3.10.10

भक्ति भागीरथी




“भगवान् वेदव्यासजी ने भी कहा है की अगर तुम्हे संसार में सुखी होना हो तो इन चार बातो को ठीक से समझ लो | इन चार बातों से संपन्न होकर जगत का व्यवहार करो …………………. ”
परम भक्ति पाना हो, परम सुख पाना हो , परम तत्व को पाना हो , ब्रह्मज्ञान को पाना हो तो भक्त को कैसा बनना चाहिए ?
भक्त की पहचान क्या है ?जो परमात्मा से , अकाल पुरुष से अपने को विभक्त नहीं मानता – जानता वह उत्तम भक्त है | ऐसा उत्तम भक्त , परम भक्त कैसा होता है ?
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है :

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र : करुण एव च |
निर्ममो निरहंकारः समदु:खसुख : क्षमी || ( गीता : १२.१३ )

प्राणिमात्र के प्रति उसके चित्त में द्वेष का अभावता है | सबके प्रति मैत्रीभाव एवं जो अपने से छोटे उनके प्रति उसके ह्रदय में करुणा आती है | ममता एवं अहंकार इन दोनों दुर्गुणों से वह अपने को बचाता है | सुख – दुःख में सम एवं क्षमावान है | इस प्रकार जो सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित , सबका प्रेमी , दयालु और ममता एवं अहंकार से रहित , सुख- दुःख की प्राप्ति में सम और क्षमाशील है , जिसका चित्त निरंतर उस परमात्म-प्रसाद में विराजता है , जो परमात्मा से विभक्त नहीं होता ऐसा जो अपने को को ईश्वर से , ईश्वर को अपने से अलग नहीं समझता वो ही उत्तम भक्त है |

नानकजी कहते है किः

जैसा अमृत वैसी बिस खाटी |
जैसा मान तैसा अपमान ||
हर्ष शोक जा के नहीं , वैरी मित समान |
कह नानक सुन रे मना , मुक्त ताहि ते जान ||

भगवान् वेदव्यासजी ने भी कहा है की अगर तुम्हे संसार में सुखी होना हो तो इन चार बातो को ठीक से समझ लो | इन चार बातों से संपन्न होकर जगत का व्यवहार करो |

( १ ) मैत्री : जो अपने से ज्ञान में, भक्ति में , सत्कर्म में , शुभ गुणों में ऊपर है उनसे मैत्री करो |

( २ ) करूणा : जो अपने से ज्ञान , भक्ति , कर्म या अन्य किसी कारण से छोटे है उन पर करूणा करो , नहीं तो कदम-कदम पर क्रोध आ जाएगा , नाराज होने लगोगे जिससे अपना दिल बिगड़ता रहेगा |

( ३ ) मुदिता : मुदिता से तात्पर्य है दूसरों की ख़ुशी , दूसरों का सुख देखकर सुखी होना | स्वयं भी प्रसन्न रहो और दूसरों को भी प्रसन्नता एवं सत्कार्य में उत्साह प्रदान करो |

( ४ ) उपेक्षा : जो निपट-निराले है , निगुरे है , जिन्हें आपकी , संसार की या भगवान की , सत्कर्म करने की कुछ पड़ी ही नहीं है , जो अपने सीमित दायरे में ही बँधे हुए है - ऐसे लोगों के प्रति न तुम द्वेष करो , न मैत्री करो , बल्कि ऐसा समझो की वे तुम्हारे लिए धरती पर पैदा ही नहीं हुए | अगर दृष्ट व् दुश्चारित्रवान आपके कहने से नहीं सुधरे तो उनकी उपेक्षा करो | ऐसा शास्त्र कहते है |

'क्या करें …. तीन लडके तो आज्ञाकारी है लेकिन चौथा नहीं मानता है …’ .. नहीं मानता है तो उसे प्रेम से समझाने का प्रयास करो लेकिन तीनों के गुणों को भूलकर , चौथे के अवगुणों को याद करते-करते अपने दिल को मत बिगाड़ो ..
'रक्षाताम रक्षाताम कोषानामपि हृदयकोषम तें रक्षितम सर्वं रक्षितमिदं ' … 'रक्षा करो , रक्षा करो … जो कोषों का कोष है , खजानों का खजाना है , उस ह्रदय की रक्षा करो |’ ज़रा -ज़रा बात में अपने दिल को झुलसने से बचाओ | जरा-जरा बात में अपने दिल को भयभीत होने से बचाओ , छोटी-छोटी बातों में कहीं तुम्हारा दिल फँस न जाए या कुढ़ता न रहे उससे अपने दिल की रक्षा करो | अपने ह्रदय की रक्षा करो | यह वह दिल नहीं , जो डॉक्टरों को दिखता है | डॉक्टरों को जो दिल दिखता है वह शारीरिक ढंग से , स्थूल रूप से दिखता है | उस ह्रदय में और आध्यात्मिक ह्रदय में फर्क है | शुद्ध मन को ह्रदय कहते है |
एक बार मुझे डॉक्टरों के टोले ने श्रद्धा – भक्ति के पुष्प बिछाकर घेर लिया |
उन्होंने पूछा : "बापू ! भगवान् सबमें है ?"
मैनें कहा : "हाँ | सबके ह्रदय में है ? क्यों ? तुम्हे शक है क्या ?"
"आप मानते है ?"
" मैं न भी मानु तब भी जो है सो है | हम सब कह दे सूरज नहीं है तो क्या हमारे कहने से सूरज चला जाएगा ?"
सब डॉक्टर एक-दुसरे की ओर देख-देखकर मंद मंद मुस्कराने लगे |
मैंने पूछा : "क्या बात है ?"
तब एक ने कहा : "बापू ! ये मेरे मित्र है और हार्ट स्पेश्यालिस्ट है और मैं एम् . डी . हूँ | मेरी पत्नी भी डॉक्टर है | हम आठों के आठों इस विषय में , सर्जरी में बहुत आगे है | जब हमारे ये हार्ट स्पेश्यालिस्ट मित्र कोई हार्ट का ऑपरेशन करते है तब हम सब वहां पहुँच जाते है | देखें , ह्रदय में भगवान् है तो उनके दर्शन करके हमारा काम बन जाए |"
मैंने कहा : "इस प्रकार किसी मरीज का ह्रदय चीरकर किसी यंत्र से या माइक्रोस्कोप से भगवान दिख जाते तो फिर धर्म कर्म की कोई जरुरत ही न रहती | नाम-स्मरण एवं भजन की कोई जरुरत ही न रहती | किसी सत्शात्र एवं धर्मोग्रंथों की जरुरत न रहती | माइक्रोस्कोप से तो आपको स्थूल शरीर के स्थूल अवयव दिख सकते है | आपका यह स्थूल शरीर दिखता है केवल वही नहीं है | इसके भीतर चार और भी है | यह जो हमारा स्थूल शरीर दिखता है उसे अन्नमय कोष कहते है | इसके भीतर प्राणमय कोष है | प्राणमय से आगे मनोमय कोष है | मनोमय से गहरा विज्ञानमय कोष है | विज्ञानमय से भी गहरा आनंदमय कोष है और उस आनंदमय कोष में चेतना उसी अकाल पुरुष परब्रम्ह परमात्मा की है | तुम ह्रदय के पुर्जे-पुर्जे अलग कर दो और देखो तो तुमको कही यह नहीं दिखेगा की इसने कभी प्यार किया था | कहाँ प्यार किया ? कहाँ नफरत की ? शरीर के पुर्जे की जांच करने पर कहीं तमन्नाए नहीं दिखेगी , कामना नहीं दिखेगी , प्रसन्नता नहीं दिखेगी , ज्ञान नहीं दिखेगा | तुमको दिखेगा भी तो मांस , नस नाड़ियाँ , पेशियाँ , रक्त आदि दिखेगा | फिर भी मनुष्य ने प्यार तो किया ही है | नफरत भी की है | विचार भी किया है और इच्छा भी की है किन्तु स्थूल रूप से उसे भौतिक शरीर में देख पानी संभव नहीं है |"

हमारे इस शरीर में पांच कोष है : अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय | जैसे , बादाम में पांच कोष है | एक तो बादाम के फल का छिलका , दूसरा उसकी गिरी , तीसरी लकड़ी जैसी कठोर परत , चौथी बदामी रंग की पतली परत और पांचवी सफ़ेद रंग की गिरी और उसके भीतर है बादाम का तेल | या तो यूँ समझ लो की बरफ के एक टुकडे को एक डिब्बी में रखा , उस डिब्बी को दूसरी में , दूसरी को तीसरी में , तीसरी को चौथी में , चौथी को पांचवी डिब्बी में | अब बाहर की पांचवी डिब्बी भी ठंडी लग रही है | क्यों ? क्योंकि उसको चौथी का स्पर्श है , चौथी को तीसरी का , तीसरी को दूसरी का, दूसरी को पहली का और पहली की ठंडक बरफ के कारण है | ऐसे ही स्थूल शरीर को, अन्नमय कोष को जो मजा आता है रसगुल्ले खाने का या ठंडी हवा लेने का, तो यह मजा आत्मा का है … परमात्मा का है | अगर शरीर मर जाए तो फिर जीभ पर रसगुल्ला रखने पर भी मजा नहीं आयेगा | लड़का सोया हो और पिता उसके मुहँ में रसगुल्ला रख दे तो जीभ और रसगुल्ले की मुलाक़ात तो हुई किन्तु लडके को मजा नहीं आया क्योंकि मनोमय कोष सोया हुआ है | जब लड़का जागता है तभी उसे रसगुल्ले की मिठास का पता चलता है | … तो मानना पडेगा की इन्द्रियों के साथ जब मन जुड़ता है तभी इस जगत का पता चलता है | मन के साथ जब विज्ञानमय , बुद्धिमय कोष जुड़ता है तब निर्णय आता है | विज्ञानमय कोष की गहराई में आनंदमय कोष है उसमे जो आनंद आता है वह अकाल पुरुष है | वास्तव में तुम्हारा आत्मा अकाल पुरुष से जुडा है और तुम्हारा शरीर इन संसारी चीजों से जुडा है | शरीर पंचमहाभूतों से बना है अतः पंचभौतिक वस्तुओं के बिना नहीं जीता लेकिन तुम इन वस्तुओं के बिना भी जीते हो | ऐसी कौन सी चीज है जो मृत्यु के समय भी नहीं मरती ? ऐसा क्या है जो सब कुछ छुट जाने के बाद भी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ता ? वह है तुम्हारा आत्मा, तुम्हारा ज्ञानस्वरूप चैतन्य |
मन तू ज्योतिस्वरूप अपना मूल पहचान |
तुम मोटे या पतले नहीं होते , तुम लम्बे या नाटे नहीं होते किन्तु अपने को मोटा-पतला , नाटा-लंबा आदि मान बैठते हो | मोटा या पतला मांसपेशियों से बना शरीर होता है , काली या गोरी त्वचा होती है , लंबा या नाटा हड्डियों का पिंजर होता है | वास्तव में तुम तो इन सबको देखनेवाले चैतन्य हो | मन में कभी सुख आता है कभी दुःख आता है लेकिन तुम सुख और दुःख को देखनेवाले हो | अच्छे या बुरे विचार तुम्हारी मति में आते है | तुम उनके दृष्टा हो | उन्हें देख लो तो बस, समस्त जन्मों का काम पूरा हो गया समझो |
तुम्हारे दिल में ही दिलबर छुपा हुआ है उसका अनुसंधान करो | उसका अनुसंधान ( खोज ) करोगे तो तुम्हारा चित्त ‘ अद्वैष्टा ‘ यानी द्वेषरहित हो जाएगा | शराब जिस बोतल में रहती है या जहर जिस बोतल में रहता है उसका कुछ नहीं बिगड़ता | लेकिन द्वेष तो जहर से भी बुरा है क्योंकि जिस दिल में होता है उसी दिल को पहले बिगाड़ता है |
इसीलिये भगवान कहते है की ; हे मानव ! तुझे अगर अपनी मस्ती पानी हो , सच्चे जीवन का दीदार करना हो , भक्ति का रस पाना हो , ज्ञान का रस पाना हो तो द्वेषरहित हो जा |
'अद्वैष्टा सर्व भूतानां मैत्र : करुण एव च |
निर्ममो निरहंकारः समदु:खसुखः क्षमी ||'
प्राणिमात्र के प्रति द्वेषरहित चित्त बनाओ | श्रेष्ठ पुरुषों से मैत्री रखो | छोटों के प्रति करुणा रखो | जो धनवान है , फ़ेक्ट्रीयों के मालिक है उनके प्रति छोटों को मित्र भाव रखना चाहिए और उन धनवानों को अपने से छोटों के प्रति करुणा रखनी चाहिए | बड़ों की धनसंपत्ति देखकर छोटे जले नहीं और छोटों को तुच्छ मानकर बड़े उनका शोषण न करें , तभी समाज सुखी होगा , राज्य सुखी होगा, देश सुखी होगा और विश्व सुखी होगा | द्वेषरहित हों मैत्री और करुणा से युक्त हों और ममतारहित हो | ममता बड़ी दुखदायी है अतः शरीर और शरीर के संबंधों में , वस्तुओं में ममता न रखे | निरहंकारी बने , सुख दुःख में समता बनाए रखे और क्षमावान बने तो परमात्मा को पाना आपके लिए सहज हो जाएगा | परमात्मा के दीदार करना सरल हो जाएगा |

अंक : १५४ ; माह : ९ जून १९९७
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