9.8.11

सेवा तो सेवा ही है !



(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)
सेवक को जो मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों को भी नहीं मिलता। हिरण्यकशिपु तपस्वी था, सोने का हिरण्यपुर मिला लेकिन सेविका शबरी को जो साकार, निराकार राम का सुख मिला वह हिरण्यकशिपु ने कहाँ देखा, रावण ने कहाँ पाया ! मुझे मेरे गुरुदेव और उनके दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है, वह बेचारे रावण को कहाँ था ! सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवक तो कई आये, कई गये। बहाने बनाने वाले सेवक घुस जाते हैं न, तो गड़बड़ी करते हैं।
'ऋषि प्रसाद' में जो सच्चे हृदय से सेवा करेगा तो उसका उद्देश्य होगा कि हम क्या चाहते हैं वह नहीं, वे क्या चाहते हैं और उनका कैसे मंगल हो – सेवक का यह उद्देश्य होता है। आप क्या चाहते हो और आपका कैसे मंगल हो – यह मेरी सेवा का उद्देश्य होना चाहिए। आपको पटाकर दान-दक्षिणा ले लूँ तो सेवा के बहाने मैं जन्म-मरण के चक्कर में जा रहा हूँ। सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए। जो प्रेमी होता है, जिसके जीवन में सदगुरुओं का सत्संग होता है, मंत्रदीक्षा होती है, भगवान का और मनुष्य-जीवन का महत्त्व समझता है वही सेवा से लाभ उठाता है। बाकी के सेवा से लाभ क्या उठाते हैं, सेवा से मुसीबत मोल लेते हैं। 'मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ...' करके वासना बढ़ाते हैं और संसार में डूब मरते हैं। जो सेवा संसार में डुबा दे, वह सेवा नहीं है। वह तो मुसीबतक बुलाने वाली चालाकी है। जो संसार की आसक्ति मिटाकर' अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अपना शरीर भी नहीं रहेगा। हम दूसरों के काम आयें।' तो अपने-आप...
अपनी चाह छोड़ दे, दूसरे की भलाई में ईमानदारी से लग जाये तो उसके दोनों हाथों में लड्डू ! यहाँ भी मौज, वहाँ भी मौज !
पूरे हैं वो मर्द जो हर हाल में खुश हैं।
तो माँ की, पति की, पत्नी की, समाज की सेवा करे लेकिन बदला न चाहे तो उसका कर्मयोग हो जायेगा, उसकी भक्ति में योग आ जायेगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जायेगा। उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में आनंद है।
'क्या करें, मुझे सफलता नहीं मिलती...' तो टट्टू ! तू सफलता के लिए ही करता है, वाहवाही के लिए करता है। जिसमें जितना वाहवाही का स्वार्थ होता है उतना ही वह विफल होता है और जितना दूसरे की भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही वह सफल होता है। 'मैं सफल नहीं होता हूँ, मैं सफल नहीं होता हूँ...' होगा भी नहीं। स्वार्थी आदमी क्या सफल होंगे ! स्वार्थ में कितने ही सफल दिखें, फिर भी अंदर से अशांत होंगे। शराब पीकर और क्लबों में जाकर सुख ढूँढेंगे। क्या खाक तुमने सेवा की।
सेवा तो शबरी की है, सेवा तो राम जी की है, सेवा तो श्रीकृष्ण की है, सेवा तो कबीर जी की है और सेवा तो ऋषि प्रसादवालों की है, अन्य सेवकों की है। यह सोचकर बड़े पद पर बैठ गया कि बड़ी सेवा करेंगे तो यह बेईमानी है। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है। सारे पद सच्चे सेवक के आगे-पीछे घूमते हैं। कोई बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हो, बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर श्रेष्ठ जगत का मोही हो जायेगा। लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर तन से, मन से, विचारों से दूसरे की भलाई, दूसरे का मंगल करता है और मान मिले, चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की 'हनुमान जयंती' मनायी जाती है। हनुमानजी देखो तो जहाँ छोटा बनना है छोटे और जहाँ बड़ा बनना है बड़े बन जाते हैं। सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता की अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है !
'ऋषि-प्रसाद' बाँटने वाले को मान-अपमान थोड़े ही प्रभावित करता है ! मान मिला वहाँ ऋषि प्रसाद का सदस्य बनाने गया, मान नहीं मिला तो नहीं गया तो वह सेवक नहीं है, वह तो मान का भोगी है। चाहे मान मिले या अपमान मिले, यश मिले या अपयश मिले, सेवा तो सेवा ही है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 27,29 अंक 223
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भगवान के भी काम आ जाओ



(पूज्य बापू जी)
जिन्होंने भगवान के सत्स्वभाव को पाया है, चैतन्य स्वभाव को पाया है, आत्मानंद स्वभाव को पाया है, ऐसे सदगुरुओं के नजरिये से ही हमारी मान्यताओं के जाले कटते हैं। नहीं तो शास्त्र और सामाजिक व्यवस्था, हमारे रीति-रिवाज की व्यवस्था हमको ऐसे बंधनों में बाँध देती है कि उधर से निकले तो उधर फँसे, एक से निकले तो दूसरे में फँसे। जैसे मकड़ी जाल बना देती है और जीवों को फँसा देती है, ऐसे ही पत्नी का अपना जाल है, पुत्र का अपना जाल है।
बेटा कहेगाः "पिताजी ! आपका कर्तव्य है हमें पालना, अभी मैं छोटा हूँ, पढ़-लिख लूँ फिर आप भजन करने को जाइये।"
बाप का अपना जाल है कि 'पिता को छोड़कर कहाँ जा रहा बेटा ? पिता की सेवा करना तुम्हारा कर्तव्य है।' सब अपना-अपना उल्लू बनाकर, नोचकर छोड़ देंगे। नेता बोलेगाः 'तुम मेरे काम में आ आओ।' सब अपने-अपने काम में आपको लाकर, निचोड़कर छोड़ देंगे। जब सदगुरु मिलेंगे तो बतायेंगे कि 'दूसरों के काम तो आ गये लेकिन दूसरों के काम वास्तव में वही आता है जो अपना काम निपटाने में सजग रहता है।' नहीं तो जो अपना काम निपटाने में सजग नहीं है, वह दूसरों के काम आने वाला बनकर भी उनके प्रति वफादार नहीं रहेगा। महात्मा बुद्ध ने अपना काम निपटा लिया तो दूसरों के काम अच्छी तरह से आये। संत कबीर जी ने अपना काम निपटाया या हमने अपना काम निपटाया तो अच्छी तरह से दूसरों के काम आते हैं। अगर हम अपना काम भटका देते और किसी पदवी, प्रमाण-पत्र के पीछे लग जाते कि'ऐसा बनूँ, ऐसा बनूँ...' तो दूसरों के काम हम इतना नहीं आ सकते थे। गरीबों में भंडारे होते हैं न, तो आदिवासी जब बाँटीक हुई सामग्री ले जा रहे होते हैं, तब उनके चेहरे की रौनक देखकर लगता है कि हम जिनके काम आये उनको खुशी हो रही है।
जब हम आपके बीच होते हैं तो चाहें तो आपसे मिलें, लाइन लगवायें। रूपये-पैसे ऐंठना हो तो खूब ऐंठ सकते हैं कि 'इस पर्व में दान का कयह महत्त्व है, वह महत्त्व है...।' लेकिन यह हम आपके धन के काम आये, आपके काम नहीं आये। हम तो आपके काम आने के लिए आपको लाइन में से, इससे-उसमें से रोककर आप जितने भी उन्नत हो सकते हैं, उतना सब प्रकार से यत्न करते हैं।
तो शरीर से समाज के मन से भगवान के और एकांत-सेवन, ईश्वर-उपासना व बुद्धियोग से मनुष्य अपने-आपके काम आता है।
शरीर से भले हम एक-दूसरे के, समाज के काम आये लेकिन अपने को इतना घिस-पिट न डालें कि भगवान के काम न आयें। मन से भगवान के काम आ पायें इसलिए तो शरीर को थोड़ा आराम भी चाहिए, मन को शांति भी चाहिए। भगवान से प्रीति करो तो भगवान के काम आ गये।
समाज के यथायोग्य काम आ जाओ, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, अविद्यावान को विद्या, नासमझ को समझ – कुल मिला के जिसको जैसे यहाँ अभी और बाद में लाभ हो, ऐसी कोशिश करना यह समाज के काम आना है। इसका मतलब यह नहीं कि 'शराबी को अंडे और मांस चाहिए तो उसके काम आ जाऊँ, कामी-विकारी को भोग चाहिए तो उसके काम आ जाऊँ।' यह अर्थ नहीं लगाना, शास्त्र-मर्यादा के अंदर रह के सेवा करना। किसी के काम आ जायें, तो दिवाली के दिन हैं और पाँच हजार रूपये आपको किसी को दान करते हैं। 'किसको दूँ, किसको दूँ ? अरे, पाँच हजार रूपये की फिल्म की टिकटें ले आता हूँ और रेलवे स्टेशन पर कुलियों में बाँट देता हूँ। वे बेचारे खुश हो जायेंगे, मजा आ जायेगा।' तुम्हारे पाँच हजार का तो सत्यानाश हुआ और उनके मन का, नेत्रों का और समाज का सत्यानाश हुआ। यह तुम उनके काम नहीं आये। देश, काल और पात्र देखकर दान करना चाहिए। उसको मजा आ जाय.... नहीं, उसकी उन्नति हो, उसका मंगल हो। मंगल के साथ मजा आता हो तो हरकत नहीं लेकिन अमंगल करके मजा न दिलाओ।
तो शरीर से हम समाज के काम आ गये, माता-पिता, पत्नी आदि लोगों के काम आ गये। मन से हम भगवान को प्रीति करें, उन्हें अपना मानें तो भगवान के काम आ गये और बुद्धि से हम अपने आत्मदेव को जानें। सात्त्विक बुद्धि, राजसी बुद्धि और तामसी बुद्धि – ये तीन गुणों वाली बुद्धि बदलती है लेकिन एक ऐसा तत्त्व है कि तीनों गुणों की बदलाहट को भी जानता है। ऐसा बुद्धियोग करके हम अपने-आपके काम आ जायें। और नित्य नवीन ज्ञान, नित्य नवीन आनंद....। फिर रस के लिए बाहर भटकना नहीं पड़ेगा। इन्द्र कहते हैं कि 'ऐसे आत्मवेत्ता सदगुरू मिल जायें तो परम सौभाग्य की बात है। मुझे सुख लेना है तो अप्सराएँ नाचें, गंधर्व गायें, साजी साज बजायें तब सुख मिलता है, लेकिन जिसने अपने-आपको पा लिया है, जो अपने-आपके काम आ गया है ऐसे महापुरुष की दृष्टि पड़ती है तो मनुष्य को आत्मा का नित्य नवीन रस मिलने लगता है। जैसे चन्द्रमा की नित्य नवीन शीतलता होती है, उससे अनंत गुना नित्य नवीन परमात्म-रस, परमात्म-ज्ञान, परमात्म-प्रेम उन महापुरुष के हृदय में उमड़ता रहता है। चन्द्रमा औषधि को पुष्ट करता है लेकिन महापुरुष की वाणी और दृष्टि हमको पुष्ट करती है।'
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 223
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परम हितैषी गुरु की वाणी बिना विचार करे शुभ जान



(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
गणेशपुरी (महाराष्ट्र) में मुक्तानंद बाबा हो गये। उनके गुरु का नाम था नित्यानंद स्वामी। नित्यानंदजी के पास एक भक्त दर्शन करने के लिए आता था। उसका नाम था देवराव। वह काननगढ़ में मास्टर था। देवराव खूब श्रद्धा-भाव से अपने गुरु को एकटक देखता रहता था।
सन् 1955 की घटना है। वह नित्यानंदजी के पास आया और कुछ दिन रहा। बाबाजी से बोलाः
"बाबा ! अब मैं जाता हूँ।"
बाबा ने कहाः "नहीं-नहीं, अभी कुछ दिन और रहो, सप्ताह भर तो रहो।"
"बाबा ! परीक्षाएँ सामने हैं, मेरी छुट्टी नहीं है। जाना जरूरी है, अगर आज्ञा दो तो जाऊँ।"
"आज नहीं जाओ, कल जाना और स्टीमर में बैठो तो फर्स्ट क्लास की टिकट लेना। ऊपर बैठना, तलघर में नहीं, बीच में भी नहीं, एकदम ऊपर बैठना।
"जो आज्ञा।"
एक शिष्य ने पूछाः "बाबा ! साक्षात्कार का सबसे सरल मार्ग कौन सा है ? हम जैसों के लिए संसार में ईश्वरप्राप्ति का रास्ता कैसे सुलभ हो ?"
बाबा ने कहाः "सदगुरू पर दृढ़ श्रद्धा करो, बस !" गुरु वाणी में आता हैः
सति पुरखु जिनि जानिआ
सतिगुरु तिस का नाउ।
तिस कै संगि सिखु उधरै।
नानक हरिगुन गाउ।।
जिसने अष्टधा प्रकृति के द्रष्टा सत्पुरुष को पहचाना है, उसी को सदगुरु बोलते हैं। उसके संग से सिख (शिष्य) का उद्धार हो जाता है।
बाबा ने अपने सिर से एक बाल तोड़कर उसके एक छोर को अपनी उँगली से लगाकर दिखाते हुए बोलेः "सदगुरु के प्रति इतनी भी दृढ़ श्रद्धा हो, मतलब रत्ती भर भी दृढ़ श्रद्धा हो तो तर जायेगा। जिसने संत को जाना है, ऐसे सदगुरु के प्रति बाल भर भी पक्की श्रद्धा हो, उनकी आज्ञा का पालन करो तो बस हो जायेगा। कठिन नहीं है।"
संत कबीर जी ने भी कहा हैः
सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरू रूठे नहिं ठौर।।
भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, योगमार्ग और एक ऐसा मार्ग है कि जो महापुरुषों के प्रति श्रद्धा हो और उनके वचन माने तो वह भी तर जाता है। इसको बोलते हैं संत-मत।
देवराव ने गुरुजी की आज्ञा मानीक। स्टीमर में एकदम ऊपरी मंजिल की टिकट करायी। स्टीमर डूबने के कगार पर आ गया। कप्तान ने वायरलेस से खबर दी और मदद माँगी। मदद के लिए गोताखोर, नाव और जहाज आदि पहुँचे, उसके पहले ही तलघर में पानी भर गया, बीचवाले भाग में भी पानी भर गया लेकिन देवराव ने तो अपने गुरु की बात मानकर ऊपर की टिकट ली थी तो ऊपर से देखते रहे। इतने में मददगार आ गये और वे सही सलामत बच गये। गुरु लोग वहाँ (परलोक) का तो ख्याल रखते हैं लेकिन यहाँ (इहलोक) का भी ख्याल रखते हैं। अगर कोई उनकी आज्ञा मानकर चले तो बड़ी रक्षा होती है। योग्यता का सदुपयोग करे, संसार की चीजों की चाह को महत्त्व न दे और धन, सत्ता आदि किसी बात का अभिमान न करे। बाल के अग्रभाग जितना भी यदि दृढ़तापूर्वक गुरु आज्ञा का पालन करे तो शिष्य भवसागर से पार हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 223
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