1.9.10

ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?



‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ में आता है कि- ‘ हे रामजी ! फूल पत्ती और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है |’

ईश्वरप्राप्ति का गणित बहुत सरल है | लोगों ने विषय विकारों को महत्त्व देकर ,किसी ने कल्पना और व्याख्या कर करके ईश्वरप्राप्ति के मार्ग को कोई लंबा चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया | ईश्वरप्राप्ति से सुगम कुछ है ही नहीं | मैं तो यह बात मानने को तैयार हूँ कि रोटी बनाना कठिन है लेकिन ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है | अगर आता गूँधना नहीं आये तो आते में गाँठ-गांठ हो जाती है | परमात्मप्राप्ति में न ओ हाथ जलने का दर है न ही आता खराब होने का दर है वह तो सहज है|

संसार की प्राप्ति में तो अपना पुरुषार्थ चाहिए, अपना प्रारब्ध चाहिए, वातावरण चाहिए तब संसार की चीजें मिलती है और मिल्मिलकर चली जाती है |भगवान की प्राप्ति में तो केवल तीव्र इच्छा हो जाए बस, फिर तो भगवान अपने आप अंदर कृपा करतें है – यह अनुभव वशिष्ठजी महाराज का है |

‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ में आता है कि- ‘ हे रामजी ! फूल पत्ती और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है |’

उपदेश्मात्र से मान तो लेते है कि परमात्मप्राप्ति ही सार है, सुनते सुनते, विचार करते करते, जगत के थप्पड़ खाते खाते लगता है कि तत्वज्ञान के बिना, परमात्मप्राप्ति के बिना जीवन व्यर्थ है किन्तु उसमे टिक नहीं पाते कोनकी टिकने की सात्विक बुद्धि, दृढ निश्चय, सजगता और तड़प नहीं है | आहार विहार पवित्र हो, बुद्धि सात्विक हो, सजगता हो तथा परमात्मप्राप्त महापुरुषों में और उनके वचनों में महत्व्बुद्धि हो, परमात्मप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो टिकना कोई कठिन बात नहीं है | शाश्वत में महत्व्बुद्धि के आभाव से ही सहज, सुलभ परमात्मा दुर्लभ हो रहा है |नश्वर में महत्व्बुद्धि होने का फल यह दुर्भाग्य है कि सब कुछ करते कराते भी दुःख, शोक, जन्म-मरण की यातनाएं मिटती नहीं |

सुबह नींद में से उठते ही थोड़ी देर चुप बैठो और विचारों कि ‘वह कौन है जो आँखों को देखने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता देता है ?’ उसीमे शांत हो जाओ, परमात्मप्राप्ति के नज़दीक आ जाओगे | दुःख आये उससे जुडो नहीं, सुख आए उससे मिलो नहीं | सुख को बंतो और दुःख में सम रहो तो उनका जो साक्षी है उस परमात्मा में टिकने लगोगे | वह इतना निकट है कि

सो साहिब सद सदा हजूरे |

अंधा जानत ता को दूरे ||

ज्ञानचक्षु नहीं है और भागने की आदत है इसीलिए वह कठिन लग रहा है, नहीं तो ईश्वरप्राप्ति जैसा कोई सुगम कार्य नहीं है |

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति |

भ्राम्यन्सर्वभूतानि यंत्ररुढानी मायया ||

‘ शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है |’

( गीता : १८.६१ )

जैसे गाडी में बैठने वालों को गाडी की गति प्राप्त होती है, जहाज में बैठने वाला जहाज की गति से भागता है, बस में बैठनेवाला बस की गति से भागता है, कार में बैठनेवाला कार की गति से भागता है ऐसे ही यह इन्द्रियों में बैठनेवाला, मन बुद्धि में बैठनेवाला इन्ही यंत्रों में उलझ गया है | जहाँ से बैठने की सत्ता आती है उसमें बैठो तो अभी ईश्वरप्राप्ति हो जाए, जैसे अर्जुन को भगवान की कृपा से बात समझ में आ गयी |

नषटो मोह: स्म्रितिर्लब्धा | ( गीता : १८.७३ )

अगर कठिन होता तो परीक्षित रजा को सात दिन में कैसे मिल जाता ! भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू की कृपा हम पर ४० दिन कैसे बरसती और कैसे मिल जाता !

एक वर्ष तक ॐकार का जप करे, नीच कर्मों का त्याग करे और ईश्वरप्राप्ति का ऊँचा उद्देश्य बना ले तो साधारण से साधारण आदमी को भी ईश्वरप्राप्ति सहज में हो जाए | लेकिन हमारी रूचि है – यह हो जाए, वह हो जाए …..| जो हो होकर बदल रहा है वही करने की रूचि रखतें है |

मान मिल जाए, बड़े हो जाये, बापूजी जैसे हो जाएँ ऐसा कुछ नहीं चाहिए | हर फूल अपनी जगह पर खिलता है, किसीकी नक़ल नहीं करनी है और बाहर से बापूजी जैसा हो जाने से ईश्वरप्राप्ति हो जाती है इस वहां में नहीं पड़ना | जो जहाँ है ईश्वरप्राप्ति का अधिकारी है और सोचे कि ‘ बाहर से बापूजी जैसा हो जाऊं’, तो माइयों को तो दाढ़ी आएगी नहीं, तो क्या ईश्वर नहीं मिलेगा ? जिनके सर पर बाल नहीं है काया उनको ईश्वर नहीं मिलेगा ? बाहर से नक़ल नहीं करनी है, केवल उस मिले मिलाए में प्रीती चाहिए |

भगवान से प्रीती करने की, भगवन कोपाने की महत्ता समझ में आ जाए तो मन पवित्र होने लगता है | जब तक भगवन को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते है | ईश्वर को पाने में ही सार है – ऐसा नहीं जानते, तभी तक चल कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते है | यदि यह समझ में आ जाए तो सारे चल कपट काम होते चले जाएँगे, सारी शिकायतें दूर होती चली जाएंगी | जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसको गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और जो-जो सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जाएगी | उसको पताही नहीं चलेगा कि मै अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ और उसका परमात्मप्राप्ति का मार्ग लंबा होता चला जाएगा |

तो ईश्वरप्राप्ति में रूचि हो जाए | और यह रूचि कैसे हो ? बार बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर का नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीती करो | और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो | वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते है, सहाय करते है, बिलकुल करतें है | ॐ नारायण…… ॐ गोविन्द….. ॐ अच्युत…. ॐ केशव…… ॐ परमेश्वर….. ॐ सर्वसुहृदाय नमः…… ॐ अंतर्यामी….. ॐ सर्वज्ञ…… ॐ दयानिध्ये नमः….. ॐ…….ॐ………..|

[ ऋषि प्रसाद ; अंक : २०८ ; माह : अप्रैल २०१० ]

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