1.9.10

गुरु ज्ञान बांटो

"जिनको गुरूजी प्यारे लागतें है उनको चाहिए की गुरूजी को , गुरूजी के ज्ञान को उनके साहित्य के माध्यम से, सत्संग की कैसेटों के माध्यम से बाँटना शुरू कर दें तो वे गुरूजी के और प्यारे बन जाएँगे, और करीब पहुँच जाएँगे"


व्यक्ति की जहाँ जहाँ और जितनी जितनी अधिक ममता व लगाव होता है, वहां वहां और उतना उतना उसे सुख दुःख महसूस होता है | भगवान् के रस्ते चलने वालों के लिए ममता का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है जो चीज खाने में व भोगने में प्यारी लगती है उसको बाँटना चालु कर दो तो ममता हटेगी | वाह वाही प्यारी लगती है तो बड़ों के चरणों में बैठो | धन प्यारा लगता है तो कुछ हिस्सा दान करो बोले : ‘ हमको तो गुरूजी प्यारे लागतें है | ‘ तो तुम गुरूजी का दान करो, गुरूजी को बाँटो तुम बोलोगे की ‘ गुरूजी का दान नहीं करेंगे ‘ अरे ! जो दान किया जाता है वाह व्यापक हो जाता है | गुरूजी के ज्ञान का, प्रसाद का दान करने से गुरूजी और व्यापक हो जाएँगे |

ब्रह्मज्ञानी महापुरषों की वाणी उनके अनुभुतियुक्त अन्तः करण की वाणी होती है, जो महापुरषों के वात्सल्यमाय ह्रदय के समान कल्याण करने वाली होती है| जैसे ’गीता’ भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी है इसकी महिमा बताते हुए भगवान् ने कहा है : गीता मे हृदयं पार्थ ‘ गीता मेरा ह्रदय है ‘ गीता मेरा ह्रदय है |’

भगवान् का ह्रदय तो सतत भक्तों के कल्याण के लिए छलकता रहता है,ऐसे ही भगवतस्वरुप सदगुरुओं की वाणी तथा साहित्य सतत श्रद्धालुओं के मोक्षमार्ग का पथप्रदर्शक तथा सुरक्षा कवच बना रहता है|

तो जिनको गुरूजी प्यारे लागतें है उनको चाहिए की गुरूजी को , गुरूजी के ज्ञान को उनके साहित्य के माध्यम से, सत्संग की कैसेटों के माध्यम से बाँटना शुरू कर दें तो व गुरूजी के और प्यारे बन जाएँगे, और करीब पहुँच जाएँगे|

हमारे गुरूजी तो ८० वर्ष तक की उम्र में गाँव गाँव, गली गली जाकर सत्संग की पुस्तकें बांटते थे | विवेकानंदजी ने रामकृष्ण पराम्हंसजी के प्रसाद को देश विदेश में बांटा | भगवान् रामजी को वशिष्ठजी ने जो सत्संग अमृत का पान कराया था, उन अमृतवचनों से बना ‘ श्री योगवाशिष्ठ महारामायण ’ नामक ग्रन्थ आज भी जिज्ञासु भक्तों के लिए एक अति उत्तम ग्रन्थ साबित हो रहा है मई भी अपने गुरुदेव के प्रसाद को इतने दिनों से बाँट रहा हु तो क्या हमारे गुरूजी से हमारी दूरी बाद गई ? नहीं | गुरूजी का ज्ञान, गुरूजी का अनुभव मेरा अपना अनुभव हो गया और पहले तो गुरूजी कहीं चले जाते तो लगता था गुरूजी हमसे दूर हो गए है लेकिन जब गुरूजी का प्रसाद मिला तब मालूम हुआ की हमारे गुरूजी हमसे कभी भी दूर नहीं हो सकते है|

तो गुरु के ज्ञान का प्रसाद बाँटने से, गुरु के दैवी कार्य में लगे रहने से संसार तथा संसारी वस्तुओं से ममता मिट जाती है और शिष्य के ह्रदय में प्रेमाभक्ति का प्रसाद उत्त्पन्न होकर वाह जीवन्मुक्त पद पाने का अधिकारी बन जाता है |



[ ऋषि प्रसाद; अंक – 186 , जून 2008 ]

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