1.9.10

तीन महत्वपूर्ण प्रश्न



आज के मनुष्य को उसकी दुष्ट इच्छाओं- वासनाओं ने इतना त्रस्त कर रखा है की वह पद-पद पर चिंताओं, परेशानियों, समस्याओं एवं दुखों–कष्टों के थपेड़े खाता रहता है | वह सच्चा जीवन जीने का ढंग ही भूल चुका है | फरियादात्मक वृतियों ने उसके विकास को अवरुद्ध कर रखा है | जीने का सच्चा ढंग तो यही है की परमेश्वर जो दे, उसीमें हम संतुष्ट रहें | जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी, ऐशो आराम के सभी साधन थे, बड़े बड़े महल थे, वे भी पूर्ण सुखी नहीं हो पाए तो आप उन परिस्थितियों–वस्तुओं की याचना क्यों करते हो जिनसे आपका जीवन भी दुखमय बन सकता है ! आज आपके पास जो है, उसीमें संतुष्ट रहना सीखो | आपको जिसकी अत्यंत आवश्यकता है, उसकी पूर्ति स्वयं भगवान करेंगे इस नियम को अपने हृदय में बिठा दो |

जो सचमुच अपने जीवन का महत्त्व समझतें है वे जिससे अपना कल्याण हो ऐसा संग करतें है, ऐसा दिव्य विचार करतें है |

राजा सुषेण को विचार आया की ‘मै जीवन का रहस्य समझने वाले किसी महात्मा की शरण में जाऊँ | पंडित लोग मेरे मन का वहम दूर नहीं कर सकते |’

राजा सुषेण गांव के बाहर ठहरे हुए एक वेदान्ती महात्मा के पास पहुंचे | उस समय महात्मा अपनी वाटिका में सेवा कर रहे थे , पेड़ पौधे लगा रहे थे |

राजा बोले : “ बाबाजी ! मैं कुछ प्रश्नों का समाधान चाहता हूँ |”

बाबजी : “ मेरे पास अभी समय नहीं है | मुझे अपनी वाटिका बनानी है |”

राजा ने सोचा कि ‘बाबाजी अभी काम कर रहे है और हम चुप चाप बैठे यह ठीक नहीं |’ राजा ने भी कुदाली फावड़ा उठाया और काम करने लगे |

इतने में ही एक आदमी भागता भागता आया और आश्रम में शरण लेने को घुसा तथा गिरकर बेहोश हो गया | महात्मा ने उसे उठाया | उसके सर पर चोट लगी थी महात्मा ने घाव पोछा तथा जो कुछ औषधि थी, लगाई | राजा भी उसकी सेवा में लग गया | वह घायल आदमी जब होश में आया तो सामने राजा को देखकर चौंक उठा : “ राजासाहब ! आप मेरी चाकरी में ! मैं क्षमा मांगता हूँ … “ ऐसा कहकर वह रोने लगा | राजा ने पूछा : “क्यों, क्या बात है ?”

“ राजन ! आप राजदरबार में बाहर एकांत में गए हैं, ऐसा जानकार मैं आपकी हत्या करने के लिए आपके पीछे पडा हुआ था | किन्तु मेरी बात खुल गई और आपके सैनिकों ने मेरा पीछा किया | मै जानबचाकर भागा और इधर पहुंचा |”

महात्मा ने राजा से कहा : “ इसे क्षमा कर दो |”

राजा ने आज्ञा शिरोधार्य की | महात्मा ने उस आदमी को दूध पिलाकर रवाना कर दिया | फिर दोनों वार्तालाप करने बैठे | राजा बोले : “ महाराज ! मेरे तीन प्रश्न है : सबसे उत्तम समय कौन सा है ? सबसे बढ़िया काम कौन सा है और सबसे बढ़िया व्यक्ति कौन सा है ? ये तीनों प्रश्न मेरे दिमाग में वर्षों से घूम रहे है | आपके सिवाय इन प्रश्नों का समाधान करने की क्षमता किसीमे नहीं है | आप आत्मज्ञानी है, आप जीवन्मुक्त है, कृपा कर इनका समाधान कीजिये |

महात्मा बोले : “ तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मैंने प्रत्यक्ष दे दिया है | फिर भी सुनो : सबसे बढ़िया एवं महत्वपूर्ण समय है – वर्तमान, जिसमे तुम जी रहे हो | इससे भी बढ़िया समय आएगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते …. नहीं | अभी जो समय है, वही बढ़िया है |

सबसे बढ़िया काम क्या है | धर्मानुकूल जो कार्य कर रहे हो, उस कार्य को इश्वर की पूजा समझकर बढ़िया से बढ़िया ढंग से करो | उस वक्त वही बढ़िया काम है | उत्तम से उत्तम व्यक्ति कौन है ? जो तुम्हारे सामने हो, प्रत्यक्ष हो, वह सबसे उत्तम व्यक्ति है |”

राजा असमंजस में पड गए | बोले : “ बाबाजी मै समझा नहीं |” तब बाबाजी ने समझाया : “ राजन ! सबसे महत्वपूर्ण समय तो है वर्तमान | आज तुमने वर्तमान समय का सदुपयोग नहीं किया होता और तुम यहाँ से तुरंत वापस चल दिए होते तो कुछ अमंगल घटना घट जाती | यहाँ जो आदमी आया था उसका भाई युद्ध में मारा गया था | उसका बदला लेने के लिए वह तुम्हारे पीछे लगा था | मै काम में लगा था और तुम भी वर्तमान समय का सदुपयोग करते हुए मेरे साथ लग गए तो वह संकट की वेला बीत गई और तुम बच गए |

सबसे बढ़िया काम क्या है ? जो सामने आ जाए वाही बढ़िया काम है | आज तुम्हारे सामने बगीचे का काम आ गया और तुम भी लग गए, वर्तमान को सँवारकर उसका सदुपयोग किया |

सेवाभाव से कार्य करने से तुम्हारा दिल और स्वस्थ्य दोनों सँवरे | तुमने पुन्य भी अर्जित किया | इसी कर्म ने तुम्हे दुर्घटना से बचाया | बढ़िया से बढ़िया व्यक्ति वही है जो प्रत्यक्ष हो | उस आदमी के लिए अपने दिल में सद॒भाव लाकर तुमने सेवा की | प्रत्यक्ष उपस्थित व्यक्ति के साथ यथायोग्य सादव्यवहार किया तो उसका हृदय भी परिवर्तित हो गया, तुम्हारे प्रति उसका वैरभाव धुल गया |

इस प्रकार तुम्हारे सामने जो आ जाए वह व्यक्ति बढ़िया है, तुम्हारे सामने शास्त्रानुकूल जो कार्य आ जाए वही उत्तम है और जो वर्तमान समय है वही बढ़िया है |”

जिस समय आप जो काम करते हो, उसमे अपनी पूरी चेतना लगाओ, दिल लगाओ | टूटे हुए, हताश दिल से काम न करो | लापरवाही, पलायनवादिता से काम करना भूल है | हर कार्य को पूजा, ईश्वर की सेवा समझकर करो|

आज होता क्या है ? हम हर कार्य को टालने की वृत्ति से करते है, अनमने होकर करते है तभी तो मन में प्रसन्नता नहीं आती | नहीं तो मन से काम करें और हृदय न खिले, तो धिक्कार है ऐसे कतॅा को !

यदि कार्य करते-करते आप ईश्वर नाम जपतें जाएँ, प्रभु सुमिरन करतें जाएँ, उसीमे एकाकार होते जाएँ तो फिर सोने पर सुहागा मानो | मन्त्र जप से कार्य में कितना लाभ होगा, यह वाणी का विषय नहीं है | इससे आपका सतत सुमिरन, चिंतन और विश्रांति आरम्भ हो जाएगी और जिस क्षण आपका सतत सुमिरन, चिंतन और विश्रांति आरम्भ हो जाएगी, उसी क्षण आपके सारे कार्य पूर्ण हो जाएंगे क्योंकि यह स्वयं भगवान का वचन है :

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यश: |

तस्यहम सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||

‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमे अनन्यचित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य निरंतर मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मै सुलभ हूँ अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |’ ( गीता :८.१४ )

हनुमानजी, जाम्बवंत और अन्य वानर युद्ध करते थे तो रामजी की आराधना समझकर | आप जिस समय जो काम करो, उसमे रम जाओ, उसमे पूर्णरूप से एकाग्र हो जाओ | काम करने का भी आनंद आएगा और परिणाम भी बढ़िया होगा | कम से कम समय लगे और अधिक से अधिक सुन्दर परिणाम मिले, ऐसा कार्य करो | ये उत्तम करता के लक्षण है |

जिस समय जो व्यक्ति सामने आ जाए उस समय वह व्यक्ति श्रेष्ठ है, ऐसा समझकर उसके साथ व्यवहार करो क्योंकि श्रेष्ठ में श्रेष्ठ परमात्मा उसमे है | स्वार्थ की जगह पर स्नेह ले आओ, सहानुभूति और सच्चाई लाओ | फिर आपका सर्वांगीर्ण विकास होगा और आपमें सत्संग का प्रसाद स्थिर होने लगेगा | यही तो है व्यवहारिक वेदांत

जब करो जो भी करो, अर्पण करो भगवान को |

सर्व कर दो समर्पण, त्यागकर अभिमान को |

मुक्ति का आनंद अनुभव, सर्वदा क्यों खो रहे हो ?

अजन्मा है अमर आत्मा, भय में जीवन खो रहे हो ||


[ऋषि प्रसाद ; अंक २०८- अप्रैल २०१० ]

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