3.9.10

सच्चा मित्र


(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

गुजराती भक्त-कवि नरसिंह मेहता जी ने गाया हैः
समरने श्री हरि, मेल ममता परी
जोने विचारी ले मूल तारूँ।
तुं अल्या कोण ने कोने वळगी रह्यो
वगर समज्ये कहे मारूं मारूं।
यहां कवि नरसिंह मेहता कहते हैः ‘ममता को छोड़कर जीव को श्री हरि का स्मरण करना चाहिए। अपने मूल स्वरूप का विचार कर लेना चाहिए। तुम कोन हो और ‘मेरा-मेरा’ करके किसको पकड़कर बैठे हो ? ज़रा समझो।‘
शास्त्रों ने पुत्र परिवार का लालन पालन करने की मना नहीं की है। धन और पद को पाने की मना नहीं की है लेकिन स्थूल शरीर से संबंधित जिन पुत्र-परिवार या धन के पीछे जीवन पूरा कर देते हो, उनमें से कुछ भी अंत समय में साथ में नहीं आता है। जिस नश्वर शरीर के लिए धन इकठ्ठा करने में कितने ही पाप-ताप सहे, कितने ही दाँव-पेच किए, उस शरीर को यहीं पर छोड़ कर जाना पड़ता है। जिन पुत्र-परिवार के लालन-पालन में पूरा आयुष्य बिता दिया, उन पुत्र-परिवार को छोड़ कर जाना पड़ता है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
खिला पिलाकर देह बढायी
वह भी अग्नि में जलाना है।
पड़ा रहेगा माल खज़ाना
छोड़ त्रिया सुत जाना है।
कर सत्संग अभी से प्यारे
नहीं तो फिर पछताना है।
अगर तुम पीछे पछताना नहीं चाहते हो तो पुत्र-परिवार धन-पद आदि में आसक्ति मत करो। व्यवहार के लिए जितना आवश्यक हो उतना धन मिल जाए फिर और धन कमाने की, उसे संभालने की या उसे बढ़ाने की झंझट में पड़ कर जीवन बरबाद मत करो। इन सबमें आसक्तिरहित होकर व्यवहार चलाओ और प्रीति केवल आत्मा-परमात्मा में रखो, उसे बढ़ाते जाओ क्योंकि आत्मा-परमात्मा का संबंध ही शाश्वत है। बाकी के सब संबंध नश्वर हैं।
किसी आदमी के तीन मित्र थे। मित्र तो उसके साथ इतना गाढ़ संबंध नहीं रखते थे, परन्तु उन लोगों में इस आदमी की थोड़ी-बहुत आसक्ति थी। पहले मित्र में तो इतनी ज्‍यादा आसक्ति थी कि जब उसके संग में रहता तो खाना-पीना और सोना भी भूल जाता था।
दूसरे मित्र के साथ उस आदमी की दोस्ती पहले मित्र जैसी प्रगाढ़ नहीं थी। उसके साथ भी रहता था, घूमता फिरता था और साथ में अपना काम भी निकाल लेता था। तीसरा मित्र उसे हमेशा अच्छी सीख देता कि ‘दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है, इसका दुरूपयोग मत कर। इस शरीर को कितना भी खिलाएगा-पिलाएगा आखिर तो इसे स्मशान की अग्नि में जला देना है। तू अन्तर्यामी परमात्मा का स्मरण कर। वही सदा के लिए तेरा साथी रहेगा।‘ इस तीसरे मित्र की बातें उसे इतनी जँचती नहीं थीं, इसलिए हफ्ते दो हफ्ते में, महीने दो महीने में उस मित्र से मिलता न जुलता, उसकी बात सुनी-अनसुनी करके उससे विदा ले लेता था।
दैवयोग से उस आदमी के ऊपर किसी ने कुछ आरोप लगा दिया। सरकारी अमलदारों ने उसको जेल में डाल देने का आदेश दिया। यह सुनकर उसने सोचा कि ‘मैं अपने मित्रों के पास जाऊँ। शायद वे मेरी कुछ मदद कर सकें तो मैं जेल में जाने से बच जाऊँ।
वह अपने पहले मित्र के पास गया और सारी बातें बताईं। उस मित्र ने कहाः "तेरे साथ मेरी दोस्ती कहाँ है ? तू ही मेरे पीछे-पीछे घूमता था। मेरे पास ऐसा फालतू समय नहीं है कि तेरे पीछे गवाऊँ।"
वह अपने दूसरे मित्र के पास गया और अर्ज करने लगा कि कुछ भी करो, मुझे जेल में जाने से बचा लो। तब दूसरे मित्र ने कहाः "जब पुलिस अमलदार ने तुम्हें पकड़ने का आदेश दे ही दिया है तो अब मैं क्या कर सकता हूँ ? ज़्यादा से ज़्यादा मैं पुलिस चौकी तक तुम्हारा साथ दे सकता हूँ।" वह निराश होकर बैठ गया।
तीसरे मित्र को पता चला कि वह आदमी जो उसकी बात टाल देता है, उसे मिलने के लिए भी उत्सुक नहीं है वह बड़ी मुसीबत में है। वह तीसरा मित्र उसके पास दौड़ता चला गया और पूछने लगा .... "मित्र ! क्या बात है ? सुना है तुम किसी मुसीबत में फँस गये हो ।"
तीसरे मित्र की ऐसी ह्रदयपूर्वक सहानुभूति देखकर उसने सारी बात बताईः "मेरा इतना दोष नहीं है लेकिन अमलदारों ने जेल में डालने का आदेश दे दिया है। तुम अगर मुझे बचा लो तो तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी।"
तब उस मित्र ने जवाब दियाः "मेरे मित्र ! तू चिन्ता मत कर। मैं तेरे साथ हूँ। तूने कुछ गलती नहीं की होती और सावधान रहा होता तो जेल जाने से बच जाता। अब जेल जाना भी पड़े तो भी मैं तेरे साथ रहूँगा। तेरा साथ नहीं छोड़ूंगा।"
यह तो एक कल्पित कहानी है लेकिन अपने जीवन से जुड़ी हुई।
जिस तरह उस आदमी ने अपने पहले मित्र के लिए खाना-पीना छोड़ दिया, पुत्र-परिवार का भी ख्याल नहीं रखा, लेकिन संकट के समय में उस मित्र ने ज़रा भी साथ नहीं दिया, उसी तरह मनुष्य का पहला मित्र धन है। जिस धन को प्राप्त करने के लिए मनुष्य खाना-पीना हराम करके भी लगा रहता है वह धन उसकी मृत्यु के समय काम नहीं आता है। जीव के लिए संकट का समय है मृत्यु। जीव को मृत्यु के समय यमदूत लेने आते हैं तब धन उसकी रक्षा नहीं करता है। वह तो कहता है कि ‘’मैंने तेरे साथ दोस्ती नहीं की, तू ही मेरे पीछे-पीछे घूमता था।‘’
मनुष्य का दूसरा मित्र है पुत्र-परिवार। मनुष्य पुत्र-परिवार को सुखी करने के लिए कितने-कितने पापकर्म करता है लेकिन जब यमदूत मृत्यु रूपी फाँसी लेकर आते हैं तब कुटुम्बी कहते हैं, "हम ज़्यादा-से-ज़्यादा स्मशान तक तुम्हारा साथ दे सकते हैं लेकिन तुम्हारे साथ नहीं आ सकते।"
मनुष्य का तीसरा मित्र है धर्म। वह कहता हैः "मित्र ! तू चिन्ता मत कर। तू कहीं भी जाएगा, मैं तेरे साथ आऊँगा। मैं सदा तेरे साथ रहूँगा।"
इस कहानी से समझ लेना चाहिए कि जिसको तुम ‘मेरा’ मान कर लिपटे रहते हो वह धन, पुत्र-परिवार तुम्हारा कहाँ तक साथ देता है ? धर्म ही मनुष्यमात्र का सच्चा मित्र है। जिस धन को कमाने के लिए तुम दिन-रात गँवा देते हो उस धन में सदगुण तो सोलह हैं लेकिन दुर्गुण चौंसठ हैं। धन ज़्यादा होगा और उसका सदुपयोग नहीं किया तो जीवन में कोई न कोई दुर्गुण आ ही जाएगा जो जीवन को बरबाद कर देगा। जबकि धर्म लोक और परलोक दोनों में जीव का रक्षण करता है। अतः धर्म का ही आचरण करना चाहिए।
वह धर्म क्या है ? जो समग्र विश्व को धारण कर रहा है उस आत्मा-परमात्मा का ध्यान करना, उस अंतर्यामी परमात्मा का ज्ञान पाना एवं ‘आत्मा शाश्वत है और शरीर नश्वर है’ ऐसी समझ को दृढ़ करके अपने आत्मस्वरूप को जानना ही धर्म है। ‘जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को सत्ता दे रहा है वह चैतन्य आत्मा मैं हूँ’ – ऐसा अनुभव पा लेना धर्म है।
हम लोग स्थूल शरीर को ‘मैं’ मान रहे हैं इसलिए हमारे सच्चे मित्र धर्म का साथ नहीं ले सकते हैं। अगर हम धर्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो अपनी समझ को बदलना होगा, हमारे व्यवहार को, हमारे चिंतन को बदलना होगा। जैसे स्थूल शरीर के लिए अन्न फल आदि आहार की आवश्यकता है वैसे सूक्ष्म शरीर के लिए भी भगवन्नाम, जप, ध्यान और आध्यात्मिक चिंतनरूपी आहार की ज़रूरत है। इन स्थूल-सूक्ष्म दोनों शरीरों को उचित मात्रा में यथायोग्य आहार मिलता रहेगा तो स्वस्थता और शांति सहज में मिल जाएगी। आत्मा-परमात्मा का रस प्रगट हो जाएगा।


ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल १९९७, अंक ५२, पृष्ठ २४-२५

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें