14.3.11

जला दो उसी को जिसने दी जलन



'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' के रचयिता महाकवि कालिदास की प्रसिद्धि बढ़ती ही जा रही थी। उनकी रचनाएँ पढ़कर लोग आनंदित होते थे पर प्रसिद्धि देखकर जलने वाले, उनसे द्वेष करने वाले लोग भी कम नहीं थे। पंडित भवभूति, जो उस समय का प्रसिद्ध विद्वान था, वह कवि कालिदास से द्वेष करता था। उनकी चारों ओर हो रही प्रशंसा ने उसका चित्त विचलित कर दिया था। अतः उसने ईर्ष्यावश एक नाटक लिखा और उसका मंच पर आयोजन करवाया। साहित्यिक दृष्टि से नाटक सुंदर था, फिर भी दर्शकों की संख्या गिनी-चुनी ही रही और जो आये थे वे भी बीच में से ही उठकर जाने लगे।
यह देखकर भवभूति को भारी निराशा हुई। घर लौटकर उसने उस नाटक को अग्निदेव को समर्पित कर दिया। पिता ने देखा तो ऐसा करने का कारण पूछा।
वह बोलाः "जिसे लोग पसंद ही नहीं करते, ऐसे नाटक को रखकर मैं क्या करूँगा !"
पिता ने कहाः "पुत्र ! दूसरों पर दोषारोपण करने के बदले तुम्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।"
"पिताजी ! इसमें मेरा क्या दोष है ?"
"तुम्हारा उद्देश्य कालिदास को नीचा दिखाना था। उन्हें नीचा दिखाने के लिए ही तुमने इस नाटक की रचना की थी। तुमने भोजपत्र के ये पन्ने तो जला दिये पर वास्तव में तुम्हें अपने अंदर स्थित ईर्ष्या की मलिन वृत्ति को जलाना चाहिए था।"
भवभूति को अपनी भूल समझ में आ गयी।
पिता ने कहाः "पुत्र ! इस ग्रंथ की राख मस्तक पर लगा ले और फिर से ग्रंथ की रचना कर। मेरा आशीर्वाद है कि तू अवश्य सफल होगा।"
इसके बाद भवभूति ने जो साहित्य रचना की, वह लोगों के लिए अमूल्य धरोहर हो गयी और उसकी ख्याति चारों तरफ फैल गयी।
ईर्ष्या एक ऐसा घातक विष है कि यह जिसमें पैदा होता है, सबसे पहले उसी को मारता। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी योग्यताओं, सम्भावनाओं का गला खुद ही घोंट देता है। अतः हम दृढ़ संकल्प करें और भगवान से प्रार्थना करें-
हे प्रभु ! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।
निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी न करें।
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।।
हे प्रभु !....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 15 अंक 162
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें