14.3.11

पाप-पुण्य



पन्द्रह प्रकार के कायिक, वाचिक, मानसिक पाप व पुण्य होते हैं।
पाँच पाप शरीर से होते हैं- हिंसा, चोरी, व्यभिचार, अकड़कर चलना, व्यर्थ चेष्टा में शक्ति नष्ट करना।
पाँच पाप वाणी से होते हैं- झूठ बोलना, परनिंदा, कठोर वचन कहना, व्यर्थ परचर्चा करना, अपने मुँह से अपनी बड़ाई करना।
पाँच पाप मन से होते हैं- पराये धन की इच्छा, दूसरों का अनिष्ट चिंतन, तृष्णा (कभी न तृप्त न होने वाली धन, भोग, मान आदि की इच्छा), क्रोध, अज्ञान में अहंकार से कर्ता-भोक्ता बने रहना।
जो बुद्धिमान व्यक्ति अपने को इन पन्द्रह पापों से बचा लेता है, उसका जीवन सदगुणों की सुवास से महकने लगता है। अपने में निम्न पन्द्रह पुण्यों को भरकर वह अपने जीवन को दिव्य बना लेता है।
देह से होने वाले पाँच पुण्यः प्राणियों की रक्षा तथा यथाशक्ति सेवा करना, जो कुछ दूसरों के लिए सुखद और हितकर है, उसका यथायोग्य दान करना, सदाचार-शिष्टाचार को सावधानी से पूर्ण करना, कर्तव्य कर्मों में लगे रहना, वीर्य रक्षा से शरीर को पुष्ट रखना अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करना।
वाणी से होने वाले पाँच पुण्यः मधुर, प्रिय, सत्य बोलना, दूसरों के गुणों की चर्चा करना, सम्यक हितकर वचन बोलना, किसी के शुभ कर्म की प्रशंसा करना, परमेश्वर की महिमा का गुणगान अथवा सत्-चर्चा करना।
मन से होने वाले पाँच पुण्यः प्रिय वस्तु के दान में उदार होना, सर्वस्व के दाता प्रभु को ही अपना मानना, जो कुछ जितना मिला है, उसी में प्रसन्नता पूर्वक संतुष्ट रहना, अपना अनिष्ट चाहने वाले को क्षमा करना, प्रभु के नाते सभी का हित चाहना।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 5, अंक 161
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