3.10.10

संसार स्वप्न से जागो

             बीते हुए समय को याद न करना , भविष्य की चिंता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुख-दुःख आदि में सम रहना ये जीवन्मुक्त पुरुष के लक्षण है |
              चित्त  की समता प्रसाद की जननी है | हजारों वर्ष नंगे पैर घूमने की तपस्या , सैकड़ों वर्ष के व्रत उपवास  की दो क्षण की समता की बराबरी नहीं कर सकते | चित्त को सम करना यह आपके हाथ की बात है और यह समत्वयोग समस्त योगों में शिरोमणि है |
      समत्वं योग उच्यते
          दुःख के समय आप सम रह जाए तो आप दुःख का उपयोग करके दुखहारी श्रीहरी से मिलने में दो कदम आगे बढ़ जायेंगे | सुख के समय सम रहकर सुख का उपयोग करे तो सुखस्वरूप चैतन्य में विश्रांति पाने में भी आप सफल हो जायेंगे | सुख-दुःख , अनुकूलता – प्रतिकूलता , जीवन -मरण ये सब मायामात्र द्वैत में है | समर्थ रामदास ने ‘ दासबोध  ’ में कहा है :
          ” एक अजात पुरुष को ( जो अभी जन्मा ही नहीं है उसको ) स्वप्न आया की ‘ मेरे पिटा मुझ पर प्रसन्न है और उन्होंने मेरा राजतिलक किया | मै राज्य भोगते-भोगते मौत के कगार पर जा खडा हुआ और सावधान होकर सत्कर्म में लग गया एवं सत्पुरुषों के पास गया | उन सत्पुरुषों ने मेरे बंधन काट दिए और अब मै मुक्त हो गया हूँ … | “
          बहुत बड़ी बात कह दी है उन महापुरुष ने की अजात पुरुष – जो अभी जन्मा ही नहीं , उसका राजतिलक भी हो गया , उसने भोग भी भोग लिए और मुक्ति भी हो गयी … ऐसा उसने स्वप्न देखा | ऐसे ही आप हम भी स्वप्न देख रहे है |
         वास्तव में हमारा -आपका असली रूप में जन्म ही नहीं हुआ है | स्वप्न देख रहे है की ‘ मेरा जन्म हुआ … मै जुटमिलवाला … मै आश्रमवाला … मै पैसेवाला … मै महलवाला … ‘ हकीकत में यह स्वप्न ही देखा जा रहा  है इसी स्वप्न से जागने का संकेत करते हुए तुलसीदासजी कहते है :
      मोहनिशा सब सोवनहारा |
      देखहिं स्वप्ने अनेक प्रकारा |
         वास्तव में जो हम है उसका पता नहीं और जो हम नहीं है ऐसे स्वप्न जैसे शरीर को ‘मैं ‘ मानकर और स्वप्न जैसी वस्तुओं को ‘ मेरी ‘ मानकर हम स्वप्न देख रहे है |
         एक बार संत कबीर ने अपने प्यारे शिष्यों के लिए एक लीला रची | प्रभातकाल में सब शिष्य गुरु के दर्शन करने के लिए आते थे | भजन – कीर्तन करते थे | सुबह-सुबह गुरु के दर्शन करनेवाले शिष्यों ने देखा की गुरु तो छाती पीटकर रो रहे है |
         शिष्य आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे :
         ” गुरुदेव ! आप रो रहे हो  ?”
         कबीरजी : ” क्या करे ? मेरा तो सब चला गया | “
         शिष्य : ” गुरुदेव ! क्या हुआ ? किस प्रकार आपका दुःख दूर हो सकता है ? आप आज्ञा करें तो हम प्रयास करें |”
         कबीरजी : ” तुम क्या करोगे …..?  हाय रे हाय ! अब क्या होगा …? ” कबीरजी पुनः रोने लगे |
        जो नक़ल होती है उसका प्रभाव असल में भी ज्यादा होता है | गरीब होने का , भिखारी होने का अभिनय सच्चे भिखारी से ज्यादा  जोरदार होता है  और सम्राट का अभिनय वास्तविक सम्राट से भी ज्यादा प्रभावशाली होता है | कबीरजी तो कर रहे थे लीला | वे रो पड़े | उनका रुदन देखकर शिष्यवृन्द भी रोने लगा और बोला :
        ” गुरूजी ! ऐसी कोई चीज नहीं की हम आपको लाकर न दे सके | अथवा , आपको किसीने सताया है ? बताइए | “
        कबीरजी :  "मुझे किसीने सताया नहीं है और न ही ही मुझे कोई वास्तु चाहिए | “
        शिष्य :  "तो फिर आप रो क्यों रहे है ?"
        कबीरजी :  "अब रोने के सिवाय कोई चारा भी तो नहीं है |"
       शिष्य :  "आखिर बात क्या है ? ” खूब आग्रह करके शिष्य पूछने लगे |  " स्वप्न में आपने ऐसा क्या देखा , गुरुदेव ! की आप अभी रो रहे है ? “
       कबीरजी :  "स्वप्न में मैं चिडिया बन गया था |"
       शिष्य :  "ऐसा तो होता रहता है , इसमें रोने की क्या बात है गुरुदेव !"
       कबीरजी :  "परन्तु मुझे अब पता नहीं की मै कबीर हूँ की चिड़िया हूँ ?"
       शिष्य :  "गुरुदेव ! आप तो संत कबीर है , चिडिया नहीं है |"
       कबीरजी :  "यह कैसे मानूँ ? स्वप्न में चिडिया था तो वह सच्चा लग रहा था और इस समय याग सच्चा लग रहा है | इन दोनों में सच्चा क्या  ?"
       शिष्य :  "गुरूजी ! वह झूठा अर्थात स्वप्न झूठा और यह सच्चा है |"
       कबीरजी : “यह सच्चा कैसे ? उस समय तो चिडिया होना सच्चा लग रहा था , यह झूठा लग रहा था | हाँ , एक फर्क है की जब मै चिडिया बन गया था उस समय कबीर की स्मृति नहीं थी लेकिन अब जब मै कबीर हूँ तब भी चिडिया की स्मृति है | चिडिया की स्मृति गहरी है तो शायद मै वाही हूँ |"
       शिष्य :  "गुरुदेव ! आप चिडिया नहीं है |"
       कबीरजी :  "सुनो | आप जैसा अपने में स्मरण थोपते है ऐसा अपने को मानते है | वास्तव में मिथ्या में स्मरण थोपकर मिथ्या शारीर को ‘मै’ मान लेते है और सत्य में स्मृति थोपकर सत्यस्वरूप परमात्मा में जाग जाते है , मुक्त हो जाते है |"
       शिष्य समझ गए की एक लीला के द्वारा भी गुरू  हमें जगाना चाहते है ताकि हम भी अपने वास्तविक स्वरुप में , परमात्मतत्व में जाग जाए |

नुकते की हेर-फेर में खुदा से जुदा हुआ |

नुक्ता अगर ऊपर रखे तो जुदा से खुदा हुआ ||

       उस अकाल पुरुष से तुम्हारी चेतना उठती है और शरीर को ‘मै’ मानने लगती है तो तुम हो गए संसारी | ईंट , चुना , लोहे -लक्कड़ के मकान का नाम संसार नहीं है | इस देह को ‘मै’ मानना और मिटनेवाली चीजों को ‘मेरा’ मानना यह मान्यता ही संसार है |
'संसरति इति संसार : |'  - जो सरकता जाए उसीको तो संसार कहते है लेकिन जो सरकने वाला  संसार को देखता है वह कभी न सरकनेवाला आत्मा है और उस आत्मा में ‘मैं’ की वृत्ति टिक जाए तो कल्याण हो जाए |
       मिल जाए कोई ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष और लग जाए कोई सतशिष्य ईमानदारी  से …

बीते हुए समय को याद न करना , भविष्य की चिंता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुख-दुःख आदि में सम रहना ये जीवन्मुक्त पुरुष के लक्षण है |


अंक : १५४  ; माह : ९ जून १९९७

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