10.8.11

पतितों को भी पावन कर देती है मंत्रदीक्षा




मूढ़ व्यक्ति परिस्थितियों से तृप्ति चाहता है और बुद्धिमान अपने आत्मा से तृप्त रहता है। जो ईश्वरप्राप्ति के रास्ते चलता है वह खुद भी उन्नत होता है, खुद भी मुक्त होता है और दूसरों को भी मुक्त करता है। आप भी इसी जन्म में ईश्वरप्राप्ति का पक्का इरादा करके दृढ़तापूर्वक चल पड़ो। अपनी मेहनत के बल से नहीं, भगवान की, गुरु की कृपा से भगवान सरलता से मिल जाते हैं। अपना ईमानदारी का प्रयत्न और भगवत्कृपा... अपनी तत्परता में ईश्वरकृपा मिला दो। जैसे बच्चे का हाथ पकड़कर माँ या बाप उसकी यात्रा करवा देते हैं, ऐसे भगवान और संत भी भगवत्प्राप्ति की यात्रा करवा देते हैं। मेरे गुरुजी ने मेरा हाथ पकड़कर यात्रा करवा दी, मैंने क्या मेहनत की !
तीन प्रकार के लोग होते हैं। एक, भगवान की भक्ति कर संसार की चीज चाहते हैं। दूसरे, भगवान की भक्ति से भगवान को ही चाहते हैं। तीसरे, प्रीतिपूर्वक भजन कर गुरुकृपा और भगवत्कृपा से भगवान को चाहते हैं। उन लोगों की बाजी ऐसी लगती है जैसे कोई कंगाल आदमी करोड़पति की गोद चले जाने से बिना परिश्रम किये ही करोड़पति बन जाता है। जैसे – सौराष्ट्र के हालार प्रांत में जामखम्भालिया गाँव के लोहार पंचाल जाति की एक कुप्रसिद्ध सुंदर कन्या वहाँ के सुप्रसिद्ध गुरु की गोद चली गयी और उसका जीवन बदल गया। उसका नाम लोयण था।
पहले एक राजपूत (लाखा) से उसका गलत संबंध हो गया था। एक दिन नगर में संत सैलनसी बाबा का आगमन हुआ। पनघट पर कुछ माइयाँ आपस में बात कर रही थीं कि 'जल्दी-जल्दी पानी भरो, संत के दर्शन करने जायेंगे, जल्दी करो।'
लोयण बोलीः "मैं भी चलूँगी।"
"लोयण ! तुम सत्संग में नहीं जा सकती।"
"जाना चाहूँ तो कौन रोक सकता है ?"
माइयाँ मसखरी करते हुए बोलीं- "लाखा.....! तुमको तो लाखा से पूछना पड़ेगा !"
लोयण को चोट लग गयी। वह सोचती है, 'क्या मैं इतनी नीच हूँ कि संत के सत्संग में नहीं जा सकती ! मैं घर नहीं जाऊँगी, पहले मैं उन महापुरुष के पास ही जाऊँगी।'
सिर पर पानी का मटका लिये वह पहुँची। देखा तो संतश्री अभी आ ही रहे थे। तुच्छ समझकर उसकी ऐसी-वैसी बातों की फरियाद करके लोगों ने उसे बाबा के पास जाने से रोकना चाहा।
बाबा बोलेः "नहीं, नहीं.... यह तो मेरी बेटी है... आने दो। क्यों बेटी ! पानी ले आयी है न अपने बाबा के लिए ?"
अब देखो भगवान की कैसी लीला है ! जिसको लोग तुच्छ मानते थे, जो लोगों की नजरों में हीन कन्या, कामिनी कन्या थी, उसको संत के हृदय के द्वारा बुलवाते हैं कि 'बेटी ! तू मेरे लिए पानी लाया है न ?'
लोयण बोलीः "बाबा ! सारा गाँव मुझे दुत्कारता है। मुझ पापिन के हाथ का पानी आप पियेंगे क्या ?"
"तू अपने को पापिन मत मान। तू तो मेरी बेटी लगती है, ला पानी।"
लोग दाँतों तले उँगली दबाते रह गये। बाबा ने उसका जल पी लिया और कहाः "तू सत्संग में आना। आयेगी न ?"
"हाँ बाबा ! आऊँगी।"
कभी-कभी अपराधी प्रवृत्ति के लोग और दो नम्बरी लोग वचन के ऐसे पक्के होते हैं किक एक नम्बरी देखते रह जायें।
लोयण गयी। संत सैलनसी का सत्संग सुना, उसका हृदय ग्लानि से भर गया। पश्चाताप की आग ने पुरानी वासनाओं और पापों को झकझोर दिया। उसका हृदय अब धीरे-धीरे भगवत्प्रेम से, भगवद् भक्ति से भर गया।
ग्लानि से भरी हुई लोयण सत्संग के बाद बाबा के पास जाकर आँसू बरसाते हुए कहती है कि "बाबा ! आप मुझे मंत्रदीक्षा देकर स्वीकार करेंगे ?"
बाबा ने उसको दीक्षा दी। जप, ध्यान, प्राणायाम, त्राटक आदि करने की विधि बतायी और साथ में एक तानपूरा (वीणा) देते हुए कहाः "ले इसे बजा। आज से प्रभु के गीत गाना, आनंदित रहना। दीक्षा मिली है.... जप करना, शास्त्र पढ़ती रहना, भजन गाते-गाते शांत होती जाना, भगवन्नाम जपते हुए शांत.... भगवन्नाम का ऊँचा उच्चारण करके शांत....। रात्रि को सोते समय श्वासोच्छवास को गिनना, सुबह उठते समय भगवान से, गुरु से एकाकार हो जाना। अब तू काम के कीचड़ में नहीं गिरेगी, तू रामरस में चमकेगी।"
सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। सैलनसी बाबा की आज्ञा के अनुसार लोयण ने अपनी पूरी दिनचर्या बदल ली। महाराज ! आस-पड़ोस में जो लोग उसे हीन दृष्टि से देखथे थे, नफरत करते थे, वे आदर की दृष्टि से देखने लगे, सम्मान करने लगे। अब लोयण कामिनी नहीं, लोयण वेश्या नहीं, धीरे-धीरे लोयण देवी बन गयी।
लाखा डकैती करके दो-चार महीनों के बाद गाँव में पहुँचा। लोगों ने बताया कि 'लोयण भक्ताणी बन गयी है।'
लाखा ने देखा कि लोयण की वेशभूषा बदल गई है और हाथों  तान-तम्बूरा है।
"लोयण ! तूने यह क्या कर लिया है ?"
लोयण बोलीः "वह भूतकाल हो गया लाखा ! सदा कीड़ा दलदल में रहे, कोई जरूरी नहीं है, कोई महापुरुष उसे उठाकर ऊँची जगह पर भी पहुँचा सकते हैं न !"
"लोयण ! तू यह तान-तम्बूरा छोड़ दे, नहीं तो मैं तेरा तम्बूरा उठा के फेंक दूँगा।"
"लाखा ! दुबारा मत बोलना। यह मेरे गुरुजी की प्रसादी है, कुछ का कुछ हो सकता है।"
लाखा ने लोयण को बलपूर्वक गले लगाने का प्रयास किया, तभी लोयण ने पुकार लगायीः "हे प्रभु ! बचाओ।' लाखा के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गयी और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। जब वह मूर्च्छा से जगा तो देखा कि सारे शरीर में कोढ़ फूट निकला है। घर गया, कोई दवाई करो तो कुछ काम नहीं आती। ज्यों-ज्यों इलाज किया, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया। बारह साल लाखा बिस्तर पर पड़ा रहा और लोयण बारह साल की साधना में इतनी आगे बढ़ी कि पूरे सौराष्ट्र को लोयण देवी के भजनों ने, तान-तम्बूरों ने डोलाना शुरु कर दिया। लोयण अब भोग्या नहीं, भगवान का प्रसाद बाँटने वाली देवी हो गयी। गुरुजी आये। लोयण की साधना में ऊँचाई देखकर उन्हें संतोष हुआ।
"बाबा ! मैं लाखा का भला चाहती हूँ। आप उसका भी मंगल कर सकते हो न !"
बाबा बोलेः "हाँ लोयण ! अब उसके कर्म कट गये हैं। चलो, हम चलते हैं लाखा के घर।"
लोयण बाबा के साथ लाखा के घर गयी। लाखा कोढ़ की बीमारी से रिबा रहा था, मूर्च्छित-सा पड़ा था।
लोयण ने कहाः "लाखा ! मैं लोयण आयी हूँ।"
लोयण का नाम सुनते ही मानों उसके प्राणों में नयी चेतना का संचार हो गया। उसने आँखें खोलीं। आँखों में अब वह काम-विकार नहीं था, पश्चाताप के आँसू बह रहे थे। वह हाथ जोड़कर बोलाः "लोयण ! तू मुझे  माफ कर दे। तू धरती की देवी, प्रभु का प्रेमावतार है।"
लोयण बोलीः "लाखा ! मेरे गुरुदेव आये हैं।"
लाखा ने हाथ जोड़कर बाबा को प्रणाम किया, बोलाः "बाबा ! लोयण को आपने दिव्य देवी बना दिया, अब मुझ पापी पर भी दया करो। बाबा ! लोयण को आपने जो मंत्रदीक्षा का दान दिया, वह मुझे भी दे दो। मेरे पाप का दण्ड मुझे मिल गया।"
बाबा मुस्कराये, अपना कृपादृष्टिवाला जल पिला दिया और थोड़ा-सा उसके ऊपर छाँट दिया। उसे भी भगवन्नाम की दीक्षा दे दी।
लाखा, लोयण ऐसे भक्त हो गये, ऐसे पवित्र हो गये कि उनके भजन सुनकर और उनके सम्पर्क में, सत्संग में आकर कितने तर गये उसका हिसाब मैं नहीं बता सकता। मेरे सत्संग से कितने लोगों को लाभ हुआ, मैं नहीं बता सकता हूँ, भगवान ही जानें। संत के दर्शन-सत्संग और उनसे प्राप्त मंत्रदीक्षा का कैसा दिव्य प्रभाव है !
चौरासी लाख योनियों के बंधनों में बँधा जीव 'यह मिले तो सुखी.. वह मिले तो सुखी... यह भोगूँ तो सुखी...' ऐसा सोचते-सोचते सुखी होने के चक्कर में दुःख, पीड़ा, वासना, विकार में ही मर जाता है, निर्विकार नारायण के ज्ञान और आनंद से अछूता रह जाता है।
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना, चौरासी में आना-जाना.... हाय रे हाय !
केवल सदगुरू ही तारणहार है, जो जीव को चौरासी लाख योनियों के बंधनों से मुक्त कराते हैं। सदगुरू जब शिष्य को मंत्रदीक्षा देते हैं तो उसकी सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, उसके अंदर के रहस्य खुलते हैं। नाम-कमाई कर वह भवसागर से पार हो जाता है, स्वयं सुखस्वरूप हो जाता है। फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
                                                                                -पूज्य बापू जी

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स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 12,13,14 अंक 223
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