14.10.10

मुल्ला और सिन्धी

     
अपनी बुद्धि का सदा आदर करना चाहिए | किसीसे वैर नहीं बाँधना चाहिए | साथ ही मुर्खता भी नहीं होनी चाहिए | कोई हमें मुर्ख बनाकर अपना कार्य साध ले ऐसा नहीं होना चाहिए | हम उदार हों , सज्जन हों , स्नेही हो , हमारा व्यवहार मधुर हो लेकिन उसके साथ हम सतर्क , कुशल और शूरवीर भी बने | मुर्ख न बने , कायर न रहे | न बुद्धि की मंदता हो , न शारीरिक कायरता हो | तभी आप एक सफल जीवन जी सकते है | सफल जीवन के लिए बुद्धि का आदर करनेवाले जीवन्मुक्त महात्मा पुरुष का सत्संग करना चाहिए |

                        एक मुल्लाजी प्रवचन कर रहे थे | प्रवचन के बीच उन्होंने कहा : ” खुदा की खुदाई को कोई नहीं जानता | ”
यह बात जुन्नेद के एक सिंधी मित्र के कान पर पड़ी | सिन्धी मित्र वेदांती था | वह गया मुल्लाजी के पास और बोला : ” मुल्लाजी ! राम-राम | ”
मुल्लाजी :  "तुम सिंधी हो ? ”
सिंधी :  "हाँ , मैं अपने मित्र जुन्नेद से मिलने आया था | मैंने आपका प्रवचन सूना | आपने और सब तो जो कहा सो कहा लेकिन ‘ खुदा की खुदाई को कोई नहीं जानता ‘ यह कहने से लोगों की लघुताग्रंथी पक्की हो जायेगी | उनके ज्ञान का विकास नहीं हो पायेगा.. 'तदविद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |'   हमारी गीताजी में कहा है की समझ में न आये तो प्रश्नोत्तरी करके भी ज्ञान बढाओ | ‘ खुदा की खुदाई को कोई नहीं जानता'  यह बात मेरी समझ में नहीं आयी है , आप माफ़ करना | ”
मुल्लाजी :   "क्या तुम खुदा की खुदाई को जानते हो ? ”
सिंधी :   "हाँ | ”
मुल्लाजी :   "जानते हो तो दिखाओ |"
सिंधी :   "दिखा दूँ तो ?" 
मुल्ला :  "दिखा दो तो लग गई शर्त सौ रुपये की और यदि नहीं दिखा पाए तो ?"
  सिंधी :   "तो मैं आपको सौ रुपये दूँगा |"
  मुल्ला :  "जामिन कौन ?"
   सिंधी :  "मेरा जामिन जुन्नेद |"
जुन्नेद :   "क्यों सौ रुपये का पानी करते हो दोस्त ? माफ़ी माँग लो |"
  सिंधी :   "माफ़ी क्यों माँगे ? खुदा की खुदाई को कोई कैसे नहीं जानता ? मैं खुदा की खुदाई को जानता हूँ | तू जामिन हो जा, हाँ बोल दे , पचास रुपये तेरे |"
   जुन्नेद :  "हार गए तो ?"
सिंधी :   "तेरे से नहीं लूँगा | तू हाँ तो बोल |"
   मुसलमान जुन्नेद और सिंधी आपस में मित्र थे | बात पक्की हो गयी |
सिंधी मुल्लाजी से बोलता है :  "चलो मेरे साथ , में खुदा की खुदाई दिखाता हूँ |"   वे लोग चल पड़े तो उनके साथ जो कथा सुन रहे थे वे १००-१५० श्रोता भी चल पड़े | उस समय मजहब ( धर्म ) को लेकर ज्यादा खींचातानी नहीं होती थी | सिंधी ने सब लोगों से कहा : ” अपना मजहब और पराया मजहब करके पक्षपात करना खुदा के दरबार में गुनहगार होना है | आप लोग सत्य जिसका हो उसका ही पक्ष लेना | ऐसा मत सोचना की ये हमारे है और ये पराये है | ”
उन सबने मिलकर कहा :  "नहीं नहीं , यदि तुम्हारी बात सत्य होगी तो हम सब मिलकर तुम्हारा ही पक्ष लेंगे |" सिंधी ले गया उन सबको सिंधु नदी  के किनारे और बोला :  "यह जो सिंधु नहीं बह रही है यह खुदा की ही खुदाई है |"
मुल्ला :  "क्या यह खुदा की खुदाई है ?"
  सिंधी :  "खुदा की खुदाई नहीं है तो क्या मुल्लाजी ! आपने खुदाई है ? आपके बाप ने खुदाई है ? या किसी दुसरे ने खुदाई है ? बोलो | यह खुदा की ही खुदाई है की नहीं ?” लोगों ने कहा की बात तो सच्ची है | मुल्लाजी ने सौ रुपये सिंधी को दे दिए |
अब तो मुल्लाजी को लगा की सिंधी के बच्चे को सीधा करूँगा | वह जुन्नेद को रोज कथा में बुलाता था | दो सप्ताह के बाद सिंधी फिर पहुँचा कथा में | उस वक्त मुल्ला ने कहा :  "इन्सान के दिल की बात कोई नहीं जानता |”
सिंधी ने प्रवचन पूरा होने के बाद मुल्लाजी से कहा :  "आज आपने यह कैसे कह दिया की इन्सान के दिल की बात कोई नहीं जानता ?”  मुल्लाजी को पिछली शर्त हार जाने का गुस्सा था ही | वे बोले :  "हाँ , कोई नहीं जानता | क्या तुम जानते हो ?" सिंधी :  "हाँ , मैं जानता हूँ |”
मुल्ला :  "लगी दो सौ की शर्त ? ”
सिंधी :   "आप भले चार सौ की शर्त लगा लो | ”
मुल्ला :  "ठीक है | पहले के सौ वापस ले लेंगे और तीन सौ ज्यादा कमा लेंगे | मगर तुम इन्सान के दिल की बात जानते हो ?" सिंधी :  "हाँ , जानता हूँ |"   मुल्ला ने सोचा की यदि यह सचमुच जानता होगा फिर भी इसको झूठा साबित कर देंगे | यदि सच्चा बताएगा तो भी मैं बोल दूँगा की यह मेरे मन की बात नहीं है | आज मैं झूठ बोलकर भी जीत जाऊँगा | मुल्ला बोला :  "अच्छा , मेरे मन की बात बताओ |"
सिंधी समझ गया की इसके मन की बात बताउँगा तब भी स्वीकार नहीं करेगा | किन्तु वह भी पीछे हटनेवाला न था | वह थोड़ा-सा शांत हो गया और उसने युक्ति से मुक्ति खोज ली | सिंधी बोला :   "मुल्लाजी ! आपके मन की केवल एक बात ही नहीं , चार सौ की शर्त लगाई है तो चार बातें बता सकता हूँ | चारों की चार बातें सच्ची होगी | चार में से यदि एक भी झूठी हो तो तुम हजार रुपये और भी ले सकते हो |"   ऐसा कहकर सिंधी ने मुल्ला का मनोबल थोड़ा कमजोर कर दिया | मुल्ला :  "अच्छा अच्छा , बताओ |"   सिंधी :  "आप सदा राजा साहब की खैर चाहते हो , कभी-भी आपके मन में ऐसा नहीं आता की राजा साहब मर जायें |"  अब मुल्ला मुकरे कैसे ?   'राजा साहब की खैर नहीं चाहता हूँ'   ऐसा बोले तो मुसीबत में पड़ता है | मुल्ला को मानना पडा | सिंधी :  "दूसरी बात यह है की जो लोग आपका प्रवचन सुनने आते है उनका आप भला चाहते है | आप चाहते है की वे सब नेक इन्सान बने | कोई बदमाश न हो , सबका भला हो | यह आप चाहते हो , यह बात मैं दावे से कहता हूँ | झुलेलाल भगवान् की कसम खाकर कहता हूँ |"   इस बार भी मुल्ला कैसे मुकरे ? उसे स्वीकार करना पडा | वह बोला :   "अच्छा , अब दो बातें और बताओ |"   मुल्ला ने सोचा चलो , दो बातें तो इसकी माननी पड़ी | अब बाकी की दो बातों में मैं इनकार कर दूँगा | लेकिन करे तो कैसे करे?   सिंधी :  "आप सदा चाहते हो की आपके कुटुम्बी भी कुराने शरीफ की आज्ञा के अनुसार अपनी नेक जिन्दगी गुजारे | नमाज पढ़ते रहे | लोगों के लिए आदर्श बनें | ऐसा नहीं की शैतान की तरह जिंदगी बितायें |"   अब मुल्ला ना कैसे कहता ? बोला :  "अब चौथी बात बता दो |"   मुल्लाजी ने सोचा की इन तीन बातों के लिए तो ‘हाँ’ करनी पड़ी किन्तु चौथी के लिए तो ‘ना’ बोल ही दूँगा और शर्त जीत जाऊँगा | सिंधी :  "आप यह भी सदा चाहते है की आपके मरने के बाद लोग आपकी नेकी गायें | आपसे कोई ऐसा बुरा काम न हो की आपकी मृत्यु के समय आप पर धब्बा लगे | लोग आपको खुदा का प्यारा मानें ऐसा सज्जनता का काम आप करना चाहते है |”   सिंधी साईं की विचारयुक्त बातों के आगे मुल्ला मुकर नहीं सका | वह बोला :  "भाई ! मान गया मैं तो , ये लो चार सौ रुपये |"
दस-बारह सप्ताह के बाद फिर सिंधी आया | मुल्लाजी उस समय कह रहे थे : "फलाने दिन क़यामत होगी और सब मर जायेंगे | इसलिए जल्दी से नेक काम कर लो |"
सिंधी :  "यह संभव नहीं है |"
मुल्ला :  "संभव कैसे नहीं है ? फलाने दिन क़यामत ( प्रलय ) हो ही जायेगी | दूसरी बात यह की आसमान में कितने तारे है यह कोई नहीं जानता |"
  सिंधी :   "मैं जानता हूँ |"
मुल्ला :  "तीसरी बात भी सुन लो की पृथ्वी का मध्यबिंदु कोई नहीं जानता |"
सिंधी :  "मैं जानता हूँ |"
मुल्ला :  "अच्छा … सिंधी ! पाँच सौ ले गये हो , अब हजार रुपये वापस देने पड़ेंगे |”
सिंधी : ” लग गई हजार रुपये की शर्त |"
  जुन्नेद अपने सिंधी मित्र से कहता है :  "क्यों गँवाते हो यार ! हजार रुपये कैसे जीतेंगे ? फलाने दिन तो क़यामत हो ही जायेगी”
सिंधी :  "अरे पगले ! क़यामत हो जायेगी तो लेनेवाला भी मर जाएगा , मांगेंगा कहाँ ? अगर नहीं हुई तो जीत जायेंगे | कमाई का धंधा है |"
मुल्ला :  "बताओ , आकाश में तारे कितने है ?"
सिंधी :  "यह  काली गाय खड़ी है उसके शरीर पर जितने बाल है , ठीक उतने ही आकाश में तारे है |"
मुल्ला : "कैसे ?"
सिंधी :  "आप गिन लो | कम-ज्यादा हुए तो हम जिम्मेदार है |”
मुल्लाजी क्या गिनते ? हार मान ली | फिर बोले : "पृथ्वी का मध्यबिंदु कोई नहीं जानता |"
  सिंधी ने उठाया डंडा और वही पर एक जगह रखते हुए बोला :  "यह पृथ्वी का मध्यबिंदु है |”
मुल्ला :  "कैसे ?"
सिंधी :  "आप पूरी पृथ्वी नाप  लीजिये , यही मध्यबिंदु मिलेगा |"   पृथ्वी एक गेंद की तरह है | गेंद पर कहीं भी निशान लगा दो , वही उसका मध्यबिंदु होता है | मुल्ला को अब भी हार माननी पड़ी |
फिर वह बोला :  "अभी एक बात बाकी है | फलाने दिन क़यामत होगी |”
सिंधी :  "नहीं होगी |”
क़यामत का दिन बीत गया , रात बीत गयी | सिंधी पहुँचा मुल्लाजी के पास और बोला :  "राम-राम , मुल्लाजी ! क़यामत नहीं हुई है , हजार रुपये निकालिए |"
  मुल्लाजी ने हजार रुपये दे दिए | इस प्रकार कुल मिलाकर मुल्लाजी पंद्रह सौ रुपये हार गये |
सिंधी :  "मुल्लाजी ! आपका दिल दु:खता है तो हम रुपये वापस दे सकते है |"
मुल्ला :  "नहीं नहीं | लोग क्या कहेंगे ? हम वापस नहीं लेंगे |"
  सिंधी ने जुन्नेद से कहा :  "साढ़े सात सौ रुपये का मैं साधू-संत-महात्माओं में भंडारा करवाउँगा | मुझे ये रुपये नहीं चाहिए |” साढ़े सात सौ रुपये के गहने बनवाकर जुन्नेद की बहु को दे दिए और साढ़े सात सौ रुपये सिन्धु नहीं के किनारे भजन करने वाले साधू-संतों की सेवा में लगा दिए | संत-महापुरुषों की सेवा भी हो गयी और आने वाले भक्तों को प्रसाद भी मिल गया | सिंधी का ह्रदय भी पवित्र हो गया | अपनी बुद्धि का सदा आदर करना चाहिए | किसीसे वैर नहीं बाँधना चाहिए | साथ ही मुर्खता भी नहीं होनी चाहिए | कोई हमें मुर्ख बनाकर अपना कार्य साध ले ऐसा नहीं होना चाहिए | हम उदार हों , सज्जन हों , स्नेही हो , हमारा व्यवहार मधुर हो लेकिन उसके साथ हम सतर्क , कुशल और शूरवीर भी बने | मुर्ख न बने , कायर न रहे | न बुद्धि की मंदता हो , न शारीरिक कायरता हो | तभी आप एक सफल जीवन जी सकते है | सफल जीवन के लिए बुद्धि का आदर करनेवाले जीवन्मुक्त महात्मा पुरुष का सत्संग करना चाहिए |

अंक : ५४ ; माह : ९ जून १९९७
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