14.3.11

श्रेष्ठ की उपासना



वेदों ने भगवान का स्वरूप बताया हैः
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।क
'वह सच्चिदानन्द परब्रह्म-परमात्मा सब प्रकार से सदा-सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से ही पूर्ण है क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही शेष रह जाता है।'
और सुखमनी साहिब में आता हैः
पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा के नाउ।
नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ।।
वह पूर्ण अखंड सर्जनहार तभी प्रसन्न होगा जब उसके द्वारा सर्जित मानव हर कार्य पूर्ण मन से करे। पूरे मन से किया गया कार्य़ ही पूजा है। कहा भी गया हैः कार्य ही पूजा है।
अतः हरेक काम में मन लगाकर, उसमें प्राण डालकर और मेरे काम में कमी न रहेगी। - ऐसी भावना से करना चाहिए, फिर भले उसे प्रदर्शनी में रखना हो अथवा जंगल में ले जाना हो। हमारी भावना हो कि 'यह मेरा काम है, अतऋ मेरी आत्मा का इसमें आविर्भाव होना चाहिए। मेरा प्रत्येक कार्य मेरे व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब एवं मेरे आदर्श का प्रतिनिधि है। मेरे काम में कमी सहन की ही नहीं जा सकती।'
लेकिन 'चलेगा''देखा जायेगा''अगर-मगर' जैसे घातक शब्दों ने आजकल समाज को कर्तव्य-पथ से भ्रष्ट कर दिया है, व्यक्ति की योग्यताओं का गला घोंट दिया है। जैसे कि पढ़ना तो सारा पाठ्यक्रम था परंतु कुछ भाग पढ़ा और कुछ भाग यह सोचकर छोड़ दिया कि 'यह वैकल्पिक (ओप्शनल) है। चलेगा....' अच्छे अंक पाये, प्रमाण-पत्र में उत्तम श्रेणी भी लिखा गया लेकिन'चलेगा' वाली परीक्षा-पद्धति ने इन प्रमाण पत्रों की कीमत को इतना घटा दिया कि दर-दर ठोकरें खाने पर भी कोई पूछता ही नहीं।
यही युवावर्ग जैसे-तैसे कहीं नौकरी-व्यवसाय में लग जाता है तो वहाँ क्या नजारा होता है ?
उद्योगपति के कारखाने में कुशल कारीगर न हों, तब 'चलेगा' कहकर नुक्सवाले माल को भी बाजार में पहुँचा दिया जाता है। व्यापारी की दुकान में घटिया माल आया हो, तब भी 'चलेगा' कहकर ग्राहकों के हाथों में थमा दिया जाता है। इंजीनियर की गणना यथार्थ न हो, तब 'चलेगा' फलस्वरूप सड़क टेढ़ी मेढ़ी बना दी जाती है और पुल नदी से भेंट करने कब झुक पड़े, यह कहा न जा सके ऐसा बना दिया जाता है।क
वाह ! हलका-फुलका, छोटा सा 'चलेगा' शब्द कितने बड़े अजूबे दिखा देता ! तो क्या इस शब्द को अपने शब्दकोश में से हटा दें ? इसके संस्कार इतने गहरे हैं कि इसे हटाना इतना सरल भी नहीं लगता। सरल उपाय है इसके स्थान को बदल देना। मौज-मजा, सुविधा, चटोरापन आदि के दास होकर घेंटे बकरों की तरह 'चलेगा' कहने के बजाये व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, संयम, नियम को निभाने के लिए तितिक्षावान बनकर धीर वीर की तरह 'चलेगा' कहना शुरू कीजिये। अर्जुन को माध्यम बनाकर भगवान आप ही को हितभरा, स्नेहमय संदेश दे रहे हैं-
तांस्तितिक्षस्व भारत।
'हे भारत ! उसको (अनुकूलता-प्रतिकूलता) को तू सहन कर।' गीता 2.14
ब्रह्मनिष्ठ संतों का यह सदवाक्य याद रखियेः 'सावधानी से ही साधना है। प्रमादयुक्त लाख जन्मों की तुलना में सावधानी का एक क्षण अनेक गुना श्रेष्ठ है।'
कितनी सारी दुर्घटनाओं और निष्फलताओं के मूल में किसी के द्वारा लापरवाही से बोले गये 'चलेगा' बेवकूफी ही होती है। व्यक्तित्व के निर्माण में ऐसा कच्चापन नहीं निभता। जीवन निर्माण में ऐसी ढील नहीं चलती ऐसी लापरवाही हानिकारक है।
अपने अमूल्य जीवन में से लापरवाही वाला घातक 'चलेगा' निकालकर सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी में सम बनाने वाला 'चलेगा' दृढ़ करना है। सफलता के मुक्त गगन में गरूड़ की तरह विहार करना है, न कि मुर्गे की तरह जमीन पर पंख फड़फड़ाते हुए इधर-उधर फिर कर समय व्यर्थ गँवाना है। करोगे न हिम्मत ! शाबाश ! ॐ...... ॐ..... तत्परता, परमात्म-शांति और सदगुणों के विकास सहित जीवन को महकायेंगे... अपने आत्मा को पायेंगे।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या27,28 अंक 161
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें