सावधान होकर सोचोगे तो यह बात समझ में आ जायेगी और तुम ईश्वर के मार्ग पर चल पड़ोगे।
लौकिक सरकार भी अपने सरकारी कर्मचारी की जिम्मेदारी सँभालते हैं। फिर ऊर्ध्वलोक की दिव्य सरकार, परम पालक परमात्मा अध्यात्म के पथिक का बोझ नहीं उठायेंगे क्या?
पर्व के दिन किया हुआ शुभ कार्य अधिक फलदायी होता है।
ध्यान करते समय मन यदि स्थिर न होकर इधर उधर भटकने लगे तो ध्यान करना छोड़कर मन को कहोः "अच्छा बेटा ! जाओ.... जहाँ तुम्हारी इच्छा हो जाओ। सब रूप तो भगवान ने ही धराण कर रखे हैं। जो भी वस्तुएँ दिखलाई देती हैं वे सब  परमात्मा नारायण के ही रुप हैं। सारे संसार में सबको भगवान का रूप समझकर मन ही मन भगवदबुद्धि से सबको प्रणाम करो। एक परमात्मा ने ही अनन्तरूप धारण कर लिये हैं। बार-बार ऐसी धारणा दृढ़ करते रहने से भी भगवद् दर्शन सुलभ हो जाता है।
(आश्रम से प्रकाशित पुस्तक 'इष्टसिद्धि' से।)
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ज्ञान गंगोत्री : संस्कारों का खेल




(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)
जीवन में सावधानी नहीं है तो जिससे सुख मिलेगा उसके प्रति राग हो जायेगा और जिससे दुःख मिलेगा उसके प्रति द्वेष हो जायेगा। इससे अनजाने में ही चित्त में संस्कार जमा होते जायेंगे एवं वे ही संस्कार जन्म-मरण का कारण बन जायेंगे।
यहाँ सुख होगा ऐसी जब अंतःकरण में संस्कार की धारा चलती है तो ज्ञान तुमको उस कार्य में प्रवृत्त करता है। यहाँ दुःख होगा ऐसी धारा होती है तो वहाँ से तुम निवृत्त होते हो। ज्ञान ही प्रवर्त्तक है, ज्ञान ही निवर्त्तक है। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों ये सुख और दुःख के ऊपरी-ऊपरी साधन हैं लेकिन सुख-दुख का मूल कहाँ हैं इसका अगर ज्ञान हो जाये तो तुम शुद्ध ज्ञान में पहुँच जाओगे। प्रवृत्ति व निवृत्ति का ज्ञान मूल में तो आता है चैतन्य से लेकिन तुम्हारे संस्कारों की भूलो से वह ज्ञान ले-ले के इधर-उधर भटक के तुम पूरा कर देते हो। अगर ज्ञानस्वरूप ईश्वर के मूल में जाने की कुछ बुद्धि सूझ जाय, भूख जग जाये तो सारे सुखों का मूल अपना आत्मदेव है – परमेश्वर। जब अपने ही घर में खुदाई है, काबा का सिजदा कौन करे ! काशी में कौन जाये !
दो व्यक्ति लड़ रहे हैं। क्यों लड़ रहे हैं? एक को है कि 'यह मेरा है कुछ ले जायेगा।' दूसरे को है की छीन लो। तो भय लड़ रहा है, लोभ लड़ रहा है लेकिन ज्ञान दोनों में है। ज्ञानस्वरूप चेतन तो है लेकिन भय के संस्कार और लोभ के संस्कार लड़ा रहे हैं। ऐसे ही राग के संस्कार और द्वेष के संस्कार भी लड़ा रहे हैं।
राक्षसों को रावण के प्रति राग है और हनुमानजी के प्रति द्वेष है तो वे रामजी के विरुद्ध लड़ाई करेंगे और हनुमानजी व बंदरों को रामजी के प्रति प्रेम है और राक्षसों के प्रति नाराजगी है तो व राक्षसों से लेकिन लड़ने की सत्ता, ज्ञान तो वही-का-वही है। गीजर में तार गया तो पानी गरम होगा और फ्रिज में गया तो ठंडा लेकिन बिजली तत्व वही-का-वही। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म। वह सत्स्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अंत न होने वाला है, मरने के बाद भी ज्ञानस्वरूप आत्मदेव का अंत नहीं होता।
किसी के कर्म सात्त्विक होते हैं तो उसके संस्कार वैसे होंगे। जैसे – तुम्हारे कर्म सात्त्विक हैं तो सत्संग में आने का संस्कार, ज्ञान तुम्हें यहाँ ले आया। अगर शराबी-कबाबी होता तो बोलताः 'रविवार का दिन है, चलो भाई ! शराबखाने में जायेंगे, पिक्चरबाज होता तो थिएटर में ले जाता। तो ज्ञान के आधार से संस्कार तुम्हें यहाँ-वहाँ ले जा रहे हैं।
तो कोई चीज बुरी और भली कैसे? कि संस्कारों के अनुसार। मेरे सामने कोई तुलसी डाली हुई कुछ सात्विक चीज-वस्तु-प्रसाद ले आता है तो मैं कहता हूँ- 'चलो भाई ! थोड़ा रखो, थोड़ा ले जाओ' लेकिन यदि कोई मांस, मदिरा, अंडा आदि ले आयेगा तो मैं कहूँगाः 'ए बेवकूफ है क्या ? यह क्या ले आया !' लेकिन वही चीज शराबी-कबाबी के पास ले जाओ तो बोलेगाः 'यार उस्ताद !! आज तो सुभान-अल्लाह है।' और मेरा प्रसाद ले जाओगे तो बोलेगाः "अरे छोड़ ! बाबा लोगों की क्या बात करता है, यह आमलेट पड़ा है, मैं मौज मार रहा हूँ।"
तो उसके तामस, नीच संस्कार हैं तो उसका ज्ञान नीचा हो जाता है। यदि मध्यम संस्कार है तो उसका ज्ञान मध्यम हो जाता है और उत्तम संस्कार है तो उसका ज्ञान उत्तम हो जाता है। यदि भगवदीय संस्कार है तो उसका ज्ञान भगवन्मय हो जाता है और ब्रह्मज्ञान के संस्कार हैं तो उसका ज्ञान अपने मूल स्वभाव को जनाकर उसे मुक्तात्मा, महान आत्मा बना देता है, साक्षात्कार करा देता है।
जो कुछ परिवर्तन और प्राप्ति है। वह मनुष्य – जीवन में ही है। जो किसी विघ्न बाधा के आने पर सोचता हैः यहाँ से चला जाऊँ, भाग जाऊँ..... वह आदमी अपने जीवन में कुछ नहीं कर सकता। वह कायर है कायर ! हतभागी है। मन्दाः सुमन्दमतयाः। वे ही हलके संस्कार अगर आगे आते हैं तो हलका प्रकाश होता है। जैसे बरसात तो वही-की-वही लेकिन कीचड़ में पड़ती है तो दलदल हो जाती है, सड़क पर पड़ती है तो डीजल और गोबर के दाग धोती है, खेत में पड़ती तो धान हो जाता है और स्वाति नक्षत्र के दिनों में सीप में पड़ती है तो मोती हो जाती है। पानी तो वही-का-वही लेकिन संपर्क कैसा होता है? जैसा संपर्क वैसा लाभ होता है। ऐसे ही ज्ञान तो वही-का-वही लेकिन संस्कार कैसे हैं? संस्कार अगर दिव्य होते जायें तो ज्ञान की दिव्यता का फायदा मिलेगा। संस्कार दिव्य कहाँ से होते हैं?
दुनियादारी में तो दिव्य संस्कार आते ही नहीं हैं। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभवाले ही संस्कार आते हैं। तो बोलेः 'ध्यान-भजन करें।'
ध्यान-भजन दुनियादारी से तो अच्छा है, इससे बुद्धि तो अच्छी होती है लेकिन इससे भी ऊँची बात है सत्संग।
तन सुखाय पिंजर कियो, धरै रैन दिन ध्यान।
ध्यान अच्छा तो है, दिन रात कोई ध्यान कर ले लेकिन-
तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
वासना इधर-उधर भटकाती है। एकाग्र होने के बाद भी संकल्प करके आदमी दिव्य लोकों में और दिव्य भोगों में उलझ सकता है, इसी लिए उसको सत्संग चाहिए और सत्संग से ज्ञान के दिव्य संस्कार जागृत होते हैं। इसलिए बोलते हैं-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लब सतसंग।।
अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं ले सकते, जो क्षणमात्र के सत्संग से मिलता है। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 4)
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
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तुम हो अपने चरित्र के विधाता !




(ब्रह्मलीन स्वामी श्री शिवानंदजी सरस्वती)
यदि अपने जीवन में सफलता की कामना है, आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने की अभिलाषा है और आत्मज्ञान प्राप्त करने की लगन है तो निष्कलंक चरित्र का उपार्जन करो। मनुष्य जीवन का सारांश है – चरित्र। मनुष्य का चरित्रमात्र ही सदा जीवित रहता है और मनुष्य को जीवित रखता है।
मनुष्य का शरीरांत होने पर भी उसका चरित्र बना रहता है, उसके विचार भी बने रहते हैं। चरित्र ही मनुष्य में वास्तविक शक्ति और शौर्य का स्फुरण भरता है। चरित्र शक्ति का ही पर्याय है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी नहीं किया जा सकता। चरित्रहीन व्यक्ति और जीवनहीन मुर्दे में कुछ भी अंतर नहीं है। समाज के लिए वह घृणास्पद है, समाज के लिए वह कल्मषक है।
अपने अलौकिक चरित्र के  कारण ही आज अनेकों शताब्दियों के बीत जाने पर भी आद्य शंकराचार्य जी तथा अन्य ऋषि हमें याद आते हैं। अपने चरित्र के कारण ही वे जनता के विचारों को प्रभावित कर सके और चरित्र-शक्ति के आधार पर ही जनसमाज की विचारधाराओं का निर्माण भी कर पाये।
चरित्र और धन की तुलना हो ही नहीं सकती। कहाँ चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण, सुरभिपूर्ण सुंदर पुष्प और कहाँ धन एक चंचल वस्तु और कलह का आदिमूल। महान विचारवाले तथा उज्जवल चरित्रशाली व्यक्ति का ओज प्रभावशाली होता है। व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। कितना ही निपुण गायक क्यों न हो और कवि या वैज्ञानिक ही क्यों न हो, पर चरित्र न हुआ तो समाज में उसके कलिए सम्मान्य स्थान का सदा अभाव ही रहता है। जनसमाज उसकी अवहेलना ही करेगा।
'चरित्र' व्यापक शब्द है। साधारणतः चरित्र का अर्थ होता है नैतिक सदाचार। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति चरित्रवान है तो हमारा अर्थ होता है कि वह नैतिक सदाचारशील है। चरित्र का व्यापक अर्थ लिया जाय तो वह व्यक्ति की दयालुता, कृपालुता, सत्यप्रियता, उदारता, क्षमाशीलता और सहिष्णुता का द्योतक होता है। चरित्रवान व्यक्ति में सभी दैवी गुणों का समावेश रहता है। नैतिक दृष्टिकोण से तो वह सिद्ध होगा ही, साथ-साथ दैवी गुणों का विकास भी उसमें पूर्णतया होना चाहिए।
जानबूझकर असत्य भाषण करना, स्वार्थी और लोलुप होना, दूसरों के दिल को चोट पहुँचाना – इन सबसे मनुष्य के दुश्चरित्र का बोध होता है। अपने चरित्र का विकास करने के लिए व्यक्ति को सर्वांगीण उन्नति करनी होगी। चरित्र के विकास के लिए गीता के 12वें और 16वें अध्याय में बतलाये गये दैवी गुणों की साधना करनी होगी, तभी वह सिद्ध व्यक्ति बन सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को निष्कलंक चरित्रशील कहा जाता है।
निष्कलंक चरित्र का निर्माण करने के लिए ये गुण उपार्जित किये जाने चाहिएः
नम्रता, निष्कपटता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुद्धि(पवित्रता), सत्यशीलता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि में दुःख एवं दोषों का बार-बार विचार करना, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, शास्त्रवादिता, तपस्या, सरल व्यवहारशीलता, क्रोधहीनता, त्यागपरायणता, शांति, कूटनीति का अभाव, जीवदया, अलोलुपता, सौजन्य, सरल जीवन से प्रेम, क्षुद्र स्वभाव का दमन, वीर्य, शौर्य और दम तथा घृणा, प्रतिहिंसा का अभाव।
कार्य करते रहने पर एक प्रकार की आदत उदय होती है। अच्छी आदतों का बीज बो देने से चरित्र का उदय होता है। चरित्र का बीज बो देने से भाग्य का उदय होता है। चित्त में विचार, अनुभव और कर्म – इनके संस्कार मुद्रित हो जाते हैं। व्यक्ति के मर जाने पर भी ये विचार जीवित और सक्रिय रहते हैं। इनके ही कारण मनुष्य बार-बार जन्म लेता है। विचार और कर्मजन्य संस्कार मिलकर आदत का विकास करते हैं। अच्छी आदतों का संगठन होने से चरित्र का विकास होता है। व्यक्ति ही इन विचारों और आदतों का विधाता है। आज जिस अवस्था में व्यक्ति को देखते हो, वह भूतकाल का ही परिणाम है। यह आदत का उत्तररूप है। प्रत्येक व्यक्ति विचारों और कार्यों पर नियंत्रण स्थापित कर आदतों का मनोनुकूल निर्माण कर सकता है।
दुश्चरित्र व्यक्ति सदा के लिए दुश्चरित्र ही रहता है, यह उचित तर्क नहीं है। उसे संतों के सम्पर्क में रहने का अवसर दो। उसके जीवन में परिवर्तन खिल उठेगा, उसमें दिव्य गुण जाग उठेंगे। जगाई और मधाई, जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नित्यानंद जी पर पत्थर मारे थे, बाद में चैतन्यदेव एवं नित्यानंद जी की कृपा से महान भक्त बन गये। इन व्यक्तियों के मानसिक रूप, आदर्श और विचारों में समूल परिवर्तन हो गया था। इनकी आदतें सर्वथा बदल गयी थीं।
अपने बुरे चरित्र और विचारों को बदलने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में सुरक्षित है, वर्तमान है। यदि बुरे विचारों और बुरी आदतों के बदले अच्छे विचारों और अच्छी आदतों का अभ्यास कराया जाय तो व्यक्ति को दिव्य गुणों से परिपूर्ण किया जा सकता है। दुश्चरित्र सच्चरित्र ही क्या, संत भी बन सकता है।
व्यक्ति की आदतों, गुणों और आचार (चरित्र) को प्रतिपक्ष-भावना की विधि से बदला जा सकता है। भय और असत्य को जीतने के लिए प्रतिपक्षीय भावना है-साहस और सत्यवादिता। ब्रह्मचर्य और संतोष का विचार करो तो काम-वासना और लोभ का पराभव किया जा सकेगा। प्रतिपक्षीय भावना द्वारा अपनी दुश्चरित्रता का दमन करना चाहिए, यह वैज्ञानिक विधान है।
संकल्प, रूचि, ध्यान और श्रद्धा के द्वारा स्वभाव-परिवर्तन या चरित्र-निर्माण किया जा सकता है। मनुष्य अपनी पुरानी क्षुद्र आदतों को त्यागकर नवीन सुंदर आदतों को ग्रहण कर ले। त्याग की भावना से किया गया कर्मयोग का अभ्यास भी मन में सुंदर आदतों का प्रतिष्ठापन करता है। भक्ति, उपासना और विचार के अभ्यास से भी पुरानी आदतों को हटाया जा सकता है।
यदि तुम्हें चरित्र-निर्माण में कठिनाई मालूम होती है तो संतों और महात्माओं के सम्पर्क में रहो। महात्माओं के सम्पर्क में रहने से उनकी आध्यात्मिक विचारधारा तुम्हारे जीवन में अदभुत परिवर्तन का श्रीगणेश करेगी।
अपने चरित्र का निर्माण करो। चरित्र-निर्माण से ही जीवन में सच्ची सफलता मिल सकती है। प्रतिदिन अपनी बुरी आदतों को हटाने का यत्न करते रहो। प्रतिदिन सत्कर्म करने का अभ्यास करो। सच्चरित्रता मनुष्य जीवन का प्राण है, उसके बिना मनुष्य मृतक के समान है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 220
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अनन्य निष्ठा का संदेश देते हैं हनुमानजी



(हनुमान जयंतीः 18 अप्रैल 2011)
स्वयं प्रभु श्रीराम जिनके ऋणी बन गये, जिनके प्रेम के वशीभूत हो गये और सीताजी भी जिनसे उऋण न हो सकीं, उन अंजनिपुत्र हनुमानजी की रामभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता। लंकादाह के बाद वापस आने पर उनके लिए प्रभु श्रीराम को स्वयं कहना पड़ाः "हे हनुमान ! तुमने विदेहराजनंदिनी सीता का पता लगा के उनका दर्शन कर और उनका शुभ समाचार सुनाकर समस्त रघुवंश की तथा महाबली लक्ष्मण की और मेरी भी आज धर्मपूर्वक रक्षा कर ली। परंतु ऐसे प्यारे संवाद देने वाले हनुमानजी का इस कार्य के योग्य हम कुछ भी प्रिय नहीं कर सकते। यही बात हमारे अंतःकरण में खेद उत्पन्न कर रही है। जो हो, इस समय हमारा हृदय से आलिंगनपूर्वक मिलना ही सर्वस्वदान-स्वरूप महात्मा श्रीहनुमानजी का कार्य के योग्य पुरस्कार होवे।(वाल्मीकि रामायण : 6.1.11.13)
श्रीराम-राज्यभिषेक के बाद जब जानकी जी ने हनुमान जी को एक दिव्य रत्नों का हार प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया तब वे उसमें राम-नाम को ढूँढने लगे। तब प्रभु श्रीराम ने हनुमानजी से पूछाः "हनुमान ! क्या तुमको हमसे भी हमारा नाम अधिक प्यारा है?" इस पर हनुमान जी ने तुरंत उत्तर दियाः "प्रभो ! आपसे तो आपका नाम बहुत ही श्रेष्ठ है, ऐसा मैं बुद्धि से निश्चयपूर्वक कहता हूँ। आपने तो अयोध्यावासियों को तारा है परंतु आपका नाम तो सदा-सर्वदा तीनों भुवनों को तारता ही रहता है।"
यह है ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमानजी की भगवन्नाम-निष्ठा ! हनुमानजी ने यहाँ दुःख, शोक, चिंता, संताप के सागर इस संसार से तरने के लिए सबसे सरल एवं सबसे सुगम साधन के रूप में भगवन्नाम का, भगवन्नामयुक्त इष्टमंत्र का स्मरण किया है, इष्टस्वरूप का ज्ञान और उसके साथ साक्षात्कार यह सार समझाया है।
श्री हनुमानजी का यह उपदेश सदैव स्मरण में रखने योग्य हैः 'स्मरण रहे, लौकिक क्षुद्र कामना की पूर्ति के लिए सर्वदा मोक्षसाधक, परम कल्याणप्रदायक श्रीराम-मंत्र का आश्रय भूलकर भी नहीं लेना चाहिए। श्रीरामकृपा से मेरे द्वारा ही अभिवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी। कोई भी सांसारिक काम अटक जाय तो मुझ श्रीराम-सेवक का स्मरण करना चाहिए।' (रामरहस्योपनिषदः 4.11)
हनुमान जी यह नहीं चाहते कि उनके रहते हुए उनके स्वामी को भक्तों का दुःख देखना पड़े। यदि कोई उनकी उपेक्षा कर श्रीरामचन्द्रजी को क्षुद्र कामना के लिए पुकारता है तो उन्हें बड़ी वेदना होती है।
एक बार भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहाः "हनुमान ! यदि तुम मुझसे कुछ माँगते तो मेरे मन को बहुत संतोष होता। आज तो हमसे कुछ अवश्य माँग लो।"तब हनुमान जी ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कीः
स्नेहो मे परमो राजंस्त्वयि तिष्ठतु नित्यदा।
भक्तिश्च नियता वीर भावो नान्यत्र गच्छतु।।
श्रीराजराजेन्द्र प्रभो ! मेरा परम स्नेह नित्य ही आपके श्रीपाद-पद्मों में प्रतिष्ठित रहे। हे श्रीरघुवीर ! आपमें ही मेरी अविचल भक्ति बनी रहे। आपके अतिरिक्त और कहीं मेरा आंतरिक अनुराग न हो। कृपया यही वरदान दें।" (बाल्मीकि रामायणः 7.40.16)
अपने परम कल्याण के इच्छुक हर भक्त को अपने इष्ट से प्रार्थना में ऐसा ही वरदान माँगना चाहिए। ऐसी अनन्य भक्ति रखने वाले के लिए फिर तीनों लोकों में क्या अप्राप्य रहेगा ! हनुमानजी के लिए ऋद्धि-सिद्धि, आत्मबोध – कौन सी बात अप्राप्य रही !
अपनी अनन्य निष्ठा को एक अन्य प्रसंग में हनुमान जी ने और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त किया हैः "श्रीराम-पादारविंदों को त्यागकर यदि मेरा मस्तक किसी अन्य के चरणों में झुके तो मेरे सिर पर प्रचण्ड कालदण्ड का तत्काल प्रहार हो। मेरी जीभ श्रीराम-नाम के अतिरिक्त यदि अन्य मंत्रों का जप करे तो दो जीभवाला काला भुजंग उसे डँस ले। मेरा हृदय श्रीराघवेन्द्र प्रभु को भूलकर यदि अन्य किसी का चिंतन करे तो भयंकर वज्र उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। मैं यह सत्य कहता हूँ अथवा यह औपचारिक चाटुकारितामात्र ही है, इस बात को सर्वान्तर्यामी आप तो पूर्णरूप से जानते ही हैं, अन्य कोई जाने अथवा न जाने।"
यह है श्री हनुमान जी की अनन्य श्रीराम-निष्ठा ! हर भक्त की, सदगुरू के शिष्ट की भी अपने इष्ट के प्रति ऐसी ही अनन्य निष्ठा होनी चाहिएक।
'प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया' होने के नाते आपने प्रभु से यह याचना कीः "हे रघुवीर ! जब तक श्रीरामकथा इस भूतल को पावन करती रहे, तब तक निस्संदेह (भगवत्कथा-श्रवण करने के लिए) मेरे प्राण इस शरीर में ही निवास करें।।" (वाल्मीकि रामायणः 7.40.17)
इसी कारण जहाँ-जहाँ श्रीरामकथा होती है, वहाँ-वहाँ हनुमानजी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे तथा ललाट से बद्धांजलि लगाये उपस्थित रहते हैं। हनुमानजी हमें भी यह संदेश देते हैं कि मनुष्य-जीवन में भगवत्प्रीति बढ़ाने वाली भगवदलीलाओं एवं भगवदज्ञान का श्रवण परमानंदप्राप्ति का मधुर साधन है। हम सभी इससे परितृप्त रहकर मनुष्य-जीवन का अमृत प्राप्त करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 220
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गर्मियों में स्वास्थ्य रक्षा



ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा शरीर के द्रव तथा स्निग्ध अंश का शोषण करता है, जिससे दुर्बलता, अनुत्साह, थकान, बेचैनी आदि उपद्रव उत्पन्न होते हैं। उस समय शीघ्र बल प्राप्त करने के लिए मधुर, स्निग्ध, जलीय, शीत गुणयुक्त सुपाच्य पदार्थों की आवश्यकता होती है। इन दिनों में आहार कम लेकर बार-बार जल पीना हितकर है परंतु गर्मी से बचने के लिए बाजारू शीत पदार्थ एवं फलों के डिब्बाबंद रस हानिकारक हैं। उनसे लाभ की जगह हानि अधिक होती है। उनकी जगह नींबू का शरबत, आम का पना, जीरे की शिकंजी, ठंडाई, हरे नारियल का पानी, फलों का ताजा रस, दूध आदि शीतल, जलीय पदार्थों का सेवन करें। ग्रीष्म ऋतु में स्वाभाविक उत्पन्न होने वाली कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियों से बचने के लिए ताजगी देने वाले कुछ प्रयोगः
धनिया पंचकः धनिया, जीरा व सौंफ समभाग मिलाकर कूट लें। इस मिश्रण में दुगनी मात्रा में काली द्राक्ष व मिश्री मिलाकर रखें।
उपयोगः एक चम्मच मिश्रण 200 मि.ली. पानी में भिगोकर रख दें। दो घंटे बाद हाथ से मसलकर छान लें और सेवन करें। इससे आंतरिक गर्मी, हाथ-पैर के तलुवों तथा आँखों की जलन, मूत्रदाह, अम्लपित्त, पित्तजनित शिरःशूल आदि से राहत मिलती है। गुलकंद का उपयोग करने से भी आँखों की जलन, पित्त व गर्मी से रक्षा होती है।
ठंडाईः जीरा व सौंफ दो-दो चम्मच, चार चम्मच खसखस, चार चम्मच तरबूज के बीज, 15-20 काली मिर्च व 20-25 बादाम रात भर पानी में भिगोकर रखें। सुबह बादाम के छिलके उतारकर सब पदार्थ खूब अच्छे से पीस लें। एक किलो मिश्री अथवा चीनी में चार लीटर पानी मिलाकर उबालें। एक उबाल आने पर थोड़ा-सा दूध मिलाकर ऊपर का मैल निकाल दें। अब पिसा हुआ मिश्रण, एक कटोरी गुलाब की पत्तियाँ तथा 10-15 इलायची का चूर्ण चाशनी में मिलाकर धीमी आँच पर उबालें। चाशनी तीन तार की बन जाने पर मिश्रण को छान लें, फिर ठंडा करके काँच की शीशी में भरकर रखें।
उपयोगः ठंडे दूध अथवा पानी में मिलाकर दिन में या शाम को इसका सेवन कर सकते हैं। यह सुवासित होने के साथ-साथ पौष्टिक भी हैं। इससे शरीर की अतिरिक्त गर्मी नष्ट होती है, मस्तिष्क शांत होता है, नींद भी अच्छी आती है।
आम का पनाः कच्चे आम को पानी में उबालें। ठंडा होने के बाद उसे ठंडे पानी में मसल कर रस बनायें। इस रस में स्वाद के अनुसार गुड़, जीरा, पुदीना, नमक आदि मिलाकर खासकर दोपहर के समय इसका सेवन करें। गर्मियों में स्वास्थ्य-रक्षा हेतु अपने देश का यह एक पारम्परिक नुस्खा है। इसके सेवन से लू लगने का भय नहीं रहता ।
गुलाब शरबतः डेढ़ कि.ग्रा. चीनी में देशी गुलाब के 100 ग्राम फूल मसलकर शरबत बनाया जाय तो वह बाजारू शरबतों से पचासों गुना हितकारी है। सेक्रीन, रासायनिक रंगों और विज्ञापन से बाजारू शरबत महंगे हो जाते हैं। आप घर पर ही यह शरबत बनायें। यह आँखों व पैरो की जलन तथा गर्मी का शमन करता है। पीपल के पेड़ की डालियाँ, पत्ते, फल मिलें तो उन्हें भी काट-कूट के शरबत में उबाल लें। उनका शीतलतादायी गुण भी लाभकारी होगा।
अपवित्र पदार्थों से बने हुए, केमिकलयुक्त, केवल कुछ क्षणों तक शीतलता का आभास कराने वाले परंतु आंतरिक गर्मी बढ़ाने वाले बाजारू शीतपेय आकर्षक रंगीन जहर हैं। अतः इनसे सावधान !
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औषधीय गुणों से भरपूरः ब्रह्मवृक्ष पलाश
जिसकी समिधा यज्ञ में प्रयुक्त होती है, ऐसे हिन्दू धर्म में पवित्र माने गये पलाश वृक्ष को आयुर्वेद ने 'ब्रह्मवृक्ष' नाम से गौरवान्विति किया है। पलाश के पाँचों अंग (पत्ते, फूल, फल, छाल, व मूल) औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। यह रसायन (वार्धक्य एवं रोगों को दूर रखने वाला), नेत्रज्योति बढ़ाने वाला व बुद्धिवर्धक भी है।
इसके पत्तों से बनी पत्तलों पर भोजन करने से चाँदी के पात्र में किये गये भोजन के समान लाभ प्राप्त होते हैं। इसके पुष्प मधुर व शीतल हैं। उनके उपयोग से पित्तजन्य रोग शांत हो जाते हैं। पलाश के बीज उत्तम कृमिनाशक व कुष्ठ (त्वचारोग) दूर करने वाले हैं। इसका गोंद हड्डियों को मजबूत बनाता है। इसकी जड़ अनेक नेत्ररोगों में लाभदायी है।
पलाश व बेल के सूखे पत्ते, गाय का घी व मिश्री समभाग मिलाकर धूप करने से बुद्धि शुद्ध होती है व बढ़ती भी है। वसंत ऋतु में पलाश लाल फूलों से लद जाता है। इन फूलों को पानी में उबालकर केसरी रंग बनायें। यह रंग पानी में मिलाकर स्नान करने से आने वाली ग्रीष्म ऋतु की तपन से रक्षा होती है, कई प्रकार के चर्मरोग भी दूर होते हैं।
पलाश के फूलों द्वारा उपचारः महिलाओं के मासिक धर्म में अथवा पेशाब में रूकावट हो तो फूलों को उबालकर पुल्टिस बना के पेड़ू पर बाँधें। अण्डकोषों की सूजन भी इस पुल्टिस से ठीक होती है।
प्रमेह (मूत्र-संबंधी विकारों) में पलाश के फूलों का काढ़ा (50 मि.ली.) मिलाकर पिलायें।
रतौंधी की प्रारम्भिक अवस्था में फूलों का रस आँखों में डालने से लाभ होता है।
आँख आने पर (Conjunctivitis) फूलों के रस में शुद्ध शहद मिलाकर आँखों में आँजें।
वीर्यवान बालक की प्राप्ति के लिएः दूध के साथ प्रतिदिन एक पलाशपुष्प पीसकर दूध में मिला के गर्भवती माता को पिलायें, इससे बल-वीर्यवान संतान की प्राप्ति होती है।
पलाश के बीजों द्वारा उपचारः पलाश के बीजों में पैलासोनिन नामक तत्त्व पाया जाता है, जो उत्तम कृमिनाशक है। 3 से 6 ग्राम बीज-चूर्ण सुबह दूध के साथ तीन दिन तक दें । चौथे दिन सुबह 10 से 15 मि.ली. अरण्डी का तेल गर्म दूध में मिलाकर पिलायें, इससे कृमि निकल जायेंगे।
बीज-चूर्ण को नींबू के रस में मिलाकर दाद पर लगाने से वह मिट जाती है।
पलाश के बीज आक (मदार) के दूध में पीसकर बिच्छूदंश की जगह पर लगाने से दर्द मिट जाता है।
छाल व पत्तों द्वारा उपचारः बालकों की आँत्रवृद्धि (Hernia) में छाल का काढ़ा (25 मि.ली.) बनाकर पिलायें।
नाक, मल-मूत्रमार्ग अथवा योनि द्वारा रक्तस्राव होता हो तो छाल का काढ़ा (50 मि.ली.) बनाकर ठंडा होने पर मिश्री मिला के पिलायें।
बवासीर में पलाश के पत्तों की सब्जी घी व तेल में बनाकर दही के साथ खायें।
पलाश के गोंद द्वारा उपचारः पलाश का 1 से 3 ग्राम गोंद मिश्रीयुक्त दूध अथवा आँवले के रस के साथ लेने से बल एवं वीर्य की वृद्धि होती है तथा अस्थियाँ मजबूत बनती हैं और शरीर पुष्ट होता है।
यह गोंद गर्म पानी में घोलकर पीने से दस्त व संग्रहणी में आराम मिलता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 220
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संत श्री आसारामजी बापू (अवतरण दिवसः 23 अप्रैल 2011)


भगवत्प्राप्त महापुरुषों की मनोहर पुष्पमालिका के
दिव्य पुष्पः प्रातःस्मरणीय पूज्य
संत श्री आसारामजी बापू
(अवतरण दिवसः 23 अप्रैल 2011)
मानवमात्र आत्मिक शांति हेतु प्रयत्नशील है। जो मनुष्य-जीवन के परम-लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँच जाते हैं, वे परमात्मा में रमण करते हैं। जिनका अब कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है, जिनको अपने लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है, जिनका अस्तित्वमात्र लोक-कल्याणकारी बना हुआ है, वे संत-महापुरुष कहलाते हैं, क्योंकि उनमें परमात्म-तत्त्व जगा है। महान इसलिए क्योंकि वे सदैव महान तत्त्व 'आत्मा' में अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हैं।
यही महान तत्त्व, आत्मतत्त्व जिस मानव-शरीर में खिल उठता है वह फिर सामान्य शरीर नहीं कहलाता। फिर उन्हें कोई भगवान व्यास, आद्य शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, संत कबीर तो कोई भगवत्पाद पूज्य लीलाशाहजी महाराज कहता है। फिर उनका शरीर तो क्या, उनके सम्पर्क में रहने वाली जड़ वस्तुएँ वस्त्र, पादुकाएँ आदि भी पूज्य बन जाती हैं !
इस अवनितल पर विशेषकर इस भारतभूमि का तो सौभाग्य ही रहा है कि यहाँ अति प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऐसी दिव्य विभूतियों का अवतरण होता ही रहा है। आधुनिक काल में भी संत-अवतरण की यह दिव्य परम्परा अवरुद्ध नहीं हुई है। आज भी ऐसे महान संतों से यह तपोभूमि भारत वंचित नहीं है, यह हमारे और मानव-जाति के लिए परम सौभाग्य की बात है।
पूज्य संत श्री आसारामजी बापू भी संतों की ऐसी मनोहर पुष्पमालिका के एक पूर्ण विकसित, सुरभित, प्रफुल्लित पुष्प हैं। पूज्य श्री अमाप आत्मिक प्रेम के स्रोत हैं। उनके चहुँओर ओर एक ऐसा प्रेममय आत्मीयतापूर्ण वातावरण हर समय रहता है कि आने वाले भक्त-श्रद्धालुजन निःसंकोच अपने अंतर से वर्षों से दबे हुए दुःख, शोक तथा चिंताओं की गठरी खोल देते हैं और हलके हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं- "बापू जी ! आपके पास न मालूम ऐसा कौन सा जादू है कि हम फिर-फिर से आये बिना नहीं रह पाते।"
पूज्यश्री कहते हैं- "भाई ! मेरे पास ऐसा कुछ भी जादू या गुप्त मंत्र नहीं है। जो संत तुलसीदास जी, संत कबीरजी के पास था वही मेरे पास भी है। वशीकरण मंत्र प्रेम को.....
बस इतना ही मंत्र है। सबको प्रेम चाहिए। वह प्रेम मैं लुटाता हूँ। सब कुछ तो पहले ही लुटा चुका हूँ इसलिए मुझे ऐसा अखूट प्रेम का धन 'आत्मधन' मिला है कि उसे कितना भी लुटाओ, खुटता नहीं, समाप्त नहीं होता। लोग अपने-अपने स्वार्थ को नाप-तौलकर प्रेम करते हैं किंतु इधर तो कोई स्वार्थ है नहीं। हमने सारे स्वार्थ उस परम प्यारे प्रभु के स्वार्थ के साथ एक कर दिये हैं। जिसके हाथ में सबके प्रेम और आनन्द की चाबी है उस प्रभु को हमने अपना बना लिया है, इसलिए मुक्तहस्त प्रेम बाँटता हूँ। आप भी सबको निःस्वार्थ भाव से, आत्मभाव से देखने और प्रेम करने की यह कला सीख लो।"
ऐसे महापुरुष जिस ईश्वरीय आनंद में सदा मग्न रहते हैं, वही आनंद वे अपने आसपास भी लुटाते रहते हैं। जो ठीक ढंग से उन्हें थोड़ा भी समझ पाते हैं, वे उनसे लाभ लेकर साधना में आगे बढ़ते रहते हैं।
जिनका अहं गल गया है, जो भीतर से मिटे हैं, जिनका देहाध्यास विसर्जित हो चुका है ऐसे महापुरुषों के द्वारा ही विश्व में महान कार्यों का सृजन होता रहता है। ऐसे संतों के कारण ही इस पृथ्वी में रस है और दुनिया में जो थोड़ी-बहुत खुशी और रौनक देखने को मिलती है वह भी ऐसे महापुरुषों के प्रकट या गुप्त अस्तित्त्व के कारण ही है। 'जिस क्षण विश्व से ऐसे महापुरुषों का लोप होगा, उसी क्षण दुनिया घिनौना नरक बन जायेगी और शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी।' – ऐसा स्वामी विवेकानन्द ने कहा था।
विनोद-विनोद में ऐसे महापुरुष मनुष्यों को आत्मज्ञान का जो अमृत परोसते जाते हैं, उसका संसार में कोई मुकाबला नहीं है।
पूज्य बापू जी का जीवन इस धरती पर मनुष्य जाति के लिए दिव्य प्रेरणा स्रोत है, आनंद का अखूट झरना है। उनका सान्निध्य संसार के लोगों के हृदयों में ज्ञान की वर्षा करता है, उन्हें शांतिरस से सींचता है, प्रेम को पल्लवित करता है, सूझबूझ को सात्त्विक रस से खींचता है, समत्व की सुरभि, विवेक का प्रकाश तथा श्रद्धा और सजगता का सत्त्व भरता है। उनके सत्संग-सान्निध्य और आत्मिक दृष्टिपातमात्रक से लोगों के हृदय में स्फूर्ति तथा नवजीवन का संचार होता है। उनकी हर अँगड़ाई तथा क्रिया में मानव का हित छिपा रहता है। उनके दर्शनमात्र से जीवन से निराश और मुरझाये हुए लाखों-लाखों हृदय नवीन चेतना लेकर खिल उठते हैं। जैसे विशाल समुद्र में कोई जहाज भटक जाय, उसी प्रकार संसार की भूलभुलैया में भटके हुए लोगों के लिए पूज्य श्री का जीवन एक दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है। उनके सान्निध्य में आने वाला हर व्यक्ति उनकी महक से महक उठता है।
पूज्य बापू जी एक ऐसे विशाल वटवृक्ष की भाँति इस धरती पर फैले हुए खड़े हैं, जिसके नीचे हजारों-हजारों यात्राओं तथा दुःखों के ताप से, संसार से तप्त हुए लोग विश्राम ले-लेकर अपने वास्तविक गंतव्य स्थान की ओर गति कर रहे हैं। देवर्षि नारद जी कहते हैं-
संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः।
संसार के त्रिविध तापों से तपे हुए लोगों के लिए पूज्य बापू जी का सत्संग-योग परम अमृत का काम करता है। रंक से लेकर राजा तक और बाल से लेकर वृद्ध तक सभी पूज्य श्री की कृपा के पात्र बनकर अपने जीवन को ईश्वरीय सुख की ओर ले जा रहे हैं। अमीर-गरीब, सभी जाति, सभी सम्प्रदाय, सभी धर्मों के लोग उनके ज्ञान का, आत्मानंद का, आत्मानुभव और योग-सामर्थ्य का प्रसाद लेते हैं। वह स्थान धन्य है जिनकी कोख से वे प्रकट हुए हैं। वह मनुष्य बड़भागी हैं जो उनके सम्पर्क में आता है। वह वाणी धन्य है जो उनका स्तवन करती है। वे आँखें धन्य हैं जो उनका दर्शन करती है और वे कान धन्य हैं जिनको उनके उपदेशामृत-पान करने का अवसर मिलता है।
वे सदैव परमात्मा में स्थित रहते हुए जगत के अनंत दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए ज्ञान, भक्ति, योग, कीर्तन, ध्यान, आनंद-उल्लास की धारा बहाते रहते हैं, समस्त दुःखों के मूल अज्ञान का नाश करते हैं। उनकी वाणी से निरंतर ज्ञानामृत झरता है। वे जो उपदेश देते हैं वह पावन शास्त्र हो जाता है। उनके नेत्रों से प्रेममयी, शीतल, सुखद ज्योति निकलती है। उनके हृदय से प्रेम तथा आत्मानंद के स्रोत(झरने) फूटते हैं। उनके मस्तिष्क से विश्व-कल्याण के विचार प्रसूत होते हैं। जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है, उसके मन, बुद्धि, अंतःकरण पावन होने लगते हैं। जो उनके सम्पर्क में आ जाता है, वह पाप-ताप से मुक्त होकर पवित्रात्मा होने लगता है। उपनिषद कहती हैः
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावराणापिमुच्यंते किं पुनः प्राकृता जनाः।।
'ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !'
उन महापुरुषों के भीतर इतना आनंद भरा होता है कि उन्हें आनंद हेतु संसार की ओर आँख खोलने की भी इच्छा नहीं होती। जिस सुख के लिए संसार के लोग अविरत भागदौड़ करते हैं, रात दिन एक कर देते हैं, एड़ी से चोटी तक का पसीना बहाते हैं फिर भी वास्तविक सुख नहीं ले पाते केवल सुखाभास ही उन्हें मिलता है, वह सच्चा सुख, वह आनन्द उन महापुरुषों में अथाह रूप से हिलोरें लेता है और उनका सत्संग-दर्शन करने वालों पर भी बरसता रहता है।
धन्य है ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने सब स्वार्थों की, मोह-ममता की, अहं की होली जला दी और परमात्म-ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर दुस्तर माया से पार हो गये तथा मनुष्य-जीवन के अंतिम लक्ष्य उस परम निर्भय आत्मपद में आरूढ़ हो गये। लाख-लाख बंदन हैं ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों को जो संसार के त्रिताप से तपे लोगों को उस परम निर्भय पद की ओर ले चलते हैं। कोटि-कोटि प्रणाम हैं ऐसे महापुरुषों को जो अपने एकांत को न्यौछावर करके, अपनी ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर भी दूसरों की भटकती नाव को किनारे ले जा रहे हैं। हम स्वयं आत्मशांति में तृप्त हों, आत्मा की गहराई में उतरें, सुख-दुःख के थपेड़ों को सपना समझकर उनके साक्षी सोऽहं स्वभाव का अनुभव करके अपने मुक्तात्मा जितात्मा, तृप्तात्मा स्वभाव का अनुभव कर पायें, उसे जान पायें – ऐसी उन महापुरुष के श्रीचरणों में प्रार्थना है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 220
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समस्त पापनाशक स्तोत्र



भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक 'अग्नि पुराण' में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिये गये विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम 'समस्त पापनाशक स्तोत्र' है।
निम्निलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें-
पुष्करोवाच
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः।
नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम्।।
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्।
विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम्।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।।
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते।।
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात्।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम्।।
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः।
हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम्।।
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते।।
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।
दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते।।
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।
अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव।।
बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।
जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत।।
यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्।।
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव।।
यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः।
कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।।
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्।।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।
यत् प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम्।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम्।।
(अग्नि पुराणः 172.2-98)
माहात्म्यम् 
पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि।
शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते।।
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम्।।
प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम्।
प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।।
(अग्नि पुराणः 172.17-29)
अर्थः पुष्कर बोलेः "सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो। जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो !कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है। नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये। परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले जगन्नाथ ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, 'पुण्डरीकाक्ष''हृषीकेश''माधव'  आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करे।"
माहात्म्यः जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।
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