1.9.10

परिप्रश्नेन


प्रश्न : पूज्य बापूजी ! मैंने ‘वासुदेवः सर्वम्’ इस मंत्र को आत्मसात् करने का लक्ष्य बनाया था | भले लोगों में तो वासुदेव का दर्शन संभव लगता है परन्तु बुरे लोगों में, बुरी वस्तुओं में नहीं लगता तो इस हेतु क्या किया जाए ?

पूज्य बापूजी : गुरूजी वसुदेवस्वरूप है, श्रीकृष्ण, गाएं आदि वसुदेवस्वरूप है – इस प्रकार की भावना तो बन सकती है परन्तु जो हमारे सामने ही बदमाशी कर रहा हो उसको वासुदेव कैसे मानें ? जो बदमाशी कर रहा है, तुम्हे ठग रहा है तो सावधान तो रहो लेकिन उसमें भी वासुदेव के स्वरुप की ही भावना करो | जैसे भगवान श्रीकृष्ण मक्खनचोरी की लीला तो करते थे, तब प्रभावती नामक गोपी सावधान तो रहती थी, लेकिन श्रीकृष्ण को देखकर आनंदित भी होती थी कि ‘वासुदेव कैसी कैसी अटखेलियाँ कर रहा है !’ ऐसे ही यदि कोई क्रूर आदमी हो तो समझो कि ‘वासुदेव नृसिंह अवतार की लीला कर रहें है’ और कोई युक्ति लडा़नेवाला हो तो समझ लो कि ‘वासुदेव श्रीकृष्ण ही लीला कर रहे है |’ कोई एकदम गुस्सेबाज़ हो तो समझना, ‘वासुदेव शिव के रूप में लीला कर रहें है |’ अच्छे–बुरे सबमें वासुदेव ही लीला कर रहें है, इस प्रकार का भाव बना लो |

वास्तव में तो सब वासुदेव ही हैं, भला बुरा तो ऊपर-ऊपर से दिखता है | जैसे वास्तव में तो पानी है परन्तु बोलतें है कि गन्दी तरंगों में पानी की भावना कैसे करें ? नाली में गंगाजल की भावना कैसे करें ? अरे, नाली का वाष्पीभूत पानी फिर गंगाजल बन जाता है और वही गंगाजल नाली में आ जाता है | ऐसे ही वासुदेव अनेक रूपों में दिखतें रहतें है |

प्रश्न : पूज्य बापूजी ! हमारा लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है परन्तु व्यवहार में हम यह भूल जातें है और भटक जातें है | कृपया व्यवहार में भी अपनें लक्ष्य को याद रखनें की युक्ति बताएं |

पूज्य बापूजी : कटहल की सब्जी बनानें के लिए जब उसे हम काटतें है, तब पहले हाथ में तेल लगा लेतें है ताकि उसका दूध चिपके नहीं | नहीं तो वह हाथ से उतरता नहीं है | ऐसे ही पहले भगवद् भक्ति, भगवद्पुकार, भगवन्नामजप, भगवद्ध्यान आदि की चिकनाहट हृदय में रगडकर फिर संसार का व्यवहार करोगे तो संसार भी नहीं चिपकेगा और तुम्हारा काम भी हो जायेगा |

प्रश्न : गुरुवार ! आत्मचिंतन कैसे करें ?

पूज्य बापूजी : जो लोग आत्मचिंतन नहीं करते वे सुख दुःख में डूबकर खप जातें है लेकिन आत्मचिंतन करनें वाले साधक तो दोनों का मज़ा लेते है | आत्मचिंतन अर्थात जहाँ से अपना ‘मैं’ उठता है, जो सत् चित आनंदरूप है, जो दुःख को देखता है सुख को जानता है वह कौन है ? ऐसा चिंतन |

‘हानि और लाभ आ-आकर चले जातें है परन्तु मै कौन हूँ ? ॐ ॐ… ऐसा करके शांत हो जाओ तो भीतर से उत्तर भी आएगा और अनुभव भी होगा कि ‘मैं इनको देखनें वाला दृष्टा, साक्षी, असंग हूँ |’

‘विचार चंद्रोदय, विचारसागर, श्री योगवशिष्ठ महारामायण’ इत्यादि आत्मचिंतन के ग्रंथों का अध्ययन अथवा जिनको ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उन्होंने जो ईश्वर तथा आत्मदेव के विषय में कहा है वह आश्रम की ‘श्री नारायण स्तुति’ पुस्तक में संकलित किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते शांत हो जाओ, हो गया आत्मचिंतन !


[ ऋषि प्रसाद ; अंक:१९९ - माह:जुलाई, २००९]

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