3.9.10

।।गूरूपूर्णिमा।।



गुरुदेव कह रहे हैं- "हे जीव ! हे वत्स ! अब तू तेरे निज शिव-स्वभाव की ओर जा। अब तू प्रगति कर। ऊपर उठ। कब तक प्रकृति, जन्म-मृत्यु और दुःखों की गुलामी करता रहेगा !

गुरुपूर्णिमा का यह उत्सव उत्थान के लिए आयोजित किया गया है। तू विलम्ब किये बिना इस उत्सव में आकर अत्यन्त आनंदपूर्वक भाग ले। आ जा.... आ जा.... तू तेरे अपने सिंहासन पर आकर बैठ जा। साधक कोई डरपोक सियार या गरीब बकरी नहीं है, साधक तो सिंह है सिंह ! आध्यात्मिक सत्संग में उमंगपूर्वक आने वाले साधक के लिए तो गुरु का हृदय ही सिंहासन है। उस सिंहासन पर तू आरूढ़ हो। तू अपनी महिमा में आ जा। तू आ जा अपने आत्मस्वभाव में....

वत्स ! तू तेरे उत्कृष्ट जीवन में ऊपर उठता जा। प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा। दृढ़ निश्चय कर कि अब अपना जीवन दिव्यता की तरफ लाऊँगा।"

दया के सागर, कृपासिंधु वेदव्यासजी को हम नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को हम व्यास कहते हैं। उन्होंने मानव-जाति का परम हित करने के लिए ऐश-आराम, ऐन्द्रिक आकर्षण का, सबका त्याग करके जीवनदाता के साथ एकत्व साधा और जीवन के सभी पहलुओं को देख लिया। उन्होंने जीवन का उज्जवल पक्ष भी देखा और अंधकारमय पक्ष भी देखा। आसुरी भावों को भी देखा, सात्त्विक भावों को भी देखा और इन दोनों भावों को सत्ता देने वाले भावातीत, गुणातीत तत्त्व का भी साक्षात्कार किया। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों से लाभ लेने का पर्व, उनके और निकट जाने का पर्व है गुरूपूर्णिमा।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं किंतु गुरूपूर्णिमा का पर्व हमारे उत्कर्ष के लिए मनाता है।

गुरूदेव कहते हैं- "हे बंधु ! हे साधक ! तू कब तक संसार के गंदे खेलों को खेलता रहेगा ! कब तक इन्द्रियों की गुलामी करता रहेगा ! कब तक तू इस संसार का बोझ वहन करता रहेगा ! कब तक अपने अनमोल जीवन को मेरे तेरे के कचरे में नष्ट करता रहेगा ! जाग... जाग.... जाग... अब तो जाग.... अहंकार को लगा दे आग और निजस्वरूप में जाग... लगा दे विषय-विकारों को आग और निजस्वरूप में जाग ! लगा दे जीवत्व को आग और शिवस्वरूप में जाग !

तू अभी जहाँ है वहीं से प्रगति कर। उठ, ऊपर उठ। जैसे वायुयान पृथ्वी को छोड़कर गगन में विहार करता है, ऐसे ही तू मन से देहाध्यास छोड़कर ब्रह्मानंद के विराट गगन में प्रवेश करता जा। ऊपर उठता जा। विशालता की तरफ आगे बढ़ता जा।

अरे ! कब तक इन जंजीरों में जकड़ा रहेगा ! जंजीर लोहे की हो या ताँबे की या फिर भले सोने की हो परंतु जंजीर तो जंजीर है। स्वतन्त्रता से वंचित रखने वाली पराधीनता की बेड़ी ही है।

हे वत्स ! दीन-हीन बनकर कब तक गुलामी की जंजीरी में जकड़ता रहेगा ! गुलाम को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। कल्पनाओं की जंजीरें खींचने से न टूटती हो तो ॐ की शक्तिशाली गदा मारकर इन्हें तोड़ डाल। ॐ..... ॐ.....

अब तक जन्म-मरण के चक्कर को काट डाल। चौरासी लाख शीर्षासनों की परम्परा को तोड़ दे। तुझमें असीम बल है, असीम शक्ति है, अनंत वेग है, असीम सामर्थ्य है। ॐ... ॐ.... ऊपर उठता जा, आगे बढ़ता जा।"

गुरुतत्त्व की प्रेरक सत्ता में निमग्न होने वाले साधक, सत्शिष्य के अंदर गुरुवाणी का गुंजन होने लगा। अंदर से गुरुवाणी का प्रकाश प्रकट होने लगा और गुरु ने प्रेरणा दी कि 'हे वत्स ! तू जाग.... लगा दे अपने बंधनों को आग ! निजस्वरूप में जाग ! सब चिंताओं एवं शंकाओं को छोड़ दे। इसलिए तो तुझे यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है।

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

हे वत्स ! आ जा, मेरे राज्य में प्रेमपूर्वक पधार। मेरे इस विशाल साम्राज्य में तेरा स्नेहपूर्ण स्वागत है। मोक्ष के मार्ग पर चल। मुक्ति के धाम में आ पहुँच। आ जा स्वतन्त्रता के साम्राज्य में।'

यह सचमुच में पावन उत्सव है, सुहावना उत्सव है, हमारे परम कल्याण का सामर्थ्य रखने वाला उत्सव है। अन्य देवी-देवताओं का पूजन करने के बाद भी कोई पूजा बाकी रह जाती है, किंतु उन आत्मारामी महापुरुष की पूजा के बाद फिर कोई पूजा बाकी नहीं रहती।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।।

दुनिया भर के काम करने के बाद भी कई काम करने बाकी रहे जाते हैं। सदियों तक भी वे पूरे नहीं होते। किंतु जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा बताया गया काम उत्साह से करता है, उसके सब काम पूरे हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं-

स्नातं तेन सर्वं तीर्थदातं तेन सर्व दानम्।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने एक क्षण के लिए भी ब्रह्मवेत्ताओं के अनुभव में अपने मन को लगा दिया, उसने समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया, सब दान दे दिये, सब यज्ञ कर लिये, सब पितरों का तर्पण कर लिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 2,5 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें