7.9.10

सत्संग यही सिखाता है


(परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )


'लोग बोलते हैं कि इच्छा छूटती नहीं, इच्छा छोड़ना कठिन है' लेकिन संत बोलते हैं कि 'इच्छा पूरी करना असंभव है।' इच्छा पूरी नहीं होती, इच्छा गहरी होती जाती है। जो कठिन काम है वो तो हो सकता है लेकिन जो काम असम्भव है तब नहीं हो सकता है। हमें इच्छाएँ खींचती हैं इसलिए हम सत् वस्तु (परमात्मा) से दूर हो जाते हैं। किस विषय की इच्छाएँ खींचती हैं ? या तो देखने की या तो सुनने की या सूँघने की या चखने की या स्पर्श करने की। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध.... इन पाँच प्रकार के विषयों की इच्छाएँ हमें घसीटती हैं। अब आज हमारी जो स्थिति है, जो अवस्था है, इसके जवादार हम हैं। हमारी इच्छाएँ घूम-फिरकर देर-सवेर अवस्था का रूप धारण कर लेती हैं। इच्छाएँ आकर अवस्था दे जाती हैं, मिटती नहीं और दूसरी बन जाती है।

विषम इच्छाएँ होती हैं इसीलिए हम दुःखी होते हैं। सजातीय इच्छा हुई और वह पूरी हुई तो गहरी चली जायेगी। इच्छा थोड़ी देर के लिए पूरी हुई, थोड़ी देर का हर्ष हुआ परंतु जिस वस्तु से सुख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर राग की एक गहरी लकीर खींच दी और जिस वस्तु से दुःख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर भय की लकीर खींच दी। इच्छाएँ पूरी नहीं हुई बल्कि उन्होंने हमारे चित्त को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अब क्या करना चाहिए ?

एक तो होती है सत् वस्तु और दूसरी होती है असत् वस्तु। तो मन के फुरने, कल्पनाएँ जो हैं कि 'यह करूँ तो सुखी होऊँगा, यह करूँ तो सुखी होऊँगा...' इन कल्पनाओं के द्वारा असत् वस्तु को पाने की इच्छा हमारे जीवन को टुकड़े-टुकड़े कर देती है और सत्संग के द्वारा सत्त्वगुण बढ़ायें तो हम सत् वस्तु अपने सत्स्वरूप को पा लेते हैं।

दो चीजें होती हैं। एक होती है – नित्य और दूसरी होती है – अनित्य। बुद्धिमान आदमी अपने लिए अनित्य वस्तु पसंद करने के बजाय नित्य वस्तु पसंद करेगा, असत् वस्तु पसंद करने के बजाय सत् वस्तु पसंद करेगा। जो नित्य है, आप उसको पसंद करना और जो अनित्य है, उसका उपयोग करना।

देह अनित्य है – पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है। जो वस्तु अभी मिली है, वह पहले हमारे पास नहीं थी और मिली है तो उसको छोड़ना पड़ेगा। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मिली हुई और आप सदा रख सकें। या तो मिली हुई वह वस्तु आपको छोड़नी पड़ेगी या वस्तु आपको छोड़कर चली जायेगी। फिर चाहे वह नौकरी हो, चाहे मकान हो, चाहे परिवार हो, चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, चाहे गाड़ी हो, चाहे देह हो। देह आपको मिली है तो उसे छोड़ना पड़ेगा। बचपन आपको मिला था तो छूट गया। जवानी मिली थी, छूट गयी। बुढ़ापा मिला है, छूट जायेगा। मौत मिलेगी, वह भी छूट जायेगी किंतु आप नहीं छूटोगे क्योंकि आप अछूट आत्मा हो, स्वतः सिद्ध हो, सच्चिदानंदघन हो। जो मिली हुई चीज है उसको आप रख नहीं सकते और अपने-आपको छोड़ नहीं सकते। कितना सरल सत्य है, कितना सनातन सत्य है, कितना स्वाभाविक है !

लोग बोलते हैं, संसार को छोड़ना कठिन है लेकिन संतों का यह अनुभव है, सत्संग से हमने यह जाना है कि संसार को छोड़न कठिन नहीं, संसार को रखना असम्भव है। कठिन नहीं, असम्भव ! परमात्मा को छोड़ना असम्भव है। ईश्वर को आप छोड़ नहीं सकते और जगत को आप रख नहीं सकते। देखो, कितना सरल सौदा है !

बचपन छोड़ने की आपने मेहनत की क्या ? अपने आप छूट गया। बचपन छोडूँ, बचपन छोडूँ.... कोई रट लगायी थी ? जवानी छोड़ूँ, जवानी छोड़ूँ... कोई चिन्ता की थी ? छूट गयी। आप रखना चाहें तो भी छूट जायेगी। ऐसे ही अपमान छोड़ूँ, निंदा छोड़ूँ या स्तुति छोड़ूँ... नहीं ये अपने आप छूटते जा रहे हैं। एक साल पहले जो आपकी निंदा या स्तुति का प्रसंग था, वह अभी पुराना हो गया, तुच्छ हो गया। जो निंदा हुई वह पहले दिन बड़ी भयानक लगी, जो स्तुति हुई वह पहले दिन बड़ी मीठी लगी लेकिन अब देखो, सब पुराना हो गया। संसार की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है, कोई स्थिति नहीं है कि जिसको आप रख सकें। आपको छोड़ना नहीं पड़ता है महाराज ! छूटता चला जा रहा है।

संसार को थामना असम्भव है और अपने को हटाना असम्भव है। जिसको आप हटा नहीं सकते वह है सत् वस्तु और जिसको आप रख नहीं सकते वह है असत् वस्तु। सत्संग सत् वस्तु का बोध कराने के लिए होता है और जब तक सत् वस्तु का बोध नहीं हुआ तब तक आदमी कहीं टिक नहीं सकता क्योंकि असत् शाश्वत नहीं है। तो असत् का उपयोग करो और सत् का साक्षात्कार करो। बस, सत्संग यही सिखाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 210

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