21.5.11

सृष्टि कैसे बनी ?



(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)
सृष्टि के विषय में विचार करते-करते बहुत उच्चकोटि के महापुरुषों ने तीन विकल्प खोजे।
पहला विकल्प था 'आरम्भवाद'। इसके अनुसार जैसे कुम्हार ने घड़ा बना दिया, सेठ ने कारखाना बना दिया, आरम्भ कर दिया, ऐसे ही ईश्वर ने दुनिया चलायी। कुम्हार का बनाया हुआ घड़ा कुम्हार से अलग होता है, सेठ का कारखाना उससे अलग होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर की बनायी हुई दुनिया उससे अलग है। लेकिन दुनिया में तो ईश्वर की चेतना दिखती हैं। तो दुनिया और ईश्वर अलग-अलग कहीं रहे?
दूसरा विकल्प खोजा 'परिणामवाद" अर्थात् जैसे दूध में से दही बनता है ऐसे ही ईश्वर ही दुनिया बन गये। दूध में से दही बन गया तो फिर वापस दूध नहीं बनता, ऐसे ही ईश्वर ही सारी दुनिया बन गये तो सृष्टि की नियामक ईश्वरीय सत्ता कहाँ रही? ईश्वर बनते बिगड़ते हैं तो ईश्वर का ईश्वरत्व एकरस कहाँ रहा?
खोजते-खोजते वेदान्त को जाननेवाले तत्त्वेता महापुरुष आखिर इस बात पर सहमत हुए कि यह सृष्टि ईश्वर का विवर्त है। 'विवर्तवाद' अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहें और उसमें यह सृष्टि प्रतीत होती रहे। जैसे तुम्हारा आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है और रात को उसमें सपना प्रतीत होता है – लोहे की रेलगाड़ी, उसकी पटरियाँ और घूमने वाले पहिये आदि।
तुम चेतन हो और जड़ पहिये बना देते हो, रेलगाड़ी बना देते हो, खेत-खलिहान बना देते हो। रेलवे स्टेशनों का माहौल बना देते हो। सपने में अजमेर का मीठा दूध पी ले भाई!... आबू की रबड़ी खा ले... मुंबई का हलुआ... नडियाड के पकौड़े खा ले...' – सारे हॉकर, पैसेंजर और टी.टी. भी तुम बना लेते हो। तुम हरिद्वार पहुँच जाते हो। 'गंगे हर' करके गोता मारते हो। फिर सोचते हो जेब में घड़ी भी पड़ी है, पैसे भी पड़े हैं। घड़ी और पैसे की भावना तो अंदर है और घड़ी व पैसे बाहर पड़े हैं। पुण्य प्राप्त होगा यह भावना अंदर है और गोता मारते हैं यह बाहर है। तो सपने में भी अंदर और बाहर होता है। तुम्हारे आत्मा के विवर्त में अंदर भी, बाहर भी बनता है, जड़ और चेतन भी बनता है फिर भी आत्मा ज्यों-का-त्यों रहता है।
ऐसे ही यह जगत परब्रह्म परमात्मा का विवर्त है। इसमें अंदर-बाहर, स्वर्ग-नरक, अपना-पराया सब दिखते हुए भी तत्त्व में देखो तो ज्यों-का-त्यों ! जैसे समुद्र की गहराई में शांत जल है और ऊपर से कई मटमैली तरंगे, कई बुलबुले, कई भँवर और किनारे के अलग-अलग रूप रंग दिखते हैं। उदधि की गहराई में पानी ज्यों-का-त्यों हैं, ऊपर दिखने वाली तरंगे विवर्त हैं। जैसे सागर में सागर के ही पानी से बने हुए बर्फ के टुकड़े डूबते उतराते हैं, ऐसे परब्रह्म परमात्मा ज्यों-का-त्यों है और यह जगत उस में लहरा रहा है। इस प्रकार वेदांत-दर्शन का यह 'विवर्तवाद' सर्वोपरि एवं अकाट्य है।
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