3.10.10

विश्वगुरु भारत

सांस्कृतिक गौरव

पाश्चात्य विद्वान मैक्सम्यूलर
मैं आप सबको विश्वास दिलाता हूँ कि भारत जैसा कुरुक्षेत्र न तो यूनान है और न इटली ही, न तो मिश्र के पिरामिड ही इतने ज्ञानदायक हैं और न बेबीलोन के राजाप्रासाद ही। यदि हम सच्चे सत्यान्वेषी है, यदि हममे ज्ञानप्राप्ति की भावना है और यदि हम ज्ञान का सच्चा मूल्यांकन करना जानते हैं तो हमें इस तथ्य को मानना ही पड़ेगा कि सहस्राब्दियों से पीड़ित-प्रताड़ित एवं जंजीरों में जकड़े हुए भारत में ही हमारा गुरु बनने की पूर्ण क्षमता है, आवश्यकता है केवल सच्चे हृदय से उस क्षमता को पहचानने की।
यदि हमें इस समस्त धरा पर किसी ऐसे देश की खोज करनी हो, जहाँ प्रकृति ने धन, शक्ति और सौंदर्य का दान मुक्तहस्ता होकर किया हो या दूसरे शब्दों में जिसे प्रकृति ने बनाया ही इसलिए हो कि उसे देखकर स्वर्ग की कल्पना साकार की जा सके तो मैं बिना किसी प्रकार के संशय या हिचकिचाहट के भारत का नाम लूँगा। यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देश के मानव-मस्तिष्क ने अपने कुछ सर्वोत्तम गुणों की सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है, जहाँ के विचारकों ने जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक सुंदर समाधान खोज निकाला है तथा इसी कारण वह इस योग्य हो गया है कि कान्ट और प्लाटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुए व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है तो मैं बिना किसी विशेष सोच-विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूँगा। यदि मैं अपने से ही यह पूछना आवश्यक समझूँ कि जिन लोगों का समूचा पालन-पोषण (शारीरिक व मानसिक) यूनानियों एवं रोमनों की विचारधारा के अनुसार हुआ और अब भी हो रहा है तथा जिन्होंने सेमैटिक जातीय यहूदियों से भी बहुत कुछ सीखा है, ऐसे यूरोपीय जनों को यदि आंतरिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने वाली सामग्री की खोज करनी हो, यदि उन्हें अपने जीवन को सच्चे रूप में मानव – जीवन बनाने वाली तथा ब्रह्मांडबंधुत्व (ध्यान रखिये कि मैं केवल विश्वबंधुत्व की बात नहीं कर रहा हूँ) की भावना को साकार बना सकने में समर्थ सामग्री की खोज करनी हो तो किस देश के साहित्य का सहारा लेना चाहिए? तो एक बार फिर मैं भारत की ही ओर इंगित करूँगा, जिसने न केवल इस जीवन को ही सच्चा मानवीय जीवन बनाने का सूत्र खोज निकाला है वरन् परवर्ती जीवन किंचहुना शाश्वत जीवन को भी सुखमय बनाने का सूत्र पा लेने में सफलता प्राप्त कर ली है।
जिन्होंने भारतीयों के प्रति छिः-छिः का भाव दर्शाकर तथा यह कहकर आत्संतोष प्राप्त कर लिया है कि 'भारत में अब कुछ देखने, सुनने, जानने योग्य बाकी नहीं रह गया है', वे मेरी यह बात सुनकर आश्चर्य से स्तब्ध हुए बिना न रह सकेंगे कि जिनको वे लोग 'नेटिव (आदिम) कहकर अपनी घृणा प्रदर्शित करते रहे हैं, उनमें इतनी अर्हता (विशिष्टता) है कि वे यूरोपियनों के गुरु हो सकते हैं। उनको आश्चर्यभिभूत हो जाना पड़ेगा जब वे यह सुनेंगे कि जिन देहाती भारतीयों को ये बाजारों तथा न्यायालयों में नित्यप्रति देखा करते थे, उनके भी जीवन से हमारे यूरोपीय बंधु बहुत कुछ सीख सकते हैं।
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