27.9.11

बुद्धियोगमुपाश्रित्य......



(पूज्य बापू के सत्संग-प्रवचन से)
श्रद्धालु होना बहुत जरूरी है। श्रद्धा के बिना धर्म नहीं होता, श्रद्धा के बिना सत्कर्म फलता नहीं, श्रद्धा के बिना जीवन रूखा हो जाता है। श्रद्धाहीन व्यक्ति तो शुष्क है, बेकार है। अपने लिए, दूसरों के लिए, समाज के लिए, मानवता के लिए कलंक है। लेकिन अकेली श्रद्धा से काम नहीं चलता है। श्रद्धा का स्थान हृदय है और बुद्धि का मस्तिष्क। अकेला हृदय होगा और मस्तिष्क अविकसित होगा तो व्यक्ति फँस जायेगा। अकेला मस्तिष्क विकसित होगा और हृदय में सुख-शांति नहीं होगी तो क्लबों में रहेगा, व्यसन व मनमाने कर्मों की धूल चाटता रहेगा। जैसे मनुष्य दो पैरों से चलता है, पक्षी दो पंखों से उड़ता है, साइकिल, स्कूटर, बाइक दो पहियों से चलते हैं, सृष्टि में सूर्य और चाँद दोनों की जरूरत होती है, शारीरिक संतुलन के लिए दायें और बायें दोनों नथुनों का चलना जरूरी है, ऐसे ही श्रद्धा भी चाहिए और बुद्धियोग भी चाहिए।
बुद्धिमान में श्रद्धा होगी तो फिर बुद्धिमान दारू और पिक्चर में मरता है और श्रद्धालु में बुद्धियोग नहीं तो श्रद्धालु खुद को ठगा के मरते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं, श्रद्धा के साथ बुद्धियोग का होना भी जरूरी है।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य.....(गीताः 18.57)क
बुद्धियोग से उपासना करने वाला सब द्वंद्वों से, सब दुःखों से, सब विकट परिस्थितियों से पार होकर मुझ परमेश्वर को पा लेता है।
तो बुद्धियोग किसको मिलता है ? बोलेः
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपायन्ति ते।।
(गीताः 10.10)
जो प्रीतिपूर्वक भजता है, वह बुद्धियोग को पाता है। तो भगवान में प्रीति कैसे हो ? जिसमें अपनापन होगा उससे प्रीति होगी। जूता अपना लगता है तो प्यारा हो जाता है। वास्तव में जूता पहले अपना नहीं था, बाद में अपना नहीं रहेगा लेकिन आत्मदेव तो पहले भी हमारे अपने थे, अभी भी हैं, बाद में भी रहेंगे। इस समय भी हमारे साथ हमारे अंतरात्मदेव होकर बैठे हैं। इस प्रकार के बुद्धियोग की उपासना जिस बुद्धियोगी ने भी की, उसने हँसते-खेलते विघ्न-बाधाओं पर, कष्टों पर पैर रखते हुए, भगवान श्रीकृष्ण की तरह संसाररूपी कालिय नाग पर नृत्य करते हुए संसार-सागर से पार होकर परम वैभव को पा लिया। चाहे फिर कबीर जी हों, नानकजी हों, लीलाशाह प्रभुजी हों, राजा परीक्षित हों, संत रविदास हों, एकनाथ जी हों या फिर धन्ना जाट, सदना भक्त, शाण्डिली कन्या हो चाहे अनपढ़ शबरी भीलन हो, जिन्होंने भी प्रीतिपूर्वक भगवान को सुमिरा, भजा उनको बुद्धियोग मिला।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।
(गीताः 18.57)
भगवान कहते हैं- मुझ सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, आनन्दस्वरूप ईश्वर में चित्त लगाओ, बुद्धियोग की उपासना करो। बाहर के मंदिरों में बहुत गये, उसका फल है मुझ अंतर्यामी ईश्वररूपी मंदिर में आना। बाहर की मस्जिद और पूजा स्थलों में बहुत गये, उसका फल है बुद्धियोग की उपासना करके अल्लाहस्वरूप आत्मा में आना।
बुद्धियोग की उपासना की रीति जान लें। उससे बड़ा वैभव प्राप्त होता है। जिस वैभव को यहाँ के चोर-लुटेरे तो क्या, यहाँ की सरकार तो क्या, मौत के बाप की भी ताकत नहीं कि लूट सके, ऐसा होता है बुद्धियोग ! संतान पैदा करने की, सुख में टिके रहने की, दुःख से भागने की साधारण बुद्धि कौवे और कुत्ते के पास भी है, खटमल और मच्छर के पास भी है, घोड़े-गधों के पास भी है। मनुष्य ऐसी बुद्धि लेकर क्या करेगा ! मनुष्य की विशेषता है कि बुद्धि में महान योग भर ले। कौन-सा योग? भगवदविश्रान्ति, भगवत्प्रीति, भगवद् ज्ञान योग।
भगवदज्ञान योग तक की यात्रा करने के लिए श्रद्धा भी चाहिए, बुद्धियोग भी चाहिए। और बुद्धियोग के साथ समाधि भी चाहिए, विचार भी चाहिए, उत्साह भी चाहिए। अकेला उत्साह है तो आदमी भ्रमित हो जायेगा। अकेली समाधि है तो आदमी आलसी  हो जायेगा। अकेली श्रद्धा है तो आदमी ठगा जायेगा। इसलिए उत्साह, समाधि, श्रद्धा, बुद्धियोग और विचार – इन पाँचों का संतुलन जीवन में बहुत जरूरी है। ये पाँचों चीजें जितनी ठीक-ठाक होंगीं, उतना-उतना जीवन निर्भार, निर्द्वन्द्व और निश्चिंत नारायण में विश्रान्ति पायेगा और जितना विश्रान्ति पाने में आप सक्षम हो जायेंगे, उतना ही चिन्मय विचार, चिन्मय आरोग्यता, चिन्मय ज्ञान और चिन्मय प्रसन्नता आपकी मुट्ठी में आ जायेगी।
तो कर्म को भगवत्सत्ता का सम्पुट देकर कर्मयोगक बना लो। भक्ति को भगवदरस का सम्पुट देकर भक्तियोग बना लो। ज्ञान को भगवत-तत्त्व का सम्पुट देकर ज्ञानयोग बना लो। फिर तो कर्म करते समय भी योग का आनंद आयेगा, भक्ति करते समय भी तुम्हारा मंगल होगा। तुम दीन-हीन, लाचार और ठगे जाओ ऐसे मूर्ख नहीं रहोगे। अकेली श्रद्धावाले लोग प्रायः ठगे जाते हैं। मेरे जैसे को कौन ठग पायेगा !
तो यहाँ भगवान श्रीकृष्ण की बात माननी पड़ती हैः
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।
(गीताः 18.57)
मुझ सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना करके बुद्धि को आप कुशल बनाओ। किसी ने कुछ ढेला रख दिया, किसी ने कुछ रख दिया और आप नाक रगड़ते-रगड़ते जिंदों से तो माँग रहे हो और मुर्दों का भी पीछा नहीं छोड़ते हो, कैसी बेवकूफी है !
आप आज से ही निश्चय करो कि 'मुझे अब बुद्धियोग का प्रसाद पाना है। सभी दुःखों के सिर पर पैर रखकर, सभी सुखों के लालच पर पैर रखकर परम आनंद पाना है। अपने कमरे में जरा धूप-दीप जला देना, जिससे वातावरण पवित्र हो जाये और ठाकुर जी को, भगवान को अथवा गुरुजी को एकटक देखो। ॐकार का दीर्घ उच्चारण करो। प्रारम्भ में कम-से-कम छः मिनट तक देखो, फिर आँखें बंद करके बैठ जाओ। दुःख होता है उसको जानने वाला मैं कौन हूँ ?' बस खोजो। 'शरीर मरता है, फिर भी जो नहीं मरता वह मैं कौन हूँ ?' पहले दिन से ही आपको बुद्धियोग की झलकें मिलने लगेंगी और कुछ दिन के निरन्तर अभ्यास से तो आप बुद्धियोग बन जायेंगे।
अजपाजप करके चालू व्यवहार में भी बुद्धियोग का आश्रय ले सकते हैं। श्वासोच्छ्वास की साधना की जो विधि बतायी जाती है, रात्रि को सोते समय उसका अभ्यास करें। दीक्षा के समय जो प्रयोग बताये जाते हैं गर्दन पीछे करके करने के, वे सुबह उठने के बाद करें। सत्संग-सान्निध्य से ऐसे पुण्यात्माओं का बुद्धियोग सहज में हो जायेगा। मित्र रूठ गया, चला गया.... 'चलो, कोई बात नहीं, परम मित्र (भगवान) ! तुम मेरे साथ हो।' – यह बुद्धियोग है। द्रव्य और यश चला गया तो सोचे कि 'मरने वाले शरीर भी जाते हैं तो उनका द्रव्य और यश कब तक !' इस प्रकार विचार करके जो धन, द्रव्य मिल गया, उसका सदुपयोग करे कि 'वाह-वाह प्रभु ! सेवा के लिए दिया।' और चला गया तो समझे कि 'वाह प्रभु ! तुमने आसक्ति मिटाने के लिए लीला की है।' सफलता-विफलता जो भी आये, 'उसमें मेरे प्रभु का हाथ है।' – ऐसा समझकर प्रसन्न रहना, यह बुद्धियोग है।
पुण्यों से, उद्योग से, प्रारब्ध से सफलता मिलती है। उसका सदुपयोग करना, यह बुद्धियोग है। दुनिया में सारी चीजें मिल जायें लेकिन बुद्धियोग के बिना दुःख नहीं मिटता और बुद्धियोग मिल गया तो सारी चीजें चली जायें अथवा हजार गुनी होकर आ जायें आदमी फँसता नहीं, इतराता नहीं।
मनुष्य को अपने आत्मा-परमात्मा में विश्राम पाने की शक्ति बुद्धियोग देता है। जो जरूरी कार्य है, बहुत जरूरी है उसमें तत्पर रहो, सजग रहो और बुद्धिमत्ता से कर डालो। कार्य कर डालोगे तो करने की जो वासनाएँ हैं, उनके शांत होते ही आत्मा में विश्रान्ति मिलेगी, बुद्धियोग का प्रसाद मिलेगा। जिससे बुद्धि ठगी करने वाली नहीं परोपकारी बनेगी। दूसरो को ठगने वाली बुद्धि बुद्धि नहीं, वह तो कुबुद्धि है। जो दूसरे का ज्ञान बढ़ाये, तंदरूस्ती बढ़ाये, प्रसन्नता बढ़ाये, निर्भयता बढ़ाये, वह बुद्धि है। आत्मा शाश्वत है तो मरने से डरो नहीं, दूसरों को डराओ नहीं, यह बुद्धियोग है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है तो अपना भी आत्मज्ञान, आत्मविश्रान्ति बढ़ाओ, दूसरों का भी बढ़ाओ, यह बुद्धियोग है। आत्मा आनंदस्वरूप है, सुखरूप है। अपना आत्मसुख, अपनी आत्मविश्रान्ति बढ़ाओ, दूसरों को भी आत्मविश्रान्ति बढ़े ऐसे कार्य करो। बुद्धि से करो वह परमात्मयोग के लिए करो, बुद्धियोग के लिए करो। इससे तुम्हारा दुःख तो मिट जायेगा, तुम्हारी वाणी और दीदार से औरों के पाप-ताप, संताप और दुःख मिट जायेंगे। तुम ऐसे बन जाओ न लाला ! लालियाँ !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 11,12,13,14 अंक 224
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